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‘उस लड़के के साथ जाएगी तो जाने कितने लड़कों के साथ जाएगी..’ उल्हाने-प्रताड़ना के बाद ‘देहाती मैडम’ की कहानी

मेरी मां ने मुझे कहा था, तू उस लड़के के साथ जाएगी तो जाने कितने लड़कों के साथ जाएगी. मां ऐसे वचन बोलेगी, इसकी कल्पना भी नहीं की थी मैं. प्यार तो बचपन में न मिल सका, दुत्कार खूब मिला. मैं टूट चुकी थी. जब कोई विकल्प नहीं सूझ रहा था, तब मैंने फैसला किया कि अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीऊंगी. मैं अपने और ससुराल दोनों परिवार से अलग पति के साथ अकेले रहने को मजबूर हो गई.

जिसे अपनी ही मां से दुत्कार मिले, भला दुनिया में उसे किससे प्यार की उम्मीद होगी? उल्हाने, प्रताड़ना, पीड़ा और किसी महिला के दुर्भाग्य से उबरकर मिसाल बनने की यह कहानी 29 साल की यशोदा लोधी की है. अब यशोदा किसी पर बोझ नहीं, बल्कि प्रेरणा है. आइये उनकी कहानी जानते हैं.

और ऐसे बन गईं ‘देहाती मैडम’

उत्तर प्रदेश के कौशांबी के सिराथू ठेठ ग्रामीण इलाके में रहती हैं, 29 साल की यशोदा लोधी. अब सोशल मीडिया पर लोग उन्हें ‘देहाती मैडम’ के नाम से जानते हैं. यशोदा लोधी यूट्यूब पर अंग्रेजी बोलना सिखाती हैं. इंग्लिश विद देहाती मैडम के नाम से वह यूट्यूब चैनल चलाती हैं. यूट्यूब पर उनके 2.9 लाख सब्सक्राइबर हैं और वीडियोज के करोड़ों व्यूज.

आर्थिक तंगी से निकलना आसान नहीं था

आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवार को पालने के लिए यशोदा ने यह रास्ता अपनाया है,  जो उनके लिए कभी आसान नहीं था. परिवार ने उनकी पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा दिलचस्पी नहीं ली और उनकी शादी भी कम उम्र में एक मजदूर से कर दी गई, लेकिन अपनी जिजीविषा और जुनून की बदौलत उन्होंने जो मुकाम हासिल कर लिया है.  वह उनकी इस साधारण सी कहानी को असाधारण बना देता है.

ग्रामीण महिला के दुर्भाग्य की कहानी

लोधी का जीवन एक ग्रामीण महिला के दुर्भाग्य की अनोखी कहानी है. जब वह छोटी थीं तो उनके माता-पिता ने उन्हें एक रि श्तेदार को सौंप दिया था. 12वीं तक की उनकी स्कूली शिक्षा भी काफी अनियमित रही. इसके बाद एक दिहाड़ी मजदूर से उनकी शादी करा दी गई. उनके पति बाद में एक हादसे का शिकार हो गए. इससे उनकी काम करने की क्षमता पर असर पड़ा और घर की आय सीमित हो गई.

विपरित परिस्थितयों में नहीं हारी हिम्मत

पति के इलाज के दौरान परिवार पर बैंक के कर्ज का भी बोझ आ पड़ा. इन विपरीत हालात में भी इस युवा महिला ने हिम्मत नहीं हारी. और देहाती अंदाज में यू-ट्यूब पर कई तरह के वीडियोज बनाए.

कैसे बोली जाए अंग्रेजी?

अपने एक वीडियो ‘हाउ टू थिंक इन इंग्लिश’ में लोधी बताती हैं कि कई लोगों के लिए समस्या ये है कि वे अंग्रेजी बोलने से पहले अंग्रेजी में सोचते नहीं हैं. अनुवाद के चक्कर में इंग्लिश की फ्लुएंसी खो जाती है. फिर .वह बताती हैं कि कैसे उन्होंने ‘अंग्रेजी में सोचने’ की कला में महारत हासिल की. लोधी अपने ‘छात्रों’ से कहती हैं, ‘आपको किताबें पढ़ने की आदत विकसित करनी चाहिए. यह अंग्रेजी में ‘फ्लुएंसी’ के लिए महत्वपूर्ण है. इस वीडियो के बाद मुझे 100% यकीन है कि पढ़ने के प्रति आपका रुझान काफी हद तक बढ़ जाएगा.’

कैसे हिट हुआ देहाती मैडम बनने का आइडिया?

अक्सर, देहाती मैडम के सबक अपने आसपास के जीवन का एक हिस्सा होते हैं. यूट्यूब से मिलने वाली आय से लोधी को बैंक ऋण का भुगतान करने में मदद मिली है. उनके पति राधे की दुर्घटना और उसके साथ आए वित्तीय झटके ने लोधी को यूट्यूब वेंचर के लिए प्रेरित किया था. सबसे पहले तो उन्होंने देसी खाना पकाने, कढ़ाई और सजावट को लेकर चैनलों शुरू किया था. वह बताती हैं कि इनमें से कोई चैनल नहीं चला. लेकिन वह हार मानने वालों में से नहीं थीं. उन्होंने कंटेंस क्रिएशन, वीडियो एडिटिंग और ऑनलाइन ट्रैक्शन हासिल करने के तरीकों के बारे में सीखने के लिए इंटरनेट पर घंटों बिताए.

देहाती पहचान से मिली आगे बढ़ने में मदद

लोधी ने बताया कि साल 2022 की शुरुआत में मुझे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले कई मोटिवेशनल स्पीकर मिले, जिससे मुझे एक ऐसा मोटिवेशनल ‘देहाती’ स्पीकर बनने का विचार आया जो अंग्रेजी में संवाद कर सके. इसलिए, मैंने खुद अंग्रेजी सीखी और व्यूअर्स हासिल करने के लिए अपनी देहाती पहचान का इस्तेमाल किया. वह बताती हैं कि उनके अपने गांव धुमाई लोधन का पुरवा में कुछ ही लोग अंग्रेजी सीखने में रुचि रखते हैं.

लोकल लेवल पर कुछ ही लोग उन्हें फॉलो करते हैं. लोधी ने बताया, ‘मेरे गांव में महिलाएं मुझे अंग्रेजी बोलते देखकर हंसती हैं. उन्हें न तो यह भाषा सीखने में कोई दिलचस्पी है और न ही अपनी बेटियों को इसे सीखने देने में. हालांकि, मेरी भाभियां अंग्रेजी सीखने में रुचि रखती हैं.

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अब एआई ‘म्यूजिक स्टार’ भी… कैसे इंसानों की जिंदगी में AI का बढ़ता जा रहा दखल?

नीली आंखें, बेतरतीब बाल और होठों पर गाना गुनगुनाते ये हैं एआई सिंगर ‘बेन गाया’. बेनगाया और उनकी जुबां से बजने वाली धुनों को पूरी तरह से एआई की मदद से बनाया गया है. इतना ही नहीं बेन गाया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इंस्टाग्राम पर स्टार बन चुके हैं.

