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‘थकी आंखों’ को रौशन करने की जैन समाज के इस अनोखी पहल को जान लीजिए

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लाल, पीले, हरे , गुलाबी, कुदरत ने इस दुनिया में ढ़ेर सारे रंग दिए और इन रंगों को देखने के लिए दी आंखें पर क्या आप जानते हैं कि देश में 62.6 फीसदी लोगों के आंखों की रौशनी मोतियाबिंद के कारण चली गई है। हर साल भारत में मोतियाबिंद के लगभग20 लाख मामले सामने आते हैं। इनमें ज्यादातर लोग ऐसे होते हैं जो जानकारी और पैसों के आभाव में मोतियाबिंद का ऑपरेशन नहीं करवा पाते और आंखों की रौशनी से महरूम हो जाते हैं। ऐसे में झारखंड के जैन समाज ने एक अनोखी पहल की है । क्या है यह पहल और कैसे इससे चमक उठी है थकी आंखों की नेत्र ज्योति, जानने – समझने के लिए पढ़ें यह आलेख

देखिए हर इंसान की आंखें कुदरत की अनमोल धरोहर है । यह धरोहर महफूज रहे, हर व्यक्ति की आंखें स्वस्थ हो यह हमारी संस्था की चाहत है। इसी को ध्यान में रखते हुए हम पिछले 18 साल से निशुल्क आई चेकअप कैंप व मोतियाबिंद का ऑपरेशन झारखंड के गांव -गांव में जाकर करते रहे हैं। इस कार्य को बेहतर बनाने के लिए हमने साल 2020 से मोबाइल वैन सेवा शुरू की। अब तक 399 कैम्प लगाकर हमने 26047 मरीजों के आंख की जांच की है और 430 मरीजों के मोतियाबिंद का आपरेशन कराया है। कहते हैं भगवान महावीर आई हॉस्पिटल के अध्यक्ष पूरनमल जैन सेठी । वो आगे बताते हैं हम सब अपने कि नेत्र ज्योति अभियान को और सशक्त करने के लिए अब इसे एक अत्याधुनिक नेत्र अस्पताल की शुरुआत कर रहे हैं। यहां निशुल्क मरीजों के आंख की जांच और मोतियाबिंद का ऑपरेशन हो सकेगा।

क्यों खास है भगवान महावीर आई हॉस्पिटल

जैन समाज द्वारा निर्मित भगवान महावीर आई हॉस्पिटल एक अत्याधुनिक नेत्र अस्पताल है। जिसका निर्माण रांची के बरियातू में किया गया है। इस अस्पताल का निर्माण व साथ सज्जा काफी खुबसूरती के साथ निर्धारित मानकों के अनुसार की गई है। इसके परिवेश में इस बात का ध्यान रखा गया है कि मरीज के मन में कहीं से यह भावना न आए कि वे एक खैराती अस्पताल में इलाज करा रहे हैं। यह अस्पताल गुणवत्ता में रांची के अन्य निजी अस्पतालों के समक्ष खड़ा हो सके इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है।
इसके लिए अस्पताल को अत्याधुनिक तकनीक और गुणवत्तापूर्ण मशीनों से लैस किया गया है। सबसे खास तो यह कि यहां इलाज कराने आए मरीजों को हाथ की जांच ऑपरेशन और दवाइयों के लिए आतिफ पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं होगी। उन्हें बस 30 रुपए रजिस्ट्रेशन में खर्च करने पड़ेंगे बाकी सारी सुविधाएं उन्हें निशुल्क मुहैया कराई जाएंगी।

जैन मुनि प्रमाण सागर जी ने रखी थी आधारशिला

लोगों की आंखों को स्वस्थ बनाने और उसमें नवज्योति भरने वाले संस्थान भगवान महावीर हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर की आधारशिला जैन मुनि प्रमाण सागर जी महाराज ने रखी थी। इस संस्था की आधारशिला 25 दिसंबर 2008 को रखी गई थी। इसका संचालन 26 सदस्य कार्यकारिणी सदस्यों के द्वारा किया जाता है।

गरीबों के लिए रिक्शा सेवा रथ

बुजुर्ग बीमार भारतीय ब्यान यात्रियों की सेवा और साहायता के उद्देश्य से जैन समाज द्वारा रिक्शा सेवा रथ भी चलाया जाता है। इस सेवा रथ की शुरुआत 2019 में की गई थी। यह सेवा रथ एक बैटरी चालित ई रिक्शा है। इससे ज़रुरत मंद लोगों को निशुल्क अस्पतालों और गंतव्य स्थानों तक पहुंचने की सुविधा प्रदान की जाती है।

सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल में भी रियायत

रांची में स्थित 240 बैठ के भगवान महावीर मेडिका सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल में भी गरीब एवं जरूरतमंद मरीजों के इलाज में जैन समाज सहयोग करता है इसके लिए संस्था द्वारा गरीब मरीजों के इलाज में सहयोग के लिए अपने सदस्यों एवं दानदाताओं को प्रत्येक वर्ष 6500000 रुपए के कूपन निर्मित किए जाते हैं। इसके तहत जैन साधु साध्वी एवं सम्मेद शिखरजी में तीर्थयात्रियों के इलाज का खर्चा संस्था वह तो करती ही है साथ ही साथ गरीब मरीजों के इलाज के लिए उनके बिल में 50% आर्थिक सहयोग भी करती है। इसके साथ -साथ दूर दराज के मरीज के रहने के लिए एक अत्याधुनिक डॉरमेट्री हॉस्टल की भी व्यवस्था की गई है । यहां रियायती दर पर दूर से आए मरीज या उनके परिजन ठहर सकते हैं।

सपना आवासीय विद्यालय खोलने का

रांची में जैन समाज एक उच्च स्तरीय आवासीय विद्यालय को लेने की योजना पर काम कर रहा है यह कैसा आवासीय विद्यालय होगा जिसका लक्ष्य बच्चों को संस्कार के साथ मॉडर्न एजुकेशन उपलब्ध कराना होगा। इस स्कूल में गरीब बच्चों को निशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराई जाएगी।

भगवान महावीर आई हॉस्पिटल में आंखों के इलाज के संबंध में अगर आप और अधिक जानकारी चाहते हैं तो तो इस अस्पताल के संचालक से जुड़े दिनेश सिंह जी से फोन नंबर 9771473820 पर संपर्क कर सकते हैं।

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महिलाओं में जोश भर रही यह साइकिल वाली ‘आशा’

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बचपन में सर से पिता का साया उठ गया। खेल- खिलौने का वक्त मुफलिसी के बीच बीता। मां मजदूरी कर दो पैसे जोड़ती और उससे किसी तरह जलता घर में दो वक्त का चूल्हा। कभी एक शाम बस ग़म का निवाला खा पेट भर लेना होता। उम्र बढ़ी तो मां के कंघे से कंघा मिला घर की ग़रीबी से जंग लड़ा। किस्मत जगह जगह रास्ता रोकने को तैयार बैठी थी पर यहां रूकना कहां दौड़ना मंजूर था। पहले धावक बनी, फिर Mountaineer बन पहाड़ फतह किया अब साइकिल से देश नाप महिला सशक्तिकरण का संदेश फैला रही है। बुलंद हौसले के दम पर तमाम अवरोधों को दूर कर साइकिल से दुनिया की परिक्रमा करने का सपना जीने वाली आशा मालवीय की कहानी पढ़िए

देखिए मैं एमपी के राजगढ़ जिले के नाटाराम की रहने वाली हूं। मैंने बहुत संघर्ष किया है। मुझे मेरे हर संघर्ष ने ही हौसला भी दिया है और आगे की मंजिल भी दिखाई है। कभी ऐसा भी वक्त था कि हम खाना मांग कर खाते थे। मुझे थकना, रूकना , हारना पसंद नहीं मैं सशक्त भारत और सशक्त नारी के मैसेज को जन जन तक पहुंचाना चाहती हूं और इसके लिए हीं मैं साइक्लिंग कर रही हूं। मैं मध्य प्रदेश से इस यात्रा पर निकली हूं और अब तक मैंने 12 राज्यों की यात्रा की है। कहती हैं आशा मालवीय।

छात्राओं को दे रही हिम्मत

आशा बताती है कि अपनी यात्रा के दौरान मैं स्कूल -कालेजों में छात्राओं से मिलती हूं और उनका मनोबल बढ़ाती हूं। इसके साथ ही राज्यों के जिम्मेदार लोगों से भी मिलकर अपने अभियान के बारे में बताती हूं। इस अभियान के तहत अब तक मैंने 9 मुख्यमंत्री,8 राज्यपाल और 5 डीजीपी से मुलाकात की है। मेरा यह सफर रोमांच से भरा तो है हीं साथ ही इसका उद्देश्य बड़ा पावन है देश की महिलाओं को सशक्त बनने की हिम्मत देना। मुझे खुशी है कि मैं अपने उद्देश्य में सफल हो रही हूं।

न कोई प्रायोजक न कोई पूंजी

आशा बताती है कि इस साइकिल यात्रा के लिए उन्हें कोई प्रायोजक नहीं मिल पाया। उनके पास कोई बड़ी जमापूंजी भी नहीं है बस हौसलों के दम पर देश नापने निकल पड़ी। आशा आगे कहती हैं कि रास्ते में कोई 500 रुपए दिहाड़ी कमाने वाला मुझे सपोर्ट करते हुए कभी अपनी दो दिन की दिहाड़ी मुझे दे जाता है तो कभी कोई मुझे अपने लंच बॉक्स से दोपहर का खाना आफर देता है। यही तो भारतीयता है। देश के लोग काफी अच्छे हैं बस कुछ अपवादों को छोड़कर।

MP TOURISM ने दी साईकिल

आशा मालवीय बताती हैं कि जब मैंने साइक्लिंग का प्रपोजल बनाया तो कई संस्थाओं से बातचीत की। कुछ ने सराहा तो कहीं से उदासी मिली पर मैंने हिम्मत नहीं हारी एमपी टूरिज्म ने मुझे एक साइकिल और तीन जोड़े कपड़े दिए। ये साइकिल मेरा हमसफ़र है। मैं इन्हीं तीन जोड़े कपड़े से अब तक ट्रेवल के दौरान काम चला रही हूं।

खुद मजदूरी कर बनाया घर

आशा कहती हैं कि हमारे पास पक्का घर नहीं था प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मिले पैसों से यह मुमकिन हुआ। मजदूरी बचाने के लिए मैंने खुद मजदूरी कर घर की एक एक ईंट जोड़ने का काम किया । मैं छह माह तक अहले सुबह से देर रात तक अपने घर को आकार देने के लिए मजदूरी करती रही।

अवार्ड के पैसों से बहन के हाथ किए पीले

आशा कहती हैं खेल के दौरान मिले पुरस्कार के पैसों को जोड़कर मैंने अपनी छोटी बहन की शादी भी करवाई। अब वह अपनी गृहस्थी बसा रही है। उसे खुश देखकर मुझे काफी संतुष्टी मिलती है। अब घर में मैं और मां बस दो ही सदस्य हैं। हमारी जरूरतें भी काफी सीमित है। हम कम में जीना जानते हैं। भौतिक जरूरतों की जगह सामाजिक उन्नति में मेरा लक्ष्य है।

