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NSG कमांडो की नौकरी छोड़ शुरू की खेती.. जवान से किसान बनने की कहानी हैरान कर देगी

शायद ही कोई किसान हो, जो अपने बेटे को भी किसान बनाना चाहे. मौजूदा वक्त में तो ऐसी अवधारणा यह समाज कदापि स्वीकार नहीं करेगा. वह भी तब जब नेशनल सिक्योरिटी गार्ड जैसी नामचीन संस्था में कमांडो के पद पर नौकरी हो. रूतबा हो. हर महीने बैंक अकाउंट में मोटी तनख्वाह गिरती हो, तो उस नौकरी को छोड़कर खेती का रूख करना काफी हैरानी की बात है. है ना?

यह कहानी मूल रूप से राजस्थान के रहने वाले मुकेश मांजू की है. जो पिछले 10 सालों से अपने 26 एकड़ खेत में Olive के साथ खजूर, अनार, मौसंबी उगाकर न केवल अच्छी कमाई कर रहे हैं, बल्कि आस-पास के किसानों को आय बढ़ाने की नई राह दिखा रहे हैं.

खेती की बदल दी पहचान

मुकेश के लिए जवान से किसान बनने की राह आसान नहीं थी. लेकिन बचपन से ही खेती के प्रति लगाव और प्रेम के कारण उन्होंने इस रास्ते को चुना. और हिंदुस्तान में एग्जोटिक फसलें उगाकर पारंपरिक खेती की पहचान बदल दी. मुकेश परंपरागत खेती से हटकर करना चाहते थे. खेती से उन्हें इतना लगाव था कि NSG में काम करते हुए जब भी मुकेश गल्फ देश जाते, वहां के किसानों से मिलकर नई तकनीक और फसलों की जानकारी लेने पहुंच जाते.

गांव वाले देते थे ताने

इतना ही नहीं छुट्टियों में भी घर आने की बजाय वह खेती की ट्रेनिंग लिया करते थे. 10 साल पहले जब उन्होंने नौकरी छोड़कर पूरी तरह से खेती से जुड़ने का मन बनाया तो परिवार ही नहीं गांववालों ने भी ताने दिए लेकिन मुकेश को यकीन था वह कुछ अलग कर रहे हैं. जिससे उनके जैसे किसानों की कमाई बढ़ाई जा सकती है.

सालाना 20 टन ओलिव का उत्पादन

आज वह मुकेश न सिर्फ ओलिव उगा रहे हैं, बल्कि इसके जैसे दूसरे कीमती फल और सब्जियों की खेती के साथ पशुपालन और एग्रो टूरिज्म भी कर रहे हैं.  वह अपने खेतों से सालाना 20 टन ऑलिव का उत्पादन करते हैं जिसे वह  कच्चा बेचने के साथ-साथ तेल बनाकर बढ़िया मुनाफा कमा रहे हैं.

जवान से किसान बने मुकेश के फार्म में लगी एग्जोटिक फल-सब्जियां देखने आज देश ही नहीं विदेश से भी मेहमान आकर ठहरते हैं. आज मुकेश सैकड़ों किसानों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं.

जानें Olive के बारे में…

ओलिव (Olive) अंग्रेजी नाम है. इस फल को हिंदी में जैतून कहते हैं. दुनिया के स्पेन, पुर्तगाल, ट्यूनीशिया, तुर्किये, यूनान, अफ्रीका, चीन, न्यूजीलैंड आदि देशों में इसकी खेती की जाती है. अमरिका के कैलिफोर्निया में भी इसका उत्पादन होता है. यह अंडे के आकार का फल होता है. हजारों सालों से जैतून का उपयोग इसके औषधीय गुण के लिए किया जा रहा है. आजकल इसे सलाद, सैंडविच, पिज्जा जैसे फूड आइटम बनाने के लिए किया जा रहा है.

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120 रुपए की बुलेट और खरीदने को पैसे नहीं.. संघर्षों से भरी है ओलंपिक मेडलिस्ट स्वप्निल की कहानी

किसी भी सफलता के बाद आम तौर पर हम सिर्फ चकाचौंध को ही देखते हैं, जबकि उसका दूसरा पहलू सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है. किसी प्रतियोगिता का विजेता बनना हो या उसके हिस्सेदारों का पदक जीतना. यह सफर आसान नहीं होता. कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं. न जाने कितनी चुनौतियों से होकर गुजरना पड़ता है. ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने वाले स्वप्निल कुसाले की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.

अब तक भारत को तीन मेडल

पेरिस ओलंपिक में स्वप्निल कुसाले ने पुरूषों की 50 मीटर राइफल थ्री पोजिशंस में कांस्य पदक जीता. क्वालिफिकेशन में सातवें नंबर पर रहे स्वप्निल ने 451.4 स्कोर करके तीसरा स्थान हासिल किया. इसके साथ ही इस ओलंपिक में भारत के खाते में अब तक तीन मेडल आ चुका है. खबर समाप्त. अब सीधे स्वप्निल के संघर्ष के पन्नों को पलटते हैं.

बुलेट खरीदने को कम पड़ जाते थे पैसे

शूटिंग बेहद खर्चीला गेम होता है. राइफल और अन्य उपकरणों पर काफी पैसे खर्च करने पड़ते हैं. अभ्यास में दागे जाने वाली हर गोली का भी खर्च होता है. शुरुआती दिनों में स्वप्निकल के परिवार की हालत ऐसी थी कि प्रैक्टिस के लिए गोलियां खरीदने के लिए पैसे कम पड़ जाते थे. तब बुलेट की कीमत 120 रुपए हुआ करती थी. बेटे के अभ्यास में आर्थिक समस्या बाधा न बने, इसके लिए उनके पिता कर्ज लेकर भी बुलेट खरीदवाते थे, जिससे कि स्वप्निल प्रैक्टिस कर सके. और अपने सपने को पूरा भी.

माता-पिता ने नहीं किया था फोन

अपना पहला ओलंपिक खेल रहे स्वप्निल कुसाले के माता-पिता ने कहा कि उन्हें यकीन था कि उनका बेटा तिरंगे और देश के लिए पदक जीतेगा. स्वप्निल के शिक्षक पिता ने कोल्हापूर में पत्रकारों से कहा, ‘हमने उसे उसके खेल पर फोकस करने दिया और कल फोन भी नहीं किया. पिछले दस बारह साल से वह घर से बाहर ही है और अपनी निशानेबाजी पर फोकस कर रहा है, उसके पदक जीतने के बाद से हमें लगातार फोन आ रहे हैं. स्वप्निल की मां ने कहा, ‘वह सांगली में स्कूल में था जब निशानेबाजी में उसकी रूचि जगी. बाद में वह ट्रेनिंग के लिए नासिक चला गया.

यह मेरी वर्षों की मेहनत है- कुसाले

पदक जीतने पर स्वप्निल ने कहा, “उस रात मैंने कुछ नहीं खाया था. पेट में थोड़ी परेशानी थी. मैंने ब्लैक टी पी थी. हर मैच से पहले मैं ईश्वर से प्रार्थना करता था. उस दिन दिल बहुत तेजी से धड़क रहा था. मैंने सांस पर नियंत्रण रखा और कुछ अलग करने की कोशिश नहीं की. इस स्तर पर सभी खिलाड़ी एक जैसे होते हैं. मैंने स्कोरबोर्ड देखा ही नहीं. यह मेरी बरसों की मेहनत थी. मैं बस यही चाह रहा था कि भारतीय फैंस मेरी हौसला अफजाई करते रहें.”