अब एआई रॉक एवं पॉपस्टार भी

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) अब हर क्षेत्र में इंसानों की नकल करता नजर आ रहा है. कंटेंट क्रिएशन से लेकर अलेक्सा कॉलिंग, ऑटो ड्राइविंग, एआई एंकरिंग आदि आदि. अब एआई रॉक एवं पॉपस्टार भी है.

एआई सिंगर बेन गाया की तस्वीर

बनाने में सिर्फ एआई टूल्स का इस्तेमाल

बेन गाया को बनाने वाले फ्लोरियान शामबेर्गर कहते हैं, कि यह एआई टूल्स से संभव है. बेनगाया को जर्मन शहर ब्रेमन की एक एजेंसी ने बनाया है. इसे पूरी तरह से एआई की मदद से बनाया गया है.

भविष्य में संगीतकारों को कितना खतरा?

एआई सिंगर बेन गाया के डिजाइनर फ्लोरियान शामबेर्गर

भविष्य में एआई और ज्यादा हमारी जिंदगी का हिस्सा बनेगा. अब वर्चुअल मॉडल्स और वर्चुअल इंफ्लुएंसर के लोग आदि हो रहे हैं. ऐसे में सबसे गंभीर सवाल यह उठता है कि क्या भविष्य में एआई के जरिए ही म्यूजिक प्रोड्यूस किए जाएंगे. क्या यह संगीतकारों पर हावी होगा?

क्या कर सकता है एआई सिंगर?

इसके जवाब में म्यूजिक टेक जर्मनी के प्रेसिडेंट माथियाज स्ट्रोबेल कहते हैं, इंसान को अनोखा बनाती है उसकी महसूस करने की क्षमता, जो एआई में नहीं है. अपनी अनुभव से संगीत रचने का हुनर. आपको समझना होगा कि एआई ऐसा नहीं कर सकता है. एआई उसी पर काम कर सकता है, जो उसे दिया जाए. वो आजाद होकर चीजें विकसित नहीं कर सकता है. और मौलिक विचारों के साथ नहीं आ सकता है. ऐसा सिर्फ इंसान कर सकते हैं और इसलिए वे हमेशा एआई पर भारी पड़ेंगे.

2024 में पहली बार स्टेज पर उतरे ‘बेन गाया’

जुलाई 2024 में बेन गाया पहली बार वर्चुअल स्टेज पर उतरे. उनका पहला गाना सन साइन सोल इंस्टाग्राम पर अपलोड किया गया, जिसे एक मीलियन से ज्यादा व्यूज मिले.

Text input से डिजाइनिंग संभव

बेनगाया के डिजाइनर कहते हैं कि ये सब टेक्स्ट इनपुट से किया गया है. चाहे एआई पॉपस्टार की वेशभूषा हो या फिर बैकग्राउंड, हम जैसा चाहेंगे वैसे बदल सकते हैं. जानकार कहते हैं कि एआई टूल्स वही कर पा रहा है, जो हम चाह रहे हैं. बिना इंसानों के वे कुछ भी नहीं कर सकते हैं. इसलिए ऐसी तकनीकों पर हमेशा इंसानी समझ ही हावी रहेगा.

आपकी जानकारी के लिए

आपकी जानकारी के लिए यहां यह बताना जरूरी है कि एआई अल्गोरिदम का उपयोग करके संगीत बनाना संभव हो पाया है, जिसे एआई म्यूजिक कहते हैं. वहीं एआई सिंगर्स को ऐसे समझा जा सकता है कि एआई तकनीक का उपयोग करके सिंगर्स की आवाज़ को नकल करना और नए गानों का निर्माण करना.

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क्या है ‘मुंबई के डब्बावालों की कहानी’..जिसे केरल के स्कूलों में पढ़ाई जाएगी

डब्बावालों’ की कहानी सुनकर थोड़ा अजीब लगता है न? अब चाहे अजीब लगे या बोझिल, यह कहानी बोरिंग तो नहीं है. इसीलिए केरल के स्कूलों में नौवीं कक्षा के सिलेबस में इसे शामिल किया गया है. अब इसे ‘द सागा ऑफ़ द टिफ़िन कैरियर्स’ नाम से जाना जाएगा. आखिर क्या है मुंबई के डब्बावालों की कहानी, इस रिपोर्ट में हम जानेंगे.

हां, केरल के स्कूलों में नौवीं कक्षा के छात्रों को अंग्रेज़ी की किताब में मुंबई के डब्बावालों की कहानी पढ़ाई जाएगी. स्टेट काउंसिल ऑफ़ एजुकेशनल रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग ने 2024 के अपडेटेड सिलेबस में शामिल किया है. अब कहानी को ‘द सागा ऑफ़ द टिफ़िन कैरियर्स’ नाम से जाना जाएगा. इसके लेखक ह्यूग और कोलीन गैंटज़र हैं. कहानी के जरिए बच्चों को डब्बावालों की संघर्ष बताने की कोशिश की गई है.

130 साल से भी ज्यादा पुराना बिजनेस

मुंबई में डब्बा का बिजनेस करीब 130 साल से भी ज्यादा पुराना है. डब्बा वाले मुंबई में घरों से दफ्तर मुंबईकर्स को गर्म खाना पहुंचाते हैं. इनके डिलीवरी सिस्टम की देश ही नहीं विदेशों में भी जमकर तारीफ होती है. मुंबई में साइकिल पर एक साथ ढेरों डिब्बे टंगे हुए आसानी से दिख जाएंगे. साफ शब्दों में कहें डब्बेवाले ऐसे लोगों का एक संगठन है जो मुंबई शहर में काम करने वाले सरकारी और गैर-सरकारी कर्मचारियों को खाने का डब्बा यानी टिफिन पहुंचाने का काम करते हैं.

अब ‘डब्बावाले’ दुनियाभर में फेमस

मुंबई में डब्बा वाले संघ से करीब 5,000 से ज्यादा लोग जुड़े हुए हैं और हर दिन ये लगभग दो लाख से ज्यादा डब्बा पहुंचाने का काम करते हैं. कहा जाता है कि साल 1890 में महादु हावजी बचे (Mahadu Havji Bache) ने इसकी शुरुआत की थी. शुरुआत में यह काम सिर्फ 100 ग्राहकों तक ही सीमित था. लेकिन जैसे-जैसे शहर बढ़ता गया, डब्बा डिलीवरी की मांग भी बढ़ती गई. अब ये इतना बड़ा हो चुका है कि पूरी दुनिया में इसकी चर्चा होती है.

खास यूनिफॉर्म पहनते हैं ‘डब्बावाले’

मुंबई में डब्बा वाले बाकायदा एक खास यूनिफॉर्म पहनकर अपना काम करते हैं. इन्हें आमतौर पर सफेद रंग का कुर्ता-पायजामा, सिर पर गांधी टोपी, गले में रुद्राक्ष की माला और पैरों में कोल्हापुरी चप्पल पहने देखा जा सकता है.

