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देश का पहला आजाद गांव, जो सन् 1942 में ही हो गया था स्वतंत्र, पढ़ें आजादी के दीवानों की कहानी

जब देश के हर कोने में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद हो रही थी. सालों पहले बोए गए क्रांति के बीज की फसल काटने का वक्त नजदीक आ रहा था. आंगल सत्ता द्वारा पहनाई गई बेड़ियां खुलने वाली थी. देश का हर तबका अपने सिरे से आजादी की लड़ाई लड़ रहा था. तब गांव के 6 बहादुर ग्रामीणों को अंग्रेजी सरकार ने फांसी से लटका दिया था. ऐसे हालात में सन् 1942 में ही उस गांव ने अपने शौर्य और हिम्मत के बूते खुद को आजाद घोषित किया. माइलस्टोन में आज पढ़िए देश के पहले ‘आजाद गांव’ की कहानी…

साल 1942. जब महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया था, तब कर्नाटक के शिवमोगा के एक छोटे से गांव ने खुद ही अंग्रेजों से स्वतंत्र होने का फैसला कर लिया था. इस गांव का नाम था ‘ईसुरु’ जो स्वतंत्र होने वाला देश का पहला गांव बना. आजादी के बाद गांव में स्वराज सरकार के नाम का बोर्ड भी लगाया गया और तिरंगा भी फहराया गया था.

6 बहादुरों की फांसी के बाद बौखलाए गांववाले

गांव में क्रांति की आग तो पहले से ही लगी थी. तेज होते स्वतंत्रता के आंदोलन के साथ गांववालों के जोश भी आसमान चढ़ रहे थे. शायद जितनी लड़ाई दिल्ली और कोलकाता में लड़ी जा रही थी, उससे ज्यादा इन गांव में भी. बौखलाहट में अंग्रेजी सरकार ने ईसुरू के 6 बहादुर ग्रामीणों को फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया, जिसके बाद गांव उबल उठा. और फिर ये हुआ जो इस देश का इतिहास बन गया.

आजादी के बाद नियुक्तियां भी हुईं

इस गांव के 16 वर्षीय जयन्ना और मालपैया को तहसीलदार और उप-निरीक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था. उस दौरान यहां के साहूकार नेता बसवेनप्पा ने सोच समझकर इन दोनों को नियुक्त करने का फैसला किया, क्योंकि वे नाबालिग थे इसलिए उन्हें जेल नहीं भेजा जा सका.

गांववालों ने मिलकर अंग्रेजी प्रशासन की पूरी तरह से उपेक्षा करते हुए गांव के लिए नियमों का एक सेट भी पेश किया. जो अंग्रेजी राजस्व अधिकारी इकट्ठा करने आए थे, उन्हें किसानों ने वापस भेज दिया और टैक्स के दस्तावेजों को फाड़ दिया.

मंदिरों में आज भी ‘जिंदा’ हैं जवान

ईसुरु विद्रोह की खबर सुनकर मैसूर के महाराजा जयचामराज वोडेयार ने अंग्रेजों से कहा, येसुरु कोट्टारु एसुरू कोदेवु यानी हम आपको कई गांव दे सकते हैं लेकिन ईसुरु नहीं. महाराजा ने यह भांप लिया था कि ईसुरु ने जो किया था उससे देश के अन्य गांवों को एकता का संदेश जाएगा और वह दिन दूर नहीं जब इस धरती से अंग्रेज विदा होंगे. आज भी यहां बने मंदिर में देश के उन क्रांतिकारों की तस्वीरें रखी हैं, जिन्होंने ब्रिटिश शासन से देश को आजाद कराने के के लिए अपने जीवन का बलिदान दे दिया.

शहीदों को नमन

ईसुरु में एक पत्थर पर गोरप्पा,  ईशवरप्पा,  जिनहल्ली,  मलप्पा,  सूर्यानारायणाचर,  बडकहल्ली हलप्पा और गौडरशंकरप्पा के नाम लिखे हैं, जिन्हें 8 मार्च, 1943 में ब्रिटिश राज के खिलाफ बगावत करने पर फांसी की सजा दे दी गई थी. द बिग पोस्ट ऐसे सेनानियों को नमन करता है.

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जानें ‘हाथी गांव’ की दिलचस्प कहानी.. जहां हाथियों के लिए बने हैं घर, तालाब और अस्पताल

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    आप यह जानकर निश्चित ही थोड़ा चकित होंगे कि कोई गांव सिर्फ हाथियों के लिए बसाया गया है. जी हां, उस हाथी गांव में न सिर्फ हाथी रहते हैं, बल्कि उनके लिए शानदार घर, तालाब और अस्पताल जैसी व्यवस्था भी की गई है. तो आइये द बिग पोस्ट के साथ आपको हाथी गांव की सैर कराते हैं.

    गांव में 80 है हाथियों की आबादी

    राजस्थान की राजधानी जयपुर से जब आमेर की तरफ बढ़ेंगे तो तकरीबन 20 किलोमीटर दूर आमेर किले के पास यह गांव आपको मिलेगा. गांव का नाम ही है ‘हाथी गांव’. इस गांव के बारे में जब हम किसी आंकड़े या सुविधाओं की बात करें तो आप आंख मूंदकर हाथियों की ही समझिएगा. गांव की आबादी लगभग 80 है. यहां हाथियों के रहने के लिए सारे प्रबंध हैं, जिसे देखने देश ही नहीं, बल्कि विदेशी सैलानी भी यहां आते हैं.