स्वप्निल को रेलवे ने दिया तोहफा

कांस्य पदक जीतने वाले स्वप्निल रेलवे में बतौर टीटी नौकरी करते हैं. ओलंपिक में पदक जीतते ही रेलवे ने उन्हें तोहफा दिया है. स्वप्निल को टीटी से ओएसडी स्पोर्ट्स के पद पर प्रमोट कर दिया गया है.

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कहानी बिहार के ‘आईआईटीयंस के गांव’ की.. जहां मुफलिसी में भी मिलती है सपनों को उड़ान

पावरलूमों से आने वाली कानफाड़ू आवाज. संकरी गलियां जहां से आसानी से गुजरना काफी मुश्किल का काम होता है. यहां कुछ कमरों में तैयार होती है समाज को सशक्त करने वाली पौध. जिसकी पहचान बुनकरों के शहर के रूप में थी वहां आज बोई जाती है उस सफलता की बीज जो बाद में दरखत बनकर देश सहित दुनिया को साया प्रदान करती है. प्रेरणा से ओतप्रोत कर देने वाली यह कहानी है बिहार के आईआईटीयंस के गांव की.

हर साल सफल होते हैं दर्जनों छात्र

बिहार के गया जिले के मानपुर में स्थित है छोटा सा गांव पटवा टोली. अब यह गांव बिहार के आईआईटीयंस का गांव के रूप में प्रख्यात हो चुका है. ऐसा इसलिए क्योंकि यहां हर साल दर्जनभर से अधिक छात्र आईआईटी और जेईई की परीक्षा में सफलता हासिल करते हैं और देश दुनिया तक सेवाएं प्रदान करते हैं. अब इस गांव की पहचान विलेज ऑफ आईआईटीयन के रूप में बन चुकी है.

दिल्ली से चलती है मुफ्त ऑनलाइन क्लास

इस मकसद को और कामयाब बनाने के लिए मशहूर पटवा टोली को विलेज ऑफ आईआईटीयन बनाने की तैयारी है. इस बड़े मकसद में छात्रों को सफल करने के लिए पूरी पढ़ाई नि:शुल्क दी जाती है. इससे वर्तमान में वृक्ष संस्था का नाम दिया गया है. ऐसे में गरीब तबके से लेकर आम छात्र आईआईटियन बनने का सपना साकार करते हैं.

यहां दिल्ली से भी ऑनलाइन क्लास ली जाती है. प्रत्येक वर्ष सफल होते हैं छात्र मुफ्त शिक्षा देने वाली वृक्ष संस्था में प्रत्येक वर्ष दर्जन भर से अधिक छात्र आईआईटी और जेईई की परीक्षा में सफलता प्राप्त करते हैं. इस सफलता का आधार है निशुल्क संचालित शिक्षण संस्थान वृक्ष विद द चेंज.

ताकि पढ़ाई में गरीबी न बने बाधा

वृक्ष संस्था के संस्थापक चंद्रकांत पाटेकर

वृक्ष संस्था के संस्थापक चंद्रकांत पाटेकर बताते हैं, “इसकी शुरुआत साल 2013 में हुई. हमें इसकी प्रेरणा अपने गरीब दोस्तों से मिली. क्योंकि वे लोग गरीबी में पढ़ नहीं सके. अब हमारा मकसद ये है कि कोई भी छात्र गरीबी के कारण पढ़ाई न छोड़ें. छात्रों को सफल करने के लिए पूरी पढ़ाई नि:शुल्क दी जाती है. इससे वर्तमान में वृक्ष संस्था का नाम दिया गया है. ऐसे में गरीब तबके से लेकर आम छात्र आईआईटियन बनने का सपना साकार करते हैं.”

गांव के हर घर में इंजीनियर

इंजीनियरों और चिकित्सा पेशेवरों को तैयार करने की समृद्ध विरासत के साथ, पटवा टोली शिक्षा एवं सामुदायिक समर्थन की परिवर्तनकारी शक्ति के प्रमाण के रूप में स्थापित हुआ है. इस गाँव में बड़ी संख्या में IIT क्वालिफायर हैं और लगभग हर घर में एक इंजीनियर है.

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कभी पानी और बिजली को तरसता था गांव, आज सरकार को करता है पावर सप्लाई

नीलगिरी की पहाड़ियों में बसा है ओड़नथूरई गांव. तमिलनाडू के कोयंबटूर से करीब 40 किलोमीटर दूर. आज ये गांव स्मार्ट गांव जैसा दिखता है. यहां पर शहर जैसी सारी सुविधाएं मौजूद हैं. गांव के लोगों में भी खूब खुशहाली है. लेकिन कुछ साल पहले तक ऐसा नहीं था. गांव की तस्वीर एकदम अलग थी. यहां बुनियादी सुविधाएं तक मौजूद नहीं थीं. बिजली नहीं थी. पीने का साफ पानी तक नहीं था. पूरे गांव में कच्चे घर थे. लोग घर छोड़कर शहर का रूख करने लगे थे.

बिजली क्या होती है.. जानते तक न थे

ओडनथुरई गांव की रहने वाली भुवनेश्वरी कहती हैं, “मैं यहां 20 साल से रह रही हूं. 20 साल पहले हमारे पास कोई बुनियादी सुविधा नहीं थी. हम एक झोपड़ी में रहा करते थे. यहां न बिजली की सुविधा थी और न ही पानी की. हमें पेयजल के 3 किलोमीटर दूर जाना पड़ता था. हमारे बच्चों को यह तक नहीं पता था कि बिजली कहते किसे हैं? अपना राशन के लिए भी हमें कई किलोमीटर जाना पड़ता था, जिसमें हमारा पूरा दिन निकल जाता था.”

गांव के अधिकांश घर एक जैसे

आज गांव की स्थिति  बिल्कुल पहले जैसी नहीं है. आज गांव में पक्के मकान हैं. घरों में सोलर पैनल लगे हैं. सोलर पैनल घरों को रौशन करने में काम आते हैं. गांव के अधिकांश घर एक जैसे हैं, जिससे गांव काफी आकर्षक लगता है. पानी के लिए अब गांव में बोरवेल लगे हैं, जिससे कि हर घर तक पानी पहुंच सके. अब आप सोच रहे होंगे कि मूलभूत सुविधाओं से वंचित गांव अचानक इतना परिवर्तित कैसे हो गया. तो यह सब हो सका गांव के पूर्व सरपंच आर षणमुगम की वजह से.

लोग शहर छोड़ लौटने लगे गांव

“1986 से 1991 तक मेरे पिताजी गांव के सरपंच थे. गांव में एक भी पक्का मकान नहीं था. गांव के जनजाति के लोग हमारे पास आए और पंचायत से पक्के घरों की मांग की. पंचायत से प्रस्ताव पास कर उनके लिए घर बनाने का निर्णय किया. मैं 1996 में मुखिया चुना गया. तब गांव के और लोगों ने भी पक्के घरों की मांग की. मैंने पंचायत के फंड से इंतजाम किया और दूसरे लोगों के लिए भी घर बनवाने का प्रस्ताव पास किया. गांव से सारी झोपड़ियों को हटाया गया और उनकी जगह बुनियादी सुविधाओं के साथ पक्के मकान बनाए गए. इससे गांव से पलायन कर गए लोग वापस आने लगे. 20 साल में हमारी जनसंख्या 1600 से 10 हजार हो गई है.पूर्व सरपंच आर षणमुगम

लोग अपने गांव की देखभाल खुद अच्छे से करते हैं और खुश हैं. गांव के ज्यादातर लोग खेतों में काम करते हैं. गांव में पीने के पानी और बिजली की आपूर्ति को पूरी करने पर भी षणमुगम का योगदान अविस्मरणीय है.