मुंबई के डब्बावाले अब दुनिया भर में अपने काम और मेहनत के लिए मशहूर हो गए हैं. बिजनेस स्कूलों और शोधकर्ताओं ने इनके बिजनेस पर गौर किया है. इसके अलावा उनका जिक्र फिल्म, डॉक्यूमेंट्रीज़ और किताबों में भी है. 2019 में मुंबई के कलाकार अभिजीत किनी ने उनके काम पर एक कॉमिक बुक भी बनाई थी. डब्बावाले अब भारत और विदेशों में आईआईटी और आईआईएम जैसे बड़े संस्थानों में लेक्चर देने भी जाते हैं.

कोविड महामारी में काम हुआ प्रभावित

कोविड-19 महामारी ने उनके काम को काफी प्रभावित हुआ था जिस कारण उनकी संख्या घटकर लगभग दो हजार रह गई थी. अब केवल वही लोग इस काम को कर रहे हैं जिन्हें नौकरी की जरूरत है, क्योंकि उनकी सेवा धीरे-धीरे ठीक हो रही है. जब डब्बावालों को केरल के स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल किया गया, तो उन्होंने राज्य के शिक्षा विभाग को धन्यवाद दिया और अपनी सेवा को मिली मान्यता की सराहना की.

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जहां पैदल जाना भी मुश्किल, वहां चायवाले ने खोली लाइब्रेरी.. ऐसी है ‘शिक्षा क्रांति’ की कहानी

केरल का इदुक्की जिले के जंगलों में बसा है एक कस्बा जिसका नाम है एडमलक्कुडी. साल 2010 इस कस्बे के लिए काफी ऐतिहासिक है. इस साल यहां दो ऐतिहासिक चीजें हुईं. पहला, एडमलक्कुडी केरल का पहला ऐसा कस्बा बना जहां आदिवासी ग्राम पंचायत का गठन हुआ और दूसरा, इस कस्बे के इरिप्पुकल्लु क्षेत्र के एक छोटी-सी चाय की दुकान पर एक पुस्तकालय की स्थापना की गई.

इस साल पहली बार जीप पहुंची

माइलस्टोन में आज कहानी चाय दुकान में लाइब्रेरी की स्थापना की. शायद यह दुनिया का एकमात्र पुस्तकालय है जो एक ऐसे वन क्षेत्र के बीचोंबीच है जहां सिर्फ पैदल ही पहुँचा जा सकता था. हालांकि, इस साल मार्च में पहली बार जीप से एडमलक्कुडी तक पहुँचना संभव हुआ है.

160 किताबों के साथ लाइब्रेरी की शुरुआत

कस्बे में लाइब्रेरी का खुलना ही किसी सपना जैसा है. 160 किताबों के साथ इसकी शुरुआत हुई. इसकी कहानी दो व्यक्तियों के समर्पण और योगदान के इर्द-गिर्द घूमती है. एक हैं चाय की दुकान के मालिक पीवी छिन्नाथमबी और दूसरे हैं शिक्षक पीके मुरलीधरन. मुरलीधरन मुथुवन जाति के लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं हैं. दो दशक पूर्व इन्होंने एडमलक्कुडी को अपना घर इसलिए बना लिया था, ताकि यहाँ बसे आदिवासियों को शिक्षित कर सकें.

ऐसे मिली पुस्तकालय खोलने की प्रेरणा

मलयालम में माश शिक्षक को कहते हैं. इसलिए यहां के लोग मुरली को मुरली माश बुलाते हैं. वे कहते हैं, “मेरे एक मित्र उन्नी प्रसन्त तिरुअनंतपुरम में आकाशवाणी और रेडियो एफएम में काम करते हैं. 2009-2010 के बीच हमसे मिलने वह एडमलक्कुडी आए. वह छिन्नथंबी की झोपड़ी में रुके थे और तभी हमने यहाँ शिक्षा कि स्थिति और पढ़ने की आदतों पर चर्चा की. उसी समय पहली बार पुस्तकालय बनाने का विचार आया.”

चाय दुकान में लाइब्रेरी खोलने की पेशकश

कुछ महीने बीते थे कि उन्नी अपने मित्र और केरल कौमुदी के उप संपादक बी आर सुमेश के साथ 160 किताबें लेकर यहां पहुंचे थे. हमने पुस्तालय खोलने के बारे में तो सोचा था लेकिन यहां कोई बिल्डिंग और जगह नहीं थी. तभी छिन्नथंबी ने आगे बढ़ कर अपनी चाय की दुकान में पुस्तकालय खोलने की पेशकश की.”

चाय पीने लोग आते.. किताबें भी पढ़ते

छिन्नथंबी की सोच सरल थी. मुरली माश बताते हैं, “लोग इनकी दुकान पर चाय और नाश्ते के लिए आते और या तो यहाँ किताब पढ़ते या कुछ समय के लिए पैसे दे कर किताबें ले जाते. जल्द ही हमारा पुस्तकालय लोकप्रिय हो गया और अधिक से अधिक लोग इस दुकान में न सिर्फ चाय पीने, बल्कि किताबें पढ़ने के लिए आने लगे.”

इस पुस्तकालय का नाम ‘अक्षर’ रखा गया. यहाँ एक रजिस्टर में पढ़ने के लिए दी गई पुस्तकों का रिकॉर्ड रखा जाने लगा. पुस्तकालय की सदस्यता एक बार 25 रुपए दे कर या मासिक 2 रुपए दे कर ली जा सकती थी.

सामान्य पत्रिकाओं को जगह नहीं

दिलचस्प बात यह थी कि यहाँ सामान्य पत्रिकाओं या लोकप्रिय उपन्यासों को जगह नहीं दी गई थी, बल्कि यहाँ सिलप्पठीकरम जैसी उत्कृष्ट राजनीतिक कृतियों के अनुवाद और मलयालम के प्रसिद्ध रचनाकारों जैसे वाईकोम मुहम्मद बशीर, एमटी वासुदेवन नायर, कमला दास, एम मुकुंदन, लालिथम्बिका अंठरजनम की कृतियाँ रखी गई थीं.

गुमनाम-सी जगह पर स्थित इस पुस्तकालय के बारे में दुनिया को तब पता चला, जब पी. साईनाथ के नेतृत्व में पत्रकारों के एक समूह ने एडमलक्कुडी का दौरा किया.

लोग जुड़ते गए.. कारवां बनता गया

ये बताते हैं, “उनके लिए ‘कातिल ओरु’ पुस्तकालय या ‘एक जंगल में बसा पुस्तकालय’ एक ऐसी चीज़ थी, जिसके बारे में इन्होंने कभी सुना नहीं था और ये इस पुस्तकालय के विस्तार के लिए छिन्नथंबी की मदद करना चाहते थे. फिर सोशल मीडिया पर अभियान चलाया गया. जिसके बाद कई संपादक और साहित्यकार आगे आए और सबने इस दिशा में छिन्नथंबी की खूब मदद की. धीरे-धीरे पुस्तकों को रखने के लिए अलमारी की व्यवस्था हुई और पुस्तकों की संख्या भी बढ़ती गई.