    हाथियों के लिए फ्लैट, तालाब और हॉस्पिटल हैं

    हां, इस भ्रम में मत रहिएगा कि किसी आम गांव की तरह आप हाथी गांव के भी दो-तीन चक्कर देखते-देखते लगा सकते हैं. यह गांव पूरे 100 एकड़ में फैला हुआ है. जाहिर है गांव के निवासी भी तो ऐरावत महाराज हैं. खैर गांव घूमेंगे तो पता चलेगा कि यहां हाथियों के लिए रहने के लिए शानदार 1-बीएचके या 2 बीएचके टाइप घर बना हुआ है. उनके लिए तालाब बने हैं, जहां वे स्नान कर सकें. किसी कारणवश उनकी तबीयत खराब हो गई तो अस्पताल भी बनाए गए हैं. डॉक्टर उनकी सेहत का खूब ध्यान रखते हैं.

    गजराज के भरोसे महावत की जिंदगी

    हाथी के गांव में जाकर हाथी की सवारी न हो तो सफर अधूरा है. एलीफैंट विलेज में पर्यटक हाथी सफारी का खूब आनंद लेते हैं. इससे पर्यटक न केवल सफारी का लुत्फ उठा पाते हैं, बल्कि उन्हें हाथियों की जीवनशैली को पास से जानने का अवसर मिलता है. यहां हाथियों की देखरेख करने के लिए महावत के परिवार भी हाथियों के पास ही रहते हैं और उनका भरण पोषण भी हाथियों पर निर्भर रहता है.

    इंसानों जैसे हाथियों के भी नाम

    इनकी दुनिया भी बाकियों के मुकाबले अलग है, जो दिन-रात सिर्फ हाथियों के बीच ही बरसों से जिंदगी बिता रहे हैं. फिलहाल भारत के इकलौते हाथी गांव में 80 के करीब हाथी और इतने ही महावतों के परिवार रहते हैं, क्योंकि एक हाथी को एक महावत का परिवार देखभाल करता है. वहीं, इंसानों की भांति लक्ष्मी, चमेली, रूपा, चंचल जैसे हाथियों के नाम भी होते हैं और उन्हें नाम से ही पहचाना जाता है.

    इंसानों की तरह हाथियों को मिलती है छुट्टी

    इसके अलावा, विशेष पहचान के लिए हाथियों के कान के नीचे माइक्रोचिप भी लगाई गई है. वहीं, मौसम के हिसाब से हाथियों को महीने में 15 दिन छुट्टी भी मिलती है और सर्दी-गर्मी और बरसात के हिसाब इन्हें खाना दिया जाता है. हाथी गांव में हाथियों के रहने के लिए थान बने हुए हैं और एक ब्लॉक में तीन थान हैं और इस गांव में लगभग 20 ब्लॉक हैं.

    साल 2010 में हाथी गांव की घोषणा

    यही नहीं, हाथी के लिए अलग से स्टोरेज रूम के साथ महावत का कमरा भी थान के नजदीक ही होता है ताकि दिन-रात हाथी की मॉनिटरिंग होती रहे. दरअसल, देश आजाद होने के बाद जब आमेर फोर्ट को सरकार ने आम लोगों के लिए खोला तो यहां हाथी सवारी लोगों के बीच खासी लोकप्रिय हुई. ऐसे में आमेर के पास दिल्ली रोड पर एक गांव में हाथियों के रखने की व्यवस्था की गई. राज्य सरकार ने इस गांव में हाथियों की बढ़ती संख्या को देखकर इसे 2010 में हाथी गांव घोषित कर दिया.

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    कैसी सरहदें.. कैसी दूरियां, भारत-पाकिस्तान की ‘सरहद’ कम करती दो मांओं की कहानी

    यह कहानी भारत के नीरज चोपड़ा और पाकिस्तान के अरशद नदीम के सिल्वर और गोल्ड जीतने से आगे की है. यह कहानी है दो सरहदों की कम करती दूरियों की. वे सरहदें जो आजाद होने के बाद कभी अमन नहीं देखीं. ऐसे हालात में अरशद नदीम की मां रजिया परवीन और नीरज चोपड़ा की मां सरोज देवी ने जो कहा, उससे दुनिया में प्यार, खूबसूरती और सुकून का पैगाम गया है. इन बयानों को सुनने के बाद आप कह सकते हैं, कैसी सरहदें.. कैसी दूरिया..

    सहरदों से दिल अलग नहीं होते..

    दो अलग-अलग देश. भारत और पाकिस्तान. दो अलग-अलग मजहब. हिंदू और मुसलमान. ये दूरियां तो हैं दुनिया-समाज में, लेकिन कुछ दूरियां ऐसी हैं जो कभी कम नहीं होती. कभी कम नहीं होने वाली दूरियों की यह कहानी ऐसी है कि रजिया परवीन के बेटे नीरज चोपड़ा और सरोज देवी के बेटे अरशद नदीम कह दिया जाए तो इससे रिश्तों की खूबसूरती बढ़ती ही है.

    भारत बनाम पाकिस्तान नहीं.. भारत संग पाकिस्तान

    पेरिस ओलंपिक के जैवलिन थ्रो में पाकिस्तान के अरशद नदीम ने गोल्ड मेडल जीता. न सिर्फ उन्होंने गोल्ड मेडल जीता बल्कि ओलंपिक के रिकॉर्ड को भी तहस नहस कर दिया. वहीं भारत के नीरज चोपड़ा को सिल्वर मेडल से संतोष करना पड़ा. नीरज ने पिछले ओलंपिक में गोल्ड अपने नाम किया था. आम तौर पर जिस भारत बनाम पाकिस्तान मैच को रोमांच का नाम दिया जाता है. इस प्रतियोगिता में भारत संग पाकिस्तान देखने को मिला. जब तिरंगा लपेटे नीरज के संग पाकिस्तान के झंडे से लिपटे अरशद चांदी-और सोना दिखा रहे थे. इस वैश्विक प्रतियोगिता में यह दो एशियाई देशों का दबदबा था.