गांव करता है सरकार को बिजली सप्लाई

“बिजली के लिए हमने ऊर्जा के रिन्यूएबल विकल्पों को तलाशा. हमें पवनचक्की का विकल्प सबसे सही लगा. इसकी कीमत करीब 1.55 करोड़ रूपए थी.  हमने पंचायत में टैक्स और दूसरे तरीके से 40 लाख रुपए इकट्ठा करवाए.   और बाकी का बैंक लोन करवाया. साल 2006 में हमने पवनचक्की लगवाई जिससे 7 लाख यूनिट बिजली पैदा होती है. अब हम 20 लाख रुपए की बिजली हर साल तमिलनाडु सरकार को बेचते हैं.”- आर षणमुगम

स्मार्ट विलेज मॉडल की खूब तारीफ

षणमुगम के प्रयासों कभी बिजली और मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जीने वाला गांव आज सरकार को बिजली बेच रहा है. षणमुगम को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम और प्रदेश के मुख्यमंत्रियों ने पुरस्कार दिए हैं. विश्व के कई बड़े संगठन इस गांव के विकास को आकर देखते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं. षणमुगम आज भले ही गांव के मुखिया नहीं हैं लेकिन उनके द्वारा किए गए काम से दुनिया के बड़े-बड़े देश और संगठन भी प्रेरणा ले रहे हैं.

जानकारी स्रोतः डीडब्ल्यू हिंदी

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कभी खजूरी कहा जाता था.. आज ‘खाजा’ से दुनिया में पहचान, परतों में समाई रहती है मिठास

यूं तो बिहार के किसी कोने में निकल पड़िए तो एक अलग ही चटखारा आपको मिल जाएगा. कोस-कोस पर पानी बदले और दस कोस पर वाणी तो बदलती ही है. साथ ही बदल जाती है रिवाज, रस्म और सबसे जरूरी स्वाद. चटखारे में आज मजा लेंगे सिलाव के खाजे का. कैसे 200 साल के इतिहास में खजूरी से खाजे के रूप में इस लजीज मिठाई को वैश्विक पहचान मिली.

200 साल का है इतिहास

नालंदा जिला मुख्यालय से बिहारशरीफ से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है छोटा सा शहर सिलाव. वैसे शहर ये आज है, पहले तो गांव ही हुआ करता था. सिलाव की पहचान यहां बनाई जाने वाली एक अलग किस्म की मिठाई है. नाम है खाजा. 52 परत वाले खाजे की शुरुआत यहां के ही बाशिेंदे काली साह ने करीब 200 साल पहले की थी। पहले इसे खजूरी कहा जाता था, लेकिन धीरे-धीरे इसका नाम खाजा पड़ा. 200 साल बीत गए, लेकिन खाजा के स्वाद में कोई फर्क नहीं आया है. आम से लेकर खास तक को यह व्यंजन बहुत लुभाता है. आज इनकी चौथी पीढ़ी इस व्यवसाय से जुड़ी है.

खाजा कारोबार से जुड़ी है चौथी पीढ़ी

चूंकि यह कारोबार 200 साल पहले शुरू हुआ. साल बदलते गए तो इससे पीढ़ी भी जुड़ती चली गई. आज काली साह के पीढ़ी के कुल 31 लोग जीवित हैं और खाजे के कारोबार से ही जुड़े हैं. काली साह के नाम पर शहर में 6 दुकानें हैं. पैतृक शान और कारोबार का आलम यह है कि उनके परपोते संदीप लाल की दारोगा की नौकरी लगी लेकिन उन्होंने उसे ठुकराकर अपने परदादा के व्यवसाय को आगे बढ़ाया.

एक पैसे सेर बिकता था खाजा

संदीप लाल बताते हैं, दिवंगत काली साह का मिठाई बनाने का पुश्तैनी धंधा था. दो सौ साल पहले जो खाजा बनता था उसे खजूरी कहा जाता था. उस वक्त घर मे हीं गेंहू पीस कर मैदा तैयार किया जाता था. शुद्ध घी में खाजा बनता था. उस समय एक पैसे सेर (किलो) खाजा बेचा जाता था. आज तकनीक के जरिए खाजा दुनिया के कई देशों तक पहुंच रहा है.

ऐसे वैश्विक बनता गया खाजा..

सिलाव मे बनाये गये खाजा का प्रदर्शन सबसे पहले वर्ष 1986 में अपना महोत्सव नई दिल्ली में हुआ था. कालीसाह के वंशज संजय कुमार को वर्ष 1987 मे मारीशस जाने का मौका मिला. मारीशस मे आयोजित सांग महोत्सव में मिठाई मे खाजा को सर्वश्रेष्ठ मिठाई का दर्जा मिला. 1990 में दूरदर्शन के लोकप्रिय सांस्कृतिक सीरियल सुरभि, वर्ष 2002 में अंतरराष्ट्रीय पर्यटन व व्यापार मेला नई दिल्ली के अलावे अन्य कई मौके पर खाजे ने धूम मचाई. देश सहित दुनिया की बड़ी हस्तियां इसका स्वाद चख चुके हैं. सिलाव के खाजे को जीआई टैग भी मिला हुआ है. अब भारत सरकार दवारा मेक इंडिया के तहत भारत के 12 पारंपरिक व्यजंन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेश किए जाने की योजना है, जिसमें सिलाव का खाजा भी शामिल है.

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निशानेबाजी में ओलंपिक मेडल जीतने वाली कौन हैं मनु भाकर? जानें संघर्ष की कहानी..

कहते हैं कि पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं. पेरिस ओलंपिक में भारत के लिए पदक का खाता खोलने वाली मनु भाकर पर यह कहावत बिल्कुल ठीक बैठती है. कभी मां ने घर पर अलेके छोड़ा तो घंटों तक मनु अकेले खिलखिलाती रह गई. बच्ची की इस निर्भिकता और निडरता देख मां ने उसका नाम मनु रखा. माने झांसी की रानी. आज उस मनु ने उसे साबित कर दिखाया है.

‘कभी पिस्टल ने दिया था धोखा..’

निशानेबाजी में मनु कोई भी मेडल जीतने वाली पहली भारतीय महिला बन गई हैं. मनु भाकर का ब्रॉन्ज मेडल जीतने का सफर आसान नहीं रहा है. मनु भाकर का यह मेडल का सफर आसान नहीं रहा है. यह मनु भाकर का दूसरा ही ओलंपिक है. उन्होंने पिछले यानी टोक्यो ओलंपिक 2020 में डेब्यू किया था, लेकिन 10 मीटर एयर पिस्टल क्वालिफिकेशन राउंड के दौरान उनकी पिस्टल खराब हो गई थी. इस कारण वो पिछली बार मेडल नहीं जीत सकी थीं. मगर इस बार मनु ने अपना पूरा जोर दिखाया और किस्मत पर हावी होते हुए मेडल पर निशाना साध दिया.

