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हाथों की ऐसी हुनर.. जिससे पत्थर भी बोल उठता है, शिल्पकला का अनोखा गांव ‘पत्थरकट्टी’

“मेरे हाथों से तराशे हुए पत्थर के सनम, मेरे सामने भगवान बने बैठे हैं”.. “मैंने पत्थर से जिनको बनाया सनम , वो खुदा हो गए देखते देखते”. पत्थरों न जाने कितनी गजलें, कितने शेर चाहे जिस भी भाव में लिखे गए हैं. सीधे-सीधे इन शब्दों का जो अर्थ निकलकर आता है, उसे चरितार्थ कर रहे हैं बिहार की चंद पहाड़ियों की गोद में बसे एक छोटे से गांव के लोग. इनके हाथ जब पत्थर पर चलते हैं, तो मूर्तियां बोल पड़ती हैं.

पहाड़ियों की गोद में बसा है गांव

 

ऐतिहासिक धरोहरों, यहां की विशिष्टता के चलते बिहार विहार की धरती तो है ही. यहां की हुनर और कलाकारी की भी दाद देते आप नहीं थकेंगे. द बिग पोस्ट आज आपको वहां ले चलेगा, जहां के लोगों के हाथ जब पत्थरों पर चलते हैं, तो उन पत्थरों में जान आ जाती है. वह गांव है नालंदा और गया जिले की सीमा पर छोटी-छोटी पहाड़ियों की गोद में बसा ‘पत्थरकट्टी’.

शिल्पकला से जुड़ा है लगभग पूरा गांव

पत्थरकट्टी गांव की दूरी गया शहर से लगभग 30 किलोमीटर है. यह पंचायत है जिसकी आबादी लगभग 10 हजार की है. गांव की 75% फीसदी आबादी मूर्तियां बनाने का काम करती है. शायद पत्थरों के काटने और तराशने की कला के कारण ही इस गांव का नाम पत्थरकट्टी पड़ा होगा. पत्थरों काटकर नक्काशी करने और उसे मनचाहा मूर्तियों के आकार में ढालने के लिए गांव के लोगों को महारत हासिल है. गांव के लोग पत्थर को तराश कर बेहद खूबसूरत और बेशकमीती मूर्ति बनाते हैं, जिसकी डिमांड देशभर में है.

300 साल पुराना गांव होने की कहानी

गांव के बुज़ुर्गों की मानें तो करीब 300 साल पहले इस गांव को बसाया गया था. इंदौर (मध्यप्रदेश) की रानी अहिल्याबाई ने गांव को बसाया था. उन्हीं के निमंत्रण पर सैकड़ों ब्राह्मण राजस्थान से यहां पहुंचे थे. परंपरागत तौर पर मूर्ति बनाने का काम गौड़ ब्राह्मणों का था. कहते हैं कि यहां के पत्थरों में एक अलग ही खासियत थी, जिसकी वजह से ही मूर्तिकारों को यहां बसाया गया था.

विष्णुपद मंदिर का निर्माण करने का दावा

ग्रामीण कहते हैं कि गया का मशहूर विष्णुपद मंदिर का निर्माण भी इन्हीं मूर्तिकारों ने कभी किया था. गौरतलब है कि पत्थरकट्टी गांव सख्त काले पत्थर को तराश कर अनोखी नक्काशी करने के लिए मशहूर है. यहां के कारीगरों को सख्त से सख्त पत्थर (संगमरमर, ग्रेनाइट और सफ़ेद बलुआ पत्थर) को तराश कर मनचाहा आकार देने में महारत हासिल है. यहां के पत्थर की तराशी मूर्तियों की देश और विदेशों में भी खूब डिमांड है.

लाखों में बिकती हैं तराशी हुई मूर्तियां

पत्थरकट्टी पंचायत की ज्यादातर आबादी पत्थरों को तराशने और मूर्ति बनाने का काम करती है. इनमें महिलाएं और बच्चे भी हाथ बंटाते हैं. देवी-देवताओं, बड़ी शख्सियतों, महापुरुषों और हितजनों की मूर्तियों का यहां खूब डिमांड आता है. पत्थरों पर यहां के कलाकारों के हाथों की सफाई के कारण साधारण से लेकर उच्च किस्म की मूर्तियों की कीमत 10 लाख रुपए तक होती है.

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जब पूरा भारत गहरी नींद में होता है, तब इस गांव में हो जाती है सुबह, जानें क्या है रहस्य?

दुनियां के किसी छोर पर जब रात में तारे टिमटिमा रहे होते हैं, उस समय दूसरी छोर पर दिन में सूरज का ताप होता है. पृथ्वी के घूर्णन गति के कारण यह घटना तो आप बेहद आसानी से समझ गए होंगे. लेकिन क्या आपको मालूम है कि अपने ही देश भारत में जब कहीं अंधेरी रात होती है, उसी वक्त वहां उजाला होता है. दिन की शुरुआत हो चुकी होती है. सूरज डेरा डाले होता है.

विविधा में आज उस रहस्य से पर्दा उठाते हैं.

कहलाता है भारत का पहला सूर्योदय स्थल

भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में एक राज्य है अरुणाचल प्रदेश. राज्य के तवांग जिले में स्थित डोंग गांव में यह रहस्यमयी घटना रोज घटती है. इसी गांव में भारत का पहला सूर्योदय होता है. इस गांव को भारत का पहला सूर्योदय स्थल भी कहा जाता है. सूर्योदय वो भी सबसे पहले वाला को देखने के शौकीन यहां दूर दूर से देखने आते हैं. डोंग गांव के आसपास के इलाके को डोंग वैली के नाम से जानते हैं.

