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उस शख्स के पिता सत्तारूढ़ दल के विधानपार्षद थे और उस शख्स की कलम उसी पार्टी और सत्ता के खिलाफ आग उगलती रही। कई बार धमकियां भी मिलीं पर आजाद कलम ने थमने की जगह और रफ्तार पकड़ ली। जेल की बंदिनी पर स्पेशल रिपोर्ट जब पत्रिका ने छापने से मना कर दिया तो देश के प्रधानमंत्री के नाम खुला पत्र लिख दिया। हारे हुए लोग भी इतिहास गढ़ते हैं की सोच ले चुनाव लड़ा, हार मिली पर मायूस नहीं हुए। एंग्लो-इंडियन के अनोखे गांव मैकलुस्कीगंज पर लिखे उपन्यास को ब्रिटेन हाउस ऑफ़ कॉमंस में पुरस्कृत किया गया। प्रसिद्ध पॉप गायिका ऊषा उथुप की जीवनी’ उल्लास की नाव’ समेत दर्जनों कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। 60 की दहलीज पार करने के बाद भी समाज के बदलाव के लिए समय से जंग का सिलसिला अनवरत जारी है। फिलवक्त आदिवासी समाज के भगवान और आजादी के नायक बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू में पानी न पहुंचने और बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने की मांग को लेकर आवाज बुलंद कर रहे हैं। आज की कहानी कलम की धार से सत्ता और समाज की दृष्टि बदल इंसानियत बचाए और बनाए रखने की मशाल जला, चलने बढ़ने वाले पत्रकार और लेखक विकास कुमार झा की।


मुझे दरभंगा ने निखारा है

अपने बचपन के बारे में बताऊं तो मेरा बचपन क़स्बों के नुक्कड़ से लेकर गांव की पगडंडियों पर खेलते – सीखते बीता। गांव के आम और जामुन के पेड़, दालान के छप्पर पर चढ़ अमरूद तोड़ना। बारिश में खेतों के मेड़ पर भीगते हुए फिसलना। राजा- रानी के किस्सों के साथ राजमहल और किला देखना। नन्हें हाथों में साहित्य की किताबों के साथ साहित्यकारों को देखना – मिलना। कुल मिलाकर गांव और कस्बे के सतरंगी रंगों ने मुझे बचपन में रंगे रखा।

आंखों में सपने भरे। दिल में उत्साह और होंठों पर निश्छल मुस्कान। वैसे तो मेरा पैतृक गांव भारत- नेपाल सीमा पर स्थित श्री खण्डी भिट्ठा है, जिसे भिट्टामोड भी कहते हैं। यह बिहार के सीतामढ़ी जिले में पड़ता है। पिताजी ललितेश्वर झा बिहार विधानपरिषद के सदस्य रहे , वे मजदूर नेता थे। मां विमला झा पटना विश्वविद्यालय के अंतर्गत के पटना वूमेन्स कॉलेज में हिन्दी की विभागाध्यक्ष रहीं । मेरा जन्म सीतामढ़ी जिला के बैरगनिया में 10 जुलाई, 1961 को हुआ था। वहां मेरे नानाजी चिकित्सक के तौर पर कार्यरत थे। फिर मां – पिताजी दरभंगा चले आए और उनके साथ मैं भी । माताजी दरभंगा में रहकर पढ़ाई कर रही थीं। पिताजी राजनीति के जरिए सार्वजनिक जीवन में थे। हम उस वक्त दरभंगा के कटहलबाड़ी मुहल्ले में रहा करते थे। तब यह शहर बिल्कुल ही अलग था। तब इसे शहर कहना भी शायद ठीक नहीं, यह एक कस्बा था उन दिनों। बाजारवाद से दूर। पोखर, खपरैल मकान, महराज का महल और इन सब के साथ ही बंगला और मैथिली साहित्य – संस्कृति की गमक में गुलजार दरभंगा। लोग-बाग भी मिलनसार और सत्कारी। साहित्यिक दृष्टिकोण से दरभंगा को बंगाल का प्रवेश द्वार कहते हैं। तब इस शहर में बंगालियों की बसावट काफी अधिक थी। अगर आप मैथिली संस्कृति को देखें, तो यह बंगाल के आस -पास दिखेगी। बंगला लिपि भी मैथिली से काफी मिलती – जुलती है।