पेरिस 2024 ओलंपिक शूटिंग प्रतियोगिता में 22 साल की मनु भाकर महिलाओं की 10 मीटर एयर पिस्टल, 10 मीटर एयर पिस्टल मिश्रित टीम और महिलाओं की 25 मीटर पिस्टल स्पर्धा में प्रतिस्पर्धा कर रही हैं. वह 21 सदस्यीय भारतीय शूटिंग टीम से कई व्यक्तिगत स्पर्धाओं में हिस्सा लेने वाली एकमात्र एथलीट हैं.

मनु के नाम दर्ज हैं कई रिकॉर्ड

मनु ने 2023 एशियन शूटिंग चैम्पियनशिप में महिलाओं की 25 मीटर पिस्टल स्पर्धा में पांचवें स्थान पर रहने के बाद भारत के लिए पेरिस 2024 ओलंपिक कोटा हासिल किया था. मनु भाकर ISSF वर्ल्ड कप में गोल्ड मेडल जीतने वाली सबसे कम उम्र की भारतीय हैं. वह गोल्ड कोस्ट 2018 में महिलाओं की 10 मीटर एयर पिस्टल स्पर्धा में कॉमनवेल्थ गेम्स की चैम्पियन भी हैं, जहां उन्होंने CWG रिकॉर्ड के साथ शीर्ष पदक जीता था. मनु भाकर ब्यूनस आयर्स 2018 में यूथ ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय निशानेबाज और देश की पहली महिला एथलीट भी हैं. उन्होंने पिछले साल एशियाई खेलों में महिलाओं की 25 मीटर टीम पिस्टल का खिताब जीता था.

आंख में चोट के बाद छोड़ दी थी बॉक्सिंग

मनु का जन्म हरियाना के झज्जर में हुआ. स्कूल के दिनों में मनु ने टेनिस, स्केटिंग और मुक्केबाजी जैसे खेलों में खूब हिस्सा लिया करती थी. लेकिन एक बार मुक्केबाजी के दौरान आंख में चोट लगने के बाद उन्होंने बॉक्सिंग छोड़ दी और फिर निशानेबाजी को अपना करियर बना लिया. मनु ने 14 साल की उम्र में उन्होंने शूटिंग में अपना करियर बनाने का फैसला किया, उस वक्त रियो ओलंपिक 2016 खत्म ही हुआ था. इसके एक हफ्ते के अंदर ही उन्होंने अपने पिता से शूटिंग पिस्टल लाने को कहा. उनके हमेशा साथ देने वाले पिता राम किशन भाकर ने उन्हें एक बंदूक खरीदकर दी और वो एक ऐसा फैसला था जिसने एक दिन मनु भाकर को ओलंपियन बना दिया. आपको यह जानकर भी बेहद खुशी होगी कि भारत ने 2012 लंदन ओलंपिक के बाद निशानेबाजी में कोई पदक नहीं जीता था और अब भाकर ने मेडल सूखे को खत्म किया है. आज इस बिटिया पर पूरे देश को गर्व है.

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कुपोषण के खिलाफ जंग लड़ते चिकित्सक की कहानी 

“यह कहानी एक ऐसे चिकित्सक की है जो भारत के भविष्य कहे जाने वाले बच्चों की ज़िंदगी संवार रहे हैं। उन्हें निकाल रहे हैं बीमारियों की नापाक गिरफ्त से। लड रहे हैं जंग, कुपोषण के खिलाफ। मकसद यह कि फिज़ा गुलज़ार होती रहे नन्हीं हंसी से। ठुमक -ठुमक कर चलते- बढ़ते बच्चे तुतली आवाज में बुलंद कर सकें स्वस्थ भारत का राग। आज कहानी कुपोषण के खिलाफ जन मन में जागरूकता भरने वाले डॉक्टर अनिल कुमार तिवारी की…”

बीमार बच्चे का इलाज करते हुए डॉ. अनिल

“बच्चों में कुपोषण को अभिभावक रोग नहीं मानते, पर यह 50 फ़ीसदी बाल मृत्यु का कारक है। आप इसे ऐसे समझ सकते हैं कि  अगर बच्चे सामान्य है तो डायरिया से दस में से नौ बच्चे सुरक्षित बच जाएंगे. पर अगर बच्चे कुपोषित हैं तो दस में से नौ बच्चे काल के गाल में समा जाने की संभावना है। बिहार जैसे राज्य में अभिभावक यह समझने को तैयार ही नहीं होते कि कुपोषण एक समस्या है और इसका इलाज जरूरी है। हमारे पास कुपोषण प्रभावित बच्चे तब आते हैं जब वे किसी दूसरी बीमारी से पीड़ित होते हैं।”कहते हैं डॉक्टर अनिल कुमार तिवारी । डॉक्टर अनिल कुमार तिवारी बिहार के जाने-माने शिशु रोग विशेषज्ञ हैं और कुपोषण के खिलाफ लंबे समय से कार्य कर रहे हैं।

डॉ.अनिल बताते हैं कि मैं अपने कार्य के दौरान ऐसे बच्चों का इलाज और पोषण पुनर्वास केंद्र में इनकी देखभाल तो करता ही हूं, साप्ताहिक अवकाश या अन्य छुट्टी वाले दिन शहरों के स्लम और गांव की बस्तियों में जाकर लोगों को कुपोषण के बारे में जागरूक भी करता हूं।

बच्चों की ज़िंदगी बचाने की खुशी अनमोल

डॉ.अनिल कुमार तिवारी बताते हैं कि बीमार और कुपोषित बच्चों का इलाज कर उन्हें स्वस्थ कर उनकी जिंदगी बचाने की खुशी अनमोल होती है। इस खुशी की तुलना आप करोड़ों की दौलत से नहीं कर सकते। जब कोई बच्चा स्वस्थ होकर डॉक्टर की ओर देख हौले से मुस्कुराता है तो यह दृश्य आपकी आत्मा को सुकून देने वाला होता है।

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे पेशे में हूं जो बच्चों से और उनकी सेहत की रक्षा से जुड़ा है। बच्चों का मुस्कुराता चेहरा और हमारा कर्त्तव्य निर्वाहन मुझे हर रात अच्छी नींद और सुकून भरा जीवन देता है

 

कुपोषण पर रिसर्च नामी जनरल में प्रकाशित

डॉ.अनिल कुमार तिवारी ने कुपोषण पर लंबा शोध भी किया है। कुपोषण को लेकर किए गए शोध आधारित आलेख कई अंतरराष्ट्रीय जनरल ने  डॉ. अनिल के लगभग 30 से अधिक रिसर्च पेपर प्रकाशित किए हैं। वे 40 से ज्यादा रिसर्च पेपर रिवियू का काम कर चुके हैं। बाल चिकित्सा पर दो टेक्सट बुक के निर्माण में भी डॉक्टर अनिल कुमार तिवारी ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। समय -समय पर वे बाल रोगों की स्थिति और उनके प्रभावों और निदान से संबंधित कार्यशालाओं में हिस्सा लेते रहते हैं। तथा टेलीविजन एवं समाचार पत्रों के माध्यम से जागरूकता फैलाते रहते हैं.

