Home Blog Page 6

पीड़ा, प्रताड़ना के कारण छोड़ना पड़ा गांव, अब देश की पहली ट्रांसवुमेन दारोगा हैं मानवी मधु कश्यप

0

तालियां तो हर कोई बजाता है. भजन में, तारीफ में, नाद में, विनोद में, हास्य पर, व्यंग्य पर आदि-आदि. लेकिन इस समाज में ताली बजाने की अलग ही परिभाषा चलती आ रही है. वो है थर्ड जेंडर के ताली बजाने की. इस ताली में जितना मनोरंजन शायद आपको सूझता है, उससे कहीं ज्यादा दुख, दर्द बजाने वाले की जिंदगी में छिपी होती है. इसी ताली की नई परिभाषा गढ़ दी हैं बिहार के बांका जिले की रहने वाली ट्रांसवुमेन मानवी मधु कश्यप ने. जिंदगी जिंदाबाद में आप पढ़ रहे हैं कहानी.. पीड़ा, प्रताड़ना के कारण गांव तक छोड़ देने वाली मानवी की, जिन्होंने देश की पहली ट्रांसवुमेन दारोगा बनकर माइलस्टोन बनाया. अब देश उन्हें बधाई देने के लिए तालियां पीट रहा है.

प्रताड़ना के कारण छोड़ना पड़ा गांव

मानवी मधु कश्यप कहती हैं, ‘अपने गांव में जब मैं चलती थी तो लोग पीछे से ताली बजाते थे, तरह-तरह के कमेंट पास करते थे. कहते थे, तुम ऐसे चलते हो, ऐसे करते हो, तुम्हारे अंदर ये परेशानी है, वो परेशानी है. हमारी कम्युनिटी को लोग इसी निगाह से देखते हैं कि ये दूसरों की खुशी में ताली बजाने वाले लोग हैं. और  इन्हीं लोगों की वजह से 2014 में मुझे अपना गांव, अपना परिवार छोड़ना पड़ा…मगर मैंने तय कर लिया कि एक दिन मैं ऐसी सफलता हासिल करूंगी कि इन्हें मेरे लिए ताली बजानी होगी. आज वो दिन आ गया है.”

‘हां.. मैं ट्रांसवुमेन हूं.’

मानवी उन तीन ट्रांसजेंडर लोगों में से एक हैं, जिन्होंने हाल ही में बिहार में घोषित दारोगा परीक्षा में सफलता हासिल की है. बहरहाल, इन तीन लोगों में मानवी इसलिए खास हैं, क्योंकि उन्होंने मीडिया के सामने आकर पूरे आत्मविश्वास से स्वीकार किया कि वे एक ट्रांसवुमन हैं.

अपने मुश्किल के दिनों को याद करते हुए मानवी कहती हैं, “दारोगा की तैयारी करने के लिए मैं पटना में हॉस्टल खोज रही थी. जब मैं कमरे के लिए असली पहचान बताती तो लोग मुझे रूम देने से साफ मना कर देते. रहना तो दूर ज्यादातर कोचिंग वाले भी मुझे अपनी कोचिंग में पढ़ाने के लिए तैयार नहीं थे. फिर पहचान छिपाकर 46 लड़कियों वाले हॉस्टल में आसरा लिया और पढ़ाई शुरू की. हॉस्टल की लड़कियां भी इस बात से अनजान थीं कि मैं एक ट्रांसवुमेन हूं. आज जब रिजल्ट हुआ है तो उनमें ज्यादातर मुझे बधाई भेज रही हैं.”

‘ताकि अब ताली न पीटना पड़े..’

मानवी इस सफलता के लिए पटना के कोचिंग संचालक गुरु रहमान का विशेष आभार व्यक्त करती हैं, जिन्होंने सफलता का रास्ता दिखाया. वह कहती हैं, दरअसल जब से यह दुनिया बनी है, हम ट्रांसजेंडर अपनी असली पहचान के लिए ही संघर्ष और पलायन करते रहे हैं. हमारी कम्युनिटी के लोगों को अपमान ही मिलता है. ऐसे में सुरक्षा के चक्कर में ज्यादातर ट्रांसजेंडर पढ़ाई-लिखाई छोड़कर अपने परंपरागत पेशे को अपना लेते हैं. मगर अब लगता है कि माहौल बदलेगा. ट्रांसजेंडर लोग भी पढ़ाई पर फोकस करेंगे और अपने आप को समाज में स्थापित करेंगे.

Share Article:

दो सरहदों की दूरियां मिटा रहे कलमकार की कहानी

0

किसी भी दो देशों की सरहदें दोनों देशों की राजनीति की दिशा तो तय करती ही है समय और समाज को गढ़ कर उसे पुष्पित करती हैं। दोनों देशों की साझा संस्कृतियों की मिठास दोनों देशों के सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक कैनवास पर चटख रंग भर उसे उर्जावान करती हैं, पर सरहदों पर माहौल बिगड़ जाए तो इसका भी सीधा असर दोनों देशों के जन मन और शासन पर पड़ता है। इसमें सबसे ज्यादा प्रभावित वे लोग होते हैं जो सरहद के आसपास रहते हैं। इसलिए हम सरहदों की कड़वाहट खत्म कर रिश्तों में मिठास भरने का प्रयास कर रहे हैं”।

कहते हैं पेशे से पत्रकार अमरेन्द्र तिवारी। अमरेन्द्र, मीडिया फॉर बॉर्डर हारमोनी संगठन के फाउंडर हैं। फिलहाल यह संगठन भारत और नेपाल के साझा संबंधों को मजबूत करने में जुटा है। इस पहल का असर भी दिखने लगा है। अमरेन्द्र कहते हैं कि हमारा संगठन मुख्य रूप से दो तरह के कार्यक्रम चलाता है। एक तो हम भारत और नेपाल में हर वर्ष दो बड़े वैचारिक कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं जिसमें दोनों देशों के ब्‍यूरोक्रेट्स, राजनेता और पत्रकार मौजूद रहते हैं। दूसरा हम सालों भर दोनों देशों की सीमाई इलाकों में भारत-नेपाल में मैत्री संवाद और बैठकों का आयोजन करते हैं, जिससे स्थानीय स्तर पर आ रही समस्याओं को मिल-बैठकर सुलझाया जा सके।

अमरेन्द्र को इस संगठन की स्थापना का ख्याल तब आया जब भारत और नेपाल के बीच रिश्तों में कड़वाहट आने लगी थी और खुली सीमा पर कंटीले बाड़ लगाने की बात की जाने लगी थी। अमरेन्द्र खुद नेपाल भारत सीमा के निकट मोतिहारी के रहने वाले हैं ।
उन्होंने बचपन से ही दोनों देशों की साझी विरासत की मिठास देखी है। वो कहते हैं कि भारत और नेपाल में एक अटूट रिश्ता है। दोनों के देवी- देवता से लेकर शादी ब्याह तक। इसी कारण इसे लोग बेटी–रोटी का रिश्ता कहते हैं पर कुछ दुष्प्रचार की वजह से ऐसा माहौल बनने लगा की सदियों के इस संबंध पर बाड़ लगाने की बात की जाने लगी। ऐसे में रिश्तों की कड़वाहट बढ़ती जाती और साझी संस्कृतियों की बयार हमेशा के लिये खत्म हो जाती। इसे बचाने के लिये हमने संगठन बनाया और जमीन पर उतर बुनियादी समस्याओं को सुलझाने में जुट गए।

मनमोहन सिंह से लेकर मोदी तक ने की तारीफ

दोनों देशों के रिश्तों की मधुरता को बढ़ाने की धुन लिये अमरेन्द्र सन 2014 में तात्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलकर सरहद पर बाड़ न लगाने और रिश्तों को मधुर बनाने की गुहार लगा चुके हैं। तब मनमोहन सिंह नें इस पहल की काफी सराहना की थी। अमरेन्द्र इस पहल को लेकर भारत के गृह मंत्री राजनाथ सिंह से लेकर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तक से मिल चुके हैं। वहीं नेपाल के राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी और प्रधानमंत्री पुष्प दहल कमल प्रचंड से मिल सीमा पर सौहार्द बनाए रखने की अपील कर चुके हैं। पीएम मोदी ने भी अमरेन्द्र के काम की सराहना की है। अमरेन्द्र के संगठन से दोनों देशों के पत्रकार के साथ ही राजनेता और ब्‍यूरोक्रेट्स जुड़े है।

जेब में सिर्फ सौ रूपए पर पहुंचे पीएम के पास

अमरेन्द्र कहते हैं कि संगठन को सरकार या किसी अन्य संस्था से कोई सहयोग नहीं मिलता। हम तिनका-तिनका जोड़ इसे चला रहे हैं। जीवन यापन के लिये अखबार की नौकरी और उससे प्राप्त आ़य का एक हिस्सा इस संगठन पर खर्च होता है। पहले घर वालों ने इसका विरोध किया पर अब परिवार का पूरा सहयोग मिल रहा है। आगे कहते हैं कि हमारे पास पैसा नहीं है पर हौसला है। अमरेन्द्र यह वाकया याद कर भावुक हो उठते हैं कि जब उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री से मिलने का समय मिला तो जेब में बस सौ रूपए थे। इसके बाद भी उन्होंने अपना हौसला नहीं कमने दिया। संगठन के कार्य के लिये मीलों पैदल सफर करना अमरेन्द्र के रोज की बात है।

