कोलकाता की सड़कों पर फर्राटे भरती हुई पीली टैक्सी तो बहुत देखी होगी आपने. लेकिन ये टैक्सी कुछ अलग है. कार की छत पर धातु के कंटेनर हैं. जिनके नीचे मिट्टी, सफेद रेत और पत्थर के टुकड़े रखे गए हैं. मशीनों की मदद से असली हरी घास उगाई गई है, जिसका वजन लगभग 65 किलोग्राम हो जाता है. इसे बनाने में अलग से करीब 22 हजार रूपए खर्च हुए. और इस तरह से यह पीली कार ग्रीन टैक्सी बन गई. माने चलता फिरता बगीचा.
ऐसे मिली प्रेरणा
इस ग्रीन टैक्सी को चलाते हैं धनंजय चक्रवर्ती. उम्र 40 साल. वे कोलकाता के टॉलीगंज करुणामयी स्थित टैक्सी स्टैंड से ऑटो चलाने का काम करते हैं. उनका यह प्रोजेक्ट कई स्टेज में पूरा हो सका. इसकी शुरुआत तीन साल पहले हुई थी जब उन्होंने एक खूबसूरत कांच की बोतल में मनी प्लांट लगाया था जिसे एक यात्री ने पीछे की सीट पर छोड़ दिया था. इसके बाद से चक्रवर्ती ने इसकी देखभाल की और टैक्सी में ही इसका पालन-पोषण किया.
शुरू में लोगों ने कहा.. पागल है
चक्रवर्ती के लिए यह सफर आसान नहीं था. जब उन्होंने अपनी कार को मोडिफाई करना शुरू किया तो साथी ड्राइवरों ने उनका मजाक उड़ाया. ज़्यादातर लोगों ने इसे गहराई से देखने से पहले ही सोचा कि वह इस तरह की बात सोचने के लिए पागल है. लेकिन उन्होंने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और पूरी लगन से अपने कार्य के प्रति लगे रहे.
धनंजय कहते हैं,“इसको लेकर बहुत लोगों ने बहुत कुछ बोला. कुछ लोगों ने कहा कि मैं पागल हो गया हूं. तो किसी ने कहा कि कीड़ा मकोड़ा होगा. तो हमने कहा कि अब लगा दिया तो ठीक है. मर जाएगा तो फेंक देंगे.”
‘सुबुज रथ’या हरा रथ
अब उनकी कार के छत पर चलता फिरता बगीचा है. जिसमें रंग-बिरंगे फूल खिले हैं. कार की डिक्की में गमलों में लगे पौधों के साथ एक छोटी सी हरी गुफा है. यह वाकई एक अद्भुत और विस्मयकारी नजारा होता है. धनंजय इसे ‘सुबुज रथ’ या हरा रथ कहते हैं. आज उनकी इस ग्रीन कार का खूब क्रेज है. हर कोई इस मूविंग पार्क के जरिए सफर जरूर करना चाहता है.
चक्रवर्ती का खास संदेश
इतना ही नहीं, चक्रवर्ती एक और संदेश देते हैं. वे कहते हैं कि पेड़ लगाना ही काफी नहीं है. उनकी देखभाल करना और पालन-पोषण करना भी महत्वपूर्ण है. क्योंकि पेड़ लगाने की पहल तो हर समारोह में हो जाती है लेकिन वही लोग बाद में पेड़ की देखभाल ठीक तरीके से नहीं कर पाते हैं.
भारत का इकलौता शहर कोलकाता जहां आज भी ट्राम चलती है. बीते डेढ़ सौ साल से ये यहां के लोगों की हमसफर रही है. लेकिन अब इसके पहिये शायद थमने वाले हैं.
पश्चिम बंगाल सरकार ट्राम को बंद करना चाहती है. अगर सार्वजनिक परिवहन से ट्राम को हटाया जाता है तो ट्राम प्रेमियों के लिए यह शहर की पहचान को मिटाने जैसा है. कोलकाता का दुर्गा पूजा, रसगुल्ला, विक्टोरिया मेमोरियल, हावड़ा ब्रिज जैसे इस शहर की पहचान है, वैसे ही ट्राम भी यहां की विरासत है जो डेढ़ सौ साल पुराना है.
ट्राम का सफर.. एक नजर
दुनिया के कई शहरों की तरह जब पहली बार कोलकाता में पहली बार ट्राम चली तो उसे इंजन नहीं, बल्कि घोड़े खींचते थे. साल था 1873 जब सियालदह से लेकर अरमेनियन घाट तक करीब चार किलोमीटर तक चलने वाली यह ट्राम सेवा कुछ ही महीनों में बंद कर दी गई. लेकिन इसके 7 साल बाद कोलकाता में फिर से ट्राम की शुरुआत हुई. साल 1882 में ट्राम को चलाने के लिए भाप वाले इंजन का इस्तेमाल हुआ जो काफी सफल रहा. इस तरह कुछ साल चलने के बाद बिजली से चलने वाले ट्राम की शुरुआत साल 1902 से हुई. फिर शहर का ट्राम नेटवर्क बढ़ता चला गया.
यूं थमते गए ट्राम के पहिए
कलकत्ता ट्राम यूजर्स एसोशिएशन (CTUA) बताते हैं कि जब ट्राम नेटवर्क पूरी तरह से काम कर रहा था तब कोलकाता और हावड़ा में इसके 40 से ज्यादा नेटवर्क थे. हावड़ा का अलग ट्राम वे था. अभी सिर्फ तीन रूट ही चल रहे हैं. 2015 तक कोलकाता में 25 रूटों पर ट्राम चल रही थी. बीते कुछ सालों में कोलकाता की सड़कों से ट्राम गायब होते चले गए. कुछ लोग इसे गुजरे जमाने की चीज मानने लगे तो कुछ इसकी धीमी गति को सड़कों पर जाम की वजह बताते हैं.
ट्राम को बंद करना चाहती है बंगाल सरकार
पिछले दिनों कोलकाता हाईकोर्ट में ट्राम से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान पश्चिम बंगाल के परिवहन मंत्री स्नेहाषीश चक्रवर्ती ने ट्राम को बंद करने की योजना के बारे में बताया. हालांकि, इसकी अभी कोई तारीख तय नहीं की गई है. परिवहन मंत्री ने बताया कि ट्राम की धीमी गति पीक आवर्स में सड़कों पर ट्रैफिक जाम का कारण बनती है और मौजूदा वक्त में उसे इसी गति पर चलाए रखना कठिन है, क्योंकि यात्रियों को तेज चलने वाले पब्लिक ट्रांसपोर्ट की जरूरत है. पर्यटकों के लिए मैदान से लेकर एस्प्लानाडे तक जाने वाली ट्राम रूट खुला रहेगा. बाकी रूटों से ट्राम को हटाया जाएगा.