अपने गांव के पहले डॉक्टर

डॉक्टर अनिल बताते हैं कि मैं अपने गांव का पहला डॉक्टर हूं । वैसे तो मुझे गणित विषय काफी पसंद था पर परिवार के लोग चाहते थे कि गांव में कोई डॉक्टर नहीं है तो मैं डॉक्टर बनूं । सो मैंने इंटरमीडिएट में बायोलॉजी चुना। यह मेरे लिए बड़ी चुनौती थी, पर मैंने इसे स्वीकार किया और आगे की राह चुनी। जब चयन के बाद मेरा दाखिला मेडिकल कॉलेज में हुआ तो परिवार के साथ पूरा गांव प्रसन्न था। तब गांव का माहौल काफी सकारात्मक होता था ।शहर की प्रतिस्पर्धा और निजता का अतिक्रमण तब गांव में नहीं हुआ था। किसी परिवार की खुशी पूरे गांव की खुशी होती थी। किसी एक व्यक्ति का सपना पूरे गांव का सपना होता था। यह मेरे पिता और संपूर्ण परिवार के लिए भी गौरव का क्षण था। मैंने अपने पिता के चेहरे पर इसे महसूस किया था। एक किसान का बेटा डॉक्टर बनने की राह पर बढ़ चला था।
स्कूल की पढ़ाई के दौरान

यहां बीता बचपन

डॉ अनिल कुमार तिवारी बताते हैं कि उनका जन्म बिहार के बक्सर के बभनी ग्राम में हुआ। पिता श्री पारसनाथ तिवारी किसान थे। माता श्रीमती कमला देवी कुशल गृहिणी। पिताजी छह भाई थे। हमारे पिताजी को छोड़कर बाकी भाई नौकरी पेशा में रहे। पिताजी ने पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण बीच में ही पढ़ाई छोड़ खेती अपना ली। सभी भाइयों को आगे बढ़ाने में पिताजी की बड़ी भूमिका रही। प्रारंभ में परिवार में ग़रीबी एक समस्या की तरह थी। पिता दिन-रात मेहनत करते और तब जाकर गृहस्थी की गाड़ी चलती। उन्होंने बुरी परिस्थितियों से संघर्ष कर हम सब को पढ़ाया और सुपथ पर चलने की प्रेरणा दी। परिवार के सभी अग्रज ने अपनी भूमिका सराहनीय ढंग से  निभाई जिसके कारण परिवार के अन्य सदस्य शिक्षा के क्षेत्र में  श्रेष्ठता पाने में सक्षम हो सके।  आज पिताजी और माताजी हमारे बीच नहीं पर उनका बताया मार्ग ही है जिसपर हम अब भी चल रहे हैं।

पगडंडी वाले हाई स्कूल में पढ़ाई

डॉक्टर अनिल बताते हैं कि उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के स्कूल में ही हुई। पांचवी तक की शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल से मिली। छठी कक्षा में पढ़ने के लिए गांव से चार किलोमीटर दूर पैदल जाना होता था। हाईस्कूल भी ऐसा था कि वहां तक पहुंचने के लिए कोई सड़क नहीं थी । पगडंडी से होकर हम हाईस्कूल में पहुंचते। खैर इन तमाम कठिनाइयों के बाद भी शिक्षा और शिक्षक अच्छे थे। मेरे अंदर अनुशासन और नैतिक मूल्यों को स्थापित करने का श्रेय इन्हीं स्कूलों को जाता है। नौवीं से ग्यारहवीं तक की पढ़ाई के लिए मैं चाचाजी के यहां बोकारो चला गया यहां बोकारो स्टील सिटी स्थित स्कूल में मेरा दाखिला हुआ। तब बोकारो बिहार का हिस्सा था बिहार का बंटवारा नहीं हुआ था।

1978में मैट्रिक करने के बाद मेरा नामांकन पटना साइंस कालेज, पटना में करवा दिया गया। 1980 में इंटरमीडिएट पास करने के उपरांत 1981 में दरभंगा मेडिकल कॉलेज में मैंने दाखिला लिया। 1991 में पटना के पीएमसीएच से डिप्लोमा इन चाइल्ड हेल्थ और 1994 में दरभंगा मेडिकल कॉलेज अस्पताल से शिशु रोग में एमडी किया। 2009 में केरल विश्वविद्यालय से डेवलपमेंट न्यूरोलॉजी में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा किया।

मैं 1990 में बिहार राज्य स्वास्थ्य सेवा में योगदान करने के बाद विभिन्न स्थानों पर कार्यरत रहा। वर्तमान में 2011 से  मैं पीएमसीएच में सेवा दे रहा हूं। मेरी पूरी शिक्षा में अग्रज प्रोफेसर अखिलेश्वर तिवारी का भी काफी योगदान रहा।

कुपोषण के खिलाफ सरकार सजग

डॉ अनिल कुमार तिवारी कहते हैं कि मैं पीएमसीएच में शीशु रोग विभाग में प्राध्यापक के साथ ही स्टेट सेंटर ऑफ एक्सीलेंस फार सीवियर एक्यूट मालनरिस्ट चिल्ड्रेन का नोडल आफिसर भी हूं। डॉ. अनिल बताते हैं कि सरकार ने कुपोषित बच्चों के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। बात बिहार की करें तो बिहार में सभी जिलों को मिलाकर 41 कुपोषण पुनर्वास केंद्र है। इन केंद्रों में इलाज के साथ पोषण की जानकारी भी प्रदान की जाती है। वे आगे कहते हैं कि ग्रामीण इलाकों से भी खराब स्थिति शहरों के स्लम में रहने वाले बच्चों की होती है। स्लम में जगह की काफी कमी होती है और साफ-सफाई का काफी आभाव होता है ऐसे में कुपोषित बच्चों को कई बीमारियां अपने चपेट में ले लेती हैं।

मिल चुका है कई पुरस्कार

डॉ.अनिल कुमार तिवारी IYCF के राज्य स्तरीय प्रशिक्षक हैं। हेपेटाइटिस के राष्ट्रीय प्रशिक्षक हैं। डॉ. अनिल ने वैक्सीन प्रतिरक्षण, टी.वी.और एईएस जैसे बीमारियों के खिलाफ काफी कार्य किया है। वे IAP के एग्जिक्यूटिव बोर्ड मेंबर भी रहे हैं। डॉ.अनिल को अति प्रतिष्ठित फेलोशिप FIAP से नवाजा गया है। डॉ.अनिल कुमार तिवारी नेतृत्व में वर्ष 2020-2021 में बिहार स्टेट एन .एन.एफ के  मानद सचिव के तौर पर कार्य के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर बेस्ट स्टेट चेप्टर अवार्ड प्रदान किया गया। इस्ट जोन एकेडमी ऑफ पेट्रियोटिक पूर्वांचल पायोनियर अवार्ड से भी  डॉक्टर अनिल को सम्मानित किया है।

बेटियां भी सामाजिक क्षेत्र में दे रही योगदान

डॉ. अनिल कुमार तिवारी बताते हैं कि उनकी दो बेटियां भी सामाजिक क्षेत्रों से ही जुड़ी हुई है। बड़ी बेटी डॉ. नेहा सावर्ण PMCH के कम्यूनिटी मेडिसिन विभाग में ट्यूटर के पद पर कार्यरत हैं। वहीं छोटी बेटी वर्तिका सावर्ण मिरिंडा हाउस से इकोनॉमिक्स में  ग्रेजुएशन के बाद बर्लिन जर्मनी में प्रतिष्ठित संस्थान से  मास्टर इन पब्लिक पॉलिसी” की पढ़ाई करने के बाद बर्लिन में हीं कार्यरत है।