टीम से मिलती है हिम्मत

अमरेन्द्र कहते हैं कि उनकी टीम के सभी सदस्य काफी मेहनती और उर्जावान हैं। जब भी वो निराश होते हैं तो उनकी टीम उन्हें हौसला देती है। अमरेन्द्र कहते हैं कि मुजफ्फरपुर के पूर्व सांसद अजय निषाद और नेपाल के प्रदीप यादव ने संगठन के कारवां को आगे बढ़ाने में काफी मदद की है।

पाकिस्तान से रिश्तों की बेहतरी के लिये भी होगा प्रयास

अमरेन्द्र तिवारी का संगठन नेपाल के साथ–साथ अब भूटान में भी भारत के रिश्तों को मजबूत करने की पहल करेगा। इसके बाद भारत-बांग्लांदेश और भारत–पाक के रिश्तों को बेहतर करने की पहल भी की जाएगी।
फिलवक्त तो अमरेन्द्र तिवारी और उनका संगठन सरहदों की दूरियां मिटा वहां अपनापन की खुशबू भरने में लगा है। इस प्रयास से सीमाई इलाके के लोगों की जिंदगी तो बदल ही रही है यह संदेश भी जा रहा हैं कि सरहदों पर कंटीले बाड़ की नही प्यार और भाईचारे की जरूरत है।

Share Article:

एक्स्ट्रो एक्स-रे का ईजाद कर दुनिया में भारतीय ज्योतिष शास्त्र का डंका बजाने वाले डॉo श्रीपति त्रिपाठी की कहानी

,

वो क़िस्मत के सितारों की चाल और चालबाजियां बताने में सिद्धहस्त हैं। इसके साथ ही वे ज्योतिष गणना पर आधारित एक नई खोज एक्सट्रो एक्सरे के जनक भी है। कोशिश ग्रहों का सकारात्मक प्रभाव लोगों के जीवन पर हो और जिंदगी आशमान की बुलंदियों पर जा तारों सी जगमग हो सके। भारतीय ज्योतिष शास्त्र में नये प्रयोग करने और तारों- सितारों की उर्जा को लोगों की जिंदगी में भरने वाले ज्योतिषाचार्य डॉ श्रीपति त्रिपाठी की कहानी पढ़िए…

भारतीय ज्योतिष शास्त्र काफी प्राचीन है। दरअसल ज्योतिषशास्त्र की जब हम शाब्दिक व्याख्या करते हैं तो सबसे पहला शब्द आता है ज्योति इसका अर्थ प्रकाश या रौशनी इसी तरह ज्योतिष का अर्थ होता है ज्योति पिंडों या प्रकाश पिंडों का अध्ययन करने वाला।इसी प्रकार से ज्योतिष शास्त्र का मतलब हुआ ऐसा शास्त्र जो प्रकाश पिंडों का समुचित अध्ययन करता हो। कहते हैं प्रख्यात ज्योतिष शास्त्री श्रीपति त्रिपाठी। वें आगे कहते हैं कि प्राचीन काल में खगोलशास्त्र और गणित ज्योतिष शास्त्र की ही शाखाएं हुआ करती थी। समय के साथ इसमें बदलाव आया।आज भी किसी ज्योतिष के लिए गणना काफी महत्वपूर्ण है। इसी आधार पर आप किसी इंसान पर पड़ने वाले ग्रहों का प्रभाव जान पाते हैं। मैंने गणना के आधार पर ज्योतिष की एक नई विधि एक्स्ट्रो x-ray ईजाद किया है। यह किसी भी व्यक्ति का वर्तमान और भविष्य बताने में सक्षम है।

क्या है एक्स्ट्रो एक्सरे

एक्स्ट्रो एक्सरे के बारे में ज्योतिषाचार्य डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी बताते हैं कि कई लोग उनके पास अपना भविष्य जानने आते थे पर उनके पास जन्मपत्री या फिर जन्म का दिन और तारीख का सही सही अनुमान नहीं होता था। ऐसे में काफी मुश्किलें आती थी। ज्योतिष में जन्मपत्री का बड़ा महत्व है। मुझे लगा कि बिना जन्मपत्री वाले लोगों की भी मदद ज्योतिषशास्त्र के माध्यम से होनी चाहिए इसलिए मैंने काफी खोज कर गणना पर आधारित एक ऐसी पद्धति विकसित की जिसमें जन्मपत्री की जरूरत नहीं पड़ती है। इसमें अंक से संबंधित कुछ सवाल होते हैं उनका हल करना होता है और इसके बाद आप अपने भविष्य की बातें जान सकते हैं साथ ही यह भी कि किस ग्रह का आपके जीवन पर कौन सा प्रभाव पड़ रहा है।

सत्य हुई भविष्यवाणियां

डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी यह भी बताते हैं कि उनकी कई बड़ी भविष्यवाणियां आगे आकर सच साबित हुई है। इन भविष्यवाणियों में राजद सुप्रीमो का जेल जाना, नरेंद्र मोदी का दोबारा प्रधानमंत्री बनाना, नीतीश कुमार का फिर से मुख्यमंत्री बनना और आजम खान के जेल जाने जैसी भविष्यवाणियां शामिल हैं यह भविष्यवाणी सौ फीसद सत्य साबित हुई हैं

आम से खास तक मुरीद

डॉ0 श्रीपति त्रिपाठी ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता होने के साथ-साथ काफी नेक दिल और व्यवहारिक व्यक्ति भी हैं। यही वजह है कि आम से खास लोग तक उनके मुरीद है। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, मशहूर गीतकार गुलजार, फिल्म अभिनेता शेखर सुमन, अभिनेत्री महिमा चौधरी, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी , से लेकर कई खास हस्तियों से धर्म और ज्योतिष की चर्चा कर उनके मानस पटल पर डॉक्टर त्रिपाठी ने अमिट छाप छोड़ी है।

विदेशों में भी धूम

डॉक्टर श्रीपति ने न सिर्फ भारतीय ज्योतिष शास्त्र का लोहा विदेशों में भी मनवाया है। डॉक्टर त्रिपाठी देश के कई बड़े बड़े शहरों के साथ ही विदेशों में भी ज्योतिष संबंधी परामर्श दिया करते हैं इनमें ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, भूटान, मॉरीशस, मलेशिया ,वियतनाम ,कंबोडिया, नेपाल शामिल हैं। इन देशों में वे समय- समय पर प्रभास यात्रा पर भी जाया करते हैं।

कई राष्ट्रीय दैनिक पत्र से भी जुड़े

डॉ0 त्रिपाठी देश के कई जाने-माने समाचार पत्रों के के साथ नियमित तौर पर ज्योतिष स्तंभ लेखन से जुड़े हैं। दैनिक भास्कर, प्रभात खबर, आई नेक्स्ट, मराठी दैनिक संध्यानंद, आज का आनंद, जैसे महत्वपूर्ण समाचार पत्रों में डॉक्टर त्रिपाठी प्रतिदिन राशिफल और ज्योति संबंधी आलेख लिखा करते हैं।,
इसके साथ साथ दूरदर्शन और कई समाचार चैनलों द्वारा वे भी समय-समय पर ज्योतिष संबंधी मार्गदर्शन लोगों को प्रदान करते हैं। प्रसिद्ध समाचार चैनल आज तक का संचालन करने वाली टीवी टुडे नेटवर्क के ‘धर्म ज्ञान ‘ वेब चैनल में भी ज्योतिष सलाहकार के रूप में डॉक्टर त्रिपाठी लोगों को ज्योतिष संबंधी परामर्श देते हैं। ज्योतिष के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी को देशभर के विभिन्न मंचों से कई सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।

छोटे गांव से बड़ा सफर

डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी का जन्म 12 मई 1977 को बिहार के पूर्वी चंपारण के एक छोटे से गांव अरेराज में हुआ था। पिता डॉ उमेश तिवारी संस्कृत के प्रकांड विद्वान एवं प्रख्यात ज्योतिषाचार्य थे। माता सुशीला देवी एक धार्मिक महिला है। माता -पिता के विचारों का असर बचपन से ही श्रीपति त्रिपाठी पर पड़ा। वह बताते हैं कि उनके पिता उन्हें कहा करते थे कि तुम ठगी का शिकार हो जाना पर किसी को ठगना मत।

पिता की प्रेरणा से ज्योतिष में आए

डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी बताते हैं कि वह कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे पर पिताजी ने उन्हें ज्योतिष शास्त्र में आगे बढ़ने की सलाह दी। अपने पिता के सलाह पर डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी ने ज्योतिष शास्त्र का गहन अध्ययन किया। डॉक्टर श्रीपति कहते हैं कि आज वह जो कुछ भी है अपने पिता के आशीष की वजह से हैं।

पत्नी का हर कदम पर मिला सहयोग

डॉक्टर से पति त्रिपाठी कहते हैं कि पत्नी प्रोफ़ेसर मनीषा का सहयोग उनके जीवन में काफी अहम रहा है। ज्योतिष शास्त्र में अध्ययन की काफी आवश्यकता होती है साथ ही आपके पास धैर्य होना भी आवश्यक है। जीवन के अब तक के सफर में कई परेशानियां भी आई पर पत्नी प्रोफ़ेसर मनीषा ने हर कदम पर मेरा हौसला बढ़ाया।