उनके लिए मैं ‘सुभाष बाबू’था

मुझे बचपन में सुभाष चन्द्र बोस काफी आकर्षित करते थे। मैंने पिताजी से सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर लाने की ज़िद की। पिताजी ने दरभंगा के टावर चौक से मेरे लिए सुभाष चंद्र बोस की एक तस्वीर खरीदी और फिर उसे फ्रेम करवा कर ला दिया।। इस तस्वीर को मैंने अपने कमरे में बिस्तर के ठीक सामने लगाया, जहां से हर वक्त उस तस्वीर पर नजर पड़ती रहे। एक बार मैं बीमार पड़ गया। उस वक्त दरभंगा के प्रसिद्ध चिकित्सक थे गोपाल बाबू । पूरा नाम था गोपाल भट्टाचार्य। वो अपनी चमचमाती बेबी ऑस्टिन कार से हमारे घर आए थे। मेरा नब्ज़ देखा और दवाइयां दी। उनकी नजर मेरे बिस्तर के ठीक सामने लगी सुभाष चन्द्र बोस की तस्वीर पर गई। उन्होंने बाबूजी से पूछा कि यहां बच्चे के बिस्तर के ठीक पास सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर क्यों लगी है? तब पिताजी ने मेरे सुभाष चंद्र बोस से लगाव का जिक्र किया और कहा कि इसकी जिद पर यह तस्वीर बाजार से फ्रेम करा यहां लगाई गई है। तब से डॉ गोपाल बाबू मुझे ‘सुभाष बाबू’ कह कर संबोधित करने लगे। मैं उनसे जब भी मिला, वो मुझे इसी नाम से बुलाते और खूब दुलार देते।

गांव ने प्रकृति को महसूसना सिखाया

दरभंगा ने मुझे साहित्य और संस्कृति की संगति दी, तो गांव ने प्रकृति को महसूसना सिखाया। हम बच्चे गांव में खूब मस्ती करते। आम के पेड़ पर चढ़कर फल तोड़ना। अमराई में वनभोज करना। बारिश में खेतों की पगडंडियों से गुजरते हुए भीगना। सरसों के पीले फूलों को छूना। गेहूं की बालियों पर दमकते ओस की बूंद को अपनी हथेलियों पर टघराना। दादाजी की डांट के बावजूद दालान के छप्पर पर चढ़ कर अमरूद तोड़ना। गांव के पास से बहती हुई रत्नावती नदी को निहारते रहना। कुछ कुछ कबीर के निर्गुण की तरह था गांव में बीता बचपन। हरे भरे खेत, नीला आसमान और आंगन में झांकते इजोरिया में किस्सों की महफ़िल। ऐसा ही था मेरा बचपन। हंसी – ख़ुशी और आनंद से भरपूर।