पत्नी डॉ. कमलेश तिवारी के साथ डॉ. अनिल तिवारी

पत्नी का मिलता रहा सहयोग

डॉ. अनिल बताते हैं कि उनका विवाह 1989 में डॉक्टर कमलेश तिवारी के साथ हुआ। जीवन के अच्छे – बुरे हर दौर में पत्नी का सहयोग मिलता रहा। फिलहाल डॉ कमलेश तिवारी आरडीजेएम मेडिकल कॉलेज, तुर्की , मुजफ्फरपुर  में स्त्री एवं प्रसूति रोग विभाग में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं।

पर्यावरण बचाने की भी पहल

पर्यावरण संरक्षण जरूरी

डॉ. अनिल कुमार तिवारी कहते हैं कि हम सभी सेहतमंद रहे इसके लिए पर्यावरण को बचाना सबसे ज्यादा जरूरी है। यह काम बहुत मुश्किल भी नहीं हम ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगा कर पर्यावरण को संरक्षित कर सकते हैं। वे आगे बताते हैं कि मैंने अपने गांव से जुड़ा हुआ हूं और वहां खुद पेड़ तो लगता ही हूं लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करता हूं।

युवाओं को संदेश देते हुए डॉ. अनिल कुमार तिवारी कहते हैं :

“भले ही समय के साथ इस पेशे के बारे में सामाजिक सोच में  कुछ नकारात्मक बदलाव आए हैं , इसके वावजूद यह पेशा आज भी पावन हैं, उम्दा है, पवित्र है। आज देश को बेहतर चिकित्सकों की जरूरत है। आप बेशक यह पेशा चुन सकते हैं यह आपको पहचान और सुकून दोनों देगा।”

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पीड़ा, प्रताड़ना के कारण छोड़ना पड़ा गांव, अब देश की पहली ट्रांसवुमेन दारोगा हैं मानवी मधु कश्यप

तालियां तो हर कोई बजाता है. भजन में, तारीफ में, नाद में, विनोद में, हास्य पर, व्यंग्य पर आदि-आदि. लेकिन इस समाज में ताली बजाने की अलग ही परिभाषा चलती आ रही है. वो है थर्ड जेंडर के ताली बजाने की. इस ताली में जितना मनोरंजन शायद आपको सूझता है, उससे कहीं ज्यादा दुख, दर्द बजाने वाले की जिंदगी में छिपी होती है. इसी ताली की नई परिभाषा गढ़ दी हैं बिहार के बांका जिले की रहने वाली ट्रांसवुमेन मानवी मधु कश्यप ने. जिंदगी जिंदाबाद में आप पढ़ रहे हैं कहानी.. पीड़ा, प्रताड़ना के कारण गांव तक छोड़ देने वाली मानवी की, जिन्होंने देश की पहली ट्रांसवुमेन दारोगा बनकर माइलस्टोन बनाया. अब देश उन्हें बधाई देने के लिए तालियां पीट रहा है.

प्रताड़ना के कारण छोड़ना पड़ा गांव

मानवी मधु कश्यप कहती हैं, ‘अपने गांव में जब मैं चलती थी तो लोग पीछे से ताली बजाते थे, तरह-तरह के कमेंट पास करते थे. कहते थे, तुम ऐसे चलते हो, ऐसे करते हो, तुम्हारे अंदर ये परेशानी है, वो परेशानी है. हमारी कम्युनिटी को लोग इसी निगाह से देखते हैं कि ये दूसरों की खुशी में ताली बजाने वाले लोग हैं. और  इन्हीं लोगों की वजह से 2014 में मुझे अपना गांव, अपना परिवार छोड़ना पड़ा…मगर मैंने तय कर लिया कि एक दिन मैं ऐसी सफलता हासिल करूंगी कि इन्हें मेरे लिए ताली बजानी होगी. आज वो दिन आ गया है.”

‘हां.. मैं ट्रांसवुमेन हूं.’

मानवी उन तीन ट्रांसजेंडर लोगों में से एक हैं, जिन्होंने हाल ही में बिहार में घोषित दारोगा परीक्षा में सफलता हासिल की है. बहरहाल, इन तीन लोगों में मानवी इसलिए खास हैं, क्योंकि उन्होंने मीडिया के सामने आकर पूरे आत्मविश्वास से स्वीकार किया कि वे एक ट्रांसवुमन हैं.

अपने मुश्किल के दिनों को याद करते हुए मानवी कहती हैं, “दारोगा की तैयारी करने के लिए मैं पटना में हॉस्टल खोज रही थी. जब मैं कमरे के लिए असली पहचान बताती तो लोग मुझे रूम देने से साफ मना कर देते. रहना तो दूर ज्यादातर कोचिंग वाले भी मुझे अपनी कोचिंग में पढ़ाने के लिए तैयार नहीं थे. फिर पहचान छिपाकर 46 लड़कियों वाले हॉस्टल में आसरा लिया और पढ़ाई शुरू की. हॉस्टल की लड़कियां भी इस बात से अनजान थीं कि मैं एक ट्रांसवुमेन हूं. आज जब रिजल्ट हुआ है तो उनमें ज्यादातर मुझे बधाई भेज रही हैं.”

‘ताकि अब ताली न पीटना पड़े..’

मानवी इस सफलता के लिए पटना के कोचिंग संचालक गुरु रहमान का विशेष आभार व्यक्त करती हैं, जिन्होंने सफलता का रास्ता दिखाया. वह कहती हैं, दरअसल जब से यह दुनिया बनी है, हम ट्रांसजेंडर अपनी असली पहचान के लिए ही संघर्ष और पलायन करते रहे हैं. हमारी कम्युनिटी के लोगों को अपमान ही मिलता है. ऐसे में सुरक्षा के चक्कर में ज्यादातर ट्रांसजेंडर पढ़ाई-लिखाई छोड़कर अपने परंपरागत पेशे को अपना लेते हैं. मगर अब लगता है कि माहौल बदलेगा. ट्रांसजेंडर लोग भी पढ़ाई पर फोकस करेंगे और अपने आप को समाज में स्थापित करेंगे.