युवा शक्ति देश का भविष्य

डॉक्टर त्रिपाठी आगे कहते हैं युवा शक्ति ही देश का भविष्य है। आज हमारी युवाओं को मन से मजबूत होने की जरूरत है। जो युवा ज्योतिष के क्षेत्र में आना चाहते हैं उन्हें डॉक्टर त्रिपाठी सलाह देते हैं कि वह कड़ी मेहनत करें। खूब अध्ययन करें फिर परामर्श देने का कार्य शुरू करें। ज्योतिष एक ऐसा क्षेत्र है जहां हर दिन अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है।

अच्छे कर्म से बदलते हैं सितारे

डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी यह भी बताते हैं कि आपके कर्मों का असर सितारों पर सीधे तौर पर पड़ता है। अच्छे कर्मों से आपके बुरे सितारों का प्रभाव भी धीरे धीरे बेहतर हो जाता है। वें आगे कहते हैं कि अपनी किस्मत को लेकर कभी भी परेशान ना हो, ना ही नकारात्मक विचारों को अपने पर हावी होने दें। सबसे बड़ी सीख यही है कि दुनिया में अपने को आबाद करें।
डॉक्टर श्रीपति त्रिपाठी ज्योतिषीय नित्य परामर्श द्वारा लोगों की किस्मत की ज्योति जगमगाने के कार्य में जुटे हैं। अगर आप इन से ज्योतिष संबंधी कोई परामर्श लेना चाहते हो तो इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं।

Share Article:

यहां लें जल्द दाखिला, चमक उठेगा आपका Career

0

बढ़ती महंगाई और घटते रोजगार विकल्पों को देखकर युवाओं के मन में अक्सर अपने कैरियर को लेकर चिंता बनी रहती है। यह चिंता उन स्टूडेंट्स में सबसे ज्यादा होती है जो सामान्य या कम आय वाले परिवार से आते हैं। उन्हें एक ऐसे पाठ्यक्रम की तलाश होती है जो उन्हें सम्मान जनक रोजगार के साथ एक भविष्य मजबूती प्रदान कर सके। अगर आप भी इसी चिंता से जूझ रहे हैं तो हम आपको इस आलेख में न सिर्फ आपके सक्सेस फुल कैरियर के बारे में बताने जा रहे हैं। बल्कि उस संस्थान की पूरी डिटेल भी आपको बताएंगे जहां से पढ़ाई और गारंटेड प्लेसमेंट पाकर आप सफलता के सुनहरे आसमान को चूम सकेंगे।

हेल्थ सेक्टर कर रहा आपका इंतजार
आपके कैरियर की दृष्टिकोण से हमारी सलाह हैल्थ सेक्टर की होगी। कोरोना महामारी के दौरान ही हम सब ने इस सेक्टर की मजबूती को देखा है। भारत में हेल्थ सेक्टर…… फीसदी के दर से बढ़ रहा है। सबसे खास यह की यह सेक्टर न तो कोरोना महामारी से प्रभावित होता है न किसी आर्थिक मंदी से। यह सेक्टर हमें एक मजबूत रोजगार प्रदान करता है। जहां छंटनी या नौकरी जाने का भय नहीं होता , होती है तरक्की ही तरक्की। आज छोटे शहरों में भी तेजी से खुलते मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल इस बात के प्रमाण है कि इस सेक्टर का भविष्य काफी मजबूत है। इस सेक्टर में सरकारी और गैर-सरकारी दोनों स्तरों पर काफी संभावनाएं बनती है। इतना ही नहीं आप ट्रेनिंग के बाद अगर चाहें तो खुद का भी सेंटर स्थापित कर लाखों रूपए की कमाई कर सकते हैं। चिकित्सा विज्ञान में हो रही नए प्रयोगों ने इसे तकनीक पर आधारित कर दिया है। ऐसे में इस क्षेत्र में वैसे कुशल कर्मियों की जरूरत हमेशा बनी रहती है जो इन संयंत्रों का संचालन ओर इनके साथ कुशलता से कार्य कर सकें।

कौन सा संस्थान और कोर्स बेहतर
अब सबसे अहम सवाल यह की हैल्थ सेक्टर में रोजगार के लिए कौन सा पाठ्यक्रम का चुनाव करें। कौन सा संस्थान शिक्षा ,जेब और रोजगार तीनों के लिए अनुकूल है। वैसे तो हेल्थ सेक्टर में प्रशिक्षण हेतु कई संस्थाएं मौजूद हैं। बिहार की राजधानी पटना स्थित श्री राज नर्सिंग ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट, नर्सिंग एवं पैरामेडिकल की शिक्षा के लिए काफी उतम संस्थान है। पटना के मीठापुर स्थिति इस संस्था में नर्सिंग और पैरामेडिकल के पाठ्यक्रम पर आधारित कई महत्वपूर्ण कोर्सेज कम शुल्क पर उपलब्ध हैं। साथ ही गरीब मेधावी विद्यार्थियों को संस्थान की और से विशेष रियायतें भी दी जाती है।

यहां से करें यह कोर्स, रोजगार की है गारंटी
श्री राज ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में नर्सिंग कोर्स के अंतर्गत ANM, GNM, B.S.C Nursing,और पैरामेडिकल कोर्स के अंतर्गत CMD, DMLT, DOTA, DPT, DMRT, कोर्स उपलब्ध हैं वहीं बात डिग्री कोर्स की करें तो BPT, BHM, BRIT, BOTT, BOT, BMLT के साथ अन्य कई कोर्स उपलब्ध है। इनमें से किसी एक का चयन कर आप अपने करियर को नई ऊंचाई दे सकते हैं। इन पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने और पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद आपको सरकारी या गैरसरकारी बड़े अस्पतालों या स्वास्थ्य इकाइयों आराम से बेहतर तन्खवाह पर नौकरियां मिल जाएंगी। इसके साथ ही यह एक ऐसा पेशा है जो मानव सेवा और लोगों की जिंदगी बचाने से भी जुड़ा है सो मन में सुकून और गौरव का भाव भी रहता है। इसके साथ – साथ इस पेशे को दूसरे पेशे से ज्यादा इज्जत बख्शी जाती है।

श्री राज नर्सिंग ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट ही क्यूं
इस सवाल के जवाब में श्री राज नर्सिंग ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉ एन .पी. प्रियदर्शी कहते हैं कि सबसे बड़ी बात तो यह कि यह संस्थान बिहार सरकार, स्वास्थ्य विभाग, नर्सेज रजिस्ट्रेशन काउंसिल के साथ ही बिहार स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय द्वारा मान्यता प्राप्त है। हमारे पास अत्याधुनिक संसाधनों से लैस मार्डन अस्पताल उपलब्ध है। वे आगे कहते हैं कि हमने अपने संस्थान का वातावरण शैक्षणिक और सौम्य रखा है। यहां आधुनिक लाइब्रेरी, गुणवत्तापूर्ण प्रयोगशालाएं, उन्नत और स्वच्छ छात्रावास, मार्डन क्लासरूम के साथ 24 घंटे वाइफाइ की सुविधा उपलब्ध है। यह संस्थान राजधानी के मीठापुर में अवस्थित है। जहां आवागमन की सुविधा बेहद आसान है। रेल, बस या फिर हवाई अड्डा यह संस्थान सबके करीब है।

टॉप फैकेल्टी द्वारा प्रशिक्षण
श्री राज नर्सिंग ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में टॉप फैकेल्टी आपको प्रशिक्षित करते हैं। इस टीम में ख्याति प्राप्त चिकित्सक जुड़े हुए हैं। संस्थान की प्रायोगिक कक्षाएं भी गुणवत्ता पूर्ण होती है। यहां हर एक छात्र -छात्राओ पर खास ध्यान दिया जाता है। संस्थान की कोशिश यह रहती है की ट्रेनिंग के बाद हर विद्यार्थी निश्चित प्लेसमेंट पाकर अपने जीवन में खुशहाली भर सके।

स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड योजना का लाभ
श्री राज नर्सिंग ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट की निर्देशिका डॉ पुष्पा प्रियदर्शी कहती हैं कि वैसे छात्र या छात्राएं जो कोर्स करना चाहते हैं पर उनके पास पैसे का आभाव है वैसे छात्र बिहार सरकार द्वारा चलाए जा रहे स्टूडेंट्स क्रेडिट कार्ड योजना का लाभ ले सकते हैं। इसके लिए उनकी उम्र 25 वर्ष से कम होनी चाहिए। सरकार इस योजना के तहत भी आप इस संस्थान में नामांकन लेकर अपना भविष्य गढ़ सकते हैं।
ऐसे करें संपर्क

आप राज नर्सिंग ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में नामांकन के लिए संस्थान के वेवसाइट srthospital.com/ पर जाकर संपर्क कर सकते हैं। इसके साथ ही मोबाइल नंबर 9162413233, 9155558888,7463828211 पर संपर्क कर भी नामांकन के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। तो फिर देर किस बात कि आज ही संपर्क कर दीजिए अपने कैरियर को शानदार आगाज।

Share Article:

“आंखों के भींगे कोर से, मैं आपकी शीतलता महसूस कर लेता हूं” डॉ.श्रीपति त्रिपाठी की बाबूजी को पाती