इसके पहले छिन्नथंबी इन किताबों को जूट के बोरे में रखते थे, जिसका इस्तेमाल सामान्यत: चावल या नारियल रखने के लिए किया जाता है. हालांकि, सारी पुस्तकों को अलमारी में भी रखना संभव नहीं था. इसलिए इन्हें अलग-अलग बक्से में रखा जाने लगा.

2017 में लाइब्रेरी स्थानांतरित हुई

छिन्नथंबी की सेहत अब खराब रहने लगी है. लाइब्रेरी को संरक्षित करने का वादा भी पंचायत नहीं निभा पा रहा है, जिससे वे काफी दुखी हैं. मुरलीमाश बताते हैं कि किताबों की देखबाल करना छिन्नथंबी के लिए मुश्किल हो रहा था, जिसके चलते 2017 में लाइब्रेरी को स्कूल में स्थानांतरित किया गया, लेकिन नाम अक्षर ही बरकरार रखा गया. मुरली माश आगे बताते हैं कि पुस्तकालय को बनाए रखने और इतने सालों तक चलाते रहने में स्थानीय समुदाय के लोगों का बहुत बड़ा योगदान है.

छिन्नथंबी को अब भी मदद की दरकार

एडमलक्कुडी जैसे दूरस्थ कस्बे में रहने वालों के लिए यह बाकी दुनिया से जुड़ने का साधन तो बन ही रहा है और इसका श्रेय छिन्नथंबी और मुरली माश जैसे लोगों को जाता है. छिन्नथंबी को अब भी शिक्षा सुधार और लाइब्रेरी चलाने में मदद की दरकार है. संपर्क सूत्र 8547411084 पर बात कर इनकी मदद की जा सकती है.

जानकारी स्रोतः द बेटर इंडिया

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बिना दोनों हाथ हवाओं से बात करते हैं जगविंदर… आर्थिक तंगी से निकलकर ऐसे बने ‘फ्लाइंग सिंह’

“मैं 8वीं कक्षा में था जब मेरे माता पिता मेरी बहन के लिए साइकिल लाए थे. बहन को साइकिल चलाने में काफी डर लगता था. लेकिन मुझे साइकिल से गिरने का कोई भय नहीं था. मेरे पेरेंट्स बोलते थे कि तू साइकिल नहीं चला पाएगा. लेकिन फिर भी मैं हाफ पैंडल मारकर साइकिल चलाने की कोशिश की. जब लगा कि मैं साइकिल चला सकता हूं, तो उसी हाफ पैंडल ने मेरी लाइफ बदल दी.”

यह कहानी है पंजाब के पटियाला जिले में पड़ने वाले पताड़ां निवासी साइकिलिस्ट जगविंदर सिंह की. जगविंदर सिंह से याद आया. मिल्खा सिंह. हां-हां, वही फ्लाइंग सिख. दोनों हाथों से दिव्यांग ये वाला जगविंदर फ्लाइंग सिख ही बन जाता है, जब साइकिल पर सवार होकर निकलता है. जिंदगी जिंदाबाद में आप जानेंगे कैसे शारीरिक और आर्थिक चुनौतियों से होते हुए जगविंदर ने नेशनल और स्टेट लेवल पर अब तक 15 मेडल जीत चुके हैं.

पैरा ओलंपिक खेलने का सपना
बचपन से ही दोनों हाथों से दिव्यांग होने की वजह से जगविंदर सिंह का जीवन चुनौतियों से भरा रहा. हालांकि, अपनी दिव्यांगता को उन्होंने कभी अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया. जगविंदर सिंह हर रोज सुबह अपने कमरे में लगे 15 मेडल वाले पोस्टर को देखकर उठते हैं और रोजाना घंटों साइकिलिंग करते हैं. उनका सपना एक दिन पैरा ओलंपिक में हिस्सा लेकर देश के लिए मेडल जीतना है.

साइकिलिस्ट ही नहीं… बेहतर आर्टिस्ट भी हैं

स्कूल में बच्चों को आर्ट सिखाते जगविंदर

ये तो बात हुई जगविंदर की साइकिलिंग की. लेकिन उनकी कहानी का एक और चैप्टर भी है, जिसे जानकर आप दांतों तले ऊंगलियां दबाएंगे. जगविंदर एक बेहतरीन साइकिलिस्ट के अलावा बेहतर पेंटिंग आर्टिस्ट भी हैं. हाथ नहीं हैं तो मलाल नहीं. पैरों से ही चित्रों को जीवंत कर देते हैं. कहते हैं कि जब उनकी उम्र महज 6 साल की ही थी तब उन्होंने पिता को देखकर ड्राइंग सीखी थी. आज पेंटिंग में भी उन्हें नेशनल अवार्ड मिल चुका है.

नॉर्मल साइकिलिस्ट भी ऐसा नहीं कर पाते

साइकिलिंग उन्होंने हमेशा से एक इंटरनेशनल खिलाड़ी बनने के लिए की. 212 किलोमीटर की रेस उन्होंने मात्र 9 घंटे में पूरी की थी जबकि 48 सामान्य साइकिलिस्ट ने इसे 20 घंटे में पूरा किया था. इसके अलावा वे 300 किलोमीटर, 212 किलोमीटर और 208 किलोमीटर रेस में भी हिस्सा ले चुके हैं.

इतने अवार्ड… जगविंदर के नाम
स्टेट पैरा साइकिल चैंपियनशिप, पंजाब में गोल्ड मेडल, उड़ीसा में इंटरनेशनल साइक्लोथॉन प्रतियोगिता में 35 किलोमीटर की रेस में दूसरा स्थान, पंजाब की ब्रेवेट राइट 212 किलोमीटर रेस के विजेता, 305 किलोमीटर ब्रेवेट राइट टूर्नामेंट विजेता, उड़ीसा से दिल्ली तक 1800 किलोमीटर दूरी तय करने पर साइक्लोथॉन अवार्ड 2017, आल इंडिया टॉप 30 अवार्ड, अचीवर शान-ए-सिख विरासत अवार्ड, आल इंडिया टॉप 10 अवार्ड, 100 मीटर रेस में गोल्ड मेडल, पटियाला जिले में पेंटिंग कंपीटीशन में तीन बार गोल्ड मेडल प्राप्त, 2017 में स्टेट एथलीट अवार्ड, ये सारे अवार्ड और पुरस्कार जगविंदर के नाम है. जगविंदर तुस्सी ग्रेट हो.