कहीं अंधेरी रात.. यहां बिखर जाती है लालिमा

इस गांव तक का सफर और फिर वहां अभूतपूर्व रोमांच का अनुभव इतना भी आसान नहीं है. जब उत्तरी या दक्षिणी भारत के किसी राज्य में रात के करीब दो या तीन बज रहे होते हैं. माने घुप अंधेरा. चांदनी रात हो तो चांद की हल्की रोशनी मालूम हो सकती है, नहीं तो अंधेरी-काली रात. जी हां, ठीक उसी वक्त डोंग गांव में लालिमा बिखरने लगता है.

रोमांच का अनुभव मुश्किलों भरा

सूरज को सबसे पहले उगते हुए देखने के लिए थोड़ी मेहनत करनी होगी. आपको पैदल चलकर उस स्थान पर जाना होगा, जहां सबसे पहले सूरज उगते हुए दिखता है. डोंग गांव का वह सन राइजिंग प्वाइंट काफी ऊपर स्थित है. चारों तरफ पहाड़ों पर फैली हरियाली उस वक्त काली नजर आती है. अंधेरे में टॉर्च और फ्लैश लाइट के सहारे ट्रैकिंग करना एक अवास्तविक अनुभव है. इस दरमियान आप प्रकृति की आवाज भी सुनेंगे.

ऊपर जाने पर तापमान हो जाता है कम

 

आप सनराइजिंग प्वाइंट की तरफ ऊपर चढ़ हैं. जैसे-जैसे आप ऊपर जाते हैं तापमान कम होने लगता है और हवा भी तेज़ हो जाती है. आम तौर पर पहले से जानकारी जुटाने के बाद लोग गर्म कपड़े पहनकर और हाथों को दस्ताने से ढंककर आगे बढ़ते हैं.

आधी रात से ही शुरू होता है रोमांच का सफर

लहराती पहाड़ियां हरे-भरे हरियाली से घिरी हुई हैं. प्रकाश की पहली किरणें इन घने पौधों पर अपना पीला और नारंगी रंग बिखेरती हैं और पर्यावरण को खूबसूरती से रंग देती हैं. आकाश के गहरे नीले रंग का नारंगी और गुलाबी रंग की पट्टियों में परिवर्तन आपके कैमरे से कैद करने लायक है. आप लगभग उस प्वाइंट पर पहुंच चुके हैं. अब लुत्फ उठाइये उस अद्भुत अलौकिक दृश्य का. चारों तरफ लालिमा है.

1240 मीटर की ऊंचाई पर अद्भुत नजारा

डोंग वैली को भारत की ‘उगते सूरज की भूमि’ के रूप में भी जाना जाता है. यह घाटी देश के सबसे पूर्वी छोर के करीब मौजूद है और यहां हर दिन पहली धूप मिलती है. यह 1240 मीटर की ऊंचाई पर है और लोग सूर्योदय देखने के लिए आमतौर पर रात 2 से 3 बजे के बीच ही सबसे ऊंचे शिखर पर पहुंच जाते हैं, ताकि भारत में सबसे पहले उगता हुआ सूरज दिखाई दें.

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हार्ट अटैक आया तो हजारों लोग ईश्वर से प्रार्थना करने लगे … इमोशनल कर देगी ‘5 रुपये वाले डॉक्टर’ की कहानी

नंगे पैर, सस्ती कमीज और साधारण सा पैंट पहने पर्चा लिखता यह शख्स और उसके सामने लाइन में खड़े 100-200 लोगों की भीड़. इस शख्स को लोग पांच रूपए वाला डॉक्टर भी कहते हैं. आज के दौर में यह ‘5 रुपया’ सुनने में बेहद सस्ता जरूर मालूम पड़ता है, लेकिन असल जिंदगी में इसका काफी मोल है. क्लिनिक खोलने के लिए पैसे नहीं हैं और न ही चाहत है कोई भव्य और चमचमाती बिल्डिंग की. बस मिठाई की दुकान के पास बैठकर यह डॉक्टर साहब मात्र पांच रुपये की फीस लेकर सालों से लोगों का इलाज कर रहे हैं.

5 रुपये फीस.. इसलिए 5 रुपये वाला डॉक्टर

नाम डॉ. शंकर गौड़ा. कर्नाटक के मांड्या जिले के एक छोटे से गांव में इनकी क्लिनिक चलती है. क्लिनिक क्या.. जहां मरीजों की लाइन शुरू हो जाए.. वही अस्पताल. डॉ. गौड़ा एक त्वचा रोग विशेषज्ञ हैं, जो अपने मरीजों से फीस के तौर पर सिर्फ 5 रुपये लेते हैं. वह अपने मरीजों को सस्ती दवाएं लिखने के लिए जाने जाते हैं और उनकी सफलता दर लगभग सौ प्रतिशत है. वर्षों से उनकी निस्वार्थ सेवा ने कर्नाटक के दूर-दराज के इलाकों से बड़ी संख्या में मरीजों को आकर्षित किया है.

पिछले 40 सालों से कर रहे प्रैक्टिस

डॉक्टर साहब कहते हैं,

“मैं 1982 से प्रैक्टिस कर रहा हूं. जब से मैंने अपना प्रैक्टिस शुरू किया है तब से 5 रुपये शुल्क ले रहा हूं. हमारे पास जो भी ज्ञान है, वह सबको समान रूप से देना चाहिए. जो मेरी शिक्षा के लिए जिम्मेदार (गांव के लोग) थे, उनके लिए मेरे ज्ञान का उपयोग होना चाहिए था.”