ऐसे थामी पत्रकारिता की राह

मां पहले पढ़ाई करने के लिए दरभंगा में रहीं। इसके बाद दरभंगा में हीं कालेज में पढ़ाने लगीं थीं। चाचा दिनेश्वर झा ‘दीन ‘ भी दरभंगा में प्रोफेसर थे। मैथिली साहित्य में उनकी गहरी समझ थी। पिताजी जी भी साहित्य से लगाव रखते थे। साहित्यिक किताबें घर में उपलब्ध रहती। मेरी रूचि भी लिखने – पढ़ने में लगने लगी। शुरुआत साहित्य से हुई। मैं आज भी पत्रकारिता और साहित्य को अलग-अलग नहीं मानता। दोनों एक ही हैं। पत्रकारिता जल्दबाजी का साहित्य है। बाजारवाद ने पत्रकारिता और साहित्य को एक दूसरे से अलग कर दिया है। खैर…, शुरूआती दिनों में मैं कविताएं, लघुकथाएं आदि लिखता और पत्र पत्रिकाओं में भेज देता। रचनाएं अस्वीकृत होकर लौट आतीं। उस दौर में एक पत्रिका थी ‘सूर्या इंडिया’। मेरी उम्र उस वक्त लगभग 15 साल रही होगी। मैंने एक रिपोर्ट लिखी ‘सूखती नदी के किनारे, मिथिला के मछुआरे’ वह रिपोर्ट ‘सूर्या’ में छपी गई। फिर मैं रिपोर्ट लिखता और वह वहां छप जाती। इसी दौरान मैंने एक कैमरा भी खरीदवाया। फिर मैथिली की रचनाएं मिथिला मिहिर पत्रिका में छपने लगी। यह सब मन को सुकून देने लगा और मन के अंदर का लेखक- पत्रकार मजबूत होने लगा। उसके बाद रिपोर्ताज लिखने का सिलसिला चल पड़ा। करंट, रविवार, साप्ताहिक हिंदुस्तान आदि में मेरे आलेख छपने लगे।


जब सुरेन्द्र प्रताप तक पहुंची शिकायत

उस जमाने में ज्यादा खबरें डाक से भेजी जाती। मेरे आलेख रविवार में छपने लगे थे। रविवार उस दौर की मशहूर साप्ताहिक पत्रिका में शुमार थी। इसके संपादक थे सुरेन्द्र प्रताप सिंह । पिताजी राजनीतिक पृष्ठभूमि से थे और मैं रविवार में छपने लगा सो कुछ लोगों को यह ठीक नहीं लगा। उन लोगों ने रविवार के संपादक एसपी सिंह से मेरी शिकायत की और कहा कि मैं सत्ता रूढ़ पार्टी के पार्षद का बेटा हूं। इसपर एसपी सिंह ने कहा कि उसके पिता कांग्रेस से जुड़े हैं और वह सत्ता के खिलाफ ही खबर लिखता है। यह तो काफी बढ़िया है, मैं उसकी रपटें खूब छापूंगा।

माया का वो दौर

विकास झा बताते हैं कि ‘माया’ के संपादक उस वक्त बाबू लाल शर्मा हुआ करते थे। मेरे एक मित्र कुमार आनंद ‘माया ‘ में लिखते थे। उनकी नौकरी जनसत्ता में दिल्ली में हो गई। उन्होंने मुझे ‘माया’ के लिए लिखने को कहा। यहां मुझे फिक्स रिटेनरशिप पर रखा गया। फिर मैं माया में लिखने छपने लगा। मेरी कई रिपोर्ट कवर स्टोरी बनी। इसी दौर मैंने दिल्ली जाने का मन बनाया। ‘माया’ का प्रकाशन इलाहाबाद से होता था। प्रकाशक थे मित्र प्रकाशन । मैंने सोचा क्यों न जाते वक्त इलाहाबाद होता हुआ जाऊं और माया के संपादक से मिल भी लूं। मैंने वैसा ही किया। जब मैंने दिल्ली जाने की बात बताई, तो बाबू लाल जी ने मेरी नियुक्ति बिहार संवाददाता के रूप में कर दी और मैं इलाहाबाद से ही फिर वापस पटना लौट गया।