0

माता -पिता ने हमें यह अनमोल जीवन दिया। चलना जीना सिखाया। अपनी खुशियों को न्योछावर कर हमारे होंठों पर मुस्कान भरी। एक सुपर मैन की तरह हमारे आस -पास कवच बन खड़े रहे। हमारी हर खुशी में खुश हुए, गम से निकलने की हिम्मत दी। क्यों न माता-पिता की , बातों, और यादों को एक पिरोकर एक किस्से का रूप दिया जाए? और इस खुबसूरत से किस्से से दुनिया को रूबरू कराया जाए। यकीं मानिए अगर आपके पिताजी/ माताजी जीवित है तो उन्हें यह पढ़कर अच्छा लगेगा और अगर दिवंगत है तो यह उन्हें एक श्रद्धांजलि होगी। thebig post.com प्रारंभ कर रहा है “बागवान’ सीरीज जिसमें हमारी जिंदगी की बगिया को गुलजार करने वाले ‘बागवान ‘(पिता/माता) की खुबसूरत कहानियां होंगी। तो आप भी शेयर करें अपनी जिंदगी के ‘बागवान ‘ से जुडा दिल का किस्सा हमारे साथ। व्हाट्सएप नंबर 7488413830 पर ।

बागवान ‘ की पहली कड़ी में प्रस्तुत कर रहे हैं प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु और ज्योतिष डॉ श्रीपति त्रिपाठी जी अपने पिताजी को लिखी अनमोल यादों की पाती पढ़िए और महसूस कीजिए मन के भाव ।

बस आप नहीं आते बाबूजी

बहुत कुछ बताना है… बहुत कुछ सुनाना है… बहुत कुछ दिखाना भी है बाबूजी… आपको…सोचता हूं कि आपको खत लिखूं पर पता भी तो नहीं मालूम..। मुझे लगता है कि हर पहर , हर क्षण में आप मुझसे बतिया रहे हैं। मुझे सलाह दे रहे हैं, मुझे डांट रहे हैं… मुझे दुलार रहे हैं, मुझे महफूज कर रहे हैं..आपके होने का एहसास मेरी रगों में हर पहर बसा रहता है , कभी ये एहसास बादल बन आंखों में उमड़ते घुमड़ते है और बूंदें बरसती आंखों के भींगे कोर से, मैं आपकी शीतलता महसूस कर लेता हूं। आपकी हर यादें बिखरी हुई है इस घर में बाबूजी, बस आप दूर चले गए हैं। देखिए न दीवार की खूंटी पर अब भी रूद्राक्ष की वह माला वैसी ही पड़ी है जैसी आप छोड़ गए थे। आपकी किताबें, गीता, सुन्दर कांड, दुर्गा सप्तशती सब वैसे के वैसे ही रखें है पूजा घर में। वो सिरहाने लोटा भी है, बाबूजी..जिसे आप खुब पसंद करते थे। आपके सेवक भी आते हैं , दालान पर आपकी चर्चा भी होती है.. आपके किस्से.. बस आप नहीं आते है बाबूजी। वो मंदिर का घंटा जिसे आपने लगवाया था आज भी बजा करता है टन-टन टन। देखिए न आपका बेटा आज बड़ा हो गया है। आपके बताएं रस्ते पर चलने की कोशिश में जुटा है। लगता है बाबूजी थोड़ी गड़बड़ चाल हुई की आप डांट पडोगे मुझे। माताजी भी आपको बहुत याद करती हैं। बहुरानी भी। लगता है सुबह से शाम तक आप सदेह न होकर भी हमारे साथ होते हैं । तब भी जब बहु आपके पसंद की सब्जी बनाती है और तब भी जब मैं आपकी लाई हुई थाल में पूजा का प्रसाद चढ़ाता हूं। जब मैं देर रात लौटता हूं तो लगता है आप अभी दरबाजे पर सदेह आकर बोल पड़ेंगे एतना रातें लौटला ठीक नई खे’ और मैं कोई बहना बना कर जल्द आने की बात दुहराऊंगा।

अभी तो थाम ही रखी थी अंगूली आपकी।

बाबूजी मृत्यु एक शाश्वत सत्य है पर पता है मैंने कभी सोचा नहीं था कि आप चले जाएंगे मुझे अकेला छोड़ कर! अभी तो थाम ही रखी थी अंगूली आपकी और आप मेरी अंगुली छुड़ाकर अनंत यात्रा पर निकल गए। क्यों नहीं कि मेरी फिकर.. क्या आपको क्षण भर भी मेरा ख्याल न आया… इतनी जल्दी क्या थी। क्या हम सभी आपका ख्याल नहीं रख पा रहे थे.. कहां कमी रह गई थी बाबूजी… कहां कमी रह गई थी…! आपने जो जो रास्ते बताएं, जो जो मार्ग दिखाया उसी पर चलने की कोशिश में जुटा हूं। पता है मोतिहारी से लेकर पटना तक कितने लोग आज भी उसी आदर के साथ आपकी चर्चा करते हैं। वहीं सम्मान देते हैं। इतने ही साल में लगता है कि कितना वक्त बीत गया बाबूजी। जमाना भी बदल रहा है और लोग भी। गांव भी, शहर भी। आपका वह संस्कृत महाविद्यालय भी काफी बदल गया है जिसमें आप प्रधानाचार्य हुआ करते थे। गांव की सड़कें भी बदल गई है। यहां पटना भी बदल रहा है।

इंसान बना रहूं, बस यही आशीष चाहिए बाबूजी

गंगा किनारे मरीन ड्राइव बन गया बाबूजी। शहर में कई फ्लाइ ओवर बन रहे। डबल डेकर रोड बन रहे, मैट्रो बन रहा। इस बदलाव के बीच आदमी भी बदल रहा है.. बाबूजी। पर आप मुझे आशीर्वाद दें कि मैं बदलाव के इस दौड़ में इंसान बन इंसानियत की लौ जलाता रहूं.. कुछ बनूं न बनूं एक इंसान बना रहूं। बस यही आशीष चाहिए बाबूजी। बस यही आशीष….।

Share Article:

पत्र और पत्रकार के विश्वास पर संकट वाले दौर में इस कलमकार की कहानी पढ़ें, आनंद आएगा…

0

“उस शख्स के पिता सत्तारूढ़ दल के विधानपार्षद थे और उस शख्स की कलम उसी पार्टी और सत्ता के खिलाफ आग उगलती रही। कई बार धमकियां भी मिलीं पर आजाद कलम ने थमने की जगह और रफ्तार पकड़ ली। जेल की बंदिनी पर स्पेशल रिपोर्ट जब पत्रिका ने छापने से मना कर दिया तो देश के प्रधानमंत्री के नाम खुला पत्र लिख दिया। हारे हुए लोग भी इतिहास गढ़ते हैं की सोच ले चुनाव लड़ा, हार मिली पर मायूस नहीं हुए। एंग्लो-इंडियन के अनोखे गांव मैकलुस्कीगंज पर लिखे उपन्यास को ब्रिटेन हाउस ऑफ़ कॉमंस में पुरस्कृत किया गया। प्रसिद्ध पॉप गायिका ऊषा उथुप की जीवनी’ उल्लास की नाव’ समेत दर्जनों कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। 60 की दहलीज पार करने के बाद भी समाज के बदलाव के लिए समय से जंग का सिलसिला अनवरत जारी है। फिलवक्त आदिवासी समाज के भगवान और आजादी के नायक बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू में पानी न पहुंचने और बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने की मांग को लेकर आवाज बुलंद कर रहे हैं। आज की कहानी कलम की धार से सत्ता और समाज की दृष्टि बदल इंसानियत बचाए और बनाए रखने की मशाल जला, चलने बढ़ने वाले पत्रकार और लेखक विकास कुमार झा की…”


मुझे दरभंगा ने निखारा है

अपने बचपन के बारे में बताऊं तो मेरा बचपन क़स्बों के नुक्कड़ से लेकर गांव की पगडंडियों पर खेलते – सीखते बीता। गांव के आम और जामुन के पेड़, दालान के छप्पर पर चढ़ अमरूद तोड़ना। बारिश में खेतों के मेड़ पर भीगते हुए फिसलना। राजा- रानी के किस्सों के साथ राजमहल और किला देखना। नन्हें हाथों में साहित्य की किताबों के साथ साहित्यकारों को देखना – मिलना। कुल मिलाकर गांव और कस्बे के सतरंगी रंगों ने मुझे बचपन में रंगे रखा।

आंखों में सपने भरे। दिल में उत्साह और होंठों पर निश्छल मुस्कान। वैसे तो मेरा पैतृक गांव भारत- नेपाल सीमा पर स्थित श्री खण्डी भिट्ठा है, जिसे भिट्टामोड भी कहते हैं। यह बिहार के सीतामढ़ी जिले में पड़ता है। पिताजी ललितेश्वर झा बिहार विधानपरिषद के सदस्य रहे , वे मजदूर नेता थे। मां विमला झा पटना विश्वविद्यालय के अंतर्गत के पटना वूमेन्स कॉलेज में हिन्दी की विभागाध्यक्ष रहीं । मेरा जन्म सीतामढ़ी जिला के बैरगनिया में 10 जुलाई, 1961 को हुआ था। वहां मेरे नानाजी चिकित्सक के तौर पर कार्यरत थे। फिर मां – पिताजी दरभंगा चले आए और उनके साथ मैं भी । माताजी दरभंगा में रहकर पढ़ाई कर रही थीं। पिताजी राजनीति के जरिए सार्वजनिक जीवन में थे। हम उस वक्त दरभंगा के कटहलबाड़ी मुहल्ले में रहा करते थे। तब यह शहर बिल्कुल ही अलग था। तब इसे शहर कहना भी शायद ठीक नहीं, यह एक कस्बा था उन दिनों। बाजारवाद से दूर। पोखर, खपरैल मकान, महराज का महल और इन सब के साथ ही बंगला और मैथिली साहित्य – संस्कृति की गमक में गुलजार दरभंगा। लोग-बाग भी मिलनसार और सत्कारी। साहित्यिक दृष्टिकोण से दरभंगा को बंगाल का प्रवेश द्वार कहते हैं। तब इस शहर में बंगालियों की बसावट काफी अधिक थी। अगर आप मैथिली संस्कृति को देखें, तो यह बंगाल के आस -पास दिखेगी। बंगला लिपि भी मैथिली से काफी मिलती – जुलती है।