“कोई टाइम टेबल नहीं है. बहुत कम ट्राम चल रही है. आपको पता नहीं होता है कि अगली ट्राम कब आएगी. एक घंटा या दो घंटा बाद. दूसरी बात.. कि पहले ट्राम के लिए रिजर्व ट्रैक होते थे. अब कार मालिकों की सुविधा के लिए उन ट्रैक्स को डिरिजर्व कर दिया गया है. योजना यह है कि लोग ट्राम में नहीं चढ़ें. निश्चित तौर पर आप पूछ सकते हैं कि इससे किसको फायदा है? प्राइवेट टैक्सी, ट्रांसपोर्ट को”.– देबाशीष भट्टाचार्य, अध्यक्ष, CTUA
रफ्तार में बाधा है ट्राम?
जानकार कहते हैं कि जिस रफ्तार से कोलकाता को चलना चाहिए, उस स्पीड के आधा के आधा से भी कम रफ्तार ट्राम की है. ऐसे में शहर को ट्राम के जरिये संभालना मुश्किल है. यानी कोलकाता समय के साथ आगे तो बढ़ा लेकिन इलेक्ट्रिफाई होने के बाद भी ट्राम आगे न बढ़ सकी.
दुनिया के दूसरे शहरों ने संभालकर रखा है ट्राम
दूसरा पहलू यह भी है कि ट्राम को दुनिया के कई देशों ने शान से संभालकर रखा है. उन देशों में ट्राम कोलकाता की तरह नजरअंदाज नहीं.. बल्कि वहां यह आधुनिक परिवहन व्यवस्था का हिस्सा है. आस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर में दुनिया का सबसे पुराना ट्राम नेटवर्क है. 1885 से चल रही मेलबर्न ट्राम आज 20 से ज्यादा रूटों पर चलती है. 500 से ज्यादा ट्राम का नेटवर्क करीब 250 किलोमीटर दूरी को आसान करती है.
विदेशी ट्राम के नेटवर्क से सीखने की जरूरत
वहीं, रूस के शहर सैंट पीटर्सबर्ग में 40 रूटों पर ट्राम चल रही है. इनके जरिए 205 किलोमीटर तक का सफर तय किया जाता है. दुनिया के सबसे बड़े ट्राम नेटवर्क के मामले में तीसरा स्थान जर्मनी के बर्लिन शहर का है, जहां ट्राम के 22 रूट हैं और वे 193 किलोमीटर नेटवर्क का हिस्सा हैं.
ट्राम अतीत नहीं.. भविष्य है
मॉर्डन होती दुनिया में जब विश्व के दूसरे देशों में ट्राम चल सकती है तो सवाल ये है कि भारत के शहर में कोलकाता में क्यों नहीं? जानकार और जिम्मेदार भी चाहते हैं कि कोलकाता में ट्राम चलती रहे लेकिन इसके स्वरूप को थोड़ा बदलना पड़ेगा. इसके चाहने वाले कहते हैं कि ट्राम को शहर का अतीत नहीं बल्कि भविष्य समझना चाहिए.
बिना कैश काउंटर के बेकरी, जहां आप अपनी मर्जी से चीजें खरीद सकते हैं और उचित मूल्य लगाकर भुगतान भी. बिना किसी शुल्क के घंटों तक कायकिंग, अजनबी से मुलाकात और घंटों तक बातचीत. जरा कल्पना कीजिए कि ऐसी जगह कौन सी हो सकती है?
मुफ्त में एडवंचर कहां मिलता है?
देशप्रेम के नाते संभव है आप अपने देश या अपने शहर का नाम बोल सकते हैं. इसे हम कुछ हद तक सही भी मान सकते हैं कि लेकिन तब जब आप खुद से खरीदारी करके खुद उचित दाम लगाकर भुगतान करें. या कोई मुफ्त में आपका मनोरंजन करे. या फिर ट्रेन या बस में सफर करते वक्त आप बेफिक्र होकर अपने सामान या बच्चों को दूसरों के भरोसे छोड़ सकें. संभव है कुछ हद तक आपका जवाब इत्तेफाक से डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन से मिल जाएं.
सिस्टम जो विश्वास के दम पर चलता है
माइलस्टोन में आज कहानी उस शहर की जो विश्वास के दम पर चलता है. जिसका सिस्टम आपसी भरोसे की मिसाल कायम करता है. वो शहर है डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन. बिना किराए की कायकिंग, अजनबी से बढ़िया बातचीत और बिना निर्धारित मूल्य के ब्रेड आपको कोपेनहेगन में मिल सकेगा.
डेढ़ घंटे तक कायकिंग मुफ्त
दो लोगों के लिए 90 मिनट तक कायकिंग मुफ्त है. लेकिन इसके लिए एक शर्त होती है. वह शर्त है नदियों या तालाबों से ज्यादा से ज्यादा कचरा इकट्ठा करना. लोगों को मुफ्त में मनोरंजन चाहिए, इसके लिए वे नीक नीयत के खातिर कचरा बीन लेते हैं. इस दौरान उन्हें प्लास्टिक मिलता है. कभी कभी तो उन्हें मल-मूत्र से भरा थैली भी. लेकिन बावजूद वे इसे करते हैं. मकसद मनोरंजन से ज्यादा स्वच्छता का होता है.
पूरी तरह से भरोसे पर आधारित कॉन्सेप्ट
कचरे बीनने की शर्त पर मुफ्त कायकिंग का आइडिया टोबियास वेबर एंडरसन का है. वह कहते हैं, मैं नदियों में इतना ज्यादा कचरा देखकर दंग रह जाता था. मैं इस दिशा में कुछ करना चाहता था. मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों को इसमें सक्रिय बनाना चाहता था. यह कॉन्सेप्ट पूरी तरह से भरोसे पर आधारित है. जो काफी सफल है.
शहर में यूनिक ह्मयूमन लाइब्रेरी
ड्रीम कायकिंग के जरिए उन्होंने खेल और एडवंचर को पर्यावरण के संरक्षण से जोड़ दिया है. यहां एक दूसरे जिले में एक अनोखी लाइब्रेरी है, जिसे ह्यूमन लाइब्रेरी कहते हैं. जहां आप किताबें तो पढ़ ही सकते हैं, अपने दिल का हाल भी बता सकते हैं.
इस लाइब्रेरी को स्थापित करने वाले रोनी आबेरगल कहते हैं कि उनकी लाइब्रेरी सबके लिए है. यहां आकर आप इंसानियत को खंगाल सकते हैं. उम्मीद है कि आपसी बातचीत से लोग समझेंगे. स्वीकार करेंगे. हम सबको इसकी जरूरत भी है. हम अकेले रहकर ये नहीं कर सकते, इसलिए हमें कंधे से कंधा मिलाकर चलना होगा.
समानता का अधिकार जीवन का सिद्धांत
जिन्होंने डेनमार्क को जीया है, वे कहते हैं कि यहां समानता का अधिकार ही जीवन का सिद्धांत है. यहां विश्वास की नींव पर सबकुछ टिका है. बेकरी जहां कोई कैशियर नहीं होता. यहां ग्राहक आते हैं. अपने जरूरत के फूट आइटम पैक करते हैं और फिर खुद से भुगतान करके चले जाते हैं. इस बेकरी के मालिक मार्टिन फोगेलियस कहते हैं कि ऐसी जगह में अकेले बेकरी चलाने का एकमात्र यही उपाय है. हमें लोगों पर भरोसा करना होगा.
