कहानी,कार्टून से क्रांति का प्रवाह लाने वाले पवन की

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“छुटपन में ही नन्हीं अंगुलियों ने पेंसिल की जुगलबंदी सीख ली। आड़ी – तिरछी रेखाएं खींच कभी चाचा चौधरी का कैरेक्टर कागज पर उतारते तो कभी साबू और नागराज का कार्टून बनाते।धीरे -धीरे यह पात्र रोजमर्रा के जीवन से चुने और बुने जाने लगे। बच्चों के लिए छपने वाले पराग में रचनाएं छपने लगी। फिर अन्य पत्र पत्रिकाओं में भी जगह मिलने लगी। स्कूल की उम्र में ही दिल में पनपे कार्टूनिस्ट ने पाठकों को प्रभावित करना शुरू कर दिया। शोहरत और जेब खर्चा लायक पैसे भी आने लगे । फिर रूख राजधानी का किया। एक वर्कशॉप में किसी प्रबुद्ध से व्यक्ति ने अपमान के भाव से कह दिया कार्टून हिन्दी की चीज नहीं हिन्दी में तो बस चुटकुले बनते हैं। बात मन में इतनी गड़ गई कि रात भर आंखें भींगती रही और मस्तिष्क चिंतन में रमा रहा। फिर मन में दृढ़ संकल्प की गठरी बांधे पटना की ट्रेन पकड़ ली। सालों फुटपाथ पर बिताया। रिक्से -ठेले वाले की भाषा और सोच का अध्य्यन करते , उनके साथ रहते और कार्टून बनाते। समसामयिक मुद्दों पर बिहारी बोली में बने इन कार्टूनों का क्रेज ऐसा हुआ कि कार्टून ने नीचे के सिंगल बाक्स से निकल फ्रंट पेज पर आठ कालम की जगह बनाई। आज इस काटूर्निस्ट पर कई रिसर्च हो चुके हैं। दुनिया की नामी टेक्सास युनिवर्सिटी में इनके कार्टून पर आधारित सिलेबस शामिल हैं। सरकार के कई सामाजिक अभियानों में ये ब्रांड एम्बेसडर हैं। आज की कहानी नन्ही सी उम्र से ही देशज बोली में हंसाते – गुदगुदाते और बतियाते कार्टून बना राज और समाज को नींद से जगाने वाले प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट पवन की…”

देखिए मेरे कार्टून बनाने का सफर मेरे बचपन के सफर के साथ ही शुरू हो गया। बचपन में दिमाग में जो चलता उसे कार्टून के रूप में कागज पर उतार देता। शुरुआत तो स्कूल के ब्लैक बोर्ड पर टीचर और सहपाठियों के किस्सों को उतारने से हुई। घर में अखबार कई आते थे। अमर चित्र कथा में रामकृष्ण परमहंस की कहानियां पढ़ता। चूहआ- बिल्ली गाय का का फ्रेम बनाता। चुटकुले लिख उनका स्केच बनाया। तीसरी कक्षा में था तो पहली रचना छपी। वह पत्रिका थी ‘सुलभ इंडिया ‘ सुलभ इंटरनेशनल इसे प्रकाशित करता था । इसके बाद सुलभ इंडिया में प्रत्येक सप्ताह मेरी रचना छपने लगी। जहां तक पोलिटिकल सटायर वाले कार्टून की बात है तो वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर जी के साप्ताहिक अखबार में सबसे पहले राजनीति पर आधारित मेरे कार्टून छापने लगे। फिर पराग जैसी पत्रिकाओं में ये छपने लगी। इसके बाद रूख अखबारों का हुआ।

मैं अपने स्कूल का एक मात्र ऐसा बच्चा था जो अखबार लेकर स्कूल जाता था। पराग में एक कार्टून के उस वक्त 60रूपये मिल जाते। अखबार में 30 रुपए प्रति कार्टून मिलते थे। मैं इस कला के विकास के पीछे उस वक्त की पत्र पत्रिकाओं को इसका श्रेय देना चाहता हूं। उस वक्त हर पत्र- पत्रिका में बच्चों के लिए एक स्पेस जरूर होता था। बाल पत्रिकाएं भी एक से एक होती थी। नंदन, चंपक, पराग, चंदामामा जैसे बच्चों की स्तरीय पत्रिकाएं छपतीं – बिकती थी। इसके साथ कंप्यूटर से तेज दिमाग वाले चाचा चौधरी का कामिक्स भी। मेरे घर में किताबों के लिए खुब जगह थी। ज्यादा पत्रिकाएं घर में आती तो इन सब से बचपन में ही एक माहौल मिला और इससे मेरे अंदर के भाव कागज पर उतरने उतरते छपने लगे। कहते हैं प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट पवन।