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छायांकन के महारथी: माइनस 60 डिग्री तापमान में  कैमरे के साथ डटे रहने वाले   “मागेश के” की कहानी 

अंटार्कटिका के माईनस 60 डिग्री तापमान वाले  मुश्किल हालात हो, या फिर लालकिले के प्राचीर से प्रधानमंत्री का संबोधन।खेल के मैदान में गेंद की उछलकूद हो या फिर हॉकी स्टिक  का जोर , हर   बारिक दृश्यों को  चौकन्ने हो वो दूरदर्शन के कैमरे  में बखुबी उतार देते हैं। दृश्य भी एक से बढकर एक। टॉस के लिए हवा में उछाल सिक्का का क्लोजअप या फिर जीत के जोश में उछलते खिलाड़ी की खुशी ,या फिर नेट पर अचानक आ टपका बॉल ।  हर पहर खुद की चौकन्नी नजर को कैमरे की नजर बना दुनिया भर से , दुनिया भर के लिए ,सजीव तस्वीरें भेजते रहते हैं। इस मलाल के बिना कि दूसरों को नायक बनाने वाली यह नजर हमेशा कैमरे के पीछे ही रहती है। आज कहानी कैमरे को जीवन बना दुनिया भर के महत्वपूर्ण देशों में आयोजित कार्यक्रमों और खेलों को कैमरे में संजीदगी से कैद कर उसे जीवंत कर देने वाले दूरदर्शन के वरिष्ठ कैमरा पर्सन  ‘मागेश के’  की

अंटार्कटिका में कवरेज के दौरान
वो मेरे लिए चुनौती और रोमांचक से भरा पर था जब दूरदर्शन की और से मुझे अंटार्कटिका जाने के लिए कहा गया। उस समय कपिल  सिब्बल जी वहां दौरे पर जा रहे थे। मुझसे  पहले कई लोगों ने यहां जाने के लिए कुछ बहाने बना, इसे टाल दिया था। कारण वहां जाना काफी चुनौतीपूर्ण था। आपको माईनस 60 डिग्री सेल्सियस तापमान में रहना है ।वह भी कैमरे के साथ। हर और बस बर्फ ही बर्फ होगी। मैंने इस चुनौती को स्वीकार किया,  और वहां जाकर तमाम चुनौतियां के बीच तस्वीरें बनाई। इस यात्रा ने मुझे मन से मजबूत कर दिया। मुझमें प्रखरता भर दी। आज भी मैं 12 घंटे लगातार कैमरा कर सकता हूं। कहते हैं मागेश ।
   मागेश के  कृष्णाजी राव आज डीडी स्पोर्ट्स के सीनियर कैमरा पर्सन है। अब तक अपने कैमरे से देश -विदेश में आयोजित कई ओलंपिक खेलों को अपनी टीम के साथ कवर कर चुके हैं। खेल की दुनिया में छायांकन की हर बारिकियों में उन्हें महारत हासिल है। इसके साथ ही  स्वतंत्रता दिवस समारोह, जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा समेत कई अन्य महत्वपूर्ण इवेंट का भी छायांकन मागेश ने किया है।
 कैमरे के लिए डिजाइन किया अनोखा कवर
  मागेश के बताते हैं कि अंटार्कटिका में छायांकन के लिए कैमरे की बैटरी को सुरक्षित रखना बड़ी चुनौती थी। इतने कम तापमान पर बैटरी काम करती रहे इसके लिए मैंने काफी रिसर्च कर खुद से एक कवर डिजाइन किया। इसके लिए दिल्ली के स्थानीय बाजार से जाकर सामग्री खरीदी और उसे सिलवा कर तैयार किया। ईश्वर का शुक्रिया कि मेरा आइडिया एक दम काम कर गया। माइनस 60 डिग्री तापमान में मेरे कैमरे की बैटरी सुरक्षित थी।
लंदन हो या बीजिंग हर जगह मौजूदगी 
मागेश  एक खेल छायाकार के तौर पर दुनिया के कई देशों में अपने छायांकन का जादू बिखेर चुके हैं। वे बताते हैं कि मैंने एशियन गेम के लिए कतर में इवेंट कवर किया। चीन में ओलंपिक के दौरान बीजिंग में ओलंपिक गेम को कवर करने की मुझे जिम्मेदारी मिली और मैंने इसे कुशलतापूर्वक निभाया। इसके बाद चीन में फिर एशियन गेम को कवर किया। वह आगे बताते हैं कि मैंने लंदन में ओलंपिक को कवर किया। जहां- जहां दूरदर्शन की ओर से खेलों का कवरेज होता है वहां मेरी मौजूदगी होती है चाहे वह  रांची हो या फिर  लंदन। इसी प्रोफेशनल के कारण मैंने  खेल के साथ दुनिया को देखा, जाना और समझा है। इसका बड़ा श्रेय दूरदर्शन को जाता है।
अन्तर्राष्ट्रीय कार रैली  किया कवर
  मागेश  ने अनोखे कार रैली को भी कवर किया । यह कार रैली पांच देशों से होकर गुजरी थी। इसकी शुरुआत अरूणांचल प्रदेश से हुई थी। हम सड़क मार्ग से मणिपुर से म्यांमार होते हुए पांच देशों की यात्रा कर थाईलैंड पहुंची थी। इस कर रैली का कवरेज भी काफी यादगार रहा।
'पुरानी यादें '
ऐसा रहा बचपन का सफर 
    मागेश के बताते हैं कि मेरा जन्म कर्नाटक में   16.जुलाई.1969 को हुआ। बचपन कर्नाटक में ही बीता। वहीं बैंगलोर से मेरी पढ़ाई लिखाई भी हुई। मैंने     श्री जाया चमराजेंद्र (Govt ) पॉलिटेक्निक, बैंगलोर    से सिनेमेटोग्राफी  का कोर्स किया। यहां मैंने कैमरे और छायांकन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की।
कभी हीरों बनने की थी ख्वाहिश 
  मागेश यह भी बताते हैं कि मुझे युवा अवस्था में हीरो बनने की चाहत थी। मैं कैमरा के पीछे नहीं आगे काम करना चाहता था। इंस्टीट्यूट में नामांकन के बाद मुझसे कहा गया कि तुम्हें कैमरा सीखना है। दरअसल उस वक्त मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। हम सात भाई बहन हैं। बड़े होने के कारण मेरे उपर पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ भी था। पिताजी का बिजनेस था पर वह आमदनी परिवार के खर्च के लिए प्रयाप्त नहीं होता था। बहनों की शादी भी करनी थी। मुझे बताया गया कि कैमरा सीखने के बाद तुरंत नौकरी मिल जाएगी‌। फिर मैंने अपने नायक वाले सपने को वहीं छोड़, कैमरे के पीछे रहने का फैसला किया। आज मुझे अपने चुनाव पर गर्व है। इस काम ने मुझे प्रतिष्ठा और आत्मविश्वास दोनों दिया है। मेरी पहली पोस्टिंग दूरदर्शन मेघालय में हुई थी। फिर गोवा और पिछले 7 साल से मैं डीडी स्पोर्ट्स में दिल्ली में कार्यरत हूं।
खेल छायांकन के दौरान
खेल छायांकन के दौरान मागेश
चुनौतिपूर्ण है खेल फोटोग्राफी 
    मागेश कहते हैं कि  खेल का  छायांकन काफी चुनौतीपूर्ण होता है। आप जो टीवी पर मैच देखते हैं इसके एक एक फ्रेम के लिए काफी मेहनत की जरूरत होती है। हमें हर पल चौकन्ना रहना होता है। की बार लंबे वक्त तक कंधे पर कैमरा रखना पड़ता है। उस दौरान पानी तक पीने का समय नहीं होता हमारे पास। ज्यादातर  घंटे आपको कैमरे पर खड़े रहना होता है। इन सब को मैं तनाव की तरह नहीं रोमांच की तरह लेता हूं।
अपने सहयोगी के साथ मागेश
अपने सहयोगी के साथ मागेश
 टीम को देते हैं हौसला 
हमें किसी भी मैच के दौरान कैमरे को सही पोजीशन पर व्यवस्थित करना होता है। उसके बाद शॉट के लिए सही लेंस का प्रयोग काफी अहम होता है। आपको गेंद की हर बारिकियों को स्पष्ट दिखाना होता है। अपने सहयोगियों को सही निर्देश देना भी जरूरी है। मैं अपने सहयोगियों के मनोबल को हमेशा बनाए रखता हूं। अभी बिहार में हम वॉलीबॉल कवर कर रहे हैं। यहां हमारी टीम में स्थानीय दूरदर्शन के छायाकार भी है जो काफी अच्छा प्रदर्शन खेल के कवरेज में कर रहे। इनके लिए यह नया अनुभव है। मैं अपने सहयोगियों के लिए हमेशा उनका दोस्त होता हूं। मैं  मानता हूं कि एक अच्छी टीम एक बेहतरीन कवरेज दे सकती है।
मिल चुके हैं कई सम्मान 
मागेश को बेहतर खेल छायांकन के लिए कई सम्मान मिल और प्रशस्ति-पत्र मिल चुके हैं। बैंगलोर में बने एक टेलिफिल्म के लिए भी मागेश को सम्मानित किया गया था।
परिवार के सदस्यों के साथ कुछ पल
परिवार के लिए नहीं मिल पाता समय