डॉक्टर साहब बताते हैं कि आज भी ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों की कमी है. आज भी वहां स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर नहीं है. ऐसे में डॉक्टर के लिए कम से कम एक साल तक ग्रामीण इलाकों में प्रैक्टिस अनिवार्य करना चाहिए.

 केंद्रीय मंत्री ने की सराहना

केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी डॉ गौड़ा के इस नेकी भरे कार्य की सराहना की है. उन्होंने कहा, ‘डॉ. गौड़ा गरीब लोगों के लिए जो कर रहे हैं, वह बहुत अच्छा है. सभी डॉक्टरों को इसी लाइन पर काम करना चाहिए.  ऐसी सोच समाज और खासकर गरीबों के लिए बहुत अच्छी बात साबित हो सकती है.

आज के दौर में जब मेडिकल की पढ़ाई व्यवसाय का विषय बन गया है, ऐसे में डॉ गौड़ा माइलस्टोन हैं निस्वार्थ सेवा के लिए. चाहते तो डॉक्टर साहब भी करोड़ों कमा सकते थे, लेकिन उन्होंने इसके बदले लोगों से खूब प्यार कमाया है.

पैसा नहीं.. प्यार खूब कमाया

इसलिए तो जब साल 2020 में डॉ गौड़ा को हार्ट अटैक आया और वो अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे, तब अस्पताल के बाहर हजारों लोगों की भीड़ जमा हो गई थी. यह भीड़ उनके मरीज, उनके परिजन और शुभचिंतकों की थी. सभी प्रार्थना कर रहे थे कि डॉक्टर साहब जल्द से जल्द ठीक हो जाएं. आखिरकार उनकी पुकार सुनी गई. डॉक्टर साहब ठीक हुए और फिर से निःस्वार्थ सेवा में जुट गए.

‘डॉक्टर धरती के भगवान होते हैं’ इसे चरितार्थ कर रहे हैं डॉक्टर शंकरे गौड़ा.

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इस डाकिया के हौसले को सलाम, घर..पोस्ट ऑफिस सब तबाह.. बावजूद हर चिट्ठी को मुकाम तक पहुंचाने की जद्दोजहद

केरल के वायनाड में प्रकृति का ऐसा कहर बरपा कि इसमें 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई. भूस्खलन में सैकड़ों घर जमींदोज हो गए. हजारों लोग हताहत हुए. जो बचा वो हाहाकार. चीख पुकार. गुमनामी. अंधेरा.

ऐसे हालात में जीना कितना मुश्किल है, यह मुंदक्कई के डाकिये पीटी वेलायुधन से बेहतर कौन जान सकता है. क्योंकि वह स्वयं भूस्खलन से बचे हैं. वह हर उस मंजर से गुजरे हैं, जिसमें अपनों ने अपनों को आंखों के सामने से गुम होता देखा है. उनसे बेहतर कोई नहीं जानता कि ऐसे हालात में पत्रों का लोग कितनी बेसब्री से इंतजार करते हैं.

आइये संकट के दौर में अपने कर्तव्यों को जीने वाले वेलायुधन की जिंदगी को जीते हैं.

आज से करीब 33 साल पहले वेलायुधन यहां काम करने के लिए आए थे. जब वह 29 साल के थे तब उकी पोस्टिंग यहां हुई थी. आज उनके रिटायरमेंट में 2-3 साल ही बाकी हैं, लेकिन अपनी ड्यूटी निभाने के लिए वे हर सीमा को पार कर रहे हैं.

गांव के लोगों से खूब प्यार मिला

वेलायुधन बताते हैं, जब सालों पहले मैं यहां आया था तो मुझे लोगों से बहुत प्यार मिला. मैंने यहीं बसने का फैसला किया. 13 साल पहले चूरलमाला में अपना घर बनाया हूं. गांव के कई लोगों के साथ मेरी अच्छी दोस्ती है. मैं लगभग सबको जानता हूं.

दो पते को ढूंढने में दिन गुजर गया

संतोष, मदाथिल हाउस, मुंडक्कई, वेल्लारमाला’ एक ऐसा पता था जिसे वह पूरे दिन तलाश रहे थे. एक अन्य पत्र अब्दु रहमान चेरिपराम्बा, पुत्र रायिन, चेरिपराम्बा, मुंडक्कई डाकघर, वेल्लारीमाला, वायनाड के नाम था.

खुद भूस्खलन में बाल-बाल बची जान

वेलायुधन ने पूरा दिन शिविरों से शिविरों तक जाकर दो पते खोजने में बिताया. वे खुद भूस्खलन में जीवित बचे हैं, और उनसे बेहतर कोई नहीं जानता कि लोग पत्रों का कितनी बेसब्री से इंतजार करते हैं. वे अब्दु रहमान को नहीं ढूंढ पाए जो भूस्खलन में लापता हो गए थे. संतोष के साथ भी यही स्थिति थी. किसी तरह उन्हें जानकारी मिली कि आपदा के बाद संतोष को वायनाड मेडिकल कॉलेज अस्पताल में उपचार मिला था. कार्यालय समय के बाद, वेलायुधन ने पाया कि संतोष अरापेटा में एक रिश्तेदार के पास सुरक्षित है. जिसके बाद उस पत्र को उन्होंने मुकाम तक पहुंचाया.