    ‘जिसका गोल्ड है.. वह हमारा ही लड़का’

    अब सोना-चांदी से आगे की कहानी. चांदी जीतने के बाद नीरज चोपड़ा की मां सरोज देवी ने जो कहा वो दिलों को ठंडक देती है. उन्होंने कहा, “हम बहुत खुश हैं. हमारा तो सिल्वर ही गोल्ड के जैसा है. जिसका गोल्ड (अरशद नदीम) आया है, वो भी हमारा ही लड़का है. मेहनत करता है.”

    मुहब्बत ने सरहद के उस पार अंदरूने मुल्क में जाकर घुसपैठ की तो उधर से भी इधर घुसपैठ हो गई.  अरशद की मां रजिया परवीन भी नीरज पर बयान दिया.

    नीरज मेरा भी बेटा है- रजिया

    रज़िया कहती हैं,

    ”वो मेरे बेटे जैसा है. वो नदीम का दोस्त भी है और भाई भी है. हार और जीत तो किस्मत की होती है. वो भी मेरा बेटा है और अल्लाह उसे भी कामयाब करे. उसे भी मेडल जीतने की तौफ़ीक अता करें.”

    अब जिनकी मांएं इतना प्यारा बोलेंगी, उनके बेटे जब बोलेंगे या जब उन पर बात होगी तो वो कितनी मीठी होगी… ये समझिए.

    अरशद नदीम ने गोल्ड जीतकर कहा, ”मैंने अपना पहला कॉम्पिटीशन 2016 में गुवाहाटी में नीरज भाई के साथ खेला. तब से पता चला कि नीरज चोपड़ा भाई जीतते आ रहे हैं. वहां मैंने पहली बार पाकिस्तान का रिकॉर्ड ब्रेक किया. वहां से मुझे शौक़ हुआ कि मेहनत करूं तो आगे जा सकता हूं.”

    एक तरफ़ अरशद नीरज की तारीफ़ कर रहे थे. दूसरी तरफ़ नीरज अरशद की मेहनत का सम्मान कर रहे थे. नीरज चोपड़ा ने कहा, ”किसी खिलाड़ी का दिन होता है. आज अरशद का दिन था. खिलाड़ी का शरीर उस दिन अलग ही होता है. हर चीज़ परफेक्ट होती है जैसे आज अरशद की थी. टोक्यो, बुडापेस्ट और एशियन गेम्स में अपना दिन था.”

    जो सुलगाते थे.. उन्होंने भी सराहा

    शोएब अख़्तर अक्सर भारत में तब याद किए जाते हैं, जब किसी आक्रामकता की नुमाइश से जुड़ा मसला हो. ख़ासकर क्रिकेट से जुड़ी. मगर इस बार इस नुकीले भाले ने ऐसा खेल किया कि शोएब भी बोले- ये बात सिर्फ़ एक मां ही बोल सकती है.

    इन बयानों से यह समझा जा सकता है, दोनों देशों के बीच प्यार का पैगाम फैलाना इतना भी मुश्किल नहीं है, जितना कि सरहदों पर फैले तनाव की खबरें टीवी स्क्रीनों पर दहकते रहती हैं.

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    म्हारी छोरी ‘सोना’ से कम है के… गोल्ड छोड़ो.. देश जीत लिया.. पढ़ें विनेश फोगाट के संघर्ष की कहानी

    भारत की अंक तालिका में सोना और चांदी का कॉलम में शून्य अच्छा नहीं लग रहा. पेरिस से आने वाली हर खबर का बेसब्री से इंतजार. तारीख 07 अगस्त, 2024. 50 किलोग्राम वर्ग फाइनल में भारतीय पहलवान विनेश फोगाट स्वर्ण पदक के लिए फाइनल मुकाबला खेलने वाली थीं. हर भारतीय को उम्मीद थी फोगाट जरूर गोल्ड लाएगी. तभी पेरिस से जो खबर आई, उससे करोड़ों भारतीय का दिल टूट गया. खबर थी- विनेश फोगाट ओलंपिक से अयोग्य घोषित हो गई हैं. वह भी महज 100 ग्राम वजन ज्यादा होने की वजह से. इस खबर के बाद सोशल मीडिया के साथ ही मेन स्ट्रीम मीडिया में भी बहस छिड़ गई.

    साजिश… बहस और गोल्डेन बिटिया!
    बहस ओलंपिक के तौर-तरीकों को लेकर भी. बहस पिछले साल कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली विनेश फोगाट और उनके साथियों के हार न मानने वाले प्रदर्शन को लेकर भी. बहस इस बात की भी कि देश का बड़ा तबका जहां एक सोने के लिए ओलंपिक की तरफ हसरत भरी निगाहों से देख रहा हो, वैसे में इस तरह से विनेश का डिस्क्वालिफाई कर दिया जाना कहीं साजिश तो नहीं. बहस इस बात की, किस मुंह से गोल्डेन बिटिया को सोने के लिए बधाई देंगे वे लोग, जो उनके प्रदर्शन पर चुप बैठे थे.