द बिग पोस्ट आपसे यह सवाल पूछता है कि क्या आपके शहर में ऐसी व्यवस्था सफल हो सकती है, जो आपसी भरोसे पर चल सके?
जब देशभर में शक्ति की देवी की आराधना होती है. भजन, कीर्तन, आरती, यज्ञ, हवन आदि-आदि. उसी समय दिल्ली के तीतरपुर इलाके में हजारों की संख्या में ‘रावण’ तैयार हो रहे होते हैं. रावण तैयार होना माने रावण के पुतले जो बनते ही वध के लिए तैयार होते हैं.
विरासत में मिला रावण बनाने का काम
रावण का पुतला बनाने का काम ऐसा है कि आज की पीढ़ी को भी यह विरासत में मिला. उम्मीद है आने वाली पीढ़ियों को भी मिले, जिससे अधर्म पर धर्म का विजय पताका हमेशा लहराता रहे.
ताकि आने वाली पीढ़ियां भी न भूले
ये हैं मदन लाल लोहिया. ये दिल्ली के टैगोर गार्डन के पास तीतरपुर गांव में रहते हैं. रावण के पारंपरिक पुतले बनाते हुए इन्हें 40 साल से भी ज्यादा समय बीत चुका है. आगे की पीढ़ी को भी मदन लाल अपनी यह कला विरासत में दे रहे हैं. उनका बेटा छोटी उम्र से ही पिता से रावण बनाना सीख रहा है.
रावण के पुतलों का भारी डिमांड
अपनी कलाकारी और काम पर इन्हें गर्व है. मदनलाल बताते हैं कि इनकी दुकान न्यू इंडिया रावण वाले से इनके बनाए पुतले आस्ट्रेलिया तक भेजे जा चुके हैं. देश में तो रावण के पुतले के लिए महीनों पहले से ऑर्डर भी मिलते हैं.
5000 से ज्यादा कारीगर बनाते हैं पुतले
राजधानी दिल्ली के पश्चिमी हिस्से में स्थित तीतरपुर में हर साल दशहरे के समय सैकड़ों कारीगर रावण के पुतले बनाते हैं. यह एशिया का सबसे बड़ा पुतला मार्केट है. त्योहार के सीजन में 5 हजार से ज्यादा कारीगर दिन रात एक कर बांस और देसी तरीके से हर साल हजारों की संख्या में पुतले बनाते हैं.
जलता है रावण तो चलता है घर
नवरात्रि के समय से ही तीतरपुर के बाजार में आपको रावण के पुतले दिखने शुरू हो जाएंगे. दुकानदार सड़क किनारे रावण को सजाए रखते हैं. इनके बनाए पुतले जब जलते हैं तो इनके घरों में रोशनी आती है. रोटी का खर्च निकलता है.
त्योहार के सीजन में वैसे तो ये रावण गढ़ते हैं, लेकिन साल के बाकी समय में ये कारीगर कार्पेंटर, इलेक्ट्रिशियन, पेंटर और अन्य तरीके के कामगार होते हैं.
अभी देशभर में नवरात्रि की धूम है. शक्ति की देवी की आराधना हो रही है. स्त्री शक्ति की उपासना. नौ दिनों तक कन्यायों की पूजा आदि-आदि. नारी को पूजने वाले देश में हमें समाज की एक कठोर वास्तविकता पर भी नजर डालनी चाहिए.
NCRB के आंकड़े चिंताजनक
NCRB (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) के 2023 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर 16 मिनट में एक महिला का बलात्कार होता है. जो सिर्फ एक संख्या नहीं बल्कि एक ऐसी समस्या है जो हर दिन कितने इंसानों, परिवारों और समाज को प्रभावित करती है.
कैंडल मार्च के बाद फिर क्या?
ऐसी डराने वाली घटना जब भी सामने आती है तो हम सिर्फ अफसोस और गुस्सा करके फिर चुप हो जाते हैं. बहुत हद तक कैंडल मार्च और कुछ दिनों तक सुर्खियों में निंदा. द बिग पोस्ट पूछता है कि क्या सिर्फ आक्रोश काफी है ऐसी घटनाओं के लिए?
मजबूत कानून और बेहतर सपोर्ट सिस्टम की जरूरत
रेप, दरिंदगी, बलात्कार जो भी कह लें, पर लगाम लगाने के लिए कानूनी सुधार की काफी जरूरत है. एक मजबूत और कठोर कानून और उसे नियमानुसार लागू करने की जरूरत है. लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है एक बेहतर सपोर्ट सिस्टम. किसी भी पीड़ित और सर्वाइवर तक चिकित्सा से लेकर कानूनी और भावनात्मक मदद पहुंचाना.
समाज में हम क्या कर सकते हैं?
खुद को और दूसरों को शिक्षित करना सबसे ज्यादा जरूरी है. इन मुद्दों को समझने के बाद इसे लोगों तक साझा करने की जरूरत है. रेप जैसी घटना की पीड़ितों की मदद के लिए आगे आने की जरूरत है. कभी कभी लोग उनसे दूर भागते हैं. छोटी से छोटी मदद समाज में बड़ा बदलाव लाती है. इससे समानांतर और आने वाली पीढ़ियों को एक संदेश जा सकता है.
सामाजिक बदलाव के लिए रेप जैसी घटना पर लगाम लगाने के लिए आवाज उठाना भी बेहद जरूरी है. कभी कभी अकेले और अलग थलग पड़ने के बाद विरोध की ऐसी आवाजें दब जाती हैं. ऐसे में मिलकर आवाज उठाना जरूरी है.
सबसे महत्वपूर्ण कड़ी होती है हिंसा की रिपोर्ट दर्ज कराना. आरोपियों की हनक, दबदबा के कारण पीड़ित कभी कभी शिकायत तक नहीं दर्ज करा पाते हैं. ऐसी स्थिति में बिना डरे अन्याय के खिलाफ बोलने की जरूरत होती है. मामलों की रिपोर्ट करने की जरूरत होती है.
एक होकर आवाज उठाएं
आम आदमी के तौर पर जागरूकता या बदलाव के आंदोलन में शामिल होना भी बड़ा योगदान होता है. आपकी अलेके की आवाज भले ही कुछ न बदल सके, लेकिन एकता की ताकत बहुत बड़ी होती है.
द बिग पोस्ट की आपसे अपील है कि इस नवरात्रि न सिर्फ शक्ति की उपासना करें, बल्कि नारी शक्ति से एक वादा भी करें. सिर्फ जश्न न मनाएं बल्कि एक ऐसे भविष्य के लिए भी कदम बढ़ाएं जहां हर महिला सुरक्षित, सम्मानित और मूल्यवान महसूस करें.