देश के 99 फीसदी लोग काफी अच्छे

आशा बताती है कि इस साइकिल यात्रा के दौरान भारत को करीब से जानने का मौका मिल रहा है। महिलाओं के बारे में जितना अनसेफ इसे बताया जाता है वैसा नहीं है। पुरूष भी महिलाओं का आदर करते हैं। हां कुछ लोगो तो हर जगह बुरे मिल ही जाएंगे। वैसे मैं कहुं तो भारत के 99 प्रतिशत लोग बहुत अच्छे, बहुत प्यारे हैं।

चाहत साइकिल से दुनिया देखने की

मेरा सपना अब साइकिल के पहियों के साथ दुनिया नापने का है। मैं भारत की और से दुनिया भर में जाकर महिला सशक्तिकरण का संदेश बांटना चाहती हूं। इसके लिए मुझे सरकार का सहयोग और समर्थन चाहिए। बिना सरकार के सहयोग के मैं देश से बाहर साइकलिंग नहीं कर सकती। मुझे उम्मीद है कि मुझे सरकार इसकी इजाजत भी देगी और मदद भी करेगी।

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कहानी झारखंड विधानसभा अध्यक्ष रबींद्रनाथ महतो के संघर्ष की

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आंखों में आदिवासियों की बदतर जिंदगी का दर्द , दिल में हालात बदलने का जज्बा और अपने गुरु शिबू सोरेन के बताए पथ पर चलते रहने का संकल्प। यह कहानी उस शख्स की है जिन्होंने अपनी जवानी झारखंड आंदोलन की आंच में होम कर दी। जेल भी गए पर टूटे नहीं। अपने प्रण को कठिन परिस्थितियों की आंच में तपाकर कुंदन बना दिया। लड़ाईयां लड़ी, हक के लिए आवाज बुलंद किया और झारखंड अलग राज्य के निर्माण में बनें मील का पत्थर। आज ‘राजनेता’ में कहानी अलग झारखंड राज्य के मजबूत स्तंभ और शिबू सोरेन के प्रिय शिष्य  रबींद्रनाथ  महतो की…

बात उन दिनो की है जब मेरी पढ़ाई चल रही थी। सपना एक आम आदमी की तरह एक अदद नौकरी कर घर- गृहस्थी बसाने- चलाने का था। इसी बीच जब भी एकांत में बैठता मन आदिवासी समाज के हाशिए पर होने का जबाव तलाशने लगता। उस वक्त झारखंड संयुक्त बिहार का हिस्सा हुआ करता था। पता चला कि सरकार की योजनाओं में संथाल परगना और छोटानागपुर के लिए जगह काफी कम होती है। विकास के सारे पैमाने पटना और बड़े शहरों की पैमाईश तक सिमट जाते हैं। हमारे मूलवासी, आदिवासी के लिए न उस वक्त की सरकार सोचती न बड़े नेता। यहां तक की जो पढ़े लिखे युवक थे उनकी नौकरी भी यहां नहीं लगती थी। बेरोजगारी एक श्राप की तरह था।
मैं हमेशा इस इलाके के पिछड़ेपन को दूर करने के उपाय सोचता, यहीं से मेरे मन में बदलाव की या यूं कहें राजनीति का बीज पनपा जिसे दिशोम गुरु शिबू सोरेन के सानिध्य ने एक वृक्ष बना दिया कहते हैं झारखंड विधानसभा के अध्यक्ष रबींद्रनाथ महतो  ।

शिबू सोरेन से मुलाकात ने बदली दिशा

रविन्द्र नाथ महतो आगे बताते हैं कि युवा काल में ही हमने दिशोम गुरु शिबू सोरेन के बारे में काफी सुना था। कालेज की पढ़ाई के दौरान दोस्तों के बीच भी उन्हें लेकर चर्चा होती थी। शिबू सोरेन उस वक्त जल ,जंगल ,जमीन और आदिवासियों के अधिकार के मुद्दे पर काफी मुखर होकर आंदोलन चला रहे थे। मन में इच्छा थी कि एक बार गुरूजी शिबू सोरेन से मुलाकात हो। समय ने यह भी साकार कर दिया, मेरे मुलाकात शिबू सोरेन से हो गई। पहली ही मुलाकात में शिबू सोरेन के विचारों ने मुझे काफी प्रभावित किया। मुझे लगा कि इन विचारों पर चलकर ही आदिवासी और मूलवासी के हक और हुकूक की लड़ाई लड़ी और जीती जा सकती है। फिर मैं गुरूजी शिबू सोरेन से करीब होता गया और इस आंदोलन का एक मजबूत सिपाही बन गया। शिबू सोरेन को भी मेरा कार्य भाने लगा वे मुझे नई- नई जिम्मेदारियां देते और मैं उसे वक्त पर पूरा करता।

धीरे- धीरे तात्कालिक बिहार सरकार ने हमारी मांगों पर विचार करने का आश्वासन दिया। तब इन इलाकों के विकास के लिए कुछ योजनाएं भी बनी। इन सब के बाद भी झारखंड को उपनिवेश वाद जैसी व्यवस्था से मुक्ति नहीं मिली। शिबू सोरेन के नेतृत्व में हमारा आंदोलन और तेज होता गया। हमने अलग झारखंड राज्य के गठन की मांग की और काफी संघर्ष के बाद उसे हासिल भी किया।

और कदम बढ़ते रहे

रबींद्रनाथ महतो का  जन्म 12 जनवरी 1960 को जामताड़ा के पाटनपुर में बेहद सामान्य परिवार में हुआ था । पिता रिटायर्ड शिक्षक हैं । घर में शिक्षा का माहौल प्रारंभ से ही था। प्रारंभिक पढ़ाई जामताड़ा के स्थानीय विद्यालय में हुई ।उच्च शिक्षा के लिए भागलपुर विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की इसके बाद और उत्कल विश्वविद्यालय से बीएड किया।

लिखने पढ़ने में काफी रूचि

शांत विचारों वाले रविन्द्र नाथ महतो की दिलचस्पी पढ़ने -लिखने में काफी है। अब भी जब उन्हें समय मिलता है वे नई किताबें पढ़ने में जुट जाते हैं। उन्होंने कई किताबें भी लिखी है । विचारों के ग्यारह अध्याय इनकी काफी चर्चित पुस्तक है। इसके साथ ही झारखंड के आदिवासी ग्रामीण व्यवस्था पर इनका काफी ज्यादा अध्ययन है।

रुलर इकोनॉमी पर लिखने की ख्वाहिश

रविन्द्र नाथ महतो कहते हैं कि आज ग्रामीण परिवेश में बड़ा बदलाव आ रहा है। परिवार की ऑइडियोलॉजी ध्वस्त हो रही है। बाजार का प्रवेश परिवार के अंदर हो गया है। संयुक्त परिवार लगभग खत्म हो गए हैं। पहले गांव की गृहस्थी का अपना एक अर्थशास्त्र होता । वह बाजार के अर्थशास्त्र से काफी अलग होता था। वहां सबकी जरुरतों की पूर्ति आसानी से हो जाती थी। मैं समय मिलते ही रूलर इकोनामी पर एक किताब लिखना चाहता हूं।

युवा राजनीति से विधानसभा अध्यक्ष तक का सफर

पहली बार  रबींद्रनाथ महतो  ने दिग्गज नेता और नौ बार के विधायक रहे डा. विशेश्वर खान को टक्कर दी। हालांकि पहली बार उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद नाला विधानसभा से साल 2005 के चुनाव में उन्होंने जीत का परचम लहराया। साल 2009 का वह विधानसभा चुनाव हार गए। उसके बाद लगातार उन्होंने दो विधानसभा चुनावों में भारी मतों से जीत हासिल की। फिलहाल  रबींद्रनाथ  महतो झारखंड विधानसभा के अध्यक्ष हैं।

सबके साथ से बदलेगी सूरत

अलग झारखंड राज्य बनने के बाद झारखंड कितना बदला सवाल के जबाव में  रबींद्रनाथ महतो कहते हैं अब तक यहां संपूर्ण बदलाव नहीं हुआ है। एक आंशिक बदलाव ही हो पाया है अब तक। आपको संपूर्ण बदलाव के लिए सभी दल को एक पवित्र मकसद के साथ एकजुट होना पड़ेगा। वे आगे कहते हैं कि झारखंड के युवा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन आदिवासी हित में काफी प्रयास कर रहे हैं लेकिन एक नेता का प्रयास प्रयाप्त नहीं सभी को एक साथ आना पड़ेगा। बंटकर रहने से बल नहीं मिलता है।

आज की राजनीति में वस्तु के प्रति आकर्षण

रबींद्रनाथ महतो बताते हैं कि जब हमने राजनीति की शुरुआत की थी उस वक्त लोग देश हित में आंदोलन से जुड़ते थे। स्वयं के प्रति सुख प्राप्त करने की भावना नहीं थी। इन दिनों राजनीति में वस्तु के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है यह देश के लिए हितकर नहीं है। आज राजनीति को सही सोच और सही दिशा देने की जरूरत है।

युवाओं में राजनीतिक सोच जरूरी

रबींद्रनाथ महतो कहते हैं कि आज राजनीति के सही अर्थ को समझने और सही सोच रखने की जरूरत है। इस कार्य में युवाओं को आगे आना होगा। युवा ही बदलाव के वाहक बन सकते हैं। वे कहते हैं कि मैं हमेशा से युवाओं को राजनीति समझने और इसके प्रति सकारात्मक नजरिया रखने की अपील करता हूं। विधानसभा अध्यक्ष बनने के बाद मैंने हर साल छात्र संसद जैसे कार्यक्रम आयोजित करवाया है।

पत्नी ने बढाया हौसला

रबींद्रनाथ  महतो कहते हैं कि आज मैं जो भी हूं उसका बड़ा श्रेय पत्नी को भी जाता है। पत्नी शर्मा देवी ने मेरे सपनों के लिए संघर्ष के दिनों में अपना हर सुख निछावर कर दिया । वे हमेशा मुझे हिम्मत और हौसला देती। परिवार में आज भी मैं कम वक्त दे पाता हूं ऐसे में परिवार को एक सूत्र में वे बांधे रखती हैं। बेटे -बेटियों को भी वे बातों बातों में नैतिक शिक्षा का उजाला भरती रहती है।


खत्म हो अमीर गरीब की खाई

रबींद्रनाथ महतो कहते हैं कि देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई को खत्म करने की जरूरत है। गांवों के लोग भी हुनर हो अपनी आजीविका बेहतर ढंग से चला सकें। अर्थव्यवस्था में सुधार और बदलाव की जरूरत है। इस के लिए मैं प्रयास कर रहा हूं। सपना एक ऐसे भारत के निर्माण का है जहां जाति, लिंग, वर्ग भेद न हो और न हो गरीबी की विभीषिका।

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राजनेता ‘ एक कोशिश उनके नजरिए को समझने की

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किसी भी देश या प्रदेश की राजनीति उस देश या प्रदेश को दिशा देती है और इसकी कमान होती है वहां के राजनेताओं के कांधे पर। बदलते ज़माने के साथ राजनेताओ का नाम आते ही जेहन में एक अलग सी तस्वीर उभरने लगती है।एक दबंग, कुख्यात, अमीर और कुटिल से चरित्र की छवि मस्तिष्क पर हावी हो जाती है। क्या आज के समय में राजनीति में सुमार राजनेताओं की छवि वाकई ठीक ऐसी है या इससे इतर। उनकी जिंदगी के उतार – चढ़ाव कैसे हैं? उसकी सोच कैसी है? जनता के प्रति उनका नजरिया क्या है?और क्या है उनकी जिंदगी का असली मकसद ? ऐसे ही सवालों का जबाव तलाशने की कोशिश है हमारा नया सेगमेंट राजनेता
इसमें हम राजनेताओं से उनकी कहानी उनकी ही जुबानी जानेंगे साथ ही यह भी कि तलाशेंगे कि सियासी प्रतिस्पर्धा के दौर में उनके लिए जिंदगी के मायने क्या हैं। आम जन के प्रति नजरिया क्या है। हमें यकीन है आपको यह नया प्रयोग अवश्य पसंद आएगा।
टीम thebigpost.com

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This Chiropractor from Bihar has solution for all your pains

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Dil-e-Nadan Tujhe Hua Kya Hai, Akhir Is Dard Ki Dawa Kya Hai’ This song from 1954 bollywood flick Mirza Galib is fit very much to those people, who have developed resistance for antibiotics within them after use of heavy dose of the antibiotics. Such people find them in a fix, when they take anti-biotics for some ailments, But it doesn’t work.
This phenomena has become very common and use of Antibiotics has become the talk across the globe now a days.