    माइलस्टोन हैं विनेश फोगाट

    जिंदगी जिंदाबाद के कॉलम में आप पढ़ रहे हैं कहानी भारतीय महिला पहलवान विनेश फोगाट की. कैसे छोटे से गांव से निकलकर धूल-माटी में चुनौतियों को पटखनी देते हुए दिल्ली के जंतर-मंतर के रास्ते राजनीति को ठेंगा दिखाते हुए पेरिस ओलंपिक के फाइनल में कैसे पहुंचा जाता, फोगाट की कहानी एक माइलस्टोन है.

    गांव से निकलकर ओलंपिक तक का सफर

    विनेश फोगाट हरियाणा के छोटे से गांव चरखी दादरी की रहने वाली हैं. उनके परिवार में कई पहलवान हैं और उनके पिता राजपाल फोगाट खुद एक पहलवान थे. उनकी दो चचेरी बहनें गीता और बबिता कॉमनवेल्थ गेम में स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं. उनके गांव में लड़कियों का पहलवान बनना अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन उनके चाचा और पिता ने समुदाय के खिलाफ जाकर अपनी बेटियों को पहलवानी सिखाई और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलवाई. बचपन से ही सीखे पहलवानी के दावपेंच विनेश फोगाट ने देश के लिए कई मैच खेले और पदक जीतकर आईं.

    देश के लिए जीत चुकी हैं कई मेडल

    29 साल की विनेश फोगाट ने बचपन से ही पहलवानी के दांव-पेंच सीखें और देश को एशियन गेम्स 2018 में देश के लिए सोना जीता. इसके अलावा उन्होंने 2014 में 48 किलोग्राम वर्ग में कांस्य पदक जीता था. वर्ल्ड चैंपियनशिप में विनेश फोगाट ने 2022 और 2019 में देश के लिए कांस्य पदक जीता था. यह दोनों पदक उन्होंने 53 किलोग्राम वर्ग के मुकाबले में हासिल किया था. कॉमनवेल्थ गेम्स 2014 में उन्हें 48 किलोग्राम, 2018 में 50 किलोग्राम और 2022 में 53 किलोग्राम वर्ग में स्वर्ण पदक मिला था.

    विनेश ने की है प्रेम विवाह

    विनेश फोगाट की शादी 13 दिसंबर 2018 में उनके पुराने दोस्त सोमवीर राठी से हुई है. सोमवीर राठी भी हरियाणा के ही रहने वाले हैं. दोनों ने एक दूसरे को काफी समय तक डेट किया था और उसके बाद दोनों ने शादी कर ली. सोमवीर राठी ने भी राष्ट्रीय मुकाबलों में स्वर्ण पदक जीता है. विनेश और सोमवीर रेलवे के कर्मचारी हैं.

    कुश्ती से संन्यास का ऐलान

    पेरिस ओलंपिक से अयोग्य घोषित होने के बाद निराश और दुखी भारतीय पहलवान विनेश फोगाट ने गुरुवार को कुश्ती से संन्यास की घोषणा कर दी. उन्होंने एक्स पर लिखा, “माँ कुश्ती मेरे से जीत गई मैं हार गई. माफ़ करना आपका सपना मेरी हिम्मत सब टूट चुके. इससे ज़्यादा ताक़त नहीं रही अब. अलविदा कुश्ती 2001-2024. आप सबकी हमेशा ऋणी रहूँगी. माफी.” विनेश भले ही ओलंपिक का सोना जीतने से चूक गई, लेकिन उन्होंने पूरा देश का दिल जीत लिया है. किसे याद नहीं है दिल्ली के जंतर-मंतर पर फोगाट पर पुलिस के द्वारा बल प्रयोग, किसे याद नहीं है उनका सड़कों पर घसीटा जाना. किसे याद नहीं है बारिश में भीगते हुए हक के लिए आवाज उठाना. सब याद है. सोना आए या न आए, ऐसे हौसलों का जिंदा रहना जरूरी है.

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    पोस्ट ऑफिस की धांसू स्कीम, जमा करें एक लाख.. इतने दिनों लगभग 1.5 गुना रिटर्न्स

    अगर आप भविष्य के लिए निवेश करने की सोच रहे हैं तो देश के सबसे भरोसेमंद सेक्टर में से एक पोस्ट ऑफिस में निवेश कर सकते हैं. पोस्ट ऑफिस सेविंग स्कीम में एक टाइम डिपोजिट स्कीम है जिसे आप एफडी स्कीम भी कह सकते हैं. इस स्कीम के तहत आपको एक, दो, तीन या पांच साल के निवेश का विकल्प मिलता है.

    वर्तमान में भारतीय डाक एक साल के लिए TD (Time Deposit) करने पर  6.9 प्रतिशत, दो साल के लिए 7 प्रतिशत, तीन साल के लिए 7.1 प्रतिशत और 5 साल के लिए 7.5 प्रतिशत का इंटरेस्ट दे रहा है. ऐसे में मान लीजिए आप 1 लाख रुपये को इन अलग Period  में लगाना चाहते हैं तो मिलने वाले रिटर्न्स का कैलकुलेशन हम आपको यहां समझा रहे हैं.

    1 साल के लिए टाइम डिपोजिट पर रिटर्न

    अगर आप एक लाख रुपये एक साल के लिए पोस्ट ऑफिस टाइम डिपोजिट स्कीम में निवेश करते हैं तो  6.9 प्रतिशत ब्याज दर के हिसाब से ग्रो कैलकुलेटर के मुताबिक, आपको मेच्योरिटी पर कुल 1,07,081 रुपये मिलेंगे. इसमें ब्याज की रकम के तौर पर आपको 7,081  रुपये में मिलते हैं.