भारतीय वैज्ञानिक सर जगदीश चंद्र बोस. पेड़ों में जान होती है, यह खोज सर बोस की ही है. साल 1901 में सबसे पहले उन्होंने ही बताया कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है. पेड़ों में जीवन है तो दर्द और दुख भी होता होगा. बिल्कुल! पेड़ों की बीमारी, दुख-दर्द का इलाज करने वाले डॉक्टर्स की कहानी इस रिपोर्ट में आपको बता रहे हैं. जिनकी पहल से शहरों में बढ़ रही है हरियाली.
आर्बरिस्ट, पेड़ों के स्वास्थ्य और उनकी उम्र बढ़ाने के जानकार होते हैं. हम ऐसे ही आर्बरिस्ट से मिले, ईको-विलेज ऑरोविल में. इन्हें बचपन से ही जंगलों से प्यार था और अब इन्होंने उसे ही अपना करियर बना लिया है.
दक्षिण भारत के ऑरवेल शहर में हर पेड़ कीमती है. लिहाजा, जानकारों की एक स्थायी टीम शहर में हरियाली बनाए रखने के लिए काम करती है.
“जब मैं छोटा था तो मेरे पिता एक ट्रीहाउस बना रहे थे. सैंपल के रूप में उन्होंने हमारे घर के पिछवाड़े में पेड़ पर ऐसा एक घर बनाया. वहां जाकर एक अलग ही नजारा देखने को मिला. वो अनुभव ही अलग था. ऐसा लगता था कि तैरती हवा के बीच पेड़ सांस ले रहा है. आज भी मैं वो पल महसूस करता हूं.”– भागीरथ प्रकाश, ट्रीकेयर
पहले प्रकृति से प्रेम हुआ, फिर वही बन गया करियर
भागीरथ प्रकाश, ट्रीकेयर कंपनी के संस्थापक जोनस सुहानेक के साथ मिलकर ऑरोविल के पेड़ों की देखरेख करते हैं. दोनों यहीं पले बढ़े. दोनों ही एक समय बंजर पड़े इस इलाके को हराभरा बनाने की लोकल कम्युनिटी की कोशिशों के गवाह थे. इस बदलाव से उनमें प्रकृति के लिए प्रेम पैदा हुआ और फिर वही उनका करियर बन गया.
क्या है आर्बिकल्चर, समझें
आर्बरिस्ट या आर्बिकल्चर लैटिन शब्द आर्बर से आया है, जिसका मतलब होता है पेड़. दूसरे शब्दों में ट्री प्रोफेशनल. हम लोग ट्री प्रोफेशनल्स हैं. हमलोग प्रकृति और शहरी विकास के बीच संतुलन बनाने वाले लोग हैं.
पिछले साल तमिलनाडु में आए चक्रवात के कारण हजारों की संख्या में पेड़ तहस नहस हो गए. ऑरोविल इसी राज्य में है. जलवायु परिवर्तन की वजह से चक्रवात अब यहां बार बार आने लगे हैं.
ऐसे काम आने लगी तकनीक
ऑरोविल की निवासी अगाथे फॉरक्वेज कहती हैं, चक्रवात के बाद जब मैं अपना पसंदीदा पेड़ को देखने आई तो पाया कि मेरा वह पेड़ दो हिस्सों में बंट गया था. वह बहुत विशाल पेड़ था. लेकिन चक्रवात के बाद मुझे यकीन नहीं हुआ कि मुझे मेरा पसंदीदा पेड़ काटना पड़ेगा. लेकिन किस्मत से ट्रीकेयर के जानकारों के पास इसका एक समाधान था.
हमने अपनी रिसर्च की और पेड़ को हटाने के सबसे सही तरीके के बारे में सोचा. आखिर में हमने ब्रेसिंग तरीका अपनाने के बारे में सोचा. ये तरीका यूरोप में काफी प्रचलित है. हमने एक बहुत लंबे ड्रील की मदद से पूरे पेड़ में ड्रिलिंग की. फिर उसमें थ्रेडेड रॉड घुसा दी. मेटल के कुछ प्लेट लगाए ताकि पेड़ को जोड़ा जा सके.– योनास जुखानेक
कभी-कभी हर पेड़ को बचाया नहीं जा सकता
तमाम कोशिशों के बावजूद हर पेड़ को नहीं बचाया नहीं जा सकता. पेड़ के खराब या बीमार होने के बाद ही उनकी भूमिका आती है. शहरी पर्यावरणों में पेड़ आश्चर्यजनक रूप से बेशक ढल जाएं, लेकिन अक्सर बीमार पड़ जाते हैं या उनकी जड़ें खराब हो जाती हैं.
कंक्रीट की दुुनिया में हरियाली का खास ख्याल
आर्बोरिस्ट आइलैंड लेस्क्योर भी ऑरोविल में ही रहते हैं. वे शहरी पेड़ों के प्रबंधन के विशेषज्ञ हैं. वे नए निर्माण कार्यों में पुराने पेड़ों को संरक्षित करने की वकालत करते हैं. वे कहते हैं, मैं साइट पर जाकर पेड़ों को देखता हूं कि पेड़ कितने समय तक टिका रहेगा. मैं उन्हें लक्ष्य में भी रखता हूं ताकि आर्किटेक्ट की ड्राइंग में उन पेड़ों को जगह मिल सके. हम उनकी सेहत, स्थिति और कितने समय तक टिके रह सकते हैं ये सारी चीजें देखते हैं.
यह तरीका ऐसी हरियाली बढ़ाने में मददगार हैं जो बदलती जलवायु में प्रकृति के संतुलन में काफी हद तक मददगार साबित हो सकता है.
धर्म और मजहब की दीवारें कमजोर पड़ जाती है कला के सामने. भला कला किसी मजहब का कैसे हो सकता है? ज्ञान को धर्म की जंजीर में कैसे बांधा जा सकता है? प्रतिभा को पहचान की मोहताज क्यों होनी चाहिए? इन सब सवालों के जवाब हैं उत्तर प्रदेश के काकोरी के रहने वाले इश्तियाक अली. आइये जानते हैं इनकी रोचक कहानी..
“मंदिर मस्जिद गिरिजाघर ने बांट लिया भगवान को। धरती बांटी, सागर बांटा, मत बांटो इंसान को।।”
मजहब, धर्म पर न जाने ऐसे कितनी रचनाएं की गई हैं. बेड़ियों और बंदिशों से ऊपर उठकर, संदेश बस एक.. इंसानियत की. मानवता का.