उनके लिए मैं ‘सुभाष बाबू’था

मुझे बचपन में सुभाष चन्द्र बोस काफी आकर्षित करते थे। मैंने पिताजी से सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर लाने की ज़िद की। पिताजी ने दरभंगा के टावर चौक से मेरे लिए सुभाष चंद्र बोस की एक तस्वीर खरीदी और फिर उसे फ्रेम करवा कर ला दिया।। इस तस्वीर को मैंने अपने कमरे में बिस्तर के ठीक सामने लगाया, जहां से हर वक्त उस तस्वीर पर नजर पड़ती रहे। एक बार मैं बीमार पड़ गया। उस वक्त दरभंगा के प्रसिद्ध चिकित्सक थे गोपाल बाबू । पूरा नाम था गोपाल भट्टाचार्य। वो अपनी चमचमाती बेबी ऑस्टिन कार से हमारे घर आए थे। मेरा नब्ज़ देखा और दवाइयां दी। उनकी नजर मेरे बिस्तर के ठीक सामने लगी सुभाष चन्द्र बोस की तस्वीर पर गई। उन्होंने बाबूजी से पूछा कि यहां बच्चे के बिस्तर के ठीक पास सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर क्यों लगी है? तब पिताजी ने मेरे सुभाष चंद्र बोस से लगाव का जिक्र किया और कहा कि इसकी जिद पर यह तस्वीर बाजार से फ्रेम करा यहां लगाई गई है। तब से डॉ गोपाल बाबू मुझे ‘सुभाष बाबू’ कह कर संबोधित करने लगे। मैं उनसे जब भी मिला, वो मुझे इसी नाम से बुलाते और खूब दुलार देते।

गांव ने प्रकृति को महसूसना सिखाया

दरभंगा ने मुझे साहित्य और संस्कृति की संगति दी, तो गांव ने प्रकृति को महसूसना सिखाया। हम बच्चे गांव में खूब मस्ती करते। आम के पेड़ पर चढ़कर फल तोड़ना। अमराई में वनभोज करना। बारिश में खेतों की पगडंडियों से गुजरते हुए भीगना। सरसों के पीले फूलों को छूना। गेहूं की बालियों पर दमकते ओस की बूंद को अपनी हथेलियों पर टघराना। दादाजी की डांट के बावजूद दालान के छप्पर पर चढ़ कर अमरूद तोड़ना। गांव के पास से बहती हुई रत्नावती नदी को निहारते रहना। कुछ कुछ कबीर के निर्गुण की तरह था गांव में बीता बचपन। हरे भरे खेत, नीला आसमान और आंगन में झांकते इजोरिया में किस्सों की महफ़िल। ऐसा ही था मेरा बचपन। हंसी – ख़ुशी और आनंद से भरपूर।


ऐसे थामी पत्रकारिता की राह

मां पहले पढ़ाई करने के लिए दरभंगा में रहीं। इसके बाद दरभंगा में हीं कालेज में पढ़ाने लगीं थीं। चाचा दिनेश्वर झा ‘दीन ‘ भी दरभंगा में प्रोफेसर थे। मैथिली साहित्य में उनकी गहरी समझ थी। पिताजी जी भी साहित्य से लगाव रखते थे। साहित्यिक किताबें घर में उपलब्ध रहती। मेरी रूचि भी लिखने – पढ़ने में लगने लगी। शुरुआत साहित्य से हुई। मैं आज भी पत्रकारिता और साहित्य को अलग-अलग नहीं मानता। दोनों एक ही हैं। पत्रकारिता जल्दबाजी का साहित्य है। बाजारवाद ने पत्रकारिता और साहित्य को एक दूसरे से अलग कर दिया है। खैर…, शुरूआती दिनों में मैं कविताएं, लघुकथाएं आदि लिखता और पत्र पत्रिकाओं में भेज देता। रचनाएं अस्वीकृत होकर लौट आतीं। उस दौर में एक पत्रिका थी ‘सूर्या इंडिया’। मेरी उम्र उस वक्त लगभग 15 साल रही होगी। मैंने एक रिपोर्ट लिखी ‘सूखती नदी के किनारे, मिथिला के मछुआरे’ वह रिपोर्ट ‘सूर्या’ में छपी गई। फिर मैं रिपोर्ट लिखता और वह वहां छप जाती। इसी दौरान मैंने एक कैमरा भी खरीदवाया। फिर मैथिली की रचनाएं मिथिला मिहिर पत्रिका में छपने लगी। यह सब मन को सुकून देने लगा और मन के अंदर का लेखक- पत्रकार मजबूत होने लगा। उसके बाद रिपोर्ताज लिखने का सिलसिला चल पड़ा। करंट, रविवार, साप्ताहिक हिंदुस्तान आदि में मेरे आलेख छपने लगे।


जब सुरेन्द्र प्रताप तक पहुंची शिकायत

उस जमाने में ज्यादा खबरें डाक से भेजी जाती। मेरे आलेख रविवार में छपने लगे थे। रविवार उस दौर की मशहूर साप्ताहिक पत्रिका में शुमार थी। इसके संपादक थे सुरेन्द्र प्रताप सिंह । पिताजी राजनीतिक पृष्ठभूमि से थे और मैं रविवार में छपने लगा सो कुछ लोगों को यह ठीक नहीं लगा। उन लोगों ने रविवार के संपादक एसपी सिंह से मेरी शिकायत की और कहा कि मैं सत्ता रूढ़ पार्टी के पार्षद का बेटा हूं। इसपर एसपी सिंह ने कहा कि उसके पिता कांग्रेस से जुड़े हैं और वह सत्ता के खिलाफ ही खबर लिखता है। यह तो काफी बढ़िया है, मैं उसकी रपटें खूब छापूंगा।

माया का वो दौर

विकास झा बताते हैं कि ‘माया’ के संपादक उस वक्त बाबू लाल शर्मा हुआ करते थे। मेरे एक मित्र कुमार आनंद ‘माया ‘ में लिखते थे। उनकी नौकरी जनसत्ता में दिल्ली में हो गई। उन्होंने मुझे ‘माया’ के लिए लिखने को कहा। यहां मुझे फिक्स रिटेनरशिप पर रखा गया। फिर मैं माया में लिखने छपने लगा। मेरी कई रिपोर्ट कवर स्टोरी बनी। इसी दौर मैंने दिल्ली जाने का मन बनाया। ‘माया’ का प्रकाशन इलाहाबाद से होता था। प्रकाशक थे मित्र प्रकाशन । मैंने सोचा क्यों न जाते वक्त इलाहाबाद होता हुआ जाऊं और माया के संपादक से मिल भी लूं। मैंने वैसा ही किया। जब मैंने दिल्ली जाने की बात बताई, तो बाबू लाल जी ने मेरी नियुक्ति बिहार संवाददाता के रूप में कर दी और मैं इलाहाबाद से ही फिर वापस पटना लौट गया।


अकेले चल पड़ा इनामी डाकू से मिलने

वो वक्त आज की पत्रकारिता से काफी अलग था। स्पेशल रिपोर्ट खूब छपती थी। उस दौर में पत्रकार आपस में भी बेहतर स्टोरी पर बैठकों के दौरान चर्चा करते थे। उस वक्त कैमूर की पहाड़ियों पर मोहन बिंद नामक डाकू का राज था। पुलिस ने उसपर एक लाख का इनाम घोषित किया था। स्थानीय मित्रों ने सुझाया कि मोहन बिंद का इंटरव्यू होना चाहिए। इस काम में काफी खतरा था। उन दिनों संचार के साधन भी काफी कम थे। मैंने मोहन बिंद का इंटरव्यू करने का फैसला किया और खतरों को झेलते हुए कैमूर के पहाड़ पर जा मोहन बिंद का इंटरव्यू किया। यह ‘माया’ की स्पेशल स्टोरी बनी थी।


पिताजी का ग़ुस्सा, मां का हौसला

मैं स्टोरी के सिलसिले में घर से अक्सर बाहर रहता। मैं माता- पिता इकलौता बेटा था। ख़तरनाक जगहों की यात्राएं करता इन सब को लेकर पिताजी मुझसे नाराज़ रहते थे। पहले बच्चों की पिता से सीधी बात नहीं हुआ करती थी, मां माध्यम बनती थीं। पिताजी मां के जरिए मुझ तक अपनी नाराज़गी पहुंचाते। मां हमेशा मेरा हौसला बढ़ाती। जब मैं घर आता और मेरी अस्वीकृत रचनाएं आई होती, तो मां पहले मुझे भोजन करवाती फिर बताती कि कुछ डाक से आया है। वैसे पिताजी भी मुझे मानते बहुत थे पर मुझे लगता है कि उनके मन में मुझे खोने का शायद एक डर जैसा कुछ था, जो गुस्से की वजह बनता।