और चुपचाप दिल्ली की ट्रेन पकड़ ली

पवन आगे बताते हैं कि जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था तो एक रोज श्रमजीवी एक्सप्रेस का टिकट 120 रूपए में कटवाया और चुपचाप दिल्ली निकल गया।‌उस वक्त पिताजी दिल्ली में रहते थे। वहां मनोहर श्याम जोशी जी के सानिध्य में काफी वक्त बीता। मैंने लगभग दो माह मनोहर चाचा जी के यहां गुजारे। उस वक्त टीवी धारावाहिक ‘कक्का जी कहिन’ का काम चल रहा था। यह व्यंग्यात्मक धारावाहिक दूरदर्शन पर काफी लोकप्रिय हुआ। चाचाजी के यहां उस वक्त ओमपुरी, आशीष विद्यार्थी आदि आते रहते। मैं कक्का जी कहिन’के संवाद और मेकिंग चुपचाप देखता – सुनता -समझता रहता। चाचाजी ने ही दिल्ली में कई प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट से मेरी मुलाकात करवाई जिसमें सुधीर दर का नाम भी शामिल है। इस वक्त मुझे नवभारत टाइम्स में ब्रेक मिल गया था और मैं अखबार लेकर स्कूल जाता था।

इस वाकए ने बदल दी जिंदगी

पहले कार्टून में हिन्दी में संवाद कम होते थे। हिन्दी के पोलिटिकल कार्टून बनाते भी कम थे। मैं दिल्ली के एक कार्यक्रम मे शिरकत कर रहा था। इस दौरान एक व्यक्ति से मिलवाते हुए मिलवाने वाले ने मेरा परिचय देते हुए यह कहा कि ये पवन हैं और हिंदी में कार्टून बनाते हैं। उसपर उस व्यक्ति ने कहा कि कार्टून हिंदी में। हिंदी में तो बस चुटकुले होते हैं। कार्टून तो अंग्रेजी की चीज़ है। इस बात ने मेरे मन को अंदर तक झकझोर दिया। मैं वहां से लौटा तो मुझे रात भर नींद नहीं आई। मैंने संकल्प किया कि मैं हिन्दी में कार्टून को प्रसिद्धि दिलाकर ही रहूंगा और मैं इसी प्रण के साथ पटना लौट आया।

फुटपाथ पर बिताया पांच साल

पवन बताते हैं कि मैंने जो प्रण लिया था उसे पूरा करने के लिए पटना लौटा और घर में रहने की वजाए फुटपाथ पर रहने लगा। मैं फुटपाथ पर रिक्शा – ठेला वालों के साथ रहता। सुलभ -शौचालय में फ्रेश होता और शाम को कार्टून लेकर अखबार के दफ्तर। यह दिनचर्या पांच साल चला। इसके पीछे मकसद था कि हासिए पर रह रही आबादी किस तरह की भाषा बोलती है। उसकी सोच सियासत और राज-काज को लेकर कैसी है। उसके सपने क्या है। इन सब को देखने समझने का नजदीक से मौका मिला। मैंने इन्हें कार्टून में उतारना शुरू कर दिया। भाषा भी खरी हिन्दी की जगह बिहारी टोन को चुना जैसा की ये लोग बोलते हैं। पवन आगे कहते हैं कि पटना में बिहार के अलग-अलग हिस्सों से लोग मजदूरी करने रिक्शा चलाने आते हैं। ऐसे में अलग अलग जिलों भाषा शैली मुझे यहां से मिलती चली गई।