मेरा जीवन पूरी तरह से खेल छायांकन को ही समर्पित है। परिवार से मिलने का काफी कम वक्त मिल पाता है। हमें यह पता भी नहीं होता कि एक मैच खत्म होने के बाद फिर हमें दूसरे की शहर में जाना है। शुरू शुरू में बड़ा मुश्किल लगता था। पर अब सब ठीक है। परिवार के बीच बस कुछ मिनट फोन ही संवाद का माध्यम बनता है।परिवार में  पत्नी पूर्णिमा मागेश , बेटी भविष्यका , और बेटे देवेश का हमारे सहयोग और समर्थन मिलता रहता है। मैं इनसे दूर रहकर भी इनकी भावनाओं से करीब से जुडा होता हूं।

किताबें पढ़ने का शौक 
नागेश बताते हैं कि उन्हें किताबें पढ़ने का खुब शौक है। खास तौर से उपन्यास पढ़ना काफी अच्छा लगता है। पहले काफी किताबें पढा करते थे। अब वक्त काफी कम मिलता है पढ़ने के लिए। जब भी समय मिलता है मैं अपने इस शौक को पूरा कर लेता हूं।
भारत की जीत से मिलती है ऊर्जा
मैच के कवरेज के दौरान भारत या भारत के बाहर जब भी भारतीय मैच विजय होती है तो मन बड़ा आनंदित होता है। भारतीय टीम की जीत मन में उर्जा भर देती है।
प्रधानमंत्री के कार्यक्रम को कवर करते मागेश
प्रधानमंत्री ने दिया माहौल
मंगेश कहते हैं की भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने खेल को काफी बढ़ावा दिया है। इनकी कोशिशों से अब छोटे शहरों में भी खेलों का आयोजन हो रहा है। खेल के कवरेज का रेंज भी बढ़ा है। सरकार ने कई नई योजनाएं खेल के काम कर रही है। इससे एक अच्छा माहौल बना है खेलों का।
तमन्ना जीवन भर खेल के लिए रहूं समर्पित 
मागेश कहते हैं कि खेल पत्रकारिता और छायांकन में युवाओं के लिए प्राप्त अवसर है। आज भी क्षेत्र में लोगों की कमी है। हां जरूरी यह है कि इस क्षेत्र में आने वाले लोगों के पास धैर्य और एकाग्रता होनी चाहिए।
मैंने अपने जीवन का प्रमुख समय खेल छायांकन को दिया है। मैं रिटायर होने के बाद भी इससे जुड़ा रहना चाहता हूं। मैं अपने अनुभव और कौशल का प्रयोग नए छायाकारों को निखारने में करना चाहुंगा।
बहरहाल खेल की दुनिया आपको अनुशासन, आत्मविश्वास और जोश देती है।

“मुझे एक खेल छायाकार होने पर गर्व है, गर्व यह भी कि देश के राष्ट्रीय चैनल के साथ देश के लिए काम कर पा रहा हूं।”

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कहानी उस शिखंडी बैंड की.. जिसने पूरे महाराष्ट्र में तहलका मचा रखा है

वे अब न सिर्फ आपके साथ जहाज उड़ाएंगे. वे अब न सिर्फ कंधे से कंधा मिलाकर पुलिस सेवा में शामिल होंगे. न सिर्फ डॉक्टर, इंजीनियर बनकर ऊंचाइयां हासिल करने की ललक होगी उनकी. वे हर कदम आपके साथ होंगे. आपके सुख में, दुख में. हर चीज में. वे हैं महाराष्ट्र की प्रताड़ित ट्रांसजेंडर जिन्हें समाज ने दुत्कारा लेकिन आज पूरे राज्य में उनका तहलका है. उनके बीट्स पर पूरा महाराष्ट्र झूमता है. यह कहानी है राज्य की पहली ट्रांसजेंडर बैंड पार्टी ‘शिखंडी’ की.

‘ट्रांसजेंडरों में हुनर की कमी नहीं’

मनस्वी गोयलकर नाम की ट्रांसजेंडर ने इस बैंड पार्टी को बनाया है. गोयलकर कहती हैं, ‘ट्रांसजेंडर समाज में भी बहुत सारे हुनर और कला है. उचित अवसर नहीं मिलने की वजह से यह समाज आज भी काफी पिछड़ा हुआ है. अस्तित्व की लड़ाई के रूप में हमने शिखंडी ढोल ताशा टीम की शुरुआत की.’

और ऐसे हुआ ‘शिखंडी’ का जन्म

शुरू में गोयलकर को इस सफर में काफी कठिनाइयां झेलनी पड़ी लेकिन आज यह बैंड लोगों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं. इस बैंड की स्थापना से पूर्व गोयलकर दूसरे मंडलियों से संपर्क किया था, लेकिन ट्रांसजेंडर होने की वजह से उन्हें निराशा ही मिली.  हालांकि, निराशाएं उन्हें मजबूत करती गईं. फिर उनके जीवन में गुरु कादंबरी शेख का सहयोग मिला और फिर ‘शिखंडी’ का जन्म.