But a chiropractor, a resident of Patna from Bihar, Dr.Rajneesh kant has something for you as he has been curing his patients without any medicine. He has created a niche for himself in very sort span of time and this is why, people from all across the society , whether they are famous politicians or the bollywood actos are getting help from Dr.Rajneesh get them well. we have talked him over his procedural of chiropractic system. Here are some excerpts:

Narrating the adverse affects of the antibiotics, he says, the modern medicines have many side effects and mostly it affected one’s resistance power for aliments badly as the body has developed resistance for antibiotics after use of it time and again. We need a lot of medicines after surgey. But most of them are not working properly due to resistence for antibiotics and it leads to death. It has become common, he says adding’ the recent research papers, published in the scientific journal Lacents, shows that more than 12.70 lakhs people have died as no medicine has worked properly upon the patients. The condition is not good in India also. And this is the time, we must use our old medical system. The Chiropractic is one of them, in which no medicine is used to treat patients. We simply use touch and pressure technique on some vital parts of the patients’ body.

The ailments vanish easily with this pratice

Dr.Rajneesh kant says, the entire process is done without help of any machines or medicine. We use our finger tips to put pressure on the spinal chords and other veins. This ancient Indian technique was vanished from out country with each passing time. It has now been reinvented by the western countries like Canada and USA as they have been facing the problem of the deaths of their citizens due to resistance for antibiotics by and large. This is same process, which we have seen in our villages, as a person try to cure ones pains with pushing ones’ veins. (We call it Nash Baithana in the villages). The Chiropractic is the upgraded version of this Nash Baithana.

This is panacea for these ailments

According to Dr.Rajneesh kant , Chiropractic technique helps one to get well completely as it makes veins healthy, leading to the proper flow of the bloods in the veins. This techniques has been proven a panacea for any spine related problems apart from pain, low back pain, headache, migraine, cramp and pain in neck. The people, who have become fade up with long treatment for these ailments with other techniques, have now been coming to me to get fit and fine. I have almost treated more than 50000 people and got them cured. Even the people, who are going through mental agony and running with depression and taking advantage of this technique.

Politicians and Bollywood actors are fan of this technique

He says, Not only common people, but the premiers of the society like politicians and bollywood actors are taking advantage of his services. Ace politician Lalu Prasad Yadav and his son, deputy chief minister of Bihar Tejaswi Yadav, Chief minister of Sikkim Prem Singh Tamang, His Highness Governor of Sikkim Ganga Prasad apart from recent bollywod sensation Pankaj Tripathi have got cured by Dr.Rajneesh kant . Famous Bhojpuri film actors like Kajal Raghwani and Khesari Lal Yadav are among other celebrities in the list of his patients. Some actors from South Indian movies are also getting help in become fit and fine.

He serves free of cost to the lower rung of the society

Dr.Rajneesh kant says, the face many hardship during his early days due to poverty. So, I have put myself for a better society and for this, I treat 100 people from the lower strata of the society free of cost in the very first week of every month. Besides this, I also visited police and military areas to organize free check up and treatment camps.

Famous all around the world

Dr.Rajneesh kant is famous all around the world for this novice and unique way of treating people without medicine. He visits Patna and Banglore in the sub continent apart from many other countries in the world to treat is patients. He has, even place his research papers in the seminars on the Chiropractic, held across the globe. he also lectured over it in those seminars and symposiums.

Poverty is major hurdle during childhood

Born in Ara in an agrarian family, his live a very tough early life. His father used to work as a mason to provide all the support to complete his education. Completely my primary education at Ara, he came to Patna to complete his higher studies. After completing my Board exams from Bihar School Education Board, I persuaded a course in physiotherapy Patna before going to Canada to get a certificate in Osteopath, He said, I attended many workshops visting one place to another to enhance my knowledge and expertise in the Chiropractic technique. I still study a lot to get myself updated on the latest technological advancements. And this is why I am now pursuing a Master Diploma in Chiropractic from Sweden.

Parents encouraged to achieved goal beating all odds

Dr.Rajneesh kant says that his father was a marginal farmer, who used to work as a mason more often to earn bread and butter for the family. Despite the all odds, he never let us down. He and mother always encouraged me to get what I wanted to be. Both of them gave me enough freedom to pursue my studies shading all the worries far from me. I learnt the lesson of being optimistic in my endeavour. And this is the biggest lesson for me of excelling in life.

Wife supported in my difficult times

Dr.Rajneesh kant mentions his wife as his main source of inspiration. He says, there is a proverb that there is a woman behind every successful man. And I am lucky one to have one in my wife, Dr Kumari Jyoti, a practioner of Naturopathy and also a qualified a dietician. She not only patted my back in every bad moment of life, but assured to put everything in place to ease the tension.
Dr.Rajneesh kant , going past his memory lane, says that they both tied in the nuptial knot after a short period of courtship.

Children are source of energy

Telling more about his family, he says, he has two children- the first one is 5 years old daoughter Jyotsana Kant and 3 years old son Satyaraj Jyoti Kant. They are my source of energy. Once I came from the work, I feel myself energized after spending some quality time with them. Their glittering face is everything in life for me.

Plans to open an institute to meet world standard

Dr.Rajneesh kant expressed his concern over not many training schools of this technique in the country and so on he wants to set up an institute with repute to meet world standard. He says, once we have such a school, we can produce more skilled and young professionals to reach one and all. We will train them with theoretical and practical knowledge. This will be a revolution to make India healthy and strong.

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बिना दवा हर दर्द होगा छूमंतर, लालू से लेकर पंकज त्रिपाठी तक इस युवा डॉक्टर के मुरीद

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दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है ?
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है ?
यह मिर्जा गालिब का मशहूर शेर है।आज जहां इलाज एंटिबायोटिक्स पर आधारित हो चला है। मर्ज ठीक करने की दवाएं दूसरा मर्ज पैदा कर जाती है। वही बिहार के एक युवा डॉक्टर रजनीश देश को बिना एंटिबायोटिक्स और सर्जरी के स्वास्थ्य बनाने की अनोखी पहल में जुटे हैं। इनकी लोकप्रियता का आलम यह की राजनीति के धुरंधर से लेकर वालीवुड के चमकते सितारों तक की बिगड़ी सेहत दुरूस्त कर चुके हैं।
जरूर पढ़िए काइरोप्रैक्टिक के जरिए बिना दवा बिना सर्जरी इलाज करने वाले डॉक्टर रजनीश की यह कहानी…

देखिए इन दिनों इलाज में जिस तरह से दवाओं और एंटिबायोटिक्स का दखल बढ़ता जा रहा है। इसके गंभीर परिणाम सामने आ रहे हैं। आप एक बीमारी को ठीक करने की दवा खाते हैं तो वह जाने- अनजाने आपके शरीर में दूसरी बीमारी को दाखिला दिला देता है जिसे हम साइड इफेक्ट्स कहते हैं । सर्जरी के बाद भी आपको काफी दवाओं की जरूरत होती है। एंटिबायोटिक्स के हम इतने आदी हो गए हैं कि अब यह कई बीमारियों पर काम ही नहीं करती। ऐसे में मौत के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं कहते हैं डॉक्टर रजनीश ।

वे आगे कहते हैं कि मेडिकल जर्नल, ‘द लैंसेट’ के अनुसार, 2019 में इस तरह के प्रतिरोध से दुनिया भर में सीधे तौर पर 12 लाख 70 हजार मौतें हुईं। भारत में भी हालत बहुत बेहतर नहीं कही जा सकती। ऐसे में हमें अपनी प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों की और लौटना होगा जहां दवाओं पर निर्भरता न हो। मैं ऐसी ही पद्धति पर कार्य करता हूं। विज्ञान की भाषा में इसे काइरोप्रेक्टिक तकनीक कहते हैं। इस चिकित्सा पद्धति में हम बिना दवाई के मरीज का इलाज करते हैं और वह बीमारी से निजात पा जाता है।,

बिना दवा ऐसे होती है बीमारी छू मंतर

डॉक्टर रजनीश बताते हैं कि काइरोप्रेक्टिक तकनीक पूरी तरह से मैनुअल होती है। इसमें रीढ़ की हड्डी को हाथों से दबाकर रोग ठीक किया जाता है। वे आगे बताते हैं कि यह भारत की प्राचीन पद्धति रही है । धीरे- धीरे यह भारत से गुम होती गई कनाडा , यूएस जैसे देशों ने इसको विकसित किया। वें कहते हैं कि जिन लोगों का जुड़ाव गांव से होगा वे जानते होंगे कि पहले गांव में नस बैठाते थे । आप काइरोप्रेक्टिक को इसका अपग्रेड वर्जन मान सकते हैं।

इन बीमारियों में है राम बाण

डॉक्टर रजनीश के अनुसार काइरोप्रेक्टिक तकनीक आपको पूर्ण स्वस्थ बनाने में मदद करता है क्योंकि यह रक्त संचार को व्यवस्थित करता है। वैसे स्पाइन से जुड़ी कोई भी समस्या, दर्द, लो बैक पेन, सर दर्द, माइग्रेन, गर्दन में ऐंठन या दर्द होना, जैसी बीमारियों में यह मैथर्ड राम बाण साबित होता है। दूसरी पद्धति से इन बीमारियों का इलाज कर थक चुके लोग हमारे पास आते हैं और पूरी तरह से ठीक होकर जाते हैं। अब तक हमने लगभग 50 हजार लोगों का बिना दवा बिना सर्जरी सफल इलाज किया है और वे पूरी तरह से ठीक हो सामान्य जीवन में लौट आए हैं। डॉक्टर रजनीश आगे कहते हैं डिप्रेशन जैसी समस्या में भी इससे काफी सुधार होता है हम नेक मसल का एलाइनमेंट मिलाते हैं इससे रक्त प्रवाह ठीक होता है और यह मूड़ को खुशहाल रखता है।