    2 साल के लिए टाइम डिपोजिट पर रिटर्न

    जब दो साल वाली टाइम डिपोजिट स्कीम में एक लाख रुपये निवेश करते हैं तो 7 प्रतिशत ब्याज दर के मुताबिक मेच्योरिटी पर आपको कुल 1,14,888 रुपये मिलते हैं. इस कुल रकम में ब्याज की रकम के तौर पर आपको 14,888  रुपये में मिलेंगे.

    3 साल के लिए टाइम डिपोजिट पर रिटर्न

    3 साल वाली पोस्ट ऑफिस टाइम डिपोजिट या एफडी स्कीम में एक लाख रुपये निवेश करने पर 7.1 प्रतिशत ब्याज दर से मेच्योरिटी पर आपको कुल 1,23,508 रुपये मिलेंगे. इसमें रिटर्न या ब्याज के तौर पर आपको 23,508 रुपये मिलेंगे.

    5 साल के लिए टाइम डिपोजिट पर रिटर्न

    5 साल के लिए यानी सबसे लंबी अवधि वाली टाइम डिपोजिट स्कीम में एक लाख रुपये निवेश करते हैं तो 7.5 प्रतिशत ब्याज की दर से पोस्ट इंफो के मुताबिक,  मेच्योरिटी पर कुल  1,44,995 रुपये मिलेंगे. इसमें 44,995 रुपये आपको ब्याज के तौर पर रिटर्न मिलेगा.

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    NSG कमांडो की नौकरी छोड़ शुरू की खेती.. जवान से किसान बनने की कहानी हैरान कर देगी

    शायद ही कोई किसान हो, जो अपने बेटे को भी किसान बनाना चाहे. मौजूदा वक्त में तो ऐसी अवधारणा यह समाज कदापि स्वीकार नहीं करेगा. वह भी तब जब नेशनल सिक्योरिटी गार्ड जैसी नामचीन संस्था में कमांडो के पद पर नौकरी हो. रूतबा हो. हर महीने बैंक अकाउंट में मोटी तनख्वाह गिरती हो, तो उस नौकरी को छोड़कर खेती का रूख करना काफी हैरानी की बात है. है ना?

    यह कहानी मूल रूप से राजस्थान के रहने वाले मुकेश मांजू की है. जो पिछले 10 सालों से अपने 26 एकड़ खेत में Olive के साथ खजूर, अनार, मौसंबी उगाकर न केवल अच्छी कमाई कर रहे हैं, बल्कि आस-पास के किसानों को आय बढ़ाने की नई राह दिखा रहे हैं.

    खेती की बदल दी पहचान

    मुकेश के लिए जवान से किसान बनने की राह आसान नहीं थी. लेकिन बचपन से ही खेती के प्रति लगाव और प्रेम के कारण उन्होंने इस रास्ते को चुना. और हिंदुस्तान में एग्जोटिक फसलें उगाकर पारंपरिक खेती की पहचान बदल दी. मुकेश परंपरागत खेती से हटकर करना चाहते थे. खेती से उन्हें इतना लगाव था कि NSG में काम करते हुए जब भी मुकेश गल्फ देश जाते, वहां के किसानों से मिलकर नई तकनीक और फसलों की जानकारी लेने पहुंच जाते.

    गांव वाले देते थे ताने

    इतना ही नहीं छुट्टियों में भी घर आने की बजाय वह खेती की ट्रेनिंग लिया करते थे. 10 साल पहले जब उन्होंने नौकरी छोड़कर पूरी तरह से खेती से जुड़ने का मन बनाया तो परिवार ही नहीं गांववालों ने भी ताने दिए लेकिन मुकेश को यकीन था वह कुछ अलग कर रहे हैं. जिससे उनके जैसे किसानों की कमाई बढ़ाई जा सकती है.

    सालाना 20 टन ओलिव का उत्पादन

    आज वह मुकेश न सिर्फ ओलिव उगा रहे हैं, बल्कि इसके जैसे दूसरे कीमती फल और सब्जियों की खेती के साथ पशुपालन और एग्रो टूरिज्म भी कर रहे हैं.  वह अपने खेतों से सालाना 20 टन ऑलिव का उत्पादन करते हैं जिसे वह  कच्चा बेचने के साथ-साथ तेल बनाकर बढ़िया मुनाफा कमा रहे हैं.

    जवान से किसान बने मुकेश के फार्म में लगी एग्जोटिक फल-सब्जियां देखने आज देश ही नहीं विदेश से भी मेहमान आकर ठहरते हैं. आज मुकेश सैकड़ों किसानों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं.

    जानें Olive के बारे में…

    ओलिव (Olive) अंग्रेजी नाम है. इस फल को हिंदी में जैतून कहते हैं. दुनिया के स्पेन, पुर्तगाल, ट्यूनीशिया, तुर्किये, यूनान, अफ्रीका, चीन, न्यूजीलैंड आदि देशों में इसकी खेती की जाती है. अमरिका के कैलिफोर्निया में भी इसका उत्पादन होता है. यह अंडे के आकार का फल होता है. हजारों सालों से जैतून का उपयोग इसके औषधीय गुण के लिए किया जा रहा है. आजकल इसे सलाद, सैंडविच, पिज्जा जैसे फूड आइटम बनाने के लिए किया जा रहा है.