मेरा नाम इश्तियाक अली है. मैंने बड़ी गरीबी देखी है. 13 साल की उम्र से लकड़ी का काम कर रहा हूं. मैंने एक से बढ़कर एक काम किए लेकिन नाम नहीं हुआ. मैं अब भी अपने काम में जुटा हूं.- इश्तियाक अली, काष्ठ कलाकार
फटेहाल कपड़े, चेहरे पर झुर्रियां. नंगे पैर. हाथ में छेनी हथौड़ी और लकड़ी के कुछ टुकड़े. घंटों की मेहनत और फिर कला का वो नमूना तैयार हो जाता है, जिसे देखकर दंग रह जाएंगे. नाम इश्तियाक अली. चाचा ठाठ से कहते हैं कि वे सुन्नी मुसलमान हैं लेकिन वे मूर्तियां हिंदू देवी-देवताओं के बनाते हैं.
शिव, गणेश और हनुमान के सहारे जिंदगी
इश्तियाक चाचा शिवजी, गणेश जी और हनुमान जी की मूर्तियां बनाकर अपनी रोजी रोटी कमाते हैं. बचपन से उन्होंने अब तक कई काम किए. जैसे मदाड़ी का खेल दिखाया. गाड़ी साफ किया. मजदूरी की. लेकिन फिर उन्होंने वही चुना जो दिल ने कहा. लकड़ी पर नक्काशी की. वे कहते हैं कि बचपन से ही उन्हें लकड़ी पर कलाकारी करने का बहुत शौक था.
हर मूर्ति एक संदेश देती है
धीरे धीरे उनकी बनाई मूर्तियां लोग पसंद करने लगे. इस तरह उनके अंदर के कलाकार का मनोबल बढ़ता गया. आज इश्तियाक अली की बनाई हर मूर्ति एक संदेश देती है. संदेश कर्मठता का, एकता का और कर्म के प्रति सच्चा निष्ठा का.
‘हिंदू देवताओं की मूर्तियां बनाना आसान नहीं था’
दूसरे मजहब की मूर्तियां बनाने का काम इतना भी आसान नहीं है. इस काम में उन्हें सामाजिक तिरस्कार भी सहना पड़ रहा है. वे कहते हैं, हमें धार्मिक काम का बहुत शौक है. रात में भी हमें देवी-देवता नजर आते हैं. कुछ हमारे भाई लोग हमसे नाराज भी होते हैं. हमसे दुआ-सलाम भी नहीं करते. हमसे कोई बात नहीं करता. हमारा काम अब सिर्फ धर्म है.
इश्तियाक चाचा के हुनर को पहचान दें
इश्तियाक चाचा चाहते हैं कि उनकी कला को सम्मान मिले. इस कलाकारी के लिए उनका नाम हो. उनकी अपील है कि लखनऊ के प्रमुख चौक चौराहों से गुजरते हुए जब कभी उनसे मुलाकात हो तो मूर्तियां जरूर खरीदें. इनसे उन्हें काफी मदद मिलेगी साथ ही पहचान भी.
इंसान को जिंदा रहने के लिए जिन बुनियादी चीजों की जरूरत होती है, उनमें रोटी, कपड़ा और मकान तीन हैं. लोगों की इन्हीं जरूरतों को पूरा करने में 65 साल के गगन पेटल लगे हैं. पिछले 38 साल से वे मुहिम चलाकर जरूरतमंदों को चेहरे पर मुस्कान लाने का काम कर रहे हैं.
ओडिशा के भुवनेश्वर के आदिवासी इलाके में रहने वाले गगन पेटल का घर लोगों की पुरानी चीजों का एक बैंक बन चुका है. जहां आपको कपड़े, जूते, कंबल, चादर सहित खिलौने और घर का टूटा-फूटा बहुत सामान मिलेगा. गगन और उनकी पत्नी इन पुराने सामान की सफाई करके इसे बिल्कुल नया बनाकर उन लोगों तक पहुंचा रहे हैं, जिन्हें इनकी बेहद जरूरत है.
जब मांओं ने हाथ जोड़ा तो खुली आंखें
दरअसल, डाक विभाग में काम करने वाले गगन ने साल 1985 में कुछ एक्स्ट्रा आय के लिए बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू किया था. इस दौरान उन्होंने देखा कि भुवनेश्वर के आसपास रहनेवाले आदिवासी बच्चों के पास पहनने के लिए ढंग के कपड़े तक नहीं हैं. इन बच्चों की मांएं हमेशा गगन से बच्चों को फ्री में पढ़ाने की विनती करतीं.
बेकार के कपड़े दान करने की अपील
अपनी नौकरी के कारण गगन बच्चों को पढ़ाने का काम तो लंबे समय तक नहीं कर पाए. लेकिन इन परिवारों की मदद करने का फैसला उन्होंने तभी कर लिया. इसके बाद गगन ने अपने दोस्तों और जान पहचान वाले लोगों से उन कपड़ों और सामानों को डोनेट करने की अपील की जिसे वे इस्तेमाल नहीं करते. फिर लोगों से मिले कपड़ों को गगन और उनकी पत्नी खुद धोकर सिलाई-बुनाई करके बिल्कुल नया बनाकर जरूरतमंद लोगों को देने में जुट गए.
लोग जुड़ते गए.. कारवां बनता गया
फिर क्या, लोग जुड़ते गए और कारवां बनता गया. लोग फोन करके और गगन के पास जाकर पुराने कपड़ों के साथ-साथ बच्चों के खिलौने, पुराने बर्तन, जूते आदि जमा करने लगे. जब गगन के पास सामान का कलेक्शन बढ़ जाता तो वे खुद गाड़ी में सामान भरकर जरूरतमंदों के बीच बांटने को निकल जाते.
कलेक्शन सेंटर खोलना चाहते हैं गगन
यह काम गगन पिछले कई सालों से कर रहे हैं जिसका फायदा हजारों जरूरतमंदों तक पहुंच रहा है. अब गगन इस काम के लिए एक कलेक्शन सेंटर शुरू करना चाहते हैं ताकि उनका यह काम सालों साल उनके जाने के बाद भी ऐसा ही चलता रहे.
समाज में हर जरूरतमंद को ऐसे किसी गगन की जरूरत हो सकती है. वो आप भी हो सकते हैं. द बिग पोस्ट यह अपील भी करता है कि आप भी किसी के चेहरे पर मुस्कान लाने की वजह बनें.
बाढ़, एक ऐसी विभीषिका जो लीलने लगती हैं जिंदगियां. जिंदगी के साधन. घर-आंगन. खेत-खलिहान. मकान-दुकान. और न जाने कितनी मुसीबतें जन्म लेती हैं इस एक मुसीबत के साथ. घरों में रहने वाले लोग सड़क पर होते हैं. अन्न-धन से भरपूर परिवार, दाने-दाने को मोहताज हो जाता है. ऐसी विभीषिका का निजात क्या है?
‘फ्लोटिंग हाउस’ ने खींचा देश का ध्यान
बिहार जैसे राज्य के लिए बाढ़ नियति है. हर साल आती है. चंद दिनों में सब कुछ उजाड़कर चली जाती है. ऐसे में हर साल यहां के लोग शुरू करते हैं जिंदगी का ‘स्टार्टअप’. बिहार अभी भी बाढ़ के कहर से जूझ रहा है. आनन-फानन के इस दौर में एक तस्वीर ने पूरे देश की नजर अपनी ओर खींचा. तस्वीर ‘फ्लोटिंग हाउस’ की.