जब मेरी रिपोर्ट पर बाबूजी को धमकी मिली

कांग्रेस पार्टी तब सत्ता में थी और मेरे पिता उस पार्टी से सदन में। इसके बावजूद मेरी कलम सत्ता के खिलाफ चला करती। पिताजी ने कभी मुझे इसके लिए रोका -टोका नहीं। एक वाकया है जब पिताजी को उनके ही पार्टी के एक दबंग विधायक ने मेरी रिपोर्ट को लेकर धमकी दी थी, पर बाबूजी न झुके, न डरें। मैं इसे अपनी पत्रकारिता का सबसे बड़ा सम्मान मानता हूं। दरअसल, पटना के डाक-बंगला चौराहे पर इमाम परिवार की जमीन एक दबंग कांग्रेसी नेता कब्जा किए बैठे थे। इसे लेकर मैसेज इमाम ने कई मीडिया हाउस का दरवाजा खटखटाया पर कोई इस नेता के खिलाफ खबर छापने को तैयार नहीं था। एक रोज वह मेरे पास कागजात लेकर पहुंचीं और बड़े ही भरोसे से कहा कि मुझे ‘यकीन है कि आप मेरी स्टोरी छापेंगे।’ मैंने वह स्टोरी छापी। माया उस जमाने में प्रमुख राजनीतिक पत्रिका थी। इस खबर से उस कांग्रेसी नेता और पार्टी की खूब किरकिरी हुई। उस नेता ने एक संदेश वाहक को मेरे पिताजी के पास भेजा , उसने मेरे पिताजी की बात फोन द्वारा उस दबंग नेता से करवाई। उक्त दबंग नेता ने पिताजी को फोन पर धमकी देते हुए कहा कि आपके बेटे ने मेरे खिलाफ खबर लिखी है उसका क्या करें। मेरे पिताजी ने बैखौफ होकर कहा – आप उसकी हत्या करवा दीजिए। यह कह पिताजी ने फोन का रिसीवर पटक दिया।

…और लिख दिया खुला पत्र

विकास कुमार झा एक संस्मरण सुनाते हुए कहते हैं कि मैंने बिहार के जेल में बंद महिला कैदियों पर स्टोरी करने की ठानी। माया के एसाइनमेंट डेस्क से बात भी की। जेल में जाना और कैदियों से बात करना आसान न था। हमने तब के राज्य मंत्री को जेल के दौरे के लिए तैयार किया वे दौरे पर जेल के अंदर जाते हम उनके साथ होते। जब तक वो निरीक्षण करते हम महिला कैदियों से बात कर उनकी तस्वीरें ले लेते।‌ हमने कई जेलों का दौरा किया। जो कहानी सामने आयी वो दिल दहला देने वाली थी। महिलाओं के साथ उनके छोटे बच्चे जेल की चारदीवारी में कैद थे। उन्होंने कोई पक्षी नहीं देखा था कौआ को छोड़कर। दर्जनों महिला कैदी डिप्रेशन में थीं। कई बीमार। मैंने स्टोरी ‘माया’ को भेजी पर वहां इसे नॉन पॉलिटिकल स्टोरी बता नहीं छापा गया। मुझे लगा यह जेल में बंद महिला कैदियों के साथ नाइंसाफी होगी। कई रात मुझे नींद नहीं आई। फिर मैंने इस लेख को पत्र का रूप दिया और प्रधानमंत्री के नाम खुला पत्र लिखकर तमाम समाचार पत्रों के संपादक को भेजा। इस खुले पत्र का शीर्षक था शीर्षक था “इंदिरा जी इन औरतों के लिए आंसुओं का इंतजाम कर दीजिए” कई महत्वपूर्ण अखबारों ने इसे बेहतर ढंग से प्रकाशित किया। मेरे इंटरव्यू भी लिए। इन कैदियों की हालत सुधारने का माहौल कायम हुआ। बाद में ‘माया’ को भी खबर न छापने की ग़लती का एहसास हुआ।

विकास कुमार झा आगे बताते हैं कि एकबार मैंने विधानसभा का चुनाव भी लड़ा। तब टाडा का आरोपी दरभंगा से चुनाव लड रहा था। मुझे लगा कि इसका विरोध होना चाहिए, इस कारण मैंने चुनाव में उतरने का निर्णय लिया। हालांकि मुझे हार मिली पर इस हार में भी मन की जीत छुपी थी।

ऐसे लिखा गया मैकलुस्कीगंज

विकास झा बताते हैं कि माया के बिहार प्रमुख के नाते मुझे बिहार की यात्राएं करनी होती थी। इसी दौरान मेरा मैकलुस्कीगंज जाना हुआ ‌ । तब बिहार और झारखंड संयुक्त थे। मैंने मैकलुस्कीगंज पर कई रिपोर्ट लिखें जो प्रकाशित हुई । इन सब के बीच भी लगता कि इस अनोखे जगह की कहानी अधूरी है इस पर उपन्यास लिखा जाना चाहिए। तब मैं उपन्यास लिखने की विधा से परिचित भी नहीं था। मैंने पटना आकर प्रसिद्ध लेखक राबिन शा पुष्प से मैकलुस्कीगंज के ऊपर उपन्यास लिखने का आग्रह किया। तब उनकी सेहत ठीक नहीं चल रही थी। उन्होंने कहा कि इसे लिखने के लिए मुझे वहां जाना पड़ेगा और मेरी तबियत ठीक नहीं। ऐसे में इस कथा के साथ न्याय नहीं हो पाएगा। फिर पुष्प जी से मैंने उपन्यास लिखने की बारीकियों को जाना और इसे लिखना शुरू किया।

बनाया सृष्टि प्रकाशन

जब मैं उपन्यास लिखने लगा तो फिर इसे लेकर कई प्रकाशकों के पास गया। किसी ने मेरे उपन्यास को छापने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसके बाद मैंने अपनी पुत्री सृष्टि के नाम पर सृष्टि प्रकाशन की शुरुआत की और अपने उपन्यास को वहां से प्रकाशित किया। काफी दिनों बाद पटना में राजकमल प्रकाशन के अशोक महेश्वरी जी ने मुझसे कहा कि आप लेखक हैं आपका काम लिखना है पुस्तक छापने में अपनी ऊर्जा जाया न करें। हम आपकी किताबों को छापेंगे। इसके बाद’ मैकलुस्कीगंज’ फिर राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई। तब मैंने इसपर दोबारा से मेहनत की। इसकी पृष्ठ संख्या भी बढ़ी। यह उपन्यास काफी लोकप्रिय हो गया और इसे लेकर ब्रिटेन की संसद में मुझे पुरस्कृत किया गया।


अब बिरसा के गांव में आंदोलन

फिलवक्त विकास कुमार झा आजादी के आंदोलन और आदिवासी समाज के नेता भगवान बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू के विकास के लिए आंदोलन कर रहे हैं। विकास कुमार कहते हैं कि बिरसा के नाम पर झारखंड की हर सरकार भवनों और योजनाओं का नाम तो रख देती है, पर उनके गांव में आज तक पीने का साफ़ पानी पहुंचाने की कोशिश नहीं की गई। हम इस गांव के विकास के लिए एक आंदोलन चला रहे हैं। कम से कम बिरसा मुंडा के वंशजों को इस आजाद देश में साफ पानी तो मिल पाए।

मैं पूरे भारत का लेखक होना चाहता हूं

विकास कुमार झा कहते हैं कि मैं सिर्फ हिन्दी पट्टी का लेखक नहीं रहना चाहता, मैं पूरे भारत का लेखक बनना चाहता हूं।‌ वो आगे कहते हैं कि मुझे बंधना स्वीकार नहीं। एक हिन्दी का लेखक तमिलनाडु,या केरल या गोआ की कहानियां हिन्दी में क्यों नहीं लिख सकता। यह धारणा बदलने की जरूरत है। मैंने कर्नाटक के अंतर्गत
अगुम्बे की कहानी पर ‘वर्षा वन की रूपकथा’ लिखी।

‘उल्लास की नाव’ जो उषा उथुप की जीवनी’ पर आधारित है उसे हिन्दी में लिखा। गोआ के जीवन पर उपन्यास मैंने लिखा। गोआ के बारे में जब आप नजदीक से देखते हैं तो यह भ्रम को टूटता है कि गोआ बस समन्दर के तट पर मस्ती करने की जगह है। यह तो गांव का प्रांत है। यहां गांव हैं, किसान हैं, उनके संघर्ष हैं उनकी परंपरा है। जब कोई लेखक जाकर इसे देखता है और फिर कहानी लिखता है तो लोग इस कहानी नहीं भूलते। गैर हिन्दी भाषी का हिन्दी से अपनत्व बढ़े, यह कोशिश हिंदी के लेखक को करनी चाहिए।

खुद को जिंदा रखना जरूरी

विकास कुमार झा एक पत्रकार और लेखक तो हैं हीं इन सब से ऊपर उन्होंने बचाए रखा है वो हुनर जो एक इंसान को इंसान बने रहने की प्रेरणा देता है।

सोशल मीडिया के दीवारों से चिपक अनसोशल होना अब जहां फैशन हो गया है,
वहीं सीमित संसाधनों के बीच विकास सुदूर उलिहातू के विकास के लिए तन -मन और कलम से संघर्ष कर रहे हैं। मैकलुस्कीगंज उपन्यास की किट्टी मैम हो या फिर ‘वर्षा वन की रूपकथा ‘ में अगुम्बे का चित्रण , लेखक की मेज पर संवेदनाओं की स्याही, संघर्ष से भरे जीवन में मुस्कराहटों का रेखाचित्र खिंचती हुई दिखती है। शायद यही साहित्य का धर्म है, इंसानियत का धर्म है और है वह आशा जिसपर जिंदगी गीत गाते हुए अनवरत चलती – बढ़ती रहेगी।