“कैंप में ज्यादातर लोगों के पास मोबाइल फोन नहीं है. इसलिए वे कहां रह रहे हैं इसका पता लगाना और भी मुश्किल हो रहा है. लेकिन हम किसी भी स्थिति में अपना काम करते रहेंगे. लोगों की जरूरी चिट्ठियां उनतक पहुंचाते रहेंगे”पीटी वेलायुधन, डाकिया

भूस्खलन में वेलायुधन के घर भी तबाह हो गया. समय पर परिवार के साथ बाहर गए होने की वजह से उनकी जान बच गई. उनका पोस्ट ऑफिस भी तबाह हो गया. वह अभी अपने रिश्तेदारों के साथ रह रहे हैं. ड्यूटी के प्रति वेलायुधन का जज्बा देखने लायक है. वह प्रेरणा हैं उन सबके के लिए जो मुश्किल हालात में उम्मीद और हौसला छोड़ने लगते हैं.

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आज कहानी ‘यूट्यूबर्स विलेज’ की.. जहां का हर युवा यूट्यूबर, गांव बन गया है ‘फिल्म सिटी’

यूट्यूब एक ऐसा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जो निश्चित ही समाज में क्रांति बनकर सामने आया. इससे न सिर्फ छोटी-छोटी जानकारियां सामने आने लगी, बल्कि करोड़ों लोग इससे कमाई भी करने लगे. हालांकि, समय के साथ बढ़ते यूट्यूब चैनल और घटते कंटेंट के कारण इन्हें चलाने वालों को निराशा भी हाथ लग रही है. ऐसे दौर में माइलस्टोन में पढ़िए उस सुदूरवर्ती गांव की कहानी.. जहां के दो युवा ने संसाधनों के अभाव में वीडियो बनाना शुरू किया और आज पूरा गांव ‘यूट्यूबर्स विलेज’ बन गया है.

ऐसे रखी गई नींव

छत्तीसगढ़ का तुलसी गांव. यह गांव भी आम गांवों की तरह ही था. सुविधाओं से जूझता. संसाधनों का अभाव. लेकिन यहां जो समृद्धि थी, वो शायद दूसरे में हीं. वो थी विरासत. संस्कृति. और परंपरा. इनसे वाकिब तो हर कोई था लेकिन तकनीक के इस दौर में इन्हें जीवंत रखने और कमाई का जरिया बनाने के लिए पहचाना गांव के दो दोस्त ज्ञानेंद्र और जय वर्मा ने.

साल 2018 में शुरुआत

यह सिलसिला शुरू हुआ साल 2018 में. दोनों दोस्तों ने मिलकर ‘Being Chhattisgarhiya’ नाम से एक यूट्यूब चैनल शुरू किया. जहां वे गांव के छोटे-छोटे किस्से, त्योहारों और घटनाओं के कॉमेडी वीडियो बनाकर अपलोड करने लगे. इन वीडियो को बनाने में वह गांव के स्थानीय लोगों की ही मदद लेते थे.

संसाधनों के अभाव में बंद होने लगे चैनल

धीरे-धीरे इन वीडियोज़ को दुनियाभर के लोग पसंद करने लगे और महज तीन महीने में ही जय और ज्ञानेंद्र को इससे अच्छी कमाई होने लगी. उनकी इस सफलता ने गांव में सबको यूट्यूब के लिए वीडियो बनाने के लिए प्रेरित किया. इस तरह एक के बाद लोगों ने 40 से अधिक यूट्यूब चैनल शुरू कर दिया. लेकिन सफलता की राह इतनी भी आसान नहीं होती है. कई चैनलों को बंद करने की भी नौबत आई. क्योंकि संसाधनों के अभाव में बेहतर वीडियो क्वालिटी दर्शकों को उपलब्ध नहीं हो पा रहे थे.

कलेक्टर की पहल.. गांव बन गया ‘फिल्म सिटी’

जब इस बात का पता जिला कलेक्टर डॉ. सर्वेश्वर नरेंद्र भुरे को चला तो उन्होंने गांववालों की मदद करने का फैसला किया. इस तरह गांव में प्रसाशन की मदद से ‘हमर फ्लिक्स’ नाम से एक स्टूडियो बन गया है. जहाँ गांववाले लेटेस्ट संसाधनों का उपयोग करके एडिटिंग और रिकॉर्डिंग जैसे काम कर सकते हैं. आज जहां दूसरे गांव के युवा नौकरी की तलाश में शहर आ रहे हैं ऐसे में इस गांव के लोगों ने सोशल मीडिया के दम पर गांव को ही शहर बना लिया है. कहते हैं गांव में अभी लगभग 100 के करीब यूट्यूब चैनल हैं और लगभग हर घर के युवा, जवान या बुजुर्ग इससे जुड़कर कमा रहे हैं. इस तरह से गांव और गांव के आसपास का इलाका कहें तो फिल्म सिटी बन गया है, जहां गांव के लोग ही एक्टिंग भी करते हैं और शूटिंग भी.

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देश का पहला आजाद गांव, जो सन् 1942 में ही हो गया था स्वतंत्र, पढ़ें आजादी के दीवानों की कहानी

जब देश के हर कोने में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद हो रही थी. सालों पहले बोए गए क्रांति के बीज की फसल काटने का वक्त नजदीक आ रहा था. आंगल सत्ता द्वारा पहनाई गई बेड़ियां खुलने वाली थी. देश का हर तबका अपने सिरे से आजादी की लड़ाई लड़ रहा था. तब गांव के 6 बहादुर ग्रामीणों को अंग्रेजी सरकार ने फांसी से लटका दिया था. ऐसे हालात में सन् 1942 में ही उस गांव ने अपने शौर्य और हिम्मत के बूते खुद को आजाद घोषित किया. माइलस्टोन में आज पढ़िए देश के पहले ‘आजाद गांव’ की कहानी…

साल 1942. जब महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया था, तब कर्नाटक के शिवमोगा के एक छोटे से गांव ने खुद ही अंग्रेजों से स्वतंत्र होने का फैसला कर लिया था. इस गांव का नाम था ‘ईसुरु’ जो स्वतंत्र होने वाला देश का पहला गांव बना. आजादी के बाद गांव में स्वराज सरकार के नाम का बोर्ड भी लगाया गया और तिरंगा भी फहराया गया था.