बक्सर के प्रशांत ने तैयार किया घर
दरअसल, बिहार के बक्सर जिले के प्रशांत कुमार ने एक अनोखा घर तैयार किया है, जो हर साल आने वाली बाढ़ से प्रभावित नहीं होगा. बाढ़ आने पर यह घर डूबने के बजाय तैरने लगेगा. इस घर को गंगा नदी के रास्ते बक्सर से पटना तक ले जाया जा रहा है और उम्मीद है कि यह 15 अक्टूबर तक पटना पहुंच जाएगा. फिलहाल यह आरा में है.
पूरी तरह आत्मनिर्भर है यह हाउस
प्रशांत कुमार और उनकी टीम ने इस घर को बनाने के लिए मिट्टी, घास-फूस, सुरकी-चूना, बांस और कचरे से बनी चीजों का इस्तेमाल किया है. यह घर सर्दियों में गर्म और गर्मियों में ठंडा रहता है और खुद के लिए सौर ऊर्जा, भोजन और स्वच्छ पानी की व्यवस्था कर सकता है.
कम लागत वाली देशी तकनीक से निर्माण
यह ‘लो टेक’ यानी कम लागत वाली देशी तकनीक से बनाया गया है, ताकि लोग आसानी से अपने लिए ऐसे घर बना सकें. इसमें मानव मल को पानी और गैस में बदलने की भी व्यवस्था की गई है, जिससे इसे और अधिक पर्यावरण-अनुकूल बनाया गया है.
पानी में लंबे समय तक सुरक्षित
प्रशांत बताते हैं कि इस घर को बनाने में पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया है. इसके निर्माण में सस्ते और टिकाऊ ईंटों का उपयोग किया गया है, जिन्हें खुद ही बनाया गया है. साथ ही इंजीनियरों ने मिट्टी का एक ऐसा प्लास्टर भी तैयार किया है, जो पानी से प्रभावित नहीं होता. इस तकनीक के कारण यह घर न सिर्फ बाढ़ में सुरक्षित है, बल्कि लंबे समय तक टिकाऊ भी है.
पानी के रास्ते बक्सर से आरा पहुंचा घर
इंजीनियर प्रशांत कुमार मूलरूप से भोजपुर जिले के बभनगावां गांव के रहने वाले हैं. वे इसे भोजपुर जिले में ही बनाना चाहते थे, लेकिन फिर इस प्रोजेक्ट को बक्सर में पूरा किया गया और पानी के रास्ते ही आरा लाया गया.
भविष्य में हो सकता है खूब इस्तेमाल
इस घर की खासियत यह है कि इसे पानी के ऊपर नाव से खींचकर किसी भी स्थान पर ले जाया जा सकता है. इसकी टेस्टिंग पहले ही सफलतापूर्वक की जा चुकी है. यह घर चलंत हाउसबोट के रूप में कार्य कर सकता है, जो बाढ़ जैसी आपातकालीन स्थिति में चलते-फिरते हॉस्पिटल या स्टोरेज हाउस के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. इसके साथ ही, इसे इको टूरिज्म का उदाहरण भी माना जा सकता है, जो पर्यावरण संरक्षण और नवाचार का अनूठा मिश्रण है.
भूख मिटाने के लिए लिए कभी सूखी रोटी पानी में डूबो कर खाते। । खास जरूरत के लिए सहकर्मी से 100 रूपए उधार मांगा, जब पैसे होते हुए भी सहकर्मी ने रूपए उधार नहीं दिए। तब भीगी आंखों ने एक सपना गढा और हृदय ने मजबूत हो इस सपने को जमीं पर उतारने का संकल्प लिया। आज छोटे भाई नितिन के साथ कैफे चेन , BATIDO के मालिक हैं। ब्यूटी और कास्मेटिक प्रोडक्ट का भी बिजनेस बुलंदी पर है। महज 8 हजार की पगार पर नौकरी करने वाले निखिल बाबू ने भाई नितिन के साथ मिलकर कैसे खड़ा किया भारत की मशहूर कैफे BATIDO.का साम्राज्य, इस लेख में पढ़िए उनकी दिलचस्प कहानी…
वो बहुत संघर्ष के दिन थे तब पटना में एक छोटे से कमरे में हम पांच लोग रहते थे। फर्श पर ही सोना होता था। सैलून में काम करता था। थोड़े से जो पैसे मिलते उसे घर भेज देता। मैंने भूख मिटाने के लिए पानी में सूखी रोटी डूबा कर कई-कई दिनों तक खाएं हैं।
बस मन में यह भाव रहता था कि मुझे और भी बेहतर करना है। खुब मेहनत करनी है।
अपने पुराने दिनों को याद करते हुए निखिल बाबू की आंखें डबडबा जाती है।
और केरल के निखिल को पटना से प्यार हो गया
निखिल अपने जीवन संघर्ष की दास्तान आगे बताते हुए कहते हैं कि हम केरल के मूल निवासी हैं। बिहार आना एक इत्तेफाक जैसा था। शायद फिर किस्मत ने मेरी सफलता के लिए बिहार को ही चुना था। केरल में बिहार का नाम आते ही लोग अजीब सा चेहरा बना लेते थे। कुछ लोग बिहार के नाम पर डरावनी कहानियां सुनाते तो कुछ इसे पिछड़ा प्रदेश बनाते। मुझे भी जब पहली बार इंटर्नशिप के लिए बिहार भेजा गया तो मन में कई तरह के सवाल थे , डर भी था। जब यहां आया तो देखा ऐसा कुछ भी नहीं। यहां के लोग काफी मिलनसार और मददगार हैं। हां इक्के-दुक्के नकारात्मक लोग तो आपको हर प्रदेश में मिल जाएंगे जो यहां भी हैं। आप सोचिए मुझे बिजनेस में यहां के लोगों का समर्थन नहीं मिलता तो मैं केरल का आदमी यहां कैसे अपना बिजनेस खड़ा कर पाता। , रहन सहन केरल और बिहार का बहुत अलग है , शुरू शुरू में भाषा की समस्या भी आती थी पर जब दिल की भाषा मिलती हो तो सब खुबसूरत हो जाता है। अब मुझे यह लगता ही नहीं कि यह मेरा बर्थ प्लेस या अपना स्टेट नहीं है। यहां के लोगों मेरे मुझे दुख -सुख में साथ दिया है। सच कहूं तो अब पटना और बिहार मेरे दिल की धड़कन बन चुके हैं। पटना से इतना प्यार हो गया है वो गीत है न कि’ जीना यहां मरना यहां। लव यू पटना।
आठ हजार की पगार से करोड़ों का सफर