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    120 रुपए की बुलेट और खरीदने को पैसे नहीं.. संघर्षों से भरी है ओलंपिक मेडलिस्ट स्वप्निल की कहानी

    किसी भी सफलता के बाद आम तौर पर हम सिर्फ चकाचौंध को ही देखते हैं, जबकि उसका दूसरा पहलू सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है. किसी प्रतियोगिता का विजेता बनना हो या उसके हिस्सेदारों का पदक जीतना. यह सफर आसान नहीं होता. कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं. न जाने कितनी चुनौतियों से होकर गुजरना पड़ता है. ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने वाले स्वप्निल कुसाले की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.

    अब तक भारत को तीन मेडल

    पेरिस ओलंपिक में स्वप्निल कुसाले ने पुरूषों की 50 मीटर राइफल थ्री पोजिशंस में कांस्य पदक जीता. क्वालिफिकेशन में सातवें नंबर पर रहे स्वप्निल ने 451.4 स्कोर करके तीसरा स्थान हासिल किया. इसके साथ ही इस ओलंपिक में भारत के खाते में अब तक तीन मेडल आ चुका है. खबर समाप्त. अब सीधे स्वप्निल के संघर्ष के पन्नों को पलटते हैं.

    बुलेट खरीदने को कम पड़ जाते थे पैसे

    शूटिंग बेहद खर्चीला गेम होता है. राइफल और अन्य उपकरणों पर काफी पैसे खर्च करने पड़ते हैं. अभ्यास में दागे जाने वाली हर गोली का भी खर्च होता है. शुरुआती दिनों में स्वप्निकल के परिवार की हालत ऐसी थी कि प्रैक्टिस के लिए गोलियां खरीदने के लिए पैसे कम पड़ जाते थे. तब बुलेट की कीमत 120 रुपए हुआ करती थी. बेटे के अभ्यास में आर्थिक समस्या बाधा न बने, इसके लिए उनके पिता कर्ज लेकर भी बुलेट खरीदवाते थे, जिससे कि स्वप्निल प्रैक्टिस कर सके. और अपने सपने को पूरा भी.

    माता-पिता ने नहीं किया था फोन

    अपना पहला ओलंपिक खेल रहे स्वप्निल कुसाले के माता-पिता ने कहा कि उन्हें यकीन था कि उनका बेटा तिरंगे और देश के लिए पदक जीतेगा. स्वप्निल के शिक्षक पिता ने कोल्हापूर में पत्रकारों से कहा, ‘हमने उसे उसके खेल पर फोकस करने दिया और कल फोन भी नहीं किया. पिछले दस बारह साल से वह घर से बाहर ही है और अपनी निशानेबाजी पर फोकस कर रहा है, उसके पदक जीतने के बाद से हमें लगातार फोन आ रहे हैं. स्वप्निल की मां ने कहा, ‘वह सांगली में स्कूल में था जब निशानेबाजी में उसकी रूचि जगी. बाद में वह ट्रेनिंग के लिए नासिक चला गया.

    यह मेरी वर्षों की मेहनत है- कुसाले

    पदक जीतने पर स्वप्निल ने कहा, “उस रात मैंने कुछ नहीं खाया था. पेट में थोड़ी परेशानी थी. मैंने ब्लैक टी पी थी. हर मैच से पहले मैं ईश्वर से प्रार्थना करता था. उस दिन दिल बहुत तेजी से धड़क रहा था. मैंने सांस पर नियंत्रण रखा और कुछ अलग करने की कोशिश नहीं की. इस स्तर पर सभी खिलाड़ी एक जैसे होते हैं. मैंने स्कोरबोर्ड देखा ही नहीं. यह मेरी बरसों की मेहनत थी. मैं बस यही चाह रहा था कि भारतीय फैंस मेरी हौसला अफजाई करते रहें.”

    स्वप्निल को रेलवे ने दिया तोहफा

    कांस्य पदक जीतने वाले स्वप्निल रेलवे में बतौर टीटी नौकरी करते हैं. ओलंपिक में पदक जीतते ही रेलवे ने उन्हें तोहफा दिया है. स्वप्निल को टीटी से ओएसडी स्पोर्ट्स के पद पर प्रमोट कर दिया गया है.

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    कहानी बिहार के ‘आईआईटीयंस के गांव’ की.. जहां मुफलिसी में भी मिलती है सपनों को उड़ान

    पावरलूमों से आने वाली कानफाड़ू आवाज. संकरी गलियां जहां से आसानी से गुजरना काफी मुश्किल का काम होता है. यहां कुछ कमरों में तैयार होती है समाज को सशक्त करने वाली पौध. जिसकी पहचान बुनकरों के शहर के रूप में थी वहां आज बोई जाती है उस सफलता की बीज जो बाद में दरखत बनकर देश सहित दुनिया को साया प्रदान करती है. प्रेरणा से ओतप्रोत कर देने वाली यह कहानी है बिहार के आईआईटीयंस के गांव की.

    हर साल सफल होते हैं दर्जनों छात्र

    बिहार के गया जिले के मानपुर में स्थित है छोटा सा गांव पटवा टोली. अब यह गांव बिहार के आईआईटीयंस का गांव के रूप में प्रख्यात हो चुका है. ऐसा इसलिए क्योंकि यहां हर साल दर्जनभर से अधिक छात्र आईआईटी और जेईई की परीक्षा में सफलता हासिल करते हैं और देश दुनिया तक सेवाएं प्रदान करते हैं. अब इस गांव की पहचान विलेज ऑफ आईआईटीयन के रूप में बन चुकी है.

    दिल्ली से चलती है मुफ्त ऑनलाइन क्लास

    इस मकसद को और कामयाब बनाने के लिए मशहूर पटवा टोली को विलेज ऑफ आईआईटीयन बनाने की तैयारी है. इस बड़े मकसद में छात्रों को सफल करने के लिए पूरी पढ़ाई नि:शुल्क दी जाती है. इससे वर्तमान में वृक्ष संस्था का नाम दिया गया है. ऐसे में गरीब तबके से लेकर आम छात्र आईआईटियन बनने का सपना साकार करते हैं.