मिला आठ कालम का स्पेस,

मैंने अपने कार्टून में काफी नये प्रयोग किए। भाषा को लेकर और कैरेक्टर को लेकर भी। मेरी कोशिश यह रही कि एक आम बिहारी कैसे रोजमर्रा की चीजों को फील करता है उसे उसी ढंग से कार्टून के जरिए बता सकूं। दौर मंडल कमीशन था। मैंने बिहारी शैली में कार्टून सीरीज बनाए और एडिटर से बात की उन्होंने मेरे कार्टून को पहले पन्ने पर आठ कालम की जगह दी। यह प्रयोग पाठकों को खुब पसंद आया। इस कार्टून सीरीज से पाठकों की संख्या बढ़ने लगी। देखते -देखते यह डिमांडिंग हो गया। की लोग सिर्फ कार्टून पढ़ने के लिए अखबार पढ़ने लगे। यह अनूठा प्रयोग था। इससे पहले कहीं भी न तो कार्टून को आठ कालम की पट्टी का स्पेस मिला था न गवई अंदाज में कार्टून सीरीज बन रहे थे। यह सिलसिला लंबे वक्त तक चला और इसने मुझे और मेरे कार्टून को एक नई पहचान दी।

किस्सा लालू जी के कार्टून का

पवन बताते हैं कि कार्टून बनाने के लिए वे उस वक्त के मुख्यमंत्री और राजनेताओं से मिलते और उनके हाव- भाव और दिनचर्या का अध्ययन करते। इसी कड़ी में सत्येन्द्र नारायण सिंह, जगन्नाथ मिश्र, लालू प्रसाद यादव, देवीलाल, बीपी सिंह आदि से मुलाकात हुई। लालू प्रसाद जब मुख्यमंत्री बने तो उन पर इससे पहले कोई कार्टून नहीं बना था। फिर मैंने उन्हें अनुरोध किया कि मुझे कार्य के दौरान वहां बैठने की इजाजत दी जाए। लालू जी ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर लिया। मैं रोज मुख्यमंत्री आवास जाता और लालूजी के अंदाज को देखता और कार्टून बनाया। यह वह दौर था जब कार्टून या आलोचना को सकारात्मक रूप में लिया जाता था। मैंने लालू प्रसाद के उपर कई जोरदार सटायर किए। सबसे अच्छी बात तो यह थी कि पटना पुस्तक मेला जिसे आप उस जमाने का फेसबुक भी कह सकते हैं में मेरी कार्टून सीरीज का लोकार्पण लालू प्रसाद यादव आकर करते रहे जबकि इन कार्टूनों में उनपर भी तीखे राजनीतिक व्यंग हुआ करते थे।


जब कार्टून के कारण सीबीआई आ पहुंची

पवन एक दिलचस्प वाकया सुनाते हैं कि कैसे कार्टून की वजह से उनके पास सीबीआई आ गई थी। दरअसल हुआ यह था कि बिहार में सोना मिलने की बात सामने आई थी और तत्कालीन वित्त मंत्री शंकर प्रसाद टेकरीवाल ने बिहार में सीटों की खुदाई करवाने की बात कही थी।
कई जगह खनन के लिए चिन्हित किए जाने थे। ऐसे में मैंने एक कार्टून बनाया कि बिहार में अपहरणकर्ता मैप के साथ आर्कियोलॉजिस्ट का ही अपहरण कर लेते हैं। हुआ यह कि इस कार्टून के तर्ज पर ही कोलकाता में एक आर्कियोलॉजिस्ट का अपहरण हो गया। इधर सीबीआई को यह कार्टून मिल गया। सीबीआई की टीम पटना पहुंची और मुझसे पुछताछ करने लगी कि यह कार्टून बनाया कैसे। आइडिया कैसे आया कब आया आदि।



आज संकट में है कार्टून

आज कार्टून की विधा संकट में है। हमने कार्टून का मान भूला दिया हैं। आज हम आलोचनाओं को खुद के उपर प्रहार की तरह देखने लगे हैं।


टेक्सास विश्वविद्यालय पहुंचा पवन का कार्टून

पवन के स्थानीय बिहारी बोली में बनाए गए कार्टून की चर्चा सात समंदर पार तक जा पहुंची और टेक्सास विश्वविद्यालय से आए शोधकर्ताओं ने इस पर शोधकार्य किया। आज टेक्सास विश्वविद्यालय के सिलेबस में यह शामिल है


माता – पिता के आशीष ने दी ऊर्जा

पवन मुस्कुराते हुए बताते हैं कि मैं रहने वाला तो वैशाली के महुआ का हूं पर भोजपुर ने मुझे गोद ले लिया है।
पवन आगे कहते हैं कि पिताजी भूपेंद्र अबोध जीवन की प्रेरणा स्रोत रहे वह अपने जमाने के प्रकट पत्रकारों में शामिल थे। उन्होंने साहित्यिक पत्रिका अधिकार के साथ शुरुआत की थी बाद में अपराधिक कहानियां और पॉलिटिकल रिपोर्टिंग में भी जुड़े रहे। इस तेरे मन नागार्जुन रेनू मनोहर श्याम जोशी जैसे लेखकों का घर आना-जाना होता इन सब ने मन में एक नई प्रेरणा दी।