निखिल बताते हैं कि मेरा जन्म केरल में जन्म हुआ और शिक्षा – दीक्षा भी केरल से ही हुई।माता जी स्कूल में अध्यापिका थीं और पिताजी दुबई की एक कंपनी में काम करते थे। बाद में पिताजी ने केरल में ही अपना खुद का छोटा सा बिजनेस कर लिया। सब कुछ ठीक चल रहा था पर इंटर की पढ़ाई करने के दौरान ही मेरे जीवन की एक दुखद घटना घटी। पिताजी का निधन हो गया। इस घटना ने मुझे अंदर से तोड़ दिया। मेरा एक छोटा भाई भी है। मुझे इसके बाद हर वक्त घर की चिंता सताती रहती। मुझे लगता की मेरे कंधे पर घर की जिम्मेदारी है। मैंने अपने सभी सपनों का त्याग कर दिया और तकनीकी शिक्षा की और कदम बढ़ाया। अब मैं जल्द से जल्द पैसा कमाना चाहता था ताकि घर की जिम्मेदारी उठा सकूं।
इसके लिए मैंने फायर सेफ्टी का कोर्स किया। फिर कई शॉर्ट टर्म कोर्सेज किए । मकसद यह रहा कि मुझे जल्द काम मिल जाए । इसी क्रम में केरल के कोच्चि से 6 माह का कोर्स सैलून इंडस्ट्री मैनेजमेंट का किया। फिर स्पा मैनेजमेंट का क्रैश कोर्स किया। 6 माह के सैलून इंडस्ट्री के कोर्स के दौरान ही जर्मनी की एक कंपनी ने हमारे संस्थान से कुल 40 छात्रों में से दो छात्रों का चुनाव कैंपस सलेक्शन के तौर पर किया। उपर वाले का आशीर्वाद था कि उन दो छात्रों में एक छात्र मैं भी था।
थमा नहीं संघर्ष का सफर
निखिल बाबू आगे कहते हैं कि कैंपस सलेक्शन में चुने जाने के बाद मुझे लगा कि अब सुख वाले दिन आ गए पर किस्मत के दरवाजे पर अभी भी संघर्ष ने हीं दस्तक दी थी । हमें बताया गया कि इंटर्नशिप के लिए हमें बिहार भेजा जाएगा। उन दिनों बिहार का नाम आते ही लोगों ने मुझे डरना शुरू कर दिया। मैं खुद भी सहमा हुआ था पर परिवार का हितों के लिए मेरा कमाना जरूरी था सो मैंने इंटर्नशिप के लिए हां कर दिया और बिहार की राजधानी पटना आ गया।
मैंने यहां एक सैलून में इंटर्नशिप की और इसके बाद वही काम भी मिल गया। मुझे तब 8 हजार रुपए पगार मिलती थी। मैं ज्यादा से ज्यादा पैसा अपने घर भेज देता था। यहां का संघर्ष काफी कठिन था। जैसा की मैंने पहले बताया कि हम पांच लोग एक छोटे से कमरे में रहते थे और पैसे खत्म हो जाते सब्जी , दाल कुछ भी नहीं होती। सुखी रोटी हलक से उतरती नहीं तो मैं रोटी को पानी के साथ डूबों कर खाता था। यह क्रम लंबा चला । कभी कमरे में मित्र अपनी सब्जी में से शेयर कर देते। मैं सैलून में खुब मन लगाकर काम करता था। बाद में मेरे काम से प्रभावित हो कर सैलून वाले ने मेरी तनख्वाह में कुछ इजाफा भी किया पर यह अब भी प्रयाप्त नहीं था।
घर दूर और छुट्टी मिलती नहीं
निखिल बताते हैं कि सैलून के काम में छुट्टी बहुत कम मिलती थी । साल में एक बार 10 दिनों की छुट्टी मिलती 6 दिन तो पटना से केरल और केरल से पटना आने जाने में ही निकल जाते।
इस घटना ने बदल दी जिंदगी
तमाम संघर्ष के बीच समय और जिंदगी दोनों बीत रही थी। इस बीच एक ऐसी घटना घटी जिसने मेरी जिंदगी बदल दी। मैं जिस सैलून में काम करता था वहां मेरे एक सीनियर थे। उनकी तनख्वाह भी काफी ज्यादा थी और टीप भी उन्हें खुब मिला करते। एक बार मुझे 100 रुपए की जरूरत थी और मेरे पास पैसे नहीं थे।
मैंने उनसे 100 रुपए उधार मांगे। मुझे मालूम था कि उनके पास पैसे हैं पर उन्होंने मुझे 100 रूपए नहीं दिए। मुझे काफी दुख हुआ। उसी वक्त मन में विचार आया कि मुझे ज्यादा पैसा कमाना है। कुछ कर दिखाना है। मैंने मन में संकल्प लिया। पूंजी थी नहीं। न कोई बैकअप, न कोई गॉडफादर पर एक विश्वास था कि सफलता मिलेगी जरूर। मैं सैलून का काम अच्छे से करता और खाली समय में दिमाग में बिजनेस आइडिया ढूंढता। मैंने बचपन में पिताजी को बिजनेस करते देखा था । मुझे भरोसा था कि बिजनेस तो मैं कर ही लूंगा।
फिर जोड़ा एक एक पैसा
100रूपये उधार न देने की इस घटना ने निखिल को अंदर से तोड़ दिया था। अब वे भारी मन से खुद का हौसला और एक एक पैसा जोड़ने लगे। उन दिनों सैलून इंडस्ट्री काफी तेजी से उभर रही थी। उसमें इंटिरियर से लेकर स्टोर फर्नीचर आदि की जरूरत पड़ती थी। मैंने समय निकाल कई स्थानीय नए सैलून का भ्रमण किया। फिर सैलून निर्माण की सामग्री उपलब्ध करवाने वाली कंपनी के बारे में जानकारी हासिल की। एक कंपनी मिली CASA ये काफी कम दर पर स्टाइलिस्ट सैलून सॉल्यूशन उपलब्ध कराती थी। संयोग यह कि उनका बिहार में कोई बंदा नहीं था। मैंने नंबर खंगाल वहां फोन मिलाया और सेल्स के लिए बात की। बात जम गई। उन्होंने मुझे कुछ कैटलॉग PDF भेजा।
CASA का पहला ऑर्डर
निखिल कहते हैं कि अब चुनौतियां बड़ी थी। सैलून की नौकरी भी तत्काल नहीं छोड़ सकता था। क्योंकि दो वक्त की रोटी उससे ही चल रही थी। इधर नया काम बढ़ाने के लिए समय चाहिए था। अब मैंने और मेहनत शुरू कर दी। मैं छुट्टी के दिन चार बजे सुबह उठकर बस से बिहार के दूसरे शहरों में जाता । नए सैलून विजिट करता। उन्हें CASA का प्रोडक्ट दिखाता। यह क्रम चलता रहा। चार माह के बाद मुझे पहला आर्डर मिला। यह बड़ा ऑर्डर था। मुझे 75% एडवांस पैसे मिले। मैंने यह पैसा कासा को भेजा और कहा मेरा कमिशन वह अपने पास ही रखे। फिर दूसरा तीसरा ऑर्डर दिया। पैसा उन्हीं के पास छोड़ दिया।