अकेले चल पड़ा इनामी डाकू से मिलने

वो वक्त आज की पत्रकारिता से काफी अलग था। स्पेशल रिपोर्ट खूब छपती थी। उस दौर में पत्रकार आपस में भी बेहतर स्टोरी पर बैठकों के दौरान चर्चा करते थे। उस वक्त कैमूर की पहाड़ियों पर मोहन बिंद नामक डाकू का राज था। पुलिस ने उसपर एक लाख का इनाम घोषित किया था। स्थानीय मित्रों ने सुझाया कि मोहन बिंद का इंटरव्यू होना चाहिए। इस काम में काफी खतरा था। उन दिनों संचार के साधन भी काफी कम थे। मैंने मोहन बिंद का इंटरव्यू करने का फैसला किया और खतरों को झेलते हुए कैमूर के पहाड़ पर जा मोहन बिंद का इंटरव्यू किया। यह ‘माया’ की स्पेशल स्टोरी बनी थी।


पिताजी का ग़ुस्सा, मां का हौसला

मैं स्टोरी के सिलसिले में घर से अक्सर बाहर रहता। मैं माता- पिता इकलौता बेटा था। ख़तरनाक जगहों की यात्राएं करता इन सब को लेकर पिताजी मुझसे नाराज़ रहते थे। पहले बच्चों की पिता से सीधी बात नहीं हुआ करती थी, मां माध्यम बनती थीं। पिताजी मां के जरिए मुझ तक अपनी नाराज़गी पहुंचाते। मां हमेशा मेरा हौसला बढ़ाती। जब मैं घर आता और मेरी अस्वीकृत रचनाएं आई होती, तो मां पहले मुझे भोजन करवाती फिर बताती कि कुछ डाक से आया है। वैसे पिताजी भी मुझे मानते बहुत थे पर मुझे लगता है कि उनके मन में मुझे खोने का शायद एक डर जैसा कुछ था, जो गुस्से की वजह बनता।

जब मेरी रिपोर्ट पर बाबूजी को धमकी मिली

कांग्रेस पार्टी तब सत्ता में थी और मेरे पिता उस पार्टी से सदन में। इसके बावजूद मेरी कलम सत्ता के खिलाफ चला करती। पिताजी ने कभी मुझे इसके लिए रोका -टोका नहीं। एक वाकया है जब पिताजी को उनके ही पार्टी के एक दबंग विधायक ने मेरी रिपोर्ट को लेकर धमकी दी थी, पर बाबूजी न झुके, न डरें। मैं इसे अपनी पत्रकारिता का सबसे बड़ा सम्मान मानता हूं। दरअसल, पटना के डाक-बंगला चौराहे पर इमाम परिवार की जमीन एक दबंग कांग्रेसी नेता कब्जा किए बैठे थे। इसे लेकर मैसेज इमाम ने कई मीडिया हाउस का दरवाजा खटखटाया पर कोई इस नेता के खिलाफ खबर छापने को तैयार नहीं था। एक रोज वह मेरे पास कागजात लेकर पहुंचीं और बड़े ही भरोसे से कहा कि मुझे ‘यकीन है कि आप मेरी स्टोरी छापेंगे।’ मैंने वह स्टोरी छापी। माया उस जमाने में प्रमुख राजनीतिक पत्रिका थी। इस खबर से उस कांग्रेसी नेता और पार्टी की खूब किरकिरी हुई। उस नेता ने एक संदेश वाहक को मेरे पिताजी के पास भेजा , उसने मेरे पिताजी की बात फोन द्वारा उस दबंग नेता से करवाई। उक्त दबंग नेता ने पिताजी को फोन पर धमकी देते हुए कहा कि आपके बेटे ने मेरे खिलाफ खबर लिखी है उसका क्या करें। मेरे पिताजी ने बैखौफ होकर कहा – आप उसकी हत्या करवा दीजिए। यह कह पिताजी ने फोन का रिसीवर पटक दिया।