(यह आलेख लेखक विकास कुमार झा से विवेक चंद्र की बातचीत पर आधारित है)

Share Article:

पढ़ें पीपल, तुलसी ,नीम अभियान चला हरियाली भरने वाले डॉक्टर की कहानी

0

वें पेशे से डॉक्टर हैं। इंसानों की सेहत दुरुस्त करने के साथ हीं वे प्रकृति की सेहत की चिंता कर उसे सुधारने संवारने में जुटे हैं। पीपल, तुलसी , नीम अभियान के जरिए अब तक हजारों पौधे लगा चुके हैं। इसी अभियान के तहत गया से लुंबिनी तक ग्रीन कोरिडोर बनाने का संकल्प लें पीपल, नीम, तुलसी लगाए जा रहे हैं। राजधानी पटना में इनके प्रयास से कई बंजर इलाकों में हरियाली लौट आई है। कोशिश कंक्रीट के शहरों में हरियाली भरने की है। एक अस्पताल और नर्सिंग कॉलेज के संचालन की जवाबदेही के बाद भी वे इस अभियान में रमे है। आज कहानी हरियाली लौटाने वाले डॉक्टर नरेश प्रसाद प्रियदर्शी की

पाटलिपुत्र शहर आज कंक्रीटों का शहर बन गया है। हर और अपार्टमेंट, फ्लाईओवर, आसमान से बतियाते टावर बन गए हैं, बन रहे हैं। यह विकास हमें कितना महंगा पड़ रहा शायद हमें इसका एहसास नहीं। हम जाने अंजाने मिट्टी और वायु दोनों को दूषित करते जा रहे हैं। ऐसे में हमने अपनी जिंदगी को भी बीमारियों के गाल में झोंक दिया है। कहते हैं डॉक्टर नरेश प्रसाद प्रियदर्शी वे आगे कहते हैं कि पटना या पाटलिपुत्र में कभी पाटिल के पेड़ों से घिरा होता था। हाल के दिनों तक बेली रोड के दोनों और घने पेड़ थे। अब सभी विकास की भेंट चढ़ गए। धरती की मिट्टी पर कंक्रीट की परत चढ़ रही है। पेड़ अमीर घरों के गमलों में सिमट आए हैं। आंगन वाले घर खत्म हो गए तो आंगन की तुलसी भी खत्म हो गई। ऐसे में हमारी कोशिश पीपल , नीम, तुलसी अभियान के तहत धरती की गुम हो रही हरित पट्टी को इन गुणकारी पेड़ों से भरने की है।


ऐसे चलता है अभियान

डॉक्टर नरेश प्रसाद प्रियदर्शी बताते हैं कि यह अभियान पिछले तीन सालों से तेज गति के साथ चल रहा है। इस अभियान में अलग-अलग विधाओं में कार्यरत लोग जुड़े हुए हैं और प्रत्येक रविवार को सभी एक स्थान पर इकट्ठा होते हैं और फिर योजनानुसार वृक्षारोपण का कार्य चलता है। हम सभी दो घंटे तक श्रमदान करते हैं।हमारी टीम में वर्तमान में 100 सक्रिय सदस्य कार्य कर रहे इसके साथ ही विद्यार्थी और अन्य समूहों की हिस्सेदारी समय-समय पर होती रहती है।‌

पौधों की देखभाल की जिम्मेदारी भी

हम सिर्फ पौधे लगाते ही नहीं है। उसके बड़े होने तक उसकी देखभाल भी करते हैं। उसमें समय समय पर पानी और खाद भी देते रहते हैं। बड़े होने पर पेड़ खुद अपना पोषण कर लेता है कहते हैं डॉक्टर नरेश प्रसाद प्रियदर्शी वे यह भी बताते हैं कि अब तक हम लोगों ने एक लाख पेड़ लगाए हैं।

बना रहे बोधी वृक्ष कॉरिडोर

डॉ नरेश प्रसाद प्रियदर्शी बताते हैं कि हम बोधी वृक्ष कॉरिडोर भी बनाने में जुटे हैं यह गया से लुंबिनी तक पीपल के पेड़ों का कॉरिडोर बना रहे हैं। इसकी शुरुआत राजगीर से की गई है। इसके तहत हम हम पीपल के पेड़ लगा रहे हैं।
यह ग्रीन कोरिडोर अपने आप में अनोखा होगा। इसके बुद्ध सर्किट से गुजरने वाले पर्यटकों को शुद्ध हवा और शीतल छाया मिल पाएगी।

पर्यावरण प्रबोधन भी

डॉ प्रियदर्शी आगे कहते हैं कि पर्यावरण को बचाने रखने के लिए लोगों का जागरूक होना काफी अहम है। इसे लेकर हम प्रर्यावरण प्रबोधन कार्यक्रम भी चलाते हैं। इसके तहत लोगों को जुटा कर उन्हें पेड़ों को बचाने को लेकर जागरूक करते हैं।

नवादा में बीता बचपन

डॉ नरेश प्रसाद प्रियदर्शी का जन्म नवादा के धेवधा गांव में हुआ
। प्रारंभिक शिक्षा यही के स्कूल में हुई इसके बाद पकड़ी वरमा हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की। इंटरमीडिएट एस एन सिन्हा कालेज वारसलीगंज से किया। इसके बाद राजधानी पटना के एएन कॉलेज से बीएससी की पढ़ाई पूरी की। दरभंगा मेडिकल कॉलेज से मेडिकल की पढ़ाई करने के बाद पोस्टर ग्रेजुएट बैंगलोर के राजीव गांधी विश्वविद्यालय से किया। कोच्चि से पैथोलॉजी में डिप्लोमा किया। पढ़ाई पूरी होने के बाद लगभग डेढ़ साल तक मेडिकल अफसर के रूप में पंजाब के फिरोजपुर में कार्य किया इसके बाद पटना लौट आए और यहां जयप्रकाश नगर में निजी प्रेक्टिस करने लगे।


और श्री राज ट्रस्ट अस्पताल की शुरुआत हुई

डॉ नरेश प्रियदर्शी बताते हैं कि प्रेक्टिस काफी बेहतर चल रहा था। ज्यादा से ज्यादा लोगों को स्वास्थ्य सेवा का लाभ मिल सके इसे लेकर मन में एक अदद अस्पताल बनाने की चाह थी। इसे लेकर ही हमने श्री राज ट्रस्ट बनाया। 2008 में पिता जी श्री प्रसाद चौरसिया जी के द्वारा इसी ट्रस्ट के अंतर्गत अस्पताल की नींव रखी गई। हमारा यह अस्पताल मरीजों को भगवान मानते हुए सहज, सरल, सफल चिकित्सक का मूल मंत्र लेकर स्थापना काल से ही कार्य कर रहा है। हम सरकार की सभी योजनाओं के साथ कदमताल मिलकर काम करते हैं। इसके तहत अस्पताल में मासिक टीकाकरण, बंध्याकरण कार्यक्रम, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना, आयुष्मान भारत योजना आदि सफलता पूर्वक कार्यान्वित हो रहे हैं। इसके साथ ही ट्रस्ट नर्सिंग शिक्षा और पैरामेडिकल शिक्षा में भी आज मजबूत स्तंभ के रूप में खड़ा है। श्री राज ट्रस्ट नर्सिंग ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में कंपैक्ट एजुकेशन का विस्तार लक्ष्य है
।हम निर्धन छात्रों को शिक्षा में विशेष रियायतें भी उपलब्ध कराते हैं।

अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस है अस्पताल

डॉ नरेश प्रसाद प्रियदर्शी बताते हैं कि उनके ट्रस्ट द्वारा संचालित अस्पताल में अत्याधुनिक चिकित्सा सेवाएं मौजूद हैं। यहां 24। घंटे इमरजेंसी मरीज़ देखें जाते हैं। इसके साथ ही ओपीडी सुविधा भी मौजूद है। अस्पताल में राजधानी पटना के कई वरिष्ठ चिकित्सक अपनी सेवाएं देते हैं। डॉ प्रियदर्शी आगे कहते हैं कि हमारे अस्पताल का पहला लक्ष्य मरीज का बेहतर और सस्ता इलाज है। हमरे अस्पताल के कर्मचारी भी सेवा भाव के साथ अस्पताल में कार्य करते हैं। मैं खुद लगातार इन सब की मॉनिटरिंग करता हूं।

पिताजी का अहम योगदान

डॉ प्रियदर्शी कहते हैं कि मैं आज जो कुछ भी हूं उसमें मेरे पिताजी और माताजी का योगदान सबसे अहम है
पिताजी श्री प्रसाद चौरसिया एक साधारण से किसान थे । आमदनी काफी कम थी पर उन्होंने कभी मुझे इसका एहसास नहीं होने दिया। जब मेरी पढ़ाई में जितनी जरूरत हुई उन्होंने पैसे का इंतजार कर मुझे दिया। पिताजी ने अन्य खर्च में कटौती कर मुझे लायक बनाया।

प्रेरणा स्रोत है पत्नी

नरेश प्रसाद प्रियदर्शी की शादी 1992में डॉ पुष्पा प्रियदर्शी के साथ हुई। डॉ पुष्पा गाइनेकोलॉजिस्ट हैं। डॉ प्रियदर्शी कहते हैं कि वे हमेशा मेरे कदम से कदम मिलाकर चलती रही है। इतना ही नहीं जब जब कोई विकट समय आया उन्होंने मुझे हौसला दिया। वो मेरे लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
आज भी उनका साथ और समर्थन मुझे मिलता रहता है