6 बहादुरों की फांसी के बाद बौखलाए गांववाले

गांव में क्रांति की आग तो पहले से ही लगी थी. तेज होते स्वतंत्रता के आंदोलन के साथ गांववालों के जोश भी आसमान चढ़ रहे थे. शायद जितनी लड़ाई दिल्ली और कोलकाता में लड़ी जा रही थी, उससे ज्यादा इन गांव में भी. बौखलाहट में अंग्रेजी सरकार ने ईसुरू के 6 बहादुर ग्रामीणों को फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया, जिसके बाद गांव उबल उठा. और फिर ये हुआ जो इस देश का इतिहास बन गया.

आजादी के बाद नियुक्तियां भी हुईं

इस गांव के 16 वर्षीय जयन्ना और मालपैया को तहसीलदार और उप-निरीक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था. उस दौरान यहां के साहूकार नेता बसवेनप्पा ने सोच समझकर इन दोनों को नियुक्त करने का फैसला किया, क्योंकि वे नाबालिग थे इसलिए उन्हें जेल नहीं भेजा जा सका.

गांववालों ने मिलकर अंग्रेजी प्रशासन की पूरी तरह से उपेक्षा करते हुए गांव के लिए नियमों का एक सेट भी पेश किया. जो अंग्रेजी राजस्व अधिकारी इकट्ठा करने आए थे, उन्हें किसानों ने वापस भेज दिया और टैक्स के दस्तावेजों को फाड़ दिया.

मंदिरों में आज भी ‘जिंदा’ हैं जवान

ईसुरु विद्रोह की खबर सुनकर मैसूर के महाराजा जयचामराज वोडेयार ने अंग्रेजों से कहा, येसुरु कोट्टारु एसुरू कोदेवु यानी हम आपको कई गांव दे सकते हैं लेकिन ईसुरु नहीं. महाराजा ने यह भांप लिया था कि ईसुरु ने जो किया था उससे देश के अन्य गांवों को एकता का संदेश जाएगा और वह दिन दूर नहीं जब इस धरती से अंग्रेज विदा होंगे. आज भी यहां बने मंदिर में देश के उन क्रांतिकारों की तस्वीरें रखी हैं, जिन्होंने ब्रिटिश शासन से देश को आजाद कराने के के लिए अपने जीवन का बलिदान दे दिया.

शहीदों को नमन

ईसुरु में एक पत्थर पर गोरप्पा,  ईशवरप्पा,  जिनहल्ली,  मलप्पा,  सूर्यानारायणाचर,  बडकहल्ली हलप्पा और गौडरशंकरप्पा के नाम लिखे हैं, जिन्हें 8 मार्च, 1943 में ब्रिटिश राज के खिलाफ बगावत करने पर फांसी की सजा दे दी गई थी. द बिग पोस्ट ऐसे सेनानियों को नमन करता है.

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जानें ‘हाथी गांव’ की दिलचस्प कहानी.. जहां हाथियों के लिए बने हैं घर, तालाब और अस्पताल

आप यह जानकर निश्चित ही थोड़ा चकित होंगे कि कोई गांव सिर्फ हाथियों के लिए बसाया गया है. जी हां, उस हाथी गांव में न सिर्फ हाथी रहते हैं, बल्कि उनके लिए शानदार घर, तालाब और अस्पताल जैसी व्यवस्था भी की गई है. तो आइये द बिग पोस्ट के साथ आपको हाथी गांव की सैर कराते हैं.

गांव में 80 है हाथियों की आबादी

राजस्थान की राजधानी जयपुर से जब आमेर की तरफ बढ़ेंगे तो तकरीबन 20 किलोमीटर दूर आमेर किले के पास यह गांव आपको मिलेगा. गांव का नाम ही है ‘हाथी गांव’. इस गांव के बारे में जब हम किसी आंकड़े या सुविधाओं की बात करें तो आप आंख मूंदकर हाथियों की ही समझिएगा. गांव की आबादी लगभग 80 है. यहां हाथियों के रहने के लिए सारे प्रबंध हैं, जिसे देखने देश ही नहीं, बल्कि विदेशी सैलानी भी यहां आते हैं.

हाथियों के लिए फ्लैट, तालाब और हॉस्पिटल हैं

हां, इस भ्रम में मत रहिएगा कि किसी आम गांव की तरह आप हाथी गांव के भी दो-तीन चक्कर देखते-देखते लगा सकते हैं. यह गांव पूरे 100 एकड़ में फैला हुआ है. जाहिर है गांव के निवासी भी तो ऐरावत महाराज हैं. खैर गांव घूमेंगे तो पता चलेगा कि यहां हाथियों के लिए रहने के लिए शानदार 1-बीएचके या 2 बीएचके टाइप घर बना हुआ है. उनके लिए तालाब बने हैं, जहां वे स्नान कर सकें. किसी कारणवश उनकी तबीयत खराब हो गई तो अस्पताल भी बनाए गए हैं. डॉक्टर उनकी सेहत का खूब ध्यान रखते हैं.