आज ‘शिखंडी’ से जुड़े हैं 30 मेंबर

यह यात्रा आसान नहीं थी. इंस्ट्रूमेंट्स की सुरक्षा, अभ्यास के लिए स्थान और प्रशिक्षण प्राप्त करना महत्वपूर्ण चुनौतियाँ थीं. गोयलकर कहती हैं, “मेरे गुरु ने ट्रांसजेंडरों की एक स्वतंत्र टीम शुरू करने का फैसला किया. हमने काम करना शुरू किया,  लेकिन किसी को भी इंस्ट्रूमेंट्स बजाने का एक्सपीरियंस नहीं था. इसे मजबूत करने के लिए नादब्रह्म ढोल-ताशा टीम के अतुल बेहरे ने टीम में शामिल ट्रांसजेंडरों को ट्रेनिंग दी. आज शिखंडी से 30 मेंबर जुड़े हैं.

गणपति में प्रदर्शन से दीवाने हुए लोग

शिखंडी का संदेश साफ है कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति दूसरों के साथ सक्षमता से खड़े हो सकते हैं. इस साल गणपति पर्व में शिखंडी ने जोरदार प्रदर्शन किया. जिसे देख-सुनकर लोग दीवाने तो हुए. जागे भी. प्रेरणा भी मिली.

शिखंडी कहानी है आशा की किरण की

शिखंडी की कहानी आशा की किरण के रूप में काम करती है. यह दिखाती है कि दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति से प्रतिकूल परिस्थितियों पर विजय पाई जा सकती है. शिखंडी का मानना है कि जब वे मंच पर उतरेंगे तो वे न केवल मनोरंजन करेंगे, बल्कि सामाजिक मानदंड को भी चुनौती देंगे. जिससे समाज में उन्हें उसी तरह स्वीकार किया जाए, जैसे औरतों और मर्दों को किया जाता है.

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कौन हैं नैंसी त्यागी जिन्होंने कान फिल्म महोत्सव में महफिल लूट ली ?

‘सिनेमा का मक्का’ कान फिल्म फेस्टिवल. जहां हर टूट पूंजिया कलाकार भी जिंदगी में कम से कम एक बार जरूर जाना चाहता है. जरा सोचिए कि आर्थिक तंगी के कारण जिनकी मां कोयले की धूल से सनी रोज घर आती थी. जो मनचाही पढ़ाई नहीं कर सकी. वो नैंसी त्यागी ने ‘कान’ में जाकर अपना जलवा बिखेरकर प्रसिद्धि हासिल की.

‘मुझे घर के हालात बदलने हैं’

यह कहानी है उत्तर प्रदेश के बरनावा गांव की रहने वाली 23 वर्षीय नैंसी त्यागी की. घऱ की  हालत ठीक नहीं थी. मां कोयला खदान में काम करती थी. रोज कोयले की धूल से सनी घर आती. उसी कमाई से घर चलता. वह अपनी मां और परिवार को इस हाल से उबारना चाहती थी.

आर्थिक तंगी के कारण छूटी पढ़ाई

मां को समझाया तो कुछ पैसे जुटाकर उसे पढ़ने के लिए दिल्ली भेजा गया. साल था 2020 का. कोरोना वायरस का प्रकोप चरम पर था. घर में और भी जरूरतें थीं. सिविल सेवा की तैयारी का मकसद लेकिन वित्तीय तंगी के कारण कुछ दिनों में नैंसी के परिवार का हौसला टूट गया.

नैंसी कहती हैं, “हमारे पास कोचिंग की फीस के साथ-साथ घर के खर्चे के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे. लॉकडाउन के दौरान मेरी मां की नौकरी चली गई. हमने सोचा कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद कोचिंग शुरू होने तक हमारे पास पर्याप्त पैसे नहीं बचेंगे. इसलिए हमने एक कैमरा खरीदा और  हैंडमेड खूबसूरत कपड़े बनाने का वीडियो सूट करना शुरू कर दिया’’

कान फिल्म महोत्सव से मिला न्यौता

नैंसी के पिता अपने गांव में परिवहन का कारोबार करते हैं. उन्होंने भी अपनी बेटी की मदद की. चार साल बाद नैंसी की यह कड़ी मेहनत रंग लाई और वह कान पहुंच पाईं. उन्हें फिल्म महोत्सव में एक ‘फैशन इंफ्लुएंसर’ के रूप में आमंत्रित किया गया था और वह शुरूआत में थोड़ी डरी हुई थीं.

ऐसा रहा कान का अहसास

पीटीआई-भाषा को दिये एक इंटरव्यू में नैंसी कहती हैं, शुरू में मैं काफी डरी हुई थी, लेकिन मेरी टीम ने मुझे राजी कर लिया और मैं वहां गई. ऐसा लग रहा है कि यह मेरे जीवन का सबसे सही फैसला था. कार से नीचे उतरने तक मैं डरी हुई थी लेकिन जैसे ही उतरी मुझे बिल्कुल ही अलग ही अहसास हुआ.’’

नैंसी ने जताया आभार

हाल में संपन्न हुए कान फिल्म महोत्सव में भागीदारी करने वाली युवा डिजाइनर ने कहा, ‘‘मैंने तस्वीरें खिंचवाईं. वे वायरल हो गईं और लोगों को ये पसंद आईं. मैं उनकी बहुत आभारी हूं. मैं कान पहुंची इंफ्लुएंसर में एक थी. मैं खुश हूं कि हमारा देश प्रगति कर रहा है.’’

सोनम कपूर के लिए तैयार करना चाहती हैं परिधान

नैंसी अब फिल्म अभिनेत्री सोनम कपूर के लिए परिधान तैयार करना चाहती हैं. कपूर फैशन के प्रति अपनी विशेष रूचि के लिए जानी जाती हैं और उन्होंने कान में पहने गए त्यागी के परिधान की प्रशंसा की है तथा इंस्टाग्राम पर उसे साझा भी किया. अब नैंसी किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं.

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कहानी उस गांव की.. जहां 32 साल बाद कोई दलित दूल्हा घोड़ी चढ़ा

दूल्हों का घोड़ी पर चढ़कर बारात जाना आम रिवाज है. लेकिन अभी भी देश के कई गांवों में यह रिवाज समाज के अगड़े वर्गों तक सीमित है, क्योंकि वहां दलितों को अब भी घोड़ी पर चढ़ने की इजाजत नहीं है. वजह सिर्फ इतना ही वे दलित हैं.

दलित दूल्हों पर होते थे हमले

अनेकों घटनाएं हैं, जब दलित दूल्हे ने घोड़ी पर बैठकर बारात जाने की जहमत उठाई तो उनपर हमले हुए. हत्या तक कर दी गई. द बिग पोस्ट इसे समझाने के लिए आपको ले जा रहा है राजस्थान. जहां के हालात और आंकड़ों से इसे बखूबी समझा जा सकता है.

नाम मनोज बैरवा. उम्र 24 साल. शादी तय हो चुकी है. अब तक गांव में कोई भी घोड़ी से दूल्हा बनकर बारात नहीं गया है. मनोज ऐसा करने वाले पहले शख्स बनना चाहते हैं.