    यहां दिल्ली से भी ऑनलाइन क्लास ली जाती है. प्रत्येक वर्ष सफल होते हैं छात्र मुफ्त शिक्षा देने वाली वृक्ष संस्था में प्रत्येक वर्ष दर्जन भर से अधिक छात्र आईआईटी और जेईई की परीक्षा में सफलता प्राप्त करते हैं. इस सफलता का आधार है निशुल्क संचालित शिक्षण संस्थान वृक्ष विद द चेंज.

    ताकि पढ़ाई में गरीबी न बने बाधा

    वृक्ष संस्था के संस्थापक चंद्रकांत पाटेकर

    वृक्ष संस्था के संस्थापक चंद्रकांत पाटेकर बताते हैं, “इसकी शुरुआत साल 2013 में हुई. हमें इसकी प्रेरणा अपने गरीब दोस्तों से मिली. क्योंकि वे लोग गरीबी में पढ़ नहीं सके. अब हमारा मकसद ये है कि कोई भी छात्र गरीबी के कारण पढ़ाई न छोड़ें. छात्रों को सफल करने के लिए पूरी पढ़ाई नि:शुल्क दी जाती है. इससे वर्तमान में वृक्ष संस्था का नाम दिया गया है. ऐसे में गरीब तबके से लेकर आम छात्र आईआईटियन बनने का सपना साकार करते हैं.”

    गांव के हर घर में इंजीनियर

    इंजीनियरों और चिकित्सा पेशेवरों को तैयार करने की समृद्ध विरासत के साथ, पटवा टोली शिक्षा एवं सामुदायिक समर्थन की परिवर्तनकारी शक्ति के प्रमाण के रूप में स्थापित हुआ है. इस गाँव में बड़ी संख्या में IIT क्वालिफायर हैं और लगभग हर घर में एक इंजीनियर है.

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    कभी पानी और बिजली को तरसता था गांव, आज सरकार को करता है पावर सप्लाई

    नीलगिरी की पहाड़ियों में बसा है ओड़नथूरई गांव. तमिलनाडू के कोयंबटूर से करीब 40 किलोमीटर दूर. आज ये गांव स्मार्ट गांव जैसा दिखता है. यहां पर शहर जैसी सारी सुविधाएं मौजूद हैं. गांव के लोगों में भी खूब खुशहाली है. लेकिन कुछ साल पहले तक ऐसा नहीं था. गांव की तस्वीर एकदम अलग थी. यहां बुनियादी सुविधाएं तक मौजूद नहीं थीं. बिजली नहीं थी. पीने का साफ पानी तक नहीं था. पूरे गांव में कच्चे घर थे. लोग घर छोड़कर शहर का रूख करने लगे थे.

    बिजली क्या होती है.. जानते तक न थे

    ओडनथुरई गांव की रहने वाली भुवनेश्वरी कहती हैं, “मैं यहां 20 साल से रह रही हूं. 20 साल पहले हमारे पास कोई बुनियादी सुविधा नहीं थी. हम एक झोपड़ी में रहा करते थे. यहां न बिजली की सुविधा थी और न ही पानी की. हमें पेयजल के 3 किलोमीटर दूर जाना पड़ता था. हमारे बच्चों को यह तक नहीं पता था कि बिजली कहते किसे हैं? अपना राशन के लिए भी हमें कई किलोमीटर जाना पड़ता था, जिसमें हमारा पूरा दिन निकल जाता था.”

    गांव के अधिकांश घर एक जैसे

    आज गांव की स्थिति  बिल्कुल पहले जैसी नहीं है. आज गांव में पक्के मकान हैं. घरों में सोलर पैनल लगे हैं. सोलर पैनल घरों को रौशन करने में काम आते हैं. गांव के अधिकांश घर एक जैसे हैं, जिससे गांव काफी आकर्षक लगता है. पानी के लिए अब गांव में बोरवेल लगे हैं, जिससे कि हर घर तक पानी पहुंच सके. अब आप सोच रहे होंगे कि मूलभूत सुविधाओं से वंचित गांव अचानक इतना परिवर्तित कैसे हो गया. तो यह सब हो सका गांव के पूर्व सरपंच आर षणमुगम की वजह से.

    लोग शहर छोड़ लौटने लगे गांव

    “1986 से 1991 तक मेरे पिताजी गांव के सरपंच थे. गांव में एक भी पक्का मकान नहीं था. गांव के जनजाति के लोग हमारे पास आए और पंचायत से पक्के घरों की मांग की. पंचायत से प्रस्ताव पास कर उनके लिए घर बनाने का निर्णय किया. मैं 1996 में मुखिया चुना गया. तब गांव के और लोगों ने भी पक्के घरों की मांग की. मैंने पंचायत के फंड से इंतजाम किया और दूसरे लोगों के लिए भी घर बनवाने का प्रस्ताव पास किया. गांव से सारी झोपड़ियों को हटाया गया और उनकी जगह बुनियादी सुविधाओं के साथ पक्के मकान बनाए गए. इससे गांव से पलायन कर गए लोग वापस आने लगे. 20 साल में हमारी जनसंख्या 1600 से 10 हजार हो गई है.पूर्व सरपंच आर षणमुगम

    लोग अपने गांव की देखभाल खुद अच्छे से करते हैं और खुश हैं. गांव के ज्यादातर लोग खेतों में काम करते हैं. गांव में पीने के पानी और बिजली की आपूर्ति को पूरी करने पर भी षणमुगम का योगदान अविस्मरणीय है.