राजनेता और फिल्मी सितारे मुरीद

आम लोगों के साथ खास लोग भी डॉक्टर रजनीश के इलाज के मुरीद हैं। राजनीति के दिग्गज लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, उनके पुत्र और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह, सिक्किम के राज्यपाल गंगा प्रसाद का इलाज इस पद्धति से कर चुके हैं। इसके साथ ही मशहूर फिल्म अभिनेता पंकज त्रिपाठी और भोजपुरी फिल्म ऐक्ट्रेस काजल राघवानी और खेसारी लाल की चिकित्सा कर उन्हें ठीक कर चुके हैं। इसके साथ ही साउथ के कई फिल्मी कलाकार भी डॉक्टर रजनीश से इलाज करवा चुके हैं।

गरीबों के लिए फ्री चेकअप

डॉ रजनीश कहते हैं कि मैंने ग़रीबी को काफी नजदीक से देखा है। इस लिए मैं हर माह पहले सप्ताह में 100 लोगों का निशुल्क इलाज करता हूं। इसके साथ ही सेना और पुलिस के जवानों के बीच जाकर फ्री कैंप लगा कर मैं उनका भी निःशुल्क इलाज करता हूं।

दुनिया भर में धूम

डॉक्टर रजनीश के इस अनोखी चिकित्सा की धूम देश ही नहीं विदेशों में भी है। भारत में वे पटना के साथ- साथ बैंगलोर के साथ ही दुनिया के की देशों में समय- समय पर इस थैरेपी से इलाज और परामर्श देने हेतू जाया करते हैं। काइरोप्रैक्टिक थेरेपी पर हुई कई महत्वपूर्ण सेमिनारों में डॉ रजनीश ने अपने खास रिसर्च पर व्याख्यान दिया है।

गरीबी से लड़ कर बीता बचपन

डॉ रजनीश बताते हैं कि उनका बचपन ग़रीब से दो- दो हाथ करते हुए बीता। जन्म बिहार के एक छोटे से कस्बाई शहर आरा में हुआ। पिता एक साधारण किसान थे, खेतों का रकबा काफी कम था। पिताजी परिवार का लालन- पालन करने के लिए राजमिस्त्री का काम भी किया करते थे। इन सब के बाद भी अच्छी आमदनी नहीं हो पाती। शुरूआती पढ़ाई मेरी आरा के स्कूल में ही हुई फिर मैट्रिक के समय मुझे पढ़ने के लिए अपने मामा जी के यहां पटना भेज दिया गया।

मैंने पटना में रह कर बोर्ड का एग्जाम दिया और फिर पटना से ही फीजियोथेरेपी की पढ़ाई की। फिर ओस्टियोपैथ कनाडा से किया। काइरोप्रेक्टिक पर मैंने दुनिया भर में वर्कशॉप अटेंड किए। मैं इस विधा को गहराई तक समझना चाहता हूं और हमेशा नई जानकारियों से खुद को अपडेट रखना चाहता हूं। यही वजह है कि मैं स्वीडन से काइरोप्रेक्टिक में मास्टर डिप्लोमा कर रहा हूं।

माता- पिता ने बढ़ाया हौसला

डॉक्टर रजनीश बताते हैं कि मेरे पिताजी साधारण किसान थे पर उनकी सोच असाधारण थी। उन्होंने कभी भी अपने विचार मुझ पर थोपा नहीं। मुझे पढ़ने की आजादी दी। खुद दुख सहकर भी मुझे आगे बढ़ाया। वे कहते हैं मेरी मां वैसे तो एक घरेलू महिला है पर जीवन की कला उनमें भरी हुई है। मां ने मुझे हमेशा आशावादी बनें रहने की कला बचपन से ही सीखाई। मेरी प्रगति के सफर में यह सबसे मजबूत सीख दी।

पत्नी डॉ ज्योति ने किया अंधेरे वक्त को रोशन

डॉ रजनीश कहते हैं कि एक कहावत है पुरुष की प्रगति में महिला का हाथ होता है। मेरे पर यह कहावत सटीक बैठती है। मेरी कामयाबी का एक बड़ा श्रेय मेरी पत्नी डॉक्टर कुमारी ज्योति को जाता है। संघर्ष के दिनों में वो न सिर्फ मेरा हौसला बढ़ाती रही बल्कि ढाल बनकर खड़ी रही। हमने मिलकर जीवन के अंधेरे वक्त को भी रौशन कर दिया। वे बताते हैं कि पत्नी ज्योति भी नैचुरोपैथी की डॉक्टर और डाइटिशियन है। दोनों ने 2016 में प्रेम विवाह किया था।

इनसे है परिवार की रौनक

अपने परिवार के बारे में डॉ रजनीश बताते हैं कि परिवार में 5 साल की बेटी ज्योत्सना कांत और 3 साल का बेटा सत्यराज ज्योतिकान्त भी शामिल है। इन बच्चों से परिवार में हर वक्त रौनक रहती है। बाहर से तक कर आने के बाद बच्चों के संग कुछ वक्त बिताने पर सारी थकान गुम हो जाती है। इन नन्हें बच्चों से हमेशा उर्जा मिलती रहती है।

वर्ल्ड क्लास इंस्टिट्यूट खोलने की योजना

डॉ रजनीश अपने इस हुनर को भारत के हर गांव मुहल्ले तक पहुंचाना चाहते हैं। इसके लिए वो एक वर्ल्ड क्लास
इंस्टिट्यूट खोलने की योजना पर कार्य कर रहे हैं। इस इंस्टिट्यूट में युवाओं को काइरोप्रैक्टिक के बारे में सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों तरह का प्रशिक्षण दिया जाएगा। वे कहते हैं कि इससे भारत में एक अनोखी क्रांति आएगी। यह क्रांति होगी स्वस्थ और सबल भारत को बनाने का और दवा पर निर्भरता खत्म करने का।

बहरहाल डॉ रजनीश बिना दवा दुनिया को सेहतमंद बनाने के अपने संकल्प पर अपने मजबूत कदम बढ़ा रहे हैं। अगर आप या आपके कोई परिजन जोड़ों के दर्द से परेशान हो तो एक बार डॉ रजनीश से परामर्श जरूर लें।

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चेहरों को तराश कर उसे चांद सा खूबसूरत बनाने वाले इस युवा डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान मिलिए

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चेहरा ऐसा मानों चांद खिला हो, और जब गुलाबी होंठ मुस्कान भरे तो चेहरे रंग नूरानी हो जाए ,ऐसे में मशहूर गजल गायक जगजीत सिंह की ग़ज़ल फिजा में तैर कर कह उठें कि किसका चेहरा मैं देखूं तेरा चेहरा देखकर। खुबसूरत चेहरों पर न जाने कितने गीत बने। कितने ही शायरों ने अपनी शायराना कलम चलाई । चेहरे की खूबसूरती को कोई नजर न लगे लोग इसकी दुआ मांगते हैं, पर कई बार हादसे की वजह से चेहरे की सुंदरता बिगड़ जाती है तो कई बार बढ़ती उम्र चेहरों पर झुरियों की शक्ल में अपनी पहचान छोड़ जाता है। ऐसे में मन हमेशा सशंकित रहता है कि सामने वाला हमें किस रूप में देखेगा।मन में बुरे विचार भरने लगते हैं। आत्मविश्वास कमजोर होने लगता है पर अब ऐसे में घबराने की बात नहीं। हम पटना के वैसे युवा चिकित्सक की कहानी लेकर आएं हैं जिन्हें चेहरों को तराश कर खूबसूरत बनाने में महारत हासिल है।वो चेहरों को इतनी संजीदगी से तराशते है कि देखने वाला उस खुबसूरती का कायल हो जाएं । पढ़िए कॉस्मो थेरेपी द्वारा चेहरे पर चार चांद लगाने वाले हैं कॉस्मो सर्जन डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान की यह कहानी

देखिए चेहरा व्यक्ति की पहचान होती है। वह उसके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा भी होता है। कई बार दुर्घटना या फिर कोई अन्य परेशानी के कारण चेहरे का कोई खास अंग विकृत हो जाता है या उसकी खूबसूरती कम जाती है। कई बार यह जन्मजात भी होता है। ऐसे में व्यक्ति के अंदर हीन भावनाएं ग्रसित होने लगती हैं। हमारा समाज आज भी व्यक्ति के चेहरे से ही उसके व्यक्तित्व का आकलन करता है। आज के कारपोरेट दौर में नौकरियों तक के लिए आपको अच्छा दिखना भी जरूरी है। हम कॉस्मो थेरेपी द्वारा व्यक्ति के विकृत अंग को सुव्यवस्थित आकार प्रदान करते हैं। किसी कारण चेहरे का जल जाना, उस पर गहरे निशान पड़ना, किसी जख्म के कारण चेहरे का खास अंग विकृत हो जाना जैसी समस्याओं में चिंतित होने की जरूरत नहीं है। कॉस्मेटिक सर्जरी द्वारा बड़े आराम से इन्हें ठीक कर चेहरे की प्राकृतिक सुंदरता लौटाई जा सकती है। कहते हैं पटना के जानेमाने युवा कॉस्मो सर्जन डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान ।

कॉस्मेटिक सर्जरी से खिलखिला उठता है चेहरा

वे आगे बताते हैं कि इतना ही नहीं कॉस्मेटिक सर्जरी के द्वारा चेहरे को काफी खूबसूरत भी बनाया जा सकता है। तालु के ऊंचे होने, जबड़े की विकृति, आंखों को ठीक करना, तालु के कटे होने जैसी समस्याओं का निदान कोस्मेटिक सर्जरी द्वारा किया जाता है।
डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान बताते हैं कि उन्हे पढ़ाई खत्म होने के बाद देश और विदेश के कई बड़े अस्पतालों से ऑफर आये, पर मेरे मन में बिहार में ही इसे विकसित करने का सपना था। इसलिए मैं बड़े शहरों को छोड़कर पटना आ गया और यहां कॉस्मेटिक सर्जरी की शुरुआत की। अब भी बिहार में कॉस्मेटिक सर्जरी के काफी कम सर्जन उपलब्ध हैं।


महंगा नहीं है कॉस्मेटिक सर्जरी

डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान कहते हैं कि कॉस्मेटिक सर्जरी को लेकर लोगों को हमेशा लगता है कि यह काफी महंगा होगा खासतौर से बिहार में इसे लेकर एक धारणा बन गई है कॉस्मेटिक सर्जरी का खर्च काफी ज्यादा आता है लेकिन ऐसी बात नहीं है। कॉस्मेटिक सर्जरी का खर्च आपकी समस्या के ऊपर निर्भर करता है। कई बार बेहद कम खर्च में ही आपके चेहरे की खूबसूरती लौट आती है।

डरने की कोई जरूरत नहीं

डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान कहते हैं कि कॉस्मेटिक सर्जरी को लेकर मन में किसी तरह का भय या डर रखने की जरूरत नहीं है। इससे किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचता है। यह सर्जरी पूर्णता सुरक्षित है। हां इस बात का ध्यान जरूर रखें कि कॉस्मेटिक सर्जरी किसी अच्छे सर्जन से ही कराया जाए।

सैकड़ों चेहरों को बना चुके हैं सुंदर

डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान कॉस्मेटिक सर्जरी के द्वारा अब तक सैकड़ों लोगों की सर्जरी कर चुके हैं। इसमें ज्यादा तादाद महिलाओं और बच्चों की है। बच्चों में तालु काटने की समस्या का स्थाई समाधान भी इस सर्जरी के द्वारा संभव है।