…और लिख दिया खुला पत्र

विकास कुमार झा एक संस्मरण सुनाते हुए कहते हैं कि मैंने बिहार के जेल में बंद महिला कैदियों पर स्टोरी करने की ठानी। माया के एसाइनमेंट डेस्क से बात भी की। जेल में जाना और कैदियों से बात करना आसान न था। हमने तब के राज्य मंत्री को जेल के दौरे के लिए तैयार किया वे दौरे पर जेल के अंदर जाते हम उनके साथ होते। जब तक वो निरीक्षण करते हम महिला कैदियों से बात कर उनकी तस्वीरें ले लेते।‌ हमने कई जेलों का दौरा किया। जो कहानी सामने आयी वो दिल दहला देने वाली थी। महिलाओं के साथ उनके छोटे बच्चे जेल की चारदीवारी में कैद थे। उन्होंने कोई पक्षी नहीं देखा था कौआ को छोड़कर। दर्जनों महिला कैदी डिप्रेशन में थीं। कई बीमार। मैंने स्टोरी ‘माया’ को भेजी पर वहां इसे नॉन पॉलिटिकल स्टोरी बता नहीं छापा गया। मुझे लगा यह जेल में बंद महिला कैदियों के साथ नाइंसाफी होगी। कई रात मुझे नींद नहीं आई। फिर मैंने इस लेख को पत्र का रूप दिया और प्रधानमंत्री के नाम खुला पत्र लिखकर तमाम समाचार पत्रों के संपादक को भेजा। इस खुले पत्र का शीर्षक था शीर्षक था “इंदिरा जी इन औरतों के लिए आंसुओं का इंतजाम कर दीजिए” कई महत्वपूर्ण अखबारों ने इसे बेहतर ढंग से प्रकाशित किया। मेरे इंटरव्यू भी लिए। इन कैदियों की हालत सुधारने का माहौल कायम हुआ। बाद में ‘माया’ को भी खबर न छापने की ग़लती का एहसास हुआ।

विकास कुमार झा आगे बताते हैं कि एकबार मैंने विधानसभा का चुनाव भी लड़ा। तब टाडा का आरोपी दरभंगा से चुनाव लड रहा था। मुझे लगा कि इसका विरोध होना चाहिए, इस कारण मैंने चुनाव में उतरने का निर्णय लिया। हालांकि मुझे हार मिली पर इस हार में भी मन की जीत छुपी थी।

ऐसे लिखा गया मैकलुस्कीगंज

विकास झा बताते हैं कि माया के बिहार प्रमुख के नाते मुझे बिहार की यात्राएं करनी होती थी। इसी दौरान मेरा मैकलुस्कीगंज जाना हुआ ‌ । तब बिहार और झारखंड संयुक्त थे। मैंने मैकलुस्कीगंज पर कई रिपोर्ट लिखें जो प्रकाशित हुई । इन सब के बीच भी लगता कि इस अनोखे जगह की कहानी अधूरी है इस पर उपन्यास लिखा जाना चाहिए। तब मैं उपन्यास लिखने की विधा से परिचित भी नहीं था। मैंने पटना आकर प्रसिद्ध लेखक राबिन शा पुष्प से मैकलुस्कीगंज के ऊपर उपन्यास लिखने का आग्रह किया। तब उनकी सेहत ठीक नहीं चल रही थी। उन्होंने कहा कि इसे लिखने के लिए मुझे वहां जाना पड़ेगा और मेरी तबियत ठीक नहीं। ऐसे में इस कथा के साथ न्याय नहीं हो पाएगा। फिर पुष्प जी से मैंने उपन्यास लिखने की बारीकियों को जाना और इसे लिखना शुरू किया।

बनाया सृष्टि प्रकाशन

जब मैं उपन्यास लिखने लगा तो फिर इसे लेकर कई प्रकाशकों के पास गया। किसी ने मेरे उपन्यास को छापने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसके बाद मैंने अपनी पुत्री सृष्टि के नाम पर सृष्टि प्रकाशन की शुरुआत की और अपने उपन्यास को वहां से प्रकाशित किया। काफी दिनों बाद पटना में राजकमल प्रकाशन के अशोक महेश्वरी जी ने मुझसे कहा कि आप लेखक हैं आपका काम लिखना है पुस्तक छापने में अपनी ऊर्जा जाया न करें। हम आपकी किताबों को छापेंगे। इसके बाद’ मैकलुस्कीगंज’ फिर राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई। तब मैंने इसपर दोबारा से मेहनत की। इसकी पृष्ठ संख्या भी बढ़ी। यह उपन्यास काफी लोकप्रिय हो गया और इसे लेकर ब्रिटेन की संसद में मुझे पुरस्कृत किया गया।