नीम का खेड़ा गांव में ऊंची जातियों का दबदबा रहा है. इन्होंने अतीत में दलित दूल्हों पर खतरनाक हमले किए हैं. पहले दूल्हे का परिवार काफी डरा हुआ था. उन्होंने कहा, कि अगर पुलिस कहती है तो हम नहीं करेंगे. लेकिन अगर पूरा गांव कहता है तभी हम ऐसा करने (घोड़ी से दूल्हा का बारात जाने) को तैयार हैं.जय यादव, एसपी, बुंदी जिला

ऐसे मामलों के सामने आने के बाद बूंदी जिले की पुलिस गांवों में बैठकें करवा रही हैं, जिससे कि समाज की पुरानी सोच बदली जा सके.

इसी डर से बिगड़ी थी बुआ की शादी

बैरवा के लिए यह मुद्दा काफी संवेदनशील है. क्योंकि करीब 30 साल पहले इनकी बुआ की शादी इसी वजह से बिगड़ गई थी. उनकी बुआ कन्या बाई कहती हैं कि जब उनकी शादी हो रही थी. और उनका होने वाला दूल्हा घोड़ी पर बैठकर आया था तो उनके साथ मारपीट की गई थी. और उनका सेहरा भी गिरा दिया था. वो शादी तो करके चले गए लेकिन मुझे नहीं ले गए.

मंदिर के सामने से गुजरने की मनाहट

गांव के अगड़ी जातियों का दबदबा इस कदर है कि वे गांव के मंदिर के सामने से भी दलितों के बारात गुजरने देने से मना करते हैं. करीब 32 साल बीत चुके हैं जब कोई दलित दूल्हा घोड़ी बैठा होगा. किसी की हिम्मत ही नहीं होती. लोग भूल चुके हैं, कि ऐसा वे भी कर सकते हैं.

महिलाओं और बुजुर्गों में हमेशा डर

मनोज बैरवा की घोड़ी चढ़ने की इच्छा हुई तो प्रशासन भी सामने आया. शादी का दिन भी आ गया. हलवाई मिठाइयां और पकवान बना रहे हैं. मनोज को उबटन लग रहा है. घर में चहल पहल है. वहीं महिलाओं और बुजुर्गों में एक डर है कि कहीं उन्हें फिर से पीड़ा न झेलना पड़े. प्रताड़ना का. नीच दिखाए जाने का. किसी तरह के तनाव हो जाने का.

डर भी दूर हो रहा.. अधिकार भी मिल रहा

मनोज घर की महिलाओं को समझाते हैं. डरना नहीं है. कोई दिक्कत नहीं है. वह कहते हैं, हमारा अधिकार है ये हम तो इसे लेंगे ही. आखिरकर बैरवा घोड़ी चढ़ते हैं और बिना किसी रुकावट के बारात निकलती है. घोड़ी पर चढ़कर वह न सिर्फ बारात गए, बल्कि गांव के उन इलाकों में भी घूमे जहां उन्होंने पहले कभी कदम भी नहीं रखा था. बारात जाते हुए बैरवा कहते हैं जो हमारी बुआ न कर सकी, उसे हमने कर दिखाया है.

अब गांव में माहौल ठीक है

गांव के लोग मानते हैं कि अब गांव में माहौल ठीक हो रहा है खासकर दलितों की शादियों को लेकर. अब चीजें बदल रही हैं. बहुत बदल गई हैं. अब इस तरह की कोई बाधा नहीं है. यह सब हो पाया है शासन द्वारा लागू किए गए सख्त कानून, पुलिस की मुस्तैदी और प्रशासन की जन जागरुकता के कारण. न जाने कितनी बैठकें हुईं. कितने समझौते हुए तब जाकर यह मुहिम अब रंग ला रहा है.

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ठेले पर समोसा बेचने वाले ने क्रैक की NEET यूजी परीक्षा, अच्छा डॉक्टर बनकर सेवा करना चाहता है सन्नी

कहते हैं कि जहां चाह वहां राह. वो समोसे का ठेला लगाता था. वो स्कूल भी जाता था. रेहड़ी पर घंटों तक काम करता. कुछ कमाई हो जाती तो घर लौटता. तब तक रात के 10-11 बज चुके होते थे. पर उसे कुछ बड़ा करने की चाहत थी. वो रात-रात भर पढ़ाई करता. और फिर वो हुआ, जिसका सबको उम्मीद थी. शानदार सफलता.

720 में से हासिल किए 664 अंक

यह कहानी है उत्तर प्रदेश के नोएडा में समोसे की रेहड़ी चलाने वाले सन्नी कुमार की. 18 साल के सन्नी ने नीट यूजी परीक्षा दी थी जिसमें उसने 720 में से 664 अंक प्राप्त किए हैं. अब सन्नी की कहानी तेजी से सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है. वह उन तमाम छात्रों के लिए प्रेरणा बन गए हैं, जिन्हें सुविधाओं के अभाव में प्रतिभा का दम घोंटना पड़ता है.

“पापा हैं लेकिन उनका सपोर्ट नहीं है. लेकिन घर में मम्मी हैं, उनका पूरा सपोर्ट है. मैं मम्मी से कहता था, कि मम्मी मुझे कैसे भी करके पढ़ा दो. कंधे पर हाथ रख दो. मुझे पढ़ना है. मुझे कुछ बनना है.”- सन्नी कुमार, नीट क्वालिफाईड

कोर्स खरीदने तक के पैसे न थे

सन्नी की आर्थिक हालत ऐसी थी कि उसके पास न तो कोचिंग पढ़ने के पैसे थे और न ही ऑनलाइन सब्सक्रिप्शन खरीदने के. वह कहता है कि उसके एक दोस्त ने लैपटॉप और मोबाइल दोनों में लेक्चर चलने वाला सब्सक्रिप्शन खरीदा था. लैपटॉप से वह खुद पढ़ता था और मोबाइल से सन्नी. ऑनलाइन टीचिंग एप फिजिक्स वाल्लाह के लेक्चर और यूट्यूब पर उपलब्ध चंद वीडियो के दम पर सन्नी ने यह सफलता हासिल की.

जो मिला वो किस्मत नहीं, मेहनत है

सन्नी को जो मिला है वो किस्मत नहीं है. वो सन्नी की अथक मेहनत है. रातों को रात न समझने का परिणाम है. दीवारों पर चिपके नोट्स मेहनत का स्तर परिभाषित कर रहे हैं. ये महज नोट्स नहीं हैं, कह लीजिए सफलता का वो सूत्र है जिसे बड़े-बड़े कोचिंग संस्थान मोटी-मोटी तनख्वाह वसूलकर भी नहीं दे पाते हैं.

फिजिक्स वाल्लाह ने की मदद

सन्नी कहते हैं कि जब वो रात-रात भर जगकर पढ़ाई करते थे, तो आंखों में दर्द हो जाता है. दवाई लेने के बाद दर्द जब ठीक हो जाता था, तो फिर से पढ़ाई शुरू हो जाती. सन्नी की इस सफलता के बाद फिजिक्स वाल्लाह के अलख पांडे ने भी सन्नी से बात की. साथ ही उनकी तरफ से सन्नी को 6 लाख रुपए देने की बात कही गई है.

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