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दो सरहदों की दूरियां मिटा रहे कलमकार की कहानी

किसी भी दो देशों की सरहदें दोनों देशों की राजनीति की दिशा तो तय करती ही है समय और समाज को गढ़ कर उसे पुष्पित करती हैं। दोनों देशों की साझा संस्कृतियों की मिठास दोनों देशों के सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक कैनवास पर चटख रंग भर उसे उर्जावान करती हैं, पर सरहदों पर माहौल बिगड़ जाए तो इसका भी सीधा असर दोनों देशों के जन मन और शासन पर पड़ता है। इसमें सबसे ज्यादा प्रभावित वे लोग होते हैं जो सरहद के आसपास रहते हैं। इसलिए हम सरहदों की कड़वाहट खत्म कर रिश्तों में मिठास भरने का प्रयास कर रहे हैं”।

कहते हैं पेशे से पत्रकार अमरेन्द्र तिवारी। अमरेन्द्र, मीडिया फॉर बॉर्डर हारमोनी संगठन के फाउंडर हैं। फिलहाल यह संगठन भारत और नेपाल के साझा संबंधों को मजबूत करने में जुटा है। इस पहल का असर भी दिखने लगा है। अमरेन्द्र कहते हैं कि हमारा संगठन मुख्य रूप से दो तरह के कार्यक्रम चलाता है। एक तो हम भारत और नेपाल में हर वर्ष दो बड़े वैचारिक कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं जिसमें दोनों देशों के ब्‍यूरोक्रेट्स, राजनेता और पत्रकार मौजूद रहते हैं। दूसरा हम सालों भर दोनों देशों की सीमाई इलाकों में भारत-नेपाल में मैत्री संवाद और बैठकों का आयोजन करते हैं, जिससे स्थानीय स्तर पर आ रही समस्याओं को मिल-बैठकर सुलझाया जा सके।

अमरेन्द्र को इस संगठन की स्थापना का ख्याल तब आया जब भारत और नेपाल के बीच रिश्तों में कड़वाहट आने लगी थी और खुली सीमा पर कंटीले बाड़ लगाने की बात की जाने लगी थी। अमरेन्द्र खुद नेपाल भारत सीमा के निकट मोतिहारी के रहने वाले हैं ।
उन्होंने बचपन से ही दोनों देशों की साझी विरासत की मिठास देखी है। वो कहते हैं कि भारत और नेपाल में एक अटूट रिश्ता है। दोनों के देवी- देवता से लेकर शादी ब्याह तक। इसी कारण इसे लोग बेटी–रोटी का रिश्ता कहते हैं पर कुछ दुष्प्रचार की वजह से ऐसा माहौल बनने लगा की सदियों के इस संबंध पर बाड़ लगाने की बात की जाने लगी। ऐसे में रिश्तों की कड़वाहट बढ़ती जाती और साझी संस्कृतियों की बयार हमेशा के लिये खत्म हो जाती। इसे बचाने के लिये हमने संगठन बनाया और जमीन पर उतर बुनियादी समस्याओं को सुलझाने में जुट गए।

मनमोहन सिंह से लेकर मोदी तक ने की तारीफ

दोनों देशों के रिश्तों की मधुरता को बढ़ाने की धुन लिये अमरेन्द्र सन 2014 में तात्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलकर सरहद पर बाड़ न लगाने और रिश्तों को मधुर बनाने की गुहार लगा चुके हैं। तब मनमोहन सिंह नें इस पहल की काफी सराहना की थी। अमरेन्द्र इस पहल को लेकर भारत के गृह मंत्री राजनाथ सिंह से लेकर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तक से मिल चुके हैं। वहीं नेपाल के राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी और प्रधानमंत्री पुष्प दहल कमल प्रचंड से मिल सीमा पर सौहार्द बनाए रखने की अपील कर चुके हैं। पीएम मोदी ने भी अमरेन्द्र के काम की सराहना की है। अमरेन्द्र के संगठन से दोनों देशों के पत्रकार के साथ ही राजनेता और ब्‍यूरोक्रेट्स जुड़े है।

जेब में सिर्फ सौ रूपए पर पहुंचे पीएम के पास

अमरेन्द्र कहते हैं कि संगठन को सरकार या किसी अन्य संस्था से कोई सहयोग नहीं मिलता। हम तिनका-तिनका जोड़ इसे चला रहे हैं। जीवन यापन के लिये अखबार की नौकरी और उससे प्राप्त आ़य का एक हिस्सा इस संगठन पर खर्च होता है। पहले घर वालों ने इसका विरोध किया पर अब परिवार का पूरा सहयोग मिल रहा है। आगे कहते हैं कि हमारे पास पैसा नहीं है पर हौसला है। अमरेन्द्र यह वाकया याद कर भावुक हो उठते हैं कि जब उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री से मिलने का समय मिला तो जेब में बस सौ रूपए थे। इसके बाद भी उन्होंने अपना हौसला नहीं कमने दिया। संगठन के कार्य के लिये मीलों पैदल सफर करना अमरेन्द्र के रोज की बात है।

टीम से मिलती है हिम्मत

अमरेन्द्र कहते हैं कि उनकी टीम के सभी सदस्य काफी मेहनती और उर्जावान हैं। जब भी वो निराश होते हैं तो उनकी टीम उन्हें हौसला देती है। अमरेन्द्र कहते हैं कि मुजफ्फरपुर के पूर्व सांसद अजय निषाद और नेपाल के प्रदीप यादव ने संगठन के कारवां को आगे बढ़ाने में काफी मदद की है।

पाकिस्तान से रिश्तों की बेहतरी के लिये भी होगा प्रयास

अमरेन्द्र तिवारी का संगठन नेपाल के साथ–साथ अब भूटान में भी भारत के रिश्तों को मजबूत करने की पहल करेगा। इसके बाद भारत-बांग्लांदेश और भारत–पाक के रिश्तों को बेहतर करने की पहल भी की जाएगी।
फिलवक्त तो अमरेन्द्र तिवारी और उनका संगठन सरहदों की दूरियां मिटा वहां अपनापन की खुशबू भरने में लगा है। इस प्रयास से सीमाई इलाके के लोगों की जिंदगी तो बदल ही रही है यह संदेश भी जा रहा हैं कि सरहदों पर कंटीले बाड़ की नही प्यार और भाईचारे की जरूरत है।

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एक्स्ट्रो एक्स-रे का ईजाद कर दुनिया में भारतीय ज्योतिष शास्त्र का डंका बजाने वाले डॉo श्रीपति त्रिपाठी की कहानी

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वो क़िस्मत के सितारों की चाल और चालबाजियां बताने में सिद्धहस्त हैं। इसके साथ ही वे ज्योतिष गणना पर आधारित एक नई खोज एक्सट्रो एक्सरे के जनक भी है। कोशिश ग्रहों का सकारात्मक प्रभाव लोगों के जीवन पर हो और जिंदगी आशमान की बुलंदियों पर जा तारों सी जगमग हो सके। भारतीय ज्योतिष शास्त्र में नये प्रयोग करने और तारों- सितारों की उर्जा को लोगों की जिंदगी में भरने वाले ज्योतिषाचार्य डॉ श्रीपति त्रिपाठी की कहानी पढ़िए…

भारतीय ज्योतिष शास्त्र काफी प्राचीन है। दरअसल ज्योतिषशास्त्र की जब हम शाब्दिक व्याख्या करते हैं तो सबसे पहला शब्द आता है ज्योति इसका अर्थ प्रकाश या रौशनी इसी तरह ज्योतिष का अर्थ होता है ज्योति पिंडों या प्रकाश पिंडों का अध्ययन करने वाला।इसी प्रकार से ज्योतिष शास्त्र का मतलब हुआ ऐसा शास्त्र जो प्रकाश पिंडों का समुचित अध्ययन करता हो। कहते हैं प्रख्यात ज्योतिष शास्त्री श्रीपति त्रिपाठी। वें आगे कहते हैं कि प्राचीन काल में खगोलशास्त्र और गणित ज्योतिष शास्त्र की ही शाखाएं हुआ करती थी। समय के साथ इसमें बदलाव आया।आज भी किसी ज्योतिष के लिए गणना काफी महत्वपूर्ण है। इसी आधार पर आप किसी इंसान पर पड़ने वाले ग्रहों का प्रभाव जान पाते हैं। मैंने गणना के आधार पर ज्योतिष की एक नई विधि एक्स्ट्रो x-ray ईजाद किया है। यह किसी भी व्यक्ति का वर्तमान और भविष्य बताने में सक्षम है।