गजराज के भरोसे महावत की जिंदगी

हाथी के गांव में जाकर हाथी की सवारी न हो तो सफर अधूरा है. एलीफैंट विलेज में पर्यटक हाथी सफारी का खूब आनंद लेते हैं. इससे पर्यटक न केवल सफारी का लुत्फ उठा पाते हैं, बल्कि उन्हें हाथियों की जीवनशैली को पास से जानने का अवसर मिलता है. यहां हाथियों की देखरेख करने के लिए महावत के परिवार भी हाथियों के पास ही रहते हैं और उनका भरण पोषण भी हाथियों पर निर्भर रहता है.

इंसानों जैसे हाथियों के भी नाम

इनकी दुनिया भी बाकियों के मुकाबले अलग है, जो दिन-रात सिर्फ हाथियों के बीच ही बरसों से जिंदगी बिता रहे हैं. फिलहाल भारत के इकलौते हाथी गांव में 80 के करीब हाथी और इतने ही महावतों के परिवार रहते हैं, क्योंकि एक हाथी को एक महावत का परिवार देखभाल करता है. वहीं, इंसानों की भांति लक्ष्मी, चमेली, रूपा, चंचल जैसे हाथियों के नाम भी होते हैं और उन्हें नाम से ही पहचाना जाता है.

इंसानों की तरह हाथियों को मिलती है छुट्टी

इसके अलावा, विशेष पहचान के लिए हाथियों के कान के नीचे माइक्रोचिप भी लगाई गई है. वहीं, मौसम के हिसाब से हाथियों को महीने में 15 दिन छुट्टी भी मिलती है और सर्दी-गर्मी और बरसात के हिसाब इन्हें खाना दिया जाता है. हाथी गांव में हाथियों के रहने के लिए थान बने हुए हैं और एक ब्लॉक में तीन थान हैं और इस गांव में लगभग 20 ब्लॉक हैं.

साल 2010 में हाथी गांव की घोषणा

यही नहीं, हाथी के लिए अलग से स्टोरेज रूम के साथ महावत का कमरा भी थान के नजदीक ही होता है ताकि दिन-रात हाथी की मॉनिटरिंग होती रहे. दरअसल, देश आजाद होने के बाद जब आमेर फोर्ट को सरकार ने आम लोगों के लिए खोला तो यहां हाथी सवारी लोगों के बीच खासी लोकप्रिय हुई. ऐसे में आमेर के पास दिल्ली रोड पर एक गांव में हाथियों के रखने की व्यवस्था की गई. राज्य सरकार ने इस गांव में हाथियों की बढ़ती संख्या को देखकर इसे 2010 में हाथी गांव घोषित कर दिया.

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कैसी सरहदें.. कैसी दूरियां, भारत-पाकिस्तान की ‘सरहद’ कम करती दो मांओं की कहानी

यह कहानी भारत के नीरज चोपड़ा और पाकिस्तान के अरशद नदीम के सिल्वर और गोल्ड जीतने से आगे की है. यह कहानी है दो सरहदों की कम करती दूरियों की. वे सरहदें जो आजाद होने के बाद कभी अमन नहीं देखीं. ऐसे हालात में अरशद नदीम की मां रजिया परवीन और नीरज चोपड़ा की मां सरोज देवी ने जो कहा, उससे दुनिया में प्यार, खूबसूरती और सुकून का पैगाम गया है. इन बयानों को सुनने के बाद आप कह सकते हैं, कैसी सरहदें.. कैसी दूरिया..

सहरदों से दिल अलग नहीं होते..

दो अलग-अलग देश. भारत और पाकिस्तान. दो अलग-अलग मजहब. हिंदू और मुसलमान. ये दूरियां तो हैं दुनिया-समाज में, लेकिन कुछ दूरियां ऐसी हैं जो कभी कम नहीं होती. कभी कम नहीं होने वाली दूरियों की यह कहानी ऐसी है कि रजिया परवीन के बेटे नीरज चोपड़ा और सरोज देवी के बेटे अरशद नदीम कह दिया जाए तो इससे रिश्तों की खूबसूरती बढ़ती ही है.

भारत बनाम पाकिस्तान नहीं.. भारत संग पाकिस्तान

पेरिस ओलंपिक के जैवलिन थ्रो में पाकिस्तान के अरशद नदीम ने गोल्ड मेडल जीता. न सिर्फ उन्होंने गोल्ड मेडल जीता बल्कि ओलंपिक के रिकॉर्ड को भी तहस नहस कर दिया. वहीं भारत के नीरज चोपड़ा को सिल्वर मेडल से संतोष करना पड़ा. नीरज ने पिछले ओलंपिक में गोल्ड अपने नाम किया था. आम तौर पर जिस भारत बनाम पाकिस्तान मैच को रोमांच का नाम दिया जाता है. इस प्रतियोगिता में भारत संग पाकिस्तान देखने को मिला. जब तिरंगा लपेटे नीरज के संग पाकिस्तान के झंडे से लिपटे अरशद चांदी-और सोना दिखा रहे थे. इस वैश्विक प्रतियोगिता में यह दो एशियाई देशों का दबदबा था.

‘जिसका गोल्ड है.. वह हमारा ही लड़का’

अब सोना-चांदी से आगे की कहानी. चांदी जीतने के बाद नीरज चोपड़ा की मां सरोज देवी ने जो कहा वो दिलों को ठंडक देती है. उन्होंने कहा, “हम बहुत खुश हैं. हमारा तो सिल्वर ही गोल्ड के जैसा है. जिसका गोल्ड (अरशद नदीम) आया है, वो भी हमारा ही लड़का है. मेहनत करता है.”

मुहब्बत ने सरहद के उस पार अंदरूने मुल्क में जाकर घुसपैठ की तो उधर से भी इधर घुसपैठ हो गई.  अरशद की मां रजिया परवीन भी नीरज पर बयान दिया.