    गांव करता है सरकार को बिजली सप्लाई

    “बिजली के लिए हमने ऊर्जा के रिन्यूएबल विकल्पों को तलाशा. हमें पवनचक्की का विकल्प सबसे सही लगा. इसकी कीमत करीब 1.55 करोड़ रूपए थी.  हमने पंचायत में टैक्स और दूसरे तरीके से 40 लाख रुपए इकट्ठा करवाए.   और बाकी का बैंक लोन करवाया. साल 2006 में हमने पवनचक्की लगवाई जिससे 7 लाख यूनिट बिजली पैदा होती है. अब हम 20 लाख रुपए की बिजली हर साल तमिलनाडु सरकार को बेचते हैं.”- आर षणमुगम

    स्मार्ट विलेज मॉडल की खूब तारीफ

    षणमुगम के प्रयासों कभी बिजली और मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जीने वाला गांव आज सरकार को बिजली बेच रहा है. षणमुगम को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम और प्रदेश के मुख्यमंत्रियों ने पुरस्कार दिए हैं. विश्व के कई बड़े संगठन इस गांव के विकास को आकर देखते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं. षणमुगम आज भले ही गांव के मुखिया नहीं हैं लेकिन उनके द्वारा किए गए काम से दुनिया के बड़े-बड़े देश और संगठन भी प्रेरणा ले रहे हैं.

    जानकारी स्रोतः डीडब्ल्यू हिंदी

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    कभी खजूरी कहा जाता था.. आज ‘खाजा’ से दुनिया में पहचान, परतों में समाई रहती है मिठास

    यूं तो बिहार के किसी कोने में निकल पड़िए तो एक अलग ही चटखारा आपको मिल जाएगा. कोस-कोस पर पानी बदले और दस कोस पर वाणी तो बदलती ही है. साथ ही बदल जाती है रिवाज, रस्म और सबसे जरूरी स्वाद. चटखारे में आज मजा लेंगे सिलाव के खाजे का. कैसे 200 साल के इतिहास में खजूरी से खाजे के रूप में इस लजीज मिठाई को वैश्विक पहचान मिली.

    200 साल का है इतिहास

    नालंदा जिला मुख्यालय से बिहारशरीफ से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है छोटा सा शहर सिलाव. वैसे शहर ये आज है, पहले तो गांव ही हुआ करता था. सिलाव की पहचान यहां बनाई जाने वाली एक अलग किस्म की मिठाई है. नाम है खाजा. 52 परत वाले खाजे की शुरुआत यहां के ही बाशिेंदे काली साह ने करीब 200 साल पहले की थी। पहले इसे खजूरी कहा जाता था, लेकिन धीरे-धीरे इसका नाम खाजा पड़ा. 200 साल बीत गए, लेकिन खाजा के स्वाद में कोई फर्क नहीं आया है. आम से लेकर खास तक को यह व्यंजन बहुत लुभाता है. आज इनकी चौथी पीढ़ी इस व्यवसाय से जुड़ी है.

    खाजा कारोबार से जुड़ी है चौथी पीढ़ी

    चूंकि यह कारोबार 200 साल पहले शुरू हुआ. साल बदलते गए तो इससे पीढ़ी भी जुड़ती चली गई. आज काली साह के पीढ़ी के कुल 31 लोग जीवित हैं और खाजे के कारोबार से ही जुड़े हैं. काली साह के नाम पर शहर में 6 दुकानें हैं. पैतृक शान और कारोबार का आलम यह है कि उनके परपोते संदीप लाल की दारोगा की नौकरी लगी लेकिन उन्होंने उसे ठुकराकर अपने परदादा के व्यवसाय को आगे बढ़ाया.

    एक पैसे सेर बिकता था खाजा

    संदीप लाल बताते हैं, दिवंगत काली साह का मिठाई बनाने का पुश्तैनी धंधा था. दो सौ साल पहले जो खाजा बनता था उसे खजूरी कहा जाता था. उस वक्त घर मे हीं गेंहू पीस कर मैदा तैयार किया जाता था. शुद्ध घी में खाजा बनता था. उस समय एक पैसे सेर (किलो) खाजा बेचा जाता था. आज तकनीक के जरिए खाजा दुनिया के कई देशों तक पहुंच रहा है.

    ऐसे वैश्विक बनता गया खाजा..

    सिलाव मे बनाये गये खाजा का प्रदर्शन सबसे पहले वर्ष 1986 में अपना महोत्सव नई दिल्ली में हुआ था. कालीसाह के वंशज संजय कुमार को वर्ष 1987 मे मारीशस जाने का मौका मिला. मारीशस मे आयोजित सांग महोत्सव में मिठाई मे खाजा को सर्वश्रेष्ठ मिठाई का दर्जा मिला. 1990 में दूरदर्शन के लोकप्रिय सांस्कृतिक सीरियल सुरभि, वर्ष 2002 में अंतरराष्ट्रीय पर्यटन व व्यापार मेला नई दिल्ली के अलावे अन्य कई मौके पर खाजे ने धूम मचाई. देश सहित दुनिया की बड़ी हस्तियां इसका स्वाद चख चुके हैं. सिलाव के खाजे को जीआई टैग भी मिला हुआ है. अब भारत सरकार दवारा मेक इंडिया के तहत भारत के 12 पारंपरिक व्यजंन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेश किए जाने की योजना है, जिसमें सिलाव का खाजा भी शामिल है.

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