अब बिरसा के गांव में आंदोलन

फिलवक्त विकास कुमार झा आजादी के आंदोलन और आदिवासी समाज के नेता भगवान बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू के विकास के लिए आंदोलन कर रहे हैं। विकास कुमार कहते हैं कि बिरसा के नाम पर झारखंड की हर सरकार भवनों और योजनाओं का नाम तो रख देती है, पर उनके गांव में आज तक पीने का साफ़ पानी पहुंचाने की कोशिश नहीं की गई। हम इस गांव के विकास के लिए एक आंदोलन चला रहे हैं। कम से कम बिरसा मुंडा के वंशजों को इस आजाद देश में साफ पानी तो मिल पाए।

मैं पूरे भारत का लेखक होना चाहता हूं

विकास कुमार झा कहते हैं कि मैं सिर्फ हिन्दी पट्टी का लेखक नहीं रहना चाहता, मैं पूरे भारत का लेखक बनना चाहता हूं।‌ वो आगे कहते हैं कि मुझे बंधना स्वीकार नहीं। एक हिन्दी का लेखक तमिलनाडु,या केरल या गोआ की कहानियां हिन्दी में क्यों नहीं लिख सकता। यह धारणा बदलने की जरूरत है। मैंने कर्नाटक के अंतर्गत
अगुम्बे की कहानी पर ‘वर्षा वन की रूपकथा’ लिखी।

‘उल्लास की नाव’ जो उषा उथुप की जीवनी’ पर आधारित है उसे हिन्दी में लिखा। गोआ के जीवन पर उपन्यास मैंने लिखा। गोआ के बारे में जब आप नजदीक से देखते हैं तो यह भ्रम को टूटता है कि गोआ बस समन्दर के तट पर मस्ती करने की जगह है। यह तो गांव का प्रांत है। यहां गांव हैं, किसान हैं, उनके संघर्ष हैं उनकी परंपरा है। जब कोई लेखक जाकर इसे देखता है और फिर कहानी लिखता है तो लोग इस कहानी नहीं भूलते। गैर हिन्दी भाषी का हिन्दी से अपनत्व बढ़े, यह कोशिश हिंदी के लेखक को करनी चाहिए।

खुद को जिंदा रखना जरूरी

विकास कुमार झा एक पत्रकार और लेखक तो हैं हीं इन सब से ऊपर उन्होंने बचाए रखा है वो हुनर जो एक इंसान को इंसान बने रहने की प्रेरणा देता है। सोशल मीडिया के दीवारों से चिपक अनसोशल होना अब जहां फैशन हो गया है, वहीं सीमित संसाधनों के बीच विकास सुदूर उलिहातू के विकास के लिए तन -मन और कलम से संघर्ष कर रहे हैं। मैकलुस्कीगंज उपन्यास की किट्टी मैम हो या फिर ‘वर्षा वन की रूपकथा ‘ में अगुम्बे का चित्रण , लेखक की मेज पर संवेदनाओं की स्याही, संघर्ष से भरे जीवन में मुस्कराहटों का रेखाचित्र खिंचती हुई दिखती है। शायद यही साहित्य का धर्म है, इंसानियत का धर्म है और है वह आशा जिसपर जिंदगी गीत गाते हुए अनवरत चलती – बढ़ती रहेगी।

(यह आलेख लेखक विकास कुमार झा से विवेक चंद्र की बातचीत पर आधारित है)


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विवेक चंद्र

उम्मीदों के तानों पर जीवन रस के साज बजे आंखों भींगी हो, नम हो पर मन में पूरा आकाश बसे..