नीरज मेरा भी बेटा है- रजिया

रज़िया कहती हैं,

”वो मेरे बेटे जैसा है. वो नदीम का दोस्त भी है और भाई भी है. हार और जीत तो किस्मत की होती है. वो भी मेरा बेटा है और अल्लाह उसे भी कामयाब करे. उसे भी मेडल जीतने की तौफ़ीक अता करें.”

अब जिनकी मांएं इतना प्यारा बोलेंगी, उनके बेटे जब बोलेंगे या जब उन पर बात होगी तो वो कितनी मीठी होगी… ये समझिए.

अरशद नदीम ने गोल्ड जीतकर कहा, ”मैंने अपना पहला कॉम्पिटीशन 2016 में गुवाहाटी में नीरज भाई के साथ खेला. तब से पता चला कि नीरज चोपड़ा भाई जीतते आ रहे हैं. वहां मैंने पहली बार पाकिस्तान का रिकॉर्ड ब्रेक किया. वहां से मुझे शौक़ हुआ कि मेहनत करूं तो आगे जा सकता हूं.”

एक तरफ़ अरशद नीरज की तारीफ़ कर रहे थे. दूसरी तरफ़ नीरज अरशद की मेहनत का सम्मान कर रहे थे. नीरज चोपड़ा ने कहा, ”किसी खिलाड़ी का दिन होता है. आज अरशद का दिन था. खिलाड़ी का शरीर उस दिन अलग ही होता है. हर चीज़ परफेक्ट होती है जैसे आज अरशद की थी. टोक्यो, बुडापेस्ट और एशियन गेम्स में अपना दिन था.”

जो सुलगाते थे.. उन्होंने भी सराहा

शोएब अख़्तर अक्सर भारत में तब याद किए जाते हैं, जब किसी आक्रामकता की नुमाइश से जुड़ा मसला हो. ख़ासकर क्रिकेट से जुड़ी. मगर इस बार इस नुकीले भाले ने ऐसा खेल किया कि शोएब भी बोले- ये बात सिर्फ़ एक मां ही बोल सकती है.

इन बयानों से यह समझा जा सकता है, दोनों देशों के बीच प्यार का पैगाम फैलाना इतना भी मुश्किल नहीं है, जितना कि सरहदों पर फैले तनाव की खबरें टीवी स्क्रीनों पर दहकते रहती हैं.

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म्हारी छोरी ‘सोना’ से कम है के… गोल्ड छोड़ो.. देश जीत लिया.. पढ़ें विनेश फोगाट के संघर्ष की कहानी

भारत की अंक तालिका में सोना और चांदी का कॉलम में शून्य अच्छा नहीं लग रहा. पेरिस से आने वाली हर खबर का बेसब्री से इंतजार. तारीख 07 अगस्त, 2024. 50 किलोग्राम वर्ग फाइनल में भारतीय पहलवान विनेश फोगाट स्वर्ण पदक के लिए फाइनल मुकाबला खेलने वाली थीं. हर भारतीय को उम्मीद थी फोगाट जरूर गोल्ड लाएगी. तभी पेरिस से जो खबर आई, उससे करोड़ों भारतीय का दिल टूट गया. खबर थी- विनेश फोगाट ओलंपिक से अयोग्य घोषित हो गई हैं. वह भी महज 100 ग्राम वजन ज्यादा होने की वजह से. इस खबर के बाद सोशल मीडिया के साथ ही मेन स्ट्रीम मीडिया में भी बहस छिड़ गई.

साजिश… बहस और गोल्डेन बिटिया!
बहस ओलंपिक के तौर-तरीकों को लेकर भी. बहस पिछले साल कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली विनेश फोगाट और उनके साथियों के हार न मानने वाले प्रदर्शन को लेकर भी. बहस इस बात की भी कि देश का बड़ा तबका जहां एक सोने के लिए ओलंपिक की तरफ हसरत भरी निगाहों से देख रहा हो, वैसे में इस तरह से विनेश का डिस्क्वालिफाई कर दिया जाना कहीं साजिश तो नहीं. बहस इस बात की, किस मुंह से गोल्डेन बिटिया को सोने के लिए बधाई देंगे वे लोग, जो उनके प्रदर्शन पर चुप बैठे थे.

माइलस्टोन हैं विनेश फोगाट

जिंदगी जिंदाबाद के कॉलम में आप पढ़ रहे हैं कहानी भारतीय महिला पहलवान विनेश फोगाट की. कैसे छोटे से गांव से निकलकर धूल-माटी में चुनौतियों को पटखनी देते हुए दिल्ली के जंतर-मंतर के रास्ते राजनीति को ठेंगा दिखाते हुए पेरिस ओलंपिक के फाइनल में कैसे पहुंचा जाता, फोगाट की कहानी एक माइलस्टोन है.

गांव से निकलकर ओलंपिक तक का सफर

विनेश फोगाट हरियाणा के छोटे से गांव चरखी दादरी की रहने वाली हैं. उनके परिवार में कई पहलवान हैं और उनके पिता राजपाल फोगाट खुद एक पहलवान थे. उनकी दो चचेरी बहनें गीता और बबिता कॉमनवेल्थ गेम में स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं. उनके गांव में लड़कियों का पहलवान बनना अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन उनके चाचा और पिता ने समुदाय के खिलाफ जाकर अपनी बेटियों को पहलवानी सिखाई और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलवाई. बचपन से ही सीखे पहलवानी के दावपेंच विनेश फोगाट ने देश के लिए कई मैच खेले और पदक जीतकर आईं.