गांव में फ्री कैंप

डॉक्टर प्रत्यूष कहते हैं कि बिहार में कॉस्मेटिक सर्जरी को लेकर जानकारी की काफी कमी है। लोगों को जागरूक करने के लिए वह बिहार के सुदूरवर्ती गांव में मुफ्त शिविर का आयोजन भी करते हैं। इस शिविर में यह कोशिश होती है कि लोग कॉस्मेटिक सर्जरी के बारे में जाने। इन शिविरों कई समस्याओं का निदान भी किया जाता है।

बाहर जाने की आवश्यकता नहीं

प्रत्यूष अंशुमान बताते हैं कि कॉस्मेटिक सर्जरी के लिए पहले लोग दिल्ली ,बेंगलुरु जैसे बड़े शहरों का रुख करते थे। वे कहते हैं कि आप लोगों को बाहर जाने की जरूरत नहीं है अब पटना में भी विश्वस्तरीय सुविधाओं के साथ कॉस्मेटिक थेरेपी उपलब्ध है। वे आगे बताते हैं कि हमारे क्लीनिक में भी अत्याधुनिक मशीनें और सुविधाएं उपलब्ध हैं। हमारे यहां चिकित्सा का खर्च भी बड़े शहरों से काफी कम आता है। मेरी कोशिश कम खर्च में बेहतर कॉस्मेटिक सर्जरी की सुविधा उपलब्ध कराने की है।

बचपन से डॉक्टर बनने का सपना

डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान बताते हैं कि उनके मामा योगेश कृष्ण सहाय डॉक्टर हैं। मेरे मन में भी बचपन से ही डॉक्टर बनने की चाहत थी। मैंने अपने मन में ठान कर रखा था कि मुझे डॉक्टर ही बनना है। आगे की पढ़ाई के दौरान जब मुझे कॉस्मेटिक सर्जरी के बारे में जानकारी मिली तो मुझे लगा कि यह बेहतर मौका है मैं इसके जरिए अपनी बिहार के लोगों की सेवा कर सकता हूं। डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान की प्रारंभिक शिक्षा डीएवी स्कूल पटना से हुई। फिर मणिपाल कॉलेज से डेंटल साइंस की पढ़ाई की और बेंगलुरु से बीडीएस किया । डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान ने मुंबई से फैलोशिप की।

परिवार का मिलता है सहयोग

डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान बताते हैं कि कॉस्मेटिक सर्जरी जैसी नई चिकित्सा पद्धति में आगे बढ़ने में परिवार के सभी सदस्यों का काफी सहयोग मिला। माता-पिता ने भी काफी हौसला दिया। पत्नी जो पेशे से खुद एक चिकित्सक हैं उन्होंने भी जीवन के हर मोड़ पर हिम्मत दी।

नन्ही बिटिया जीवन की शिक्षक

डॉक्टर अंशुमान बताते हैं कि जिंदगी की खूबसूरती के शिक्षा आपको नन्हे बच्चे बड़ी आसानी से दे जाते हैं। मेरी नन्ही बिटिया की मुस्कान में भी जिंदगी के कई शिक्षाएं छुपी होती हैं। मैं उसे जीवन के शिक्षक के रूप में देखता हूं। छोटे बच्चों से भी प्रेरणा लेने की जरूरत है।

तबला और शतरंज का शौक

डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान बेहतर कॉस्मेटिक सर्जन होने के साथ ही एक साधे हुए तबला वादक भी हैं। वह विभिन्न मंचों पर तबला वादन कर चुके हैं। तबला के साथ ही शतरंज के खेल का भी उन्हें शौक है। यूनिवर्सिटी लेवल पर शतरंज चैंपियनशिप में प्रतिभागी रह चुके हैं।

खुद पर भरोसा करें युवा

डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान युवाओं का संदेश देते हुए कहते हैं कि बिहार के युवाओं को खुद पर भरोसा करना चाहिए, युवाओं के अंदर अंग्रेजी न बोल पाने को लेकर एक भय का माहौल रहता है ऐसे में को मन से निकालने की जरूरत है। आपका आत्मविश्वास ही आपकी पूंजी है इसे हर हाल में बनाए रखें।
फिलवक्त डॉक्टर प्रत्यूष अंशुमान बिहार के पटना में कॉस्मेटिक सर्जरी द्वारा चेहरे को खूबसूरत बनाने की अपनी पहल में जुटे हैं। अगर आपके मन में कॉस्मेटिक सर्जरी को लेकर कोई सवाल हो तो आप डॉक्टर डॉक्टर प्रत्युष अंशुमान से संपर्क कर सकते हैं।

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कभी पढ़ाई छोड़ उठाई बंदूक, आज हजारों छात्रों को दे रहे मार्गदर्शन, पढ़ें जुनून और जीत की यह कहानी

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ये कहानी उस शख्स की है जिसने अपने टूटते – जुड़ते सपनों से हताश होने की जगह उसे हथियार बना इतिहास रच डाला। जीवन के हर पहर संकटों से टकराहट होती रही। कभी पढ़ाई बीच में छूटी तो कभी
कलम वाले हाथ में बंदूक थामने की नौबत आ गई। सपने बनते बिखरते रहे पर नहीं बिखरा तो हौसला। इसी हौसले के दम पर आज इनका संस्थान गोल इंस्टीट्यूट राष्ट्रीय फलक पर अपनी मुकम्मल पहचान बना चुका है।
पढ़ें हजारों छात्रों को मेडिकल इंट्रेंस की सफल तैयारी करवाने वाली संस्था गोल इंस्टीट्यूट के संस्थापक विपिन कुमार के संघर्ष और सफलता की ये दास्तान


मेरे जीवन की कहानी में कई स्याह पन्ने हैं और इन पन्नों पर चस्पा दर्द की स्वेत श्याम तस्वीरें भी। मैं बिहार के गया जिले के एक पिछड़े गांव से आता हूं। पिछड़ेपन के साथ ही वहां वर्ग संघर्ष, नक्सलवाद, निजी सेना और नरसंहार जीवन का हिस्सा बन गए थे।कब किसे कहां मौत के घाट उतार दिया जाएगा कहना मुश्किल था। आज सब ठीक है पर इसका खौफ आज भी वहां की माटी में मौजूद हैं। । मैं इन सब से उदास तो होता था पर मैंने उस उदासी को लंबे समय तक खुद पर सवार नहीं रहने दिया। एक स्वप्न टूटता तो मैं दूसरा गढ़ लेता । बस रास्ते पर चलता रहा और क्या! कभी साईकिल से चलकर ट्यूशन पढ़ाने जाता था। आज देश के कई राज्यों में मेरे इंस्टिट्यूट की शाखाएं हैं। कभी दो नंबर से मेरा मेडिकल छूटा आज हमारे संस्थान से तैयारी कर हजारों छात्र डॉक्टर बन चुके हैं। जिंदगी आपका हर वक्त इम्तिहान लेती है आपको बस हौसला बनाए और बचाए रखना होता है। कहते हैं गोल इंस्टीट्यूट के संस्थापक और निदेशक बिपिन कुमार सिंह। विपिन कुमार आगे कहते हैं कि वक्त से अच्छा शिक्षक कोई नहीं होता।

बहुत काली थी वह रात

विपिन कुमार बताते हैं कि वह जीवन का काफी स्याह वक्त था। वह बहुत काली रात थी। हमारे गांव में तब ज़मीन को लेकर वर्ग संघर्ष चरम पर था। बिहार के कई इलाकों में नक्सली हमले बढ़ गए थे। नरसंहार का दौर शुरू हो गया था। हमारे गांव की भी यही हालत थी।। कोई शाम के बाद घर से बाहर नहीं निकलता। घर में भी हर वक्त चौकन्ना रहना होता था। ऐसे में दीपावली की रात हमारे घर भी हमला किया गया और मेरे चचेरे भाई को नक्सलियों ने गोली मार दी। उनकी मौत हो गई। हमारा सब कुछ उस रात तबाह हो गया। मेरी आंखों में खौफ का ये मंज़र रह रह कर तैरता रहता।

पढाई छोड़ थामा था बंदूक

बिपिन कुमार सिंह कहते हैं कि जब घर पर हमला हुआ तो उसके बाद हमारा पूरा परिवार काफी दहशत में जीने लगा। उस वक्त मैंने बोर्ड एग्जाम पास किया था और सपना पटना के साइंस कालेज में एडमिशन कराने का था। बोर्ड एग्जाम में मेरे नंबर काफी अच्छे आए थे। वे आगे बताते हैं कि भाई की हत्या ने हमारा सबकुछ बदल कर रख दिया। उम्र भी कम थी। पढ़ाई के सपने की जगह आंखों में खौफ और दिल में प्रतिशोध की भावना पनप गई। मैं पढ़ाई लगभग छोड़ गांव में ही रहने लगा।
गांव में लोग बंदूक ले टोलियां बना रात भर पहरेदारी करते। हमने भी पढ़ाई छोड़ बंदूक उठाया और रात- रात भर छत पर घूमकर पहरेदारी किया करते। पढ़ाई -लिखाई की कलम की जगह हाथों में थी तो अब बंदूक। यह भी पता नहीं था कि आगे क्या होना है। इसका अंजाम क्या होगा।

पिता बने मार्गदर्शक

बिपिन सिंह कहते हैं कि कुछ दिन तो ऐसा चलता रहा । बंदूक ले मैं पहरेदारी करता। पढ़ना- लिखना पुरानी बात बन गई थी। ऐसे में पिताजी ने एक बार पास बुलाया और बिठाकर पूछा कि इन सब से आगे क्या होगा? भविष्य क्या होगा? उन्होंने मुझे सलाह दी कि इनसे बाहर निकलो और अपने आगे का जीवन मजबूत बनाओ। हिंसा का ज़बाब हिंसा नहीं और इस तरह बंदूक से कोई बदलाव आने वाला नहीं। पिताजी की वह बात मेरे जीवन का टर्निंग प्वाइंट बना और फिर मैं पढ़ाई की और लौट गया।

नामांकन हो चुका था बंद

बिपिन कुमार सिंह बताते हैं जब मैं दुबारा से पढ़ाई की और लौटा तो काफी देर हो चुकी थी। कालेजों में एडमिशन हो चुके थे किसी तरह गया शहर के एक कालेज में मेरा नामांकन हुआ और मैं वहीं गया के एक लॉज में रहने लगा।

लॉज के सीनियर से मिली प्रेरणा

बिपिन कुमार आगे बताते हैं उसी लॉज में मेरे सीनियर रहते थे। काफी सौम्या, व्यवहारिक और हर वक्त पढ़ाई में मशगूल। उस समय तक मैंने कुछ नहीं सोचा था कि मुझे आगे क्या करना है बस मन में यह था कि अच्छे से पढ़ाई हो जाए और एक अदद नौकरी मिल जाए। मेरे सीनियर उस वक्त मेडिकल की तैयारी कर रहे थे और बाद में मुझे पता चला उन्होंने मेडिकल के एग्जाम में बिहार में सातवां स्थान लाया था। उनसे काफी प्रेरणा मिली और मैंने भी यह तय किया कि मैं भी मेडिकल की तैयारी करूंगा और डॉक्टर बनूंगा।