क्या है एक्स्ट्रो एक्सरे

एक्स्ट्रो एक्सरे के बारे में ज्योतिषाचार्य डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी बताते हैं कि कई लोग उनके पास अपना भविष्य जानने आते थे पर उनके पास जन्मपत्री या फिर जन्म का दिन और तारीख का सही सही अनुमान नहीं होता था। ऐसे में काफी मुश्किलें आती थी। ज्योतिष में जन्मपत्री का बड़ा महत्व है। मुझे लगा कि बिना जन्मपत्री वाले लोगों की भी मदद ज्योतिषशास्त्र के माध्यम से होनी चाहिए इसलिए मैंने काफी खोज कर गणना पर आधारित एक ऐसी पद्धति विकसित की जिसमें जन्मपत्री की जरूरत नहीं पड़ती है। इसमें अंक से संबंधित कुछ सवाल होते हैं उनका हल करना होता है और इसके बाद आप अपने भविष्य की बातें जान सकते हैं साथ ही यह भी कि किस ग्रह का आपके जीवन पर कौन सा प्रभाव पड़ रहा है।

सत्य हुई भविष्यवाणियां

डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी यह भी बताते हैं कि उनकी कई बड़ी भविष्यवाणियां आगे आकर सच साबित हुई है। इन भविष्यवाणियों में राजद सुप्रीमो का जेल जाना, नरेंद्र मोदी का दोबारा प्रधानमंत्री बनाना, नीतीश कुमार का फिर से मुख्यमंत्री बनना और आजम खान के जेल जाने जैसी भविष्यवाणियां शामिल हैं यह भविष्यवाणी सौ फीसद सत्य साबित हुई हैं

आम से खास तक मुरीद

डॉ0 श्रीपति त्रिपाठी ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता होने के साथ-साथ काफी नेक दिल और व्यवहारिक व्यक्ति भी हैं। यही वजह है कि आम से खास लोग तक उनके मुरीद है। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, मशहूर गीतकार गुलजार, फिल्म अभिनेता शेखर सुमन, अभिनेत्री महिमा चौधरी, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी , से लेकर कई खास हस्तियों से धर्म और ज्योतिष की चर्चा कर उनके मानस पटल पर डॉक्टर त्रिपाठी ने अमिट छाप छोड़ी है।

विदेशों में भी धूम

डॉक्टर श्रीपति ने न सिर्फ भारतीय ज्योतिष शास्त्र का लोहा विदेशों में भी मनवाया है। डॉक्टर त्रिपाठी देश के कई बड़े बड़े शहरों के साथ ही विदेशों में भी ज्योतिष संबंधी परामर्श दिया करते हैं इनमें ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, भूटान, मॉरीशस, मलेशिया ,वियतनाम ,कंबोडिया, नेपाल शामिल हैं। इन देशों में वे समय- समय पर प्रभास यात्रा पर भी जाया करते हैं।

कई राष्ट्रीय दैनिक पत्र से भी जुड़े

डॉ0 त्रिपाठी देश के कई जाने-माने समाचार पत्रों के के साथ नियमित तौर पर ज्योतिष स्तंभ लेखन से जुड़े हैं। दैनिक भास्कर, प्रभात खबर, आई नेक्स्ट, मराठी दैनिक संध्यानंद, आज का आनंद, जैसे महत्वपूर्ण समाचार पत्रों में डॉक्टर त्रिपाठी प्रतिदिन राशिफल और ज्योति संबंधी आलेख लिखा करते हैं।,
इसके साथ साथ दूरदर्शन और कई समाचार चैनलों द्वारा वे भी समय-समय पर ज्योतिष संबंधी मार्गदर्शन लोगों को प्रदान करते हैं। प्रसिद्ध समाचार चैनल आज तक का संचालन करने वाली टीवी टुडे नेटवर्क के ‘धर्म ज्ञान ‘ वेब चैनल में भी ज्योतिष सलाहकार के रूप में डॉक्टर त्रिपाठी लोगों को ज्योतिष संबंधी परामर्श देते हैं। ज्योतिष के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी को देशभर के विभिन्न मंचों से कई सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।

छोटे गांव से बड़ा सफर

डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी का जन्म 12 मई 1977 को बिहार के पूर्वी चंपारण के एक छोटे से गांव अरेराज में हुआ था। पिता डॉ उमेश तिवारी संस्कृत के प्रकांड विद्वान एवं प्रख्यात ज्योतिषाचार्य थे। माता सुशीला देवी एक धार्मिक महिला है। माता -पिता के विचारों का असर बचपन से ही श्रीपति त्रिपाठी पर पड़ा। वह बताते हैं कि उनके पिता उन्हें कहा करते थे कि तुम ठगी का शिकार हो जाना पर किसी को ठगना मत।

पिता की प्रेरणा से ज्योतिष में आए

डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी बताते हैं कि वह कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे पर पिताजी ने उन्हें ज्योतिष शास्त्र में आगे बढ़ने की सलाह दी। अपने पिता के सलाह पर डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी ने ज्योतिष शास्त्र का गहन अध्ययन किया। डॉक्टर श्रीपति कहते हैं कि आज वह जो कुछ भी है अपने पिता के आशीष की वजह से हैं।

पत्नी का हर कदम पर मिला सहयोग

डॉक्टर से पति त्रिपाठी कहते हैं कि पत्नी प्रोफ़ेसर मनीषा का सहयोग उनके जीवन में काफी अहम रहा है। ज्योतिष शास्त्र में अध्ययन की काफी आवश्यकता होती है साथ ही आपके पास धैर्य होना भी आवश्यक है। जीवन के अब तक के सफर में कई परेशानियां भी आई पर पत्नी प्रोफ़ेसर मनीषा ने हर कदम पर मेरा हौसला बढ़ाया।

युवा शक्ति देश का भविष्य

डॉक्टर त्रिपाठी आगे कहते हैं युवा शक्ति ही देश का भविष्य है। आज हमारी युवाओं को मन से मजबूत होने की जरूरत है। जो युवा ज्योतिष के क्षेत्र में आना चाहते हैं उन्हें डॉक्टर त्रिपाठी सलाह देते हैं कि वह कड़ी मेहनत करें। खूब अध्ययन करें फिर परामर्श देने का कार्य शुरू करें। ज्योतिष एक ऐसा क्षेत्र है जहां हर दिन अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है।

अच्छे कर्म से बदलते हैं सितारे

डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी यह भी बताते हैं कि आपके कर्मों का असर सितारों पर सीधे तौर पर पड़ता है। अच्छे कर्मों से आपके बुरे सितारों का प्रभाव भी धीरे धीरे बेहतर हो जाता है। वें आगे कहते हैं कि अपनी किस्मत को लेकर कभी भी परेशान ना हो, ना ही नकारात्मक विचारों को अपने पर हावी होने दें। सबसे बड़ी सीख यही है कि दुनिया में अपने को आबाद करें।
डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी ज्योतिषीय नित्य परामर्श द्वारा लोगों की किस्मत की ज्योति जगमगाने के कार्य में जुटे हैं। अगर आप इन से ज्योतिष संबंधी कोई परामर्श लेना चाहते हो तो इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं।

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