देश के लिए जीत चुकी हैं कई मेडल

29 साल की विनेश फोगाट ने बचपन से ही पहलवानी के दांव-पेंच सीखें और देश को एशियन गेम्स 2018 में देश के लिए सोना जीता. इसके अलावा उन्होंने 2014 में 48 किलोग्राम वर्ग में कांस्य पदक जीता था. वर्ल्ड चैंपियनशिप में विनेश फोगाट ने 2022 और 2019 में देश के लिए कांस्य पदक जीता था. यह दोनों पदक उन्होंने 53 किलोग्राम वर्ग के मुकाबले में हासिल किया था. कॉमनवेल्थ गेम्स 2014 में उन्हें 48 किलोग्राम, 2018 में 50 किलोग्राम और 2022 में 53 किलोग्राम वर्ग में स्वर्ण पदक मिला था.

विनेश ने की है प्रेम विवाह

विनेश फोगाट की शादी 13 दिसंबर 2018 में उनके पुराने दोस्त सोमवीर राठी से हुई है. सोमवीर राठी भी हरियाणा के ही रहने वाले हैं. दोनों ने एक दूसरे को काफी समय तक डेट किया था और उसके बाद दोनों ने शादी कर ली. सोमवीर राठी ने भी राष्ट्रीय मुकाबलों में स्वर्ण पदक जीता है. विनेश और सोमवीर रेलवे के कर्मचारी हैं.

कुश्ती से संन्यास का ऐलान

पेरिस ओलंपिक से अयोग्य घोषित होने के बाद निराश और दुखी भारतीय पहलवान विनेश फोगाट ने गुरुवार को कुश्ती से संन्यास की घोषणा कर दी. उन्होंने एक्स पर लिखा, “माँ कुश्ती मेरे से जीत गई मैं हार गई. माफ़ करना आपका सपना मेरी हिम्मत सब टूट चुके. इससे ज़्यादा ताक़त नहीं रही अब. अलविदा कुश्ती 2001-2024. आप सबकी हमेशा ऋणी रहूँगी. माफी.” विनेश भले ही ओलंपिक का सोना जीतने से चूक गई, लेकिन उन्होंने पूरा देश का दिल जीत लिया है. किसे याद नहीं है दिल्ली के जंतर-मंतर पर फोगाट पर पुलिस के द्वारा बल प्रयोग, किसे याद नहीं है उनका सड़कों पर घसीटा जाना. किसे याद नहीं है बारिश में भीगते हुए हक के लिए आवाज उठाना. सब याद है. सोना आए या न आए, ऐसे हौसलों का जिंदा रहना जरूरी है.

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पोस्ट ऑफिस की धांसू स्कीम, जमा करें एक लाख.. इतने दिनों लगभग 1.5 गुना रिटर्न्स

अगर आप भविष्य के लिए निवेश करने की सोच रहे हैं तो देश के सबसे भरोसेमंद सेक्टर में से एक पोस्ट ऑफिस में निवेश कर सकते हैं. पोस्ट ऑफिस सेविंग स्कीम में एक टाइम डिपोजिट स्कीम है जिसे आप एफडी स्कीम भी कह सकते हैं. इस स्कीम के तहत आपको एक, दो, तीन या पांच साल के निवेश का विकल्प मिलता है.

वर्तमान में भारतीय डाक एक साल के लिए TD (Time Deposit) करने पर  6.9 प्रतिशत, दो साल के लिए 7 प्रतिशत, तीन साल के लिए 7.1 प्रतिशत और 5 साल के लिए 7.5 प्रतिशत का इंटरेस्ट दे रहा है. ऐसे में मान लीजिए आप 1 लाख रुपये को इन अलग Period  में लगाना चाहते हैं तो मिलने वाले रिटर्न्स का कैलकुलेशन हम आपको यहां समझा रहे हैं.

1 साल के लिए टाइम डिपोजिट पर रिटर्न

अगर आप एक लाख रुपये एक साल के लिए पोस्ट ऑफिस टाइम डिपोजिट स्कीम में निवेश करते हैं तो  6.9 प्रतिशत ब्याज दर के हिसाब से ग्रो कैलकुलेटर के मुताबिक, आपको मेच्योरिटी पर कुल 1,07,081 रुपये मिलेंगे. इसमें ब्याज की रकम के तौर पर आपको 7,081  रुपये में मिलते हैं.

2 साल के लिए टाइम डिपोजिट पर रिटर्न

जब दो साल वाली टाइम डिपोजिट स्कीम में एक लाख रुपये निवेश करते हैं तो 7 प्रतिशत ब्याज दर के मुताबिक मेच्योरिटी पर आपको कुल 1,14,888 रुपये मिलते हैं. इस कुल रकम में ब्याज की रकम के तौर पर आपको 14,888  रुपये में मिलेंगे.

3 साल के लिए टाइम डिपोजिट पर रिटर्न

3 साल वाली पोस्ट ऑफिस टाइम डिपोजिट या एफडी स्कीम में एक लाख रुपये निवेश करने पर 7.1 प्रतिशत ब्याज दर से मेच्योरिटी पर आपको कुल 1,23,508 रुपये मिलेंगे. इसमें रिटर्न या ब्याज के तौर पर आपको 23,508 रुपये मिलेंगे.

5 साल के लिए टाइम डिपोजिट पर रिटर्न

5 साल के लिए यानी सबसे लंबी अवधि वाली टाइम डिपोजिट स्कीम में एक लाख रुपये निवेश करते हैं तो 7.5 प्रतिशत ब्याज की दर से पोस्ट इंफो के मुताबिक,  मेच्योरिटी पर कुल  1,44,995 रुपये मिलेंगे. इसमें 44,995 रुपये आपको ब्याज के तौर पर रिटर्न मिलेगा.

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