दो नंबर से छूटा मेडिकल

बिपिन कुमार सिंह कहते हैं कि फिर मैं मेडिकल की तैयारी करने के लिए पटना आ गया। एक साथ हम कई छात्र रहते। सब काफी मेहनत करते। हम सब मिलकर आपस में ही टेस्ट पेपर की प्रेक्टिस किया करते। सब कुछ ठीक चल रहा था। इस बीच बहन की तबीयत बिगड़ी और फिर मुझे अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़े। बीच में प्रेक्टिस छूट गई। मैंने मेडिकल का एग्जाम दिया। जब रिजल्ट आया तो मैं सिर्फ दो नंबर से छट गया था। मुझे दो नंबर कम आए थे।

फिर साथ आया तनाव और अकेलापन

वे बताते हैं कि रिजल्ट के बाद मैं तनाव में था। पटना से गांव आया सोचा घर पर लोग दिलासा देंगे। कुछ सिंपैथी मिलेगी पर यहां हुआ उल्टा। नाकामयाबी का सारा ठीकरा मुझ पर ही फोड़ दिया गया। पिताजी ने कहा कि ठीक से पढ़ाई नहीं किए होगे। पढ़ते तो कैसे नहीं होता! अगर आपका ताल्लुक बिहार के गांवों से होगा तो वहां यह बात आम होती है। अब मुझे खुद से ही खुद को दिलासा भी देना था और आगे नए रास्ते भी ढूंढने थे। पिताजी ने कहा कि तुम अपने बारे में खुद सोचो और यही मेरा जीवन मंत्र बन गया।

जब चावल बेच दिया किराया

बिपिन कुमार सिंह कहते हैं कि एक वाक्या मुझे अब भी याद है। उस वक्त में किराए पर रह कर पढ़ाई करता था। मेरे पास पैसे खत्म हो चुके थे और मकान का किराया देना था। राशन आदि के लिए भी पैसे नहीं थे। पिताजी तब रिटायर कर चुके थे और गांव में रहते थे। मैं गांव आया और पिताजी से पैसा मांगा ‌। पिताजी ने कहा कि फिलहाल तो पैसे खत्म हो चुके हैं । तुम अगले माह ले लेना। फिर मैंने जब ज़िद की तो उन्होंने कहा कि पैसे तो है नहीं ऐसा करो ये धान रखा है ट्रैक्टर पर लादकर बाजार ले जाओ और फिर जो पैसे मिलेंगे उसे ले लेना। मैंने ट्रैक्टर पर धान लोड किया, बाजार गया उसे बेचा और फिर पैसे लिए। जो पैसे मुझे धान बेचकर मिले वह इतना कम था कि मेरे दो माह का रूम रेंट ही चल पाया। मुझे लगा कि पिताजी इतनी मेहनत करते हैं फिर भी अच्छी आमदनी नहीं हो पाती। मुझे इस हालत से निकलना है।

ऐसे आया संस्थान खोलने का आइडिया

मेडिकल प्रिपरेशन के कोचिंग खोलने के बारे में बताते हुए बिपिन कुमार कहते हैं मेरा मेडिकल का सपना टूट चुका था। इस दौरान मैंने जो तैयारी की थी , तैयारियों का जो पैटर्न और मॉडल बनाया था मैं उसके बारे में सोच रहा था। उस वक्त मेडिकल इंट्रेस्ट की प्रेक्टिस के लिए देश में कोई सेंटर नहीं था जो छात्रों को मार्गदर्शन दे सके। मैंने सोचा कि क्यों न एक ऐसा सेंटर बनाया जाए जिसमें मेडिकल के छात्रों की तैयारी कराई जाए। मैंने इस पर काफी मंथन शुरू किया और पाया कि बेहतर मार्गदर्शन के आभाव में एक-एक छात्र सालों साल तैयारियां करते हैं और फिर कईयों को निराशा हाथ लगती । फिर मैंने संकल्प लिया कि मुझे ऐसा एक सेंटर बनाना है।

सेंटर के लिए कहां से आए पैसा?

बिपिन कुमार आगे कहते हैं कि मैनै मन ही मन मैंने सेंटर खोलने की पूरी तैयारी कर ली। कई लोगों से बात भी किया पर उन लोगों ने मुझे डिमोटिवेट ही किया। पर इन सबकी बात अन्यथा ना ले मैंने तय किया कि मुझे एक ऐसा सेंटर बनाना है जहां मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम के लिए प्रिपरेशन कराया जा सके। इन सबके लिए पैसे की जरूरत थी जो मेरे पास थे नहीं और मैं घर से मांग नहीं सकता था । घर से मांगता तो मिलता भी नहीं। मैंने किसी को कुछ नहीं बताया और ट्यूशन पढानी शुरू की । 30 से 40 किलोमीटर साइकिल से जाकर ट्यूशन पढ़ाने लगा और फिर पैसे इकट्ठे किए।

8×8 के कमरे से शुरुआत

बिपिन कहते हैं कि ट्यूशन पढ़ाकर मैंने जो पैसे इकट्ठे किए उसे एक छोटे से कमरे में मेडिकल की तैयारी के लिए कोचिंग शुरु किया। यह मेरे सपने के सच होने जैसा था। उस वक्त काफी लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया कि छोटे से कमरे में कैसे मेडिकल एंट्रेंस की तैयारी होगी। आखिर पैसे देकर कौन टेस्ट सीरीज देना चाहेगा ? मुझे विश्वास था कि हो न हो कुछ बेहतर जरूर होगा। मैं लोगों की आलोचनाएं सुनता और दुगनी ताकत से इसे बेहतर बनाने पर पूरी उर्जा लगा देता। पहले ही साल में मेरे 80 में से 20 छात्र सेलेक्ट हो गए इसे मेरा उत्साह बढ़ा और फिर कारवां बनता गया।

आज देश भर में 18 ब्रांच

आज गोल इंस्टिट्यूट के देशभर में 18 से अधिक ब्रांच है। आज यह मेडिकल प्रिपरेशन का एक भरोसेमंद नाम बन चुका है।हमारे संस्थान से तैयारी कर हजारों छात्रों ने सफलता का परचम लहराया है। हम सैकड़ों लोगों संस्था से जोड़ कर रोजगार भी दे रहे हैं। साथी बिहार की राजधानी पटना में बहार 12 एकड़ का गोल विलेज भी कार्य कर रहा है या अपने आप में अनूठा शैक्षणिक गांव है। आज Goal संस्थान ने अपने सफलता का 25 वर्ष पूरे कर लिए है और इस 25 साल के सफर में 15 हजार से ज्यादा डॉक्टर हमने सोसाइटी को दिए हैं।कहते हैं बिपिन कुमार।

क्या है गोल विलेज

गोल विलेज हमारी प्राचीन गुरुकुल प्रणाली और आधुनिक टेक्नोलॉजी के साथ शांत और खुबसूरत प्राकृतिक वातावरण के बीच रचा- बसा एक आदर्श शैक्षणिक कैंपस है। यहां छात्रों के लिए एक ही जगह रहना- खाना, पढ़ाई, सेल्फ स्टडी, के साथ ही खेलकूद, व्यायाम और उनके व्यक्तित्व विकास की तमाम साधन – संसाधन उपलब्ध कराए गए हैं।

और नाराज हो गए पिताजी

वे बताते हैं कि कोचिंग खोलने के बाद पिताजी काफी नाराज हो गए थे। वे आगे बताते हैं कि यह वाक्य तब का है जब मेरी कोचिंग की शुरुआत हो चुकी थी और रिजल्ट भी काफी बढ़िया आया था। उस समय मैं गांव गया और दीदी ने पिताजी को बता दिया था कि मैं कोचिंग सेंटर चला रहा हूं। पिताजी तब मुझसे काफी नाराज हुए उन्हें लगा कि मैंने उनकी प्रतिष्ठा धूमिल कर दी है।

छोटा नहीं होता कोई काम

बिपिन कुमार सिंह कहते हैं कि कोई भी काम छोटा काम या बड़ा काम नहीं होता है अगर आप मन से उसे करते हैं तो उस काम में ऊंचाई जरूर मिलती है। जीवन में बाधाएं आती रहती हैं पर उन बाधाओं को हिम्मत बना आगे बढ़ जाने की जरूरत है।
फिलहाल विपिन कुमार सिंह अपनी निर्बाध लगन और उर्जा से ‘गोल’ को एक अंतरराष्ट्रीय फलक पर स्थापित करने की नई मुहिम में जुटे हैं।

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मुफलिसी से लड़कर अपने जायके की खुशबू को सात समंदर पार तक पहुंचाने वाले गोपाल कुशवाहा की कहानी

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उनकी शुरुआती जिंदगी गरीबी से दो-दो हाथ करते बीती। मुफलिसी इतनी कि त्योहारों में भी सूखी रोटी ही नसीब होती। कम कीमत पर खरीदे पुराने कपड़े से तन ढकने का काम चलता। उस शख़्स ने कुंडली मारकर बैठी गरीबी की रेखा को अपने जीवन की रेखा से निकाल फेंकने का प्रण किया और मन में हिम्मत भर स्वाद का ऐसा तड़का लगाया कि बन गए जायकों के शहंशाह। आज देशभर के कई शहरों में उनके रेस्तरां की चेन है। अब सपना अमेरिका में रेस्तरां खोलने का है। अहुना मटन के लाजवाब स्वाद से दुनिया को परिचित कराने वाले ओल्ड चंपारण मीट हाउस के संस्थापक गोपाल कुशवाहा की यह कहानी पढ़िए…

मेरी परवरिश अत्यंत ही गरीबी में हुई दो वक्त का खाना जुटाने के लिए भी हमें संघर्ष करना पड़ता था। मैट्रिक का फॉर्म भरने के लिए मां के गहने गिरवी रखने पड़े थे। पिताजी सब्जी का ठेला लगाते उसी पैसे से हमारे परिवार का गुजारा किसी तरह चलता।
बड़े भाई चितरंजन कुशवाहा पिता की मदद करते और अखबार बांट कुछ पैसे जोड़ते। बड़े भाई इस हालत में हम सबको खूब है हौसला देते वे कहते कि वक्त जरूर बदलेगा। हम सभी पांच भाई बहनों को बड़े भइया ने खुब हिम्मत दी।

त्योहारों में भी हमें नए कपड़े नसीब नहीं होते थे। फुटपाथ पर बिकने पुराने कपड़े खरीद कर हमारे पिताजी हमारे लिए लाते थे। यह वाक्या बताते हुए गोपाल कुशवाहा की आंखें नम हो गई भीगी आंखों से आगे की कहानी बयां करते हुए गोपाल कहते हैं कि परिवार में सब चाहते थे कि मैं सरकारी नौकरी में जाऊं। घर में कम से कम एक फिक्स आमदनी हो जाए। मेरी नौकरी रेलवे में लगी पर मेरा मन नौकरी में नहीं रमा और मैंने नौकरी छोड़ दी। परिवार के लोगों ने मुझे खूब कोसा पर मेरे मन में कुछ अलग करने की चाहत बचपन से बेचैन के रहती थी । आज इसी चाहत ने मेरे अहुना मटन को देश दुनिया का पसंदीदा ज़ायका बना दिया है,कहते हैं ओल्ड चंपारण मीट हाउस के संस्थापक गोपाल कुशवाहा ।गोपाल द्वारा ईजाद किए गए अहुना हांडी मटन की खूब चर्चा है ।खास से आम तक सभी को इसके लाजवाब स्वाद का चटकारा इनके रेस्तरां तक खींच लाता है।