अब मेरे पास थी ब्यूटी ग्लैक्सी
मैं निरंतर अपने काम में जुटा रहा। बोरिंग रोड गली में एक छोटी सी जगह ली। CASA वालों के पास कमिशन के जमा पैसे के बदले ब्यूटी प्रोडक्ट्स मंगवाया और अपनी पहली दूकान ब्यूटी ग्लैक्सी खोली। मेरे सपनों की पहली मंजिल थी यह। ब्यूटी ग्लैक्सी में सेल काफी अच्छा हो रहा था। इधर CASA के पास मैं लगातार ऑर्डर भेज रहा था मुझे पता भी नहीं चला कि कब मैं बिहार और झारखंड का सबसे अधिक सेल करने वाला बन गया। CASA ने मुझे सम्मानित किया। अब हम बिहार और झारखंड में CASA के डिस्ट्रीब्यूटर हैं। काम बढ़ता गया तो पहले की जगह कम पड़ने लगी फिर उसे गोदाम बनाया और एक बड़ी सी जगह ली ब्यूटी ग्लैक्सी के लिए। CASA ने यहां भी मदद की और दस लाख का सामान भेजा। ब्यूटी ग्लैक्सी की ब्यूटी अब और निखर गई।
निखिल -नितिन की जोड़ी वाला BATIDO
निखिल बताते हैं कि मेरा बिजनेस बढ़ रहा था। उधर छोटे भाई नितिन की बीटेक की पढ़ाई भी हो चुकी थी। वह वहां नौकरी भी कर रहा था। मैंने भाई को भी केरल से बिहार बुला लिया। अब मेरा काफी काम भाई संभालने लगा। हमने बिजनेस को टेक्नोलॉजी से जोड़ा। इसी समय भाई नितिन ने यहां के मार्केट का रिसर्च किया तो पाया कि यहां के युवाओं में शेक के प्रति दिलचस्पी काफी है पर यहां बेहतर तरीके के शेक उपलब्ध नहीं हैं एक दो बड़े महंगें ब्रांड को छोड़कर। फिर भाई के साथ बातचीत हुई। भाई ने सेक के फ्लेवर पर काफी काम किया। अब हम एक नये वैंचर के लिए तैयार थे।
स्पेनिश नाम स्वाद लाजवाब
निखिल बाबू के भाई नितिन बताते हैं कि हमें पटना के बोरिंग रोड़ में गोल्ड जिम के पास यह जगह मिली। ब्रांड के लिए हमने नाम रखा BATIDO यह एक स्पेनिश भाषा का शब्द है जिसका मतलब मिल्क शेक। होता है। दरअसल हम यहां युवाओं को कुछ नया देना चाहते थे वो भी उनके ही बजट में।
नितिन आगे कहते हैं कि हम बिहार में पहली बार शेक में डिफरेंट फ्लेवर लेकर आए। हमने लीची, आम जैसे वेरिएशन की शुरुआत शेक में की। दूसरे ब्रांड जहां 600 एम एल के लिए 180 रूपये लेते हैं वहीं हम 60 रूपए में 600 एम एल गुणवत्ता पूर्ण शेक उपलब्ध करवाते हैं। नितिन आगे बताते हैं कि हमने पहले दिन से ही गुणवत्ता का ख्याल रखा । ग्लास पर अपना लोगो लगाया। धीरे-धीरे दो तीन माह में माउथ पब्लिसिटी से ही हमारे यहां ग्राहक बढ़ते गए। आज हमारे यहां सबसे अधिक वैसे ग्राहक हैं जो रेगुलर यहां आते हैं।
आप एक बार हमारे प्रोडक्ट का स्वाद चख कर देखिए। आप खुद अगली बार जरूर आएंगे। हम लगातार यहां के जायके में नए प्रयोग करते रहते हैं। व्यवहार, बजट ओर स्वाद तीनों मिलकर हमें उन्नत बनाते हैं। जब लोगों का विश्वास बढ़ता गया तो हमने इसके चेन बनाने के उपर ध्यान दिया आज भारत के 6 राज्यों के प्रमुख शहर में 250 आइटम के साथ हमारी मौजूदगी है। हम इसे दुनिया भर में फैलाना चाहते हैं।
बिहारी जीवनसाथी ‘स्नेहा ‘का सहयोग
निखिल यह भी बताते हैं कि इस यात्रा में उनकी जीवन संगिनी स्नेहा श्री भारती का भी काफी सहयोग मिला। वे कहते हैं कि स्नेहा से हमारी शादी लव मैरिज है। वह बिहार के दरभंगा की रहने वाली हैं। हमारी शादी दो राज्यों, दो संस्कृतियों और दो धर्मों का मिलन है। स्नेहा से शादी के पहले 4 साल तक हम रिलेशनशिप में रहे। मुझे अब भी मलाल है कि मैं उसे उन दिनों बिजनेस के कारण काफी कम वक्त देता था।
उसने बस स्टैंड पर मेरे लिए घंटों इंतजार किया है। आज मैं जो भी हूं उसमें स्नेहा की भूमिका अहम है। उसका सहयोग अहम है। आज हमारा दो साल का बेटा है इयान।
संयुक्त परिवार खुशियों की चाभी
निखिल बाबू कहते हैं कि अब मां भी हम लोगों के साथ ही रहतीं हैं। हमारा परिवार संयुक्त रूप से साथ रहता है। पैसा जीवन के लिए जितना अहम है उससे अधिक आपका परिवार। संयुक्त परिवार खुशियों की चाभी की तरह हैं। यहां हर कोई एक दूसरे का ख्याल रखता है।
जल्द आएंगे नए प्रोजेक्ट
निखिल और नितिन बताते हैं कि हम जल्द नये प्रोजेक्ट को सामने लेकर आने वाले हैं। हमने B bowl की नई श्रृंखला भी प्रारंभ की है । हम B bowl को भी देश भर में लेकर जाना चाहते हैं।
वे आगे कहते हैं कि हम यह कभी नहीं छुपाते की हमने बिहार की धरती से अपनी शुरुआत की है। हम चाहते हैं कि भारत के लोगों को रोजगार देने में हमारी भी भूमिका हो। हम दुनिया के सबसे युवा देश के नागरिक हैं हमारे सपने भी जवां होने चाहिए और हौसला भी। युवा खुद को कोसने की जगह अपने को रोजगार की ओर बढ़ाएं। बिजनेस या नौकरी जो भी चुनें दिल से करें तभी आपको खुशी भी दिल की गहराइयों से महसूस होगी।
निखिल और नितिन वैसे युवाओं के लिए प्रेरणा श्रोत है जो अपना व्यवसाय तो करना चाहते हैं पर पूंजी और अन्य संसाधनों के आभाव का रोना रो उसे शुरू नहीं कर पाते। यह कहानी बताती है कि अगर मन में मजबूत इच्छाशक्ति हो तो सफलता मिलकर ही रहेगी।