पंकज त्रिपाठी संग ऐसे जमती थी चौकड़ी

पवन की रुचि कार्टून के साथ-साथ नाटक और रंगमंच में भी रही है और शुरुआती दिनों में वे रंगकर्म से से भी जुड़े रहे ।पवन बताते हैं कि अभिनेता पंकज त्रिपाठी, गणितज्ञ आनंद , विद्या भूषण त्रिवेदी और उनकी जोड़ी खुब जमा करती थी। पटना का कालिदास रंगालय हमारा अड्डा हुआ करता था। हम सभी साइकिल के पीछे ढोलक बंद कर लाते और प्रैक्टिस करते हैं। तब हमने उसे कोई यह नहीं जानता था कि हमारा भविष्य क्या होना है। मित्र विद्या भूषण त्रिवेदी अब इस दुनिया में नहीं है। बाकी सभी ने अपनी एक पहचान बनाई है और यह कर्म जारी है।


पत्नी ने सुधारी हिंदी

पवन बताते हैं कि उनके जीवन यात्रा में उनकी पत्नी सिंह रश्मि का खास योगदान रहा है। पत्नी हिंदी साहित्य के क्षेत्र से आती हैं। पवन कहते हैं कि मेरी हिंदी सुधारने से लेकर हिंदी उच्चारण तक को ठीक करने में पत्नी के महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वह हर कठिन वक्त में मुझे हौसला देती रही है।

मूल्यों वाली शिक्षा जरूरी

पवन मूल्य परक शिक्षा के खत्म होने पर चिंता जताते हुए कहते हैं कि मूल्यों वाली शिक्षा सबसे जरूरी है। हम बाबा भारती, आरुणि, बुद्ध और अंगुलिमाल की कहानियां पढ़ते हुए बड़े हुए आज कि स्कूली सिलेबस से यह कहानी गुम हो गई है। आज नैतिक शिक्षा का स्पेस घटता जा रहा है। समाचार पत्रों से भी बच्चों के पन्ने गायब हैं। बच्चों की पत्रिकाओं का कल्चर खत्म हो चुका है। मोबाइल और टीवी कार्टून और वीडियो गेम बच्चों को हिंसा की ओर बढ़ा रहे हैं ऐसे में हमें बोलने वाली शिक्षा की ओर लौटने की जरूरत है।

आज मुस्कान पर संकट

आज लोगों ने कार्टून का नैरेटिव हीं चेंज कर दिया है। अब लोग कार्टून को व्यक्तिगत विरोध मानते हैं। सेंस ऑफ ह्यूमर को बदल दिया गया है। ऐसे में कार्टून या कार्टूनिस्ट अपना काम कैसे करेगा। आप अपनी आलोचनाओं को ऐसे नकारात्मक रूप में लेंगे तो स्वस्थ समाज के निर्माण कैसे होगा। आज के दौर में मुस्कान पर ही संकट है। आप खुलकर मुस्कुराते नहीं । आज रेडिमेड स्माइली का प्रचलन है। हमने आभासी मुस्कान गढ़ लिया है। हमें अपने नजरिए को बड़ा करने की जरूरत है और दिमाग से नहीं दिल से आजाद होने की जरूरत है।

सरकारी अभियानों के ब्रांड एंबेसडर

पवन की लोकप्रियता के कारण उन्हें कई सरकारी अभियानों में ब्रांड एंबेसडर बनाया गया है। अपने इस काम को बखूबी अंजाम भी देते हैं दिलवाले स्कूली बच्चों को स्वच्छ रहने और स्वच्छता का महत्व समझाने की पहल कर रहे हैं। इसके साथ ही वे कार्टून के जरिए बच्चों के टेक्स्टबुक की सामग्री को भी रोचक बनाने की कोशिश भी कर रहे हैं।
कार्टून की कला से क्रांति लाने की पवन टून की यात्रा गतिमान है। इससे जहां समाज को एक दिशा मिल रही है वहीं कार्टून और अन्य कला माध्यमों से दुनिया बदलने की चाह रखने वालों को एक आशा भी।

(यह आलेख प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट पवन टून से thebigpost.com के फीचर एडिटर विवेक चंद्र से बातचीत पर आधारित है)

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