क्या है अहुना हांडी मटन

दरअसल अहुना हांडी मटन, मटन बनाने की एक विशेष शैली है इसमें मटन बनाने के लिए मिट्टी की हांडी का प्रयोग किया जाता है। गोपाल कुशवाहा बताते हैं कि वह बिहार -नेपाल बॉर्डर पर स्थित घोड़ासहन नामक की जगह से इसे लेकर आए हैं और इसकी पाककला में थोड़ा परिवर्तन किया।इसका स्वाद अन्य प्रकार से पकाए गए मटन से काफी अलग सोंधी खुशबू लिए होता है।
यह खाने में स्वादिष्ट तो होता ही है सेहत और पाचन क्रिया में भी फिट बैठता है। खास यह कि इसके बनाने का फार्मूला तो गोपाल का ही है साथ ही इसके मसाले भी वे खुद तैयार करते हैं। मटन पकाने के लिए सरसों तेल भी बाजार से ना खरीद कर खुद से ही तैयार कराया जाता है । गोपाल कुशवाहा आगे कहते हैं कि इससे जायके का स्वाद और सुगंध हमेशा एक जैसा रहता है ।हम मटन बनाने की प्रक्रिया में स्वच्छता और शुद्धता दोनों का पूरा ख्याल रखते हैं। वें आगे कहते हैं कि चावल पकाने के लिए भी हम गुणवत्ता पूर्वक बर्तन का प्रयोग ही करते हैं।

मिट्टी की हांडी हीं क्यों?

मिट्टी की हांडी में अहुना मटन क्यों पकाया जाता है ? इसके बारे में गोपाल कुशवाहा बताते हैं कि मिट्टी में 12 प्रकार के मिनरल्स पाए जाते हैं । यह मिनरल्स मटन में मिलकर इसे स्वादिष्ट और पौष्टिक बनाते हैं । माटी की महक की भीनी भीनी खुशबू भी इस मटन में आप महसूस करते हैं । वें यह बताते हैं कि हांडी में छोटे-छोटे छिद्र भी होते हैं इससे होकर से पकने के दौरान बनने वाली हानिकारक गैस बाहर आ जाती है।

ऐसे हुई शुरुआत

गोपाल पहले फुटवियर का कारोबार करते थे। शुरुआती दौर में फुटवियर कारोबार तो काफी बढ़िया चला पर कुछ दिनों के बाद यह कारोबार बंद हो गया। उसके बाद गोपाल अनिल डेकोरेटर में भाइयों के साथ काम करने लगे। वहां कैटरिंग का काम भी होता। एक बार कैटरिंग के आर्डर में हांडी मटन बनाने की चुनौती आई। कैटरिंग के कारोबार के दौरान एक पार्टी में काम देने की यह शर्त रखी गई कि वहां वह हांडी मटन बनाएंगे तभी काम मिलेगा। तब गोपाल कुशवाहा को हांडी मटन बनाने के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं थी। इसके बाद उन्होंने चुनौती को स्वीकार किया और इसके लिए इसके बारे में जानकारी जुटाई और जब हांडी मटन बनाया तो मेजबान को काफी पसंद आया। इसके स्वाद की काफी तारीफ मिली ।बस यही से हांडी मटन को और बेहतर बनाने का प्रयोग शुरू हुआ। फिर चंपारण के घोड़ासहन में जाकर हांडी मटन बनाने की विधि पर और गहरी जानकारी प्राप्त की। गोपाल कहते हैं कि इसके बाद मैंने शुरू किया ‘ओल्ड चंपारण मीट हाउस’ इसमें मुझे अपने भाइयों का भी खुब साथ मिला।

हर घर तक शुद्ध मसाला पहुंचाने की पहल

गोपाल कुशवाहा हर घर तक शुद्ध मसाला पहुंचाने की खास पहल भी कर रहे इसके लिए उन्होंने अपने ब्रांड बीएमएस मैजिक मसाले की शुरुआत की है। इस मसाले को विशेष तौर पर तैयार किया गया है।गोपाल बताते हैं कि इन मसालों में देसी फार्मूले का प्रयोग किया गया है। इसके प्रयोग से जहां मटन का स्वाद का कई गुना बढ़ जाता है वही हाथों में तेल की चिपचिपाहट भी नहीं लगती है। यह सेहत के लिए नुकसानदायक भी नहीं है ।फिलहाल वह फ्लिपकार्ट और अमेजन, इंडिया मार्ट जैसे ई-कॉमर्स प्लेटफार्म पर अपने मसाले लोगों को उपलब्ध करवा रहे हैं ।मशहूर क्रिकेटर इरफान पठान भी इनके मसाले का प्रयोग कर चुके हैं।

स्नातक तक पढ़ाई

गोपाल कुशवाहा ने बीए आनर्स तक के पढ़ाई की है इतिहास विषय में उन्होंने मगध विश्वविद्यालय से स्नातक किया है ।वहीं उनके स्कूल की पढ़ाई द्वारिका स्कूल मंदिरी से हुई है।

दोस्त बुलाते हैं रैंचो

गोपाल कुशवाहा जायकों के शहंशाह तो है ही वें नई- नई मशीन बनाने का प्रयोग करते रहते हैं। उन्होंने हांडी मटन और मटन स्टू बनाने की मशीन भी खुद ही तैयार की है ।वह गृहणियों के लिए एक वैसी मशीन तैयार करने में लगे हैं जिसमें सब्जी बनाते वक्त उसे चलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। गोपाल कुशवाहा के अभिनय प्रयोगों के कारण उन्हें उनके दोस्त रैंचो कह कर बुलाते हैं। गोपाल कुशवाहा अपने इनोवेशन को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए सरकार की सहायता चाहते हैं। वे कहते हैं कि अगर सरकार सहायता दे तो कई तरह की और भी मशीनें बना सकते हैं जिससे लोगों का जीवन स्तर काफी आसान हो जाएगा।

इसलिए रखा यह नाम

चंपारण के नाम पर अपने रेस्तरां का नाम इसलिए उन्होंने रखा क्योंकि इसकी मूल विधि में घोड़ासहन से ली गई है जो चंपारण जिले में पड़ता है। वे कहते हैं कि ऐसे में मुझे लगा कि चंपारण के नाम पर ही मुझे अपने संस्थान का नाम रखना चाहिए।

देशभर में हो रहा है विस्तार

गोपाल कुशवाहा द्वारा संचालित ओल्ड चंपारण मीट हाउस के बिहार की राजधानी पटना में सबसे पुरानी शाखा के साथ ही देश के कई शहरों में इसका विस्तार हुआ है दिल्ली ,चंडीगढ़ बनारस ,समस्तीपुर में इनकी फ्रेंचाइजी शाखाएं मौजूद है। गोपाल इसे केएफसी के तर्ज पर विस्तार देना चाहते हैं जिससे बिहार का नाम दुनिया भर में फैले और ज्यादा से ज्यादा हाथों को रोजगार मिल सके ।

राष्ट्रपति भवन के अधिकारी तक मुरीद

गोपाल कुशवाहा के हांडी मटन के जाकर का स्वाद लेने लोग दूर-दूर से आते हैं । गोपाल बताते हैं कि भारत के राष्ट्रपति भवन के अधिकारियों को भी यह खूब पसंद है राष्ट्रपति भवन के चीफ मेडिकल ऑफिसर की बेटी की शादी में हमारे यहां से अहुना हांडी मटन का आर्डर किया गया था।

सपना अमेरिका में रेस्तरां खोलने का

गोपाल कुशवाहा का सपना अहुना हांडी मटन के अपने रेस्तरां की शाखा अमेरिका में खोलने का है। वह इसके लिए रोड मैप बनाने में जुटे हैं । गोपाल कहते हैं कि ईश्वर चाहेंगे तो जल्द ही उनका यह सपना पूरा हो जाएगा।

नामी कुकरी शो में शिरकत

गोपाल कुशवाहा देश के कई बड़े कुकरी शो में अपने हुनर का जादू दिखा चुके हैं। इसके लिए इन्हें अब तक दर्जनों पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं साथ ही दुनिया के मशहूर शैफ ने इनके व्यंजनों को सराहा है ।कई फिल्मी हस्तियों ने गोपाल कुशवाहा को सम्मानित करते हुए उनके अहुना हांडी मटन की तारीफ की है। गोपाल कुशवाहा के जायके की धूम इंडियन रेस्टोरेंट कांग्रेस 2022 में भी रही।

यूट्यूब पर है लाखों प्रशंसक

गोपाल कुशवाहा अपने खास व्यंजन अहुना हांडी मटन को बनाने की विधि भी लोगों को बताते हैं। यूट्यूब पर इनके वीडियो को लोगों का खूब प्यार मिला है। विलेज फूड फैक्ट्री, दिल्ली फूड, एचएचएम फूड, बिहार न्यूज़ जैसे पाककला के लोकप्रिय चैनलों पर गोपाल कुशवाहा अपने खास ज़ायके को बनाने का तरीका बता चुके हैं । दूरदर्शन पर प्रसारित कई एपिसोड के कुकरी शो के माध्यम से भी वह इस जायके की खुशबू को दुनिया भर में बिखेर चुके हैं ।गोपाल कहते हैं कि ज्ञान-विज्ञान और पकवान को खूब बांटना चाहिए। उनकी कोशिशों से घर घर में लोग अहुना हांडी मटन बनाने की विधि सीख रहे हैं।

रेस्टोरेंट्स बिजनेस अब बना प्रोडक्ट बिजनेस

गोपाल कुशवाहा ने 11 वें इंडियन रेस्टोरेंट कांग्रेस में भी शिरकत कर चुके हैं। इस कांग्रेस में देश भर के नामी रेस्टोरेंट्स बिजनेसमैन और सैफ मौजूद थे। गोपाल कुशवाहा कहते हैं कि वहां भी उन्होंने अपने प्रोडक्ट को बेहतर बनाने की बात कही। उन्होंने कहा कि रेस्टोरेंट्स बिजनेस अब एक प्रोडक्ट बिजनेस बन चुका है। कोरोना काल के बाद प्रोडक्ट की क्वालिटी और उसकी प्राइस पर ध्यान देना सबसे अहम है। इंटरनेट की दुनिया अब जायकों को दूर-दूर तक पहुंचाने में काफी मदद कर रही है।

परिवार के सभी सदस्यों का मिलता है साथ

गोपाल आगे बताते हैं कि जीवन के इस सफर तक पहुंचने में कई कठिन राहों से गुजरना पड़ा है । मुश्किल वक्त में परिवार के सदस्यों ने उनके मनोबल को बढ़ाएं रखा‌। पत्नी बिंदु कुशवाहा ने बुरे दिनों में खूब हौसला दिया। वह अब मसालों का कारोबार देखती है । बच्चे तेजस और अभिनव खेल खेल में ऑनलाइन कारोबार के कई बारीकियां सिखा जाते हैं। गोपाल भाइयों में सबसे छोटे हैं वे कहते हैं कि भाइयों का प्यार उन्हें खूब मिलता रहा है।

फिलहाल गोपाल अपने अहुना हांडी मटन की भीनी खुशबू दुनिया भर में फैलाने में जुटे हैं । इसके साथ ही वह रसोई के काम में आने वाली नई -नई मशीनों का ईजाद भी कर रहे हैं। गोपाल कुशवाहा की कहानी यह सिखा रही है कि शिद्दत से की गई कोशिशें नाकाम नहीं होती। गोपाल ने जहां खुद को गरीबी से उबारा वही इनके द्वारा ईजाद किया गया अहुना हांडी मटन से रोजगार के नए द्वार भी खुल रहे हैं और मिल रहा है सैकड़ों लोगों को काम ।
अहुना हांडी मटन पर और ज्यादा जानकारी के लिए आप गोपाल कुशवाहा से फोन नंबर 99334555506 पर संपर्क कर सकते हैं।

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इनसे सीखिए जिंदगी का हुनर, फोर्थ स्टेज कैंसर से लड़ बांट रहे जिंदादिली…

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होंठों पर मुस्कान.. आंखों में सतरंगी सपनों की बसावट और दिल में लव यूं जिंदगी की जिद लिए धड़कती जिंदादिली.. बात बस यही तक नहीं है इनके चेहरे पर फैला बालपन सा उत्साह यह देखकर आप समझ नहीं पाएंगे कि आखिर मौत का दूसरा नाम कहीं जाने वाले खतरनाक कैंसर के फोर्थ स्टेज से दो -दो हाथ कर ये जिंदगी का उत्सव सजा रहे हैं। कैंसर से लड़ रहे लोगों में हौसला बांटते वरिष्ठ पत्रकार रवि प्रकाश की यह कहानी आपको जरूर पढनी- और गुननी चाहिए .

मैं 46 साल का हूँ लेकिन अगले 46 दिनों की योजनाएँ नहीं बना सकता। क्योंकि, मुझे अंतिम स्टेज का लंग कैंसर है। मैं स्मोकर भी नहीं था। ज़ाहिर है कि मैंने अपने कैंसर के लिए वजहें नहीं बनायी। फिर भी मुझे फेफड़ों का कैंसर हुआ। कहते हैं रवि प्रकाश। रवि जाने माने पत्रकार हैं और फिलहाल बीबीसी से जुड़े हैं। रांची में रहते हैं। लास्ट स्टेज के कैंसर से लड़ते – जुझते हुए भी रवि मायूस नहीं । वे पूरी शिद्दत से खुद की जिंदगी जी रहे हैं और दूसरे कैंसर मरीजों में भी जिंदादिली से जीवन जीने का उत्साह भर रहे हैं। रवि कहते हैं कि कैंसर क्योरेबल है। ठीक हो जाता है। एडवांस स्टेज में अगर ठीक नहीं भी हो, तो प्रबंधन करते हुए इसके साथ रहा जा सकता है। मैं लंग कैंसर के अंतिम स्टेज का मरीज़ हूँ। लाइव हूँ, अलाइव हूँ, एक्टिव हूँ। ज़िंदगी और कैसे चलती है दोस्त? जागरूक रहिए। जागरूक कीजिए।’

हौसलों से यारी

और फिर कैंसर से दोस्ती हो गई

रविप्रकाश बताते हैं कि कैंसर के साथ पिछले पौने 2 साल की ज़िंदगी में कई चीजें बदलीं। कैंसर की आमद एक बड़ी ख़ुशी के चंद महीने बाद हुई थी। या यूँ समझें कि वो तब भी मेरे शरीर में आ गया होगा, जिसका हमें पता नहीं चला। हालाँकि, इसके आने के बाद हमने हिम्मत हारने की जगह नयी संभावनाओं की तलाश शुरू की। बाक़ी ज़िम्मेदारी अपने डॉक्टर्स और ईश्वर पर छोड़ दी। अब ऊपर वाले भगवान के आशीर्वाद के साथ धरती के भगवान मेरे डॉक्टर्स की मेहनत, ज्ञान और स्नेह की बदौलत हमारी ज़िंदगी ठीक चल रही है।

कैंसर मरीजों का उत्साह बढ़ाते रविप्रकाश

कैंसर मरीजों में भर रहे उत्साह

रविप्रकाश कैंसर के मरीजों के बीच जिंदगी का उत्साह भर रहे हैं। अंतिम स्टेज कैंसर से पीड़ित होने के बाद उन्होंने मायूस होने की जगह कैंसर पीड़ित मरीजों के मन में बैठे भय को निकालने का संकल्प लिया। वे कैंसर पीड़ित मरीजों को हौसला देने के लिए अब तक दर्जनों सेमिनार का हिस्सा बन चुके हैं। इसके साथ ही अपने मोटिवेशनल आलेख और वीडियो के जरिए ये कैंसर पीड़ित मरीजों को जीवन का हौसला दे रहे हैं।

इनसे मिली प्रेरणा

ज़िद जिंदगी की…

रवि बताते हैं कि मैंने कई ऐसे लोगों की कहानियाँ पढ़ी है, जिन्होंने कैंसर के अंतिम स्टेज में भी शानदार तरीक़े से अपनी ज़िंदगी जी। ऐसे कुछ लोग कैंसर से पूरी तरह मुक्त भी हुए और आज बिल्कुल सामान्य हैं। मनीषा कोईराला, युवराज सिंह, लांस आर्मस्ट्रांग, लीजा रे आदि इसके उदाहरण हैं। मैंने इन चारों की किताबें पढ़ी है। वे आगे कहते हैं कैंसर हो जाना क़तई ठीक बात नहीं। फिर भी अगर कैंसर हो जाए, तो क्या करें। क्या रोना, पछताना, खुद को कोसना…इसका उपाय है। जवाब है- नहीं। कैंसर हो जाने के बाद उसका प्रबंधन ही एकमात्र उपाय है, जिससे हम अपनी और अपने परिवार के सदस्यों की ज़िंदगी ठीक रख सकते हैं।

धुन जिंदगी की…

हर हाल में खुबसूरत है जिंदगी

रवि विभिन्न मंचों से खुद के बारे में लोगों को बताते हुए यह कहते हैं कि मैं लंग कैंसर के अंतिम स्टेज का मरीज़ हूँ और कैंसर के साथ रहना ही अब मेरी पहचान है। तो, अब जब कैंसर के साथ ही रहना है, तो मेरे पास क्या विकल्प हैं। या तो मैं रोकर अपनी और अपने शुभेच्छुओं-परिजनों की ज़िंदगी ख़राब करूँ, या फिर कैंसर का इलाज कराते हुए अपनी बाक़ी बची ज़िंदगी को और खूबसूरत बनाऊँ। इतनी ख़ूबसूरत, कि कल इसकी कहानियाँ सुनायी जा सकें। मैंने अपने लिए दूसरा विकल्प चुना है। क्योंकि, रोना इसका समाधान नहीं है। ईश्वर न करें कि कोई कैंसर से पीड़ित हो लेकिन अगर कैंसर हो जाए, तो इससे घबराकर ज़िंदगी से भागने की ज़रूरत नहीं। महीनों से कैंसर के साथ रहते हुए मैंने यही सीखा है।

चौथा स्टेज को इसलिए कहते हैं एडवांस

रविप्रकाश बताते हैं कि ्जनवरी 2021 में जब मुझे कैंसर का पता चला, तो कुछ ही दिनों पहले मैंने अपना 45 वाँ जन्मदिन मनाया था. हल्की खाँसी और बुख़ार था।डॉक्टर के पास गए तो शुरुआती कुछ जाँचों के बाद पता चला कि मुझे फेफड़ों का कैंसर (लंग कैंसर) है. सीटी स्कैन की काली फ़िल्मों पर सिल्वर की चमक लिए आकृतियाँ थीं।
चौथा स्टेज अंतिम या एडवांस इसलिए कहा जाता है कि क्योंकि तब डॉक्टर मरीज़ का पैलियेटिव केयर ट्रीटमेंट करते हैं।
मतलब, ऐसा इलाज जिसमें बीमारी ठीक नहीं होगी लेकिन मरीज़ को उस कारण होने वाले कष्ट कम से कम हों और उसकी ज़िंदगी ज़्यादा से ज़्यादा दिनों, महीनों या साल तक बढ़ायी जा सके।

परिवार का मिला समर्थन

तेरा साथ रहे: पत्नी के साथ रविप्रकाश

कैंसर के बीच इस जिंदादिली का श्रेय रवि प्रकाश अपने परिवार को देते हैं। वे कहते हैं कि अपनी पत्नी संगीता, बेटे प्रतीक और तमाम दोस्तों का भी शुक्रगुज़ार हूँ. वे या तो मेरे इस रास्ते के हमसफ़र हैं या फिर मैं इस रास्ते पर चलता रहूँ, इसका सपोर्ट सिस्टम बने हुए हैं.।


थैरेपी के बीच गोवा की मस्ती

रवि बताते हैं कि मुंबई में इलाज के दौरान सीटी स्कैन और मेरी ओपीडी के बीच चार रातों और पाँच तारीख़ों का इंटरवल था. मैंने ये तारीख़ें कैंसर की चिंताओं से दूर गोवा में बिताने की सोची। हमने अपनी चार रातें गोवा में मस्ती करते हुए गुज़ारीं. सिर्फ़ इतना याद रखा कि दवाइयाँ समय पर खानी है। इसके अलावा मेरा कैंसर कहीं नहीं था।हमने खंडहरों में समय बिताया ।चर्च और मंदिरों भी गए।इतना ही नहीं
गोवा के तमाम बीचों की सैर की। समंदर में नहाया और डिस्को भी गए। वे कहते हैं कि मेरे बदन पर उभरे घाव में दर्द था पर मैं लेकिन मैं इस दर्द को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहता था।

कामकाजी लम्हा: रिपोर्टिंग के दौरान रविप्रकाश

दवाओं की कीमत कम करें सरकार

हौसला जीत का

रविप्रकाश कहते हैं कि कैंसर का इलाज इतना महँगा है कि बेहतर विकल्प होने के बावजूद मुझ जैसे मरीज़ सेकेंड या थर्ड ऑप्शन चुनने पर विवश हैं। सरकार को इसपर सोचना चाहिए। पारासिटामोल और मार्फिन की क़ीमत कम कर आप दवाइयों की क़ीमतों पर नियंत्रण के झूठे दावे कैसे कर सकते हैं। टारगेटेड थेरेपी और इम्यूनोथेरेपी की दवाओं की क़ीमत नियंत्रित कीजिए। तब शायद बात बने। जब किसी मरीज़ को यह कहा जाता है कि उसके कैंसर की दवा तो है लेकिन उसकी मासिक क़ीमत 5 लाख रुपये है। क्या भारत जैसी अर्थव्यवस्था में हम हर महीने 5 लाख की दवा अफोर्ड कर सकते हैं?

रविप्रकाश रविप्रकाश कैंसर के साथ मुस्कुरा कर जीते हुए दुसरे लोगों के बीच भी इसे लेकर नया नजरिया दे रहे हैं ताकि कैंसर पीड़ित होने के बाद की जिंदगी गमजदा होकर नहीं ठहाके लगाते हुए मस्ती के साथ गुजारी जाए।

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