इस घटना ने तोड़ दिया

6 फरवरी 2012 का जिक्र करते ही डॉक्टर नरेश प्रसाद प्रियदर्शी की आंखें भींग जाती है।
वें भरे मन से आगे बताते हैं कि उस दिन एक सड़क दुघर्टना ने हमारी बेटी स्वेता सुमन को हमसे छीन लिया। वह उस वक्त 11 वीं की पढ़ाई कर रही थी। श्वेता काफी मेघावी छात्रा थी। इस घटना ने मुझे अंदर से काफी कमजोर कर दिया। बेटी के असमय निधन का ग़म भुलाए नहीं भुलता।

डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहे पुत्र

डॉ प्रियदर्शी के पुत्र हिमांशु राज डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे। वे जवाहरलाल मेडिकल कालेज महाराष्ट्र से MBBS करने के बाद इंटर्नशिप कर रहे।


साहित्य के क्षेत्र में रूचि

डॉ नरेश प्रसाद प्रियदर्शी को साहित्य के क्षेत्र में भी गहरी रुचि है। रामधारी सिंह दिनकर उनके प्रिय कवि हैं। इसके साथ ही वे समसामयिक हिन्दी साहित्य का भी खुब अध्ययन करते हैं। डॉ नरेश प्रियदर्शी ने कई कविताएं भी लिखीं हैं। इन कविताओं में वीर रस की कविताएं खास हैं।

संस्कार के साथ शिक्षा लें छात्र

डॉ नरेश प्रसाद प्रियदर्शी कहते हैं कि आज के युवाओं को संस्कार के साथ शिक्षा लेने की जरूरत है। आज के बाद बहुत ही होनहार है वह नई तकनीक का प्रयोग भी समझते हैं। हमारा देश विवेकानंद और आचार्य कृपलानी, एपीजे अब्दुल कलाम जैसों का रहा है । हमारे युवाओं को इनसे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है।

फिलवक्त डॉ नरेश धरती लोगों को स्वस्थ्य बनाने के साथ ही हरियाली भरने के अभियान में जुटे हैं। वो मानते हैं कि इससे बड़ा पवित्र कार्य दूसरा नहीं है। उन्हें यकीन है कि कुछ वर्षों में पीपल, नीम, तुलसी अभियान पर्यावरण संरक्षण में एक मील का पत्थर साबित होगा।

Share Article:

गांव में नहीं होता था इलाज फिर डॉक्टर बने खोला मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल, अब हर प्रखंड में अदद अस्पताल खोलने का सपना

0

उस शख्स का जन्म एक ऐसे गांव में हुआ जहां तक विकास की रौशनी लोगों की आंखों से ओझल थी
बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सपनों तक सिमटे थे। इलाज के लिए है नीम हकीम और झोलाछाप डॉक्टरों का सहारा। ऐसे में जब होश संभाला तो गांव की ये समस्याएं मन को विचलित करती रहती। पढाई के दौरान जेहन में बार – बार यह ख्याल आता की कैसे गांव के लोगों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराई जा सके। फिर डॉक्टर बनने का प्रण लिया, सरकारी नौकरी भी मिली पर मन में कुछ अलग करने की अलख जग गई थी सो सब कुछ छोड़ अपना अस्पताल खोला। अस्पताल ऐसा कि कम दर पर एक छत के नीचे इलाज की सुविधा उपलब्ध है। अगर आपके पास पैसे नहीं हैं तो बिना पैसे भी आपका इलाज चलता रहेगा। भविष्य का सपना अपने कस्बा ढाका समेत बिहार के हर प्रखंड में अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त चैरिटेबल अस्पताल खोलने का है। आज की कहानी बिहार के लोगों को सेहतमंद बनने की ज़िद थामें आगे चलते -बढ़ते चिकित्सक डॉ अशफाक अहमद की…

मेरा जन्म बिहार नेपाल की सीमा पर लगे ढाका के करसहिया गांव में हुआ। हमारे गांव की हालत ये कि तीन पंचायत के बीच भी एक भी डॉक्टर नहीं था। ऐसे में मर्ज भी बढ़ता जाता और लोगों की जान पर बन आती। ऐसे में मुझे लगा कि यह सूरत बदलनी चाहिए । मैंने उसी वक्त संकल्प लिया था कि मुझे डॉक्टर बनना है और अस्पताल खोलना है। कहते हैं डॉ अशफाक। डॉ अशफाक कहते हैं कि जब मैंने नजदीक से कई निजी अस्पतालों की हालत देखी तो मुझे वह मरीजों की हितकारी नहीं लगी। इस वक्त मैं पढ़ाई पूरी कर नौकरी भी करने लगा था। मेरे सामने मेरे गांव के बीमार लोगों का चेहरा घुमता रहता। फिर मैंने नौकरी छोड़ी और पटना के कुम्हरार में 12 बेड का एक अस्पताल शुरू किया। इसके बाद 2020 में राजधानी पटना के एसपी वर्मा रोड पर रेनबो अस्पताल की स्थापना की। यह अस्पताल 52 बेड का है और इसमें एक छत के नीचे उचित दर पर सभी इलाज अत्याधुनिक तकनीक के साथ उपलब्ध है।

यह है रेनबो अस्पताल का मकसद

देखिए रेनबो की तरह ही हम चाहते हैं कि लोगों की जिंदगी में खुशियां के तमाम रंग हों। हर किसी का जीवन चटख रंगों से गुलजार हो मुस्कुराता रहे। सभी स्वस्थ रहें सभी सबल रहें। यही हमारे अस्पताल का मकसद है। कहते हैं डॉ अशफाक। वो आगे कहते हैं कि किसी भी चार्ज को हमारे अस्पताल में य छुपा कर नहीं रखा गया है। सब कुछ डिस्प्ले किया है। प्राइवेट अस्पतालों पर लोगों का नजरिया पैसे के मामले में ठीक नहीं रहता। कुछ अस्पतालों के कारण एक आम धारणा बन गई है कि निजी अस्पताल मरीजों से मोटी वसूली करते हैं। बेवजह उन्हें आईसीयू में भर्ती रखते हैं और मोटा बिल बनाते हैं, हम इन सभी धारणाओं को यहां तोड़ने का काम करते हैं। हमारी कोशिश कम दर पर उम्दा स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराना है। यही वजह है कि यह अस्पताल अब लोगों के भरोसे का नाम बन गया है। वे आगे कहते हैं कि रेनबो अस्पताल एक विश्वास है, उम्मीद है अंतिम आदमी तक बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाने का। यही हमारी टीम का संकल्प है। हम मेवा भाव से नहीं सेवा भाव से कार्य करते हैं। अगर किसी के पास पैसे न हो फिर भी यहां इलाज नहीं रुकता। हमारी प्राथमिकता जीवन बचाने की होती है। हर किसी की जिंदगी महफूज रह सकें हम यही दुआ उपर वाले से मांगते हैं।


ढाका में चैरिटेबल अस्पताल जल्द

डॉ अशफाक आगे कहते हैं कि हम जल्द ही ढाका में चैरिटेबल अस्पताल शुरू करने जा रहे हैं। यहां एक छत के नीचे तमाम आधुनिक चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध हो सकेंगी।‌ इससे बिहार ही नहीं पड़ोसी देश नेपाल के लोगों को भी काफी फायदा होगा। यहां रियायती दर पर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध होंगी। यहां के चिकित्सक और सहकर्मियों को भी विशेष ट्रेनिंग दी जाएगी। यह अस्पताल तकनीकी मामलों में तो अव्वल होगा ही व्यवहार के मामले में भी बेहतर होगा।
ढाका के बाद हम बिहार के हर जिले में एक अदद अस्पताल बनाने की योजना पर कार्य कर रहे हैं और मुझे यकीन है कि जल्द ही हमारा यह सपना भी पूरा होगा और कोई भी इंसान इलाज के आभाव में दम नहीं तोडेगा।



जिंदगी के इम्तिहान से मिलती है सीख

डॉक्टर अशफाक बताते हैं कि जिंदगी आपका हर कदम पर इम्तिहान लेती है। जरूरी नहीं कि आप जिंदगी के हर इम्तिहान में पास ही हो जाएं कभी कभी फेल भी होना पड़ता है। इतना तो तय है कि जिंदगी के हर इम्तिहान से आपको सीख ही मिलेगी। अब यह आप पर निर्भर है कि आप उसे कामयाबी में कैसे बदलते हैं। कामयाबी के मायने बस दौलत तक नहीं सिमटें है मेरी नज़र में कामयाबी आपको एक अव्वल इंसान बनाती है आपमें इंसानियत भरती है । आपके रूह को पावन करती है।


यहां से हुई शिक्षा दीक्षा

डॉ अशफाक की प्रारंभिक शिक्षा गांव के स्कूल में हुई। यहां के सरकारी स्कूल से उन्होंने पांचवीं तक पढ़ाई की । इसके बाद ढाका के एक निजी स्कूल में उनका दाखिला कराया गया यहां से आठवीं पास करने के बाद मोतिहारी स्थिति जिला स्कूल से उन्होंने मैट्रिक तक की पढ़ाई की। इसके बाद एल एन डी कालेज से बारहवीं की पढ़ाई हुई। साल 2005 में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद साल 2006 से 2011 तक दरभंगा में BUMS की पढ़ाई पूरी की। फिर राजधानी पटना का रुख किया और मेडिकल आफिसर के रूप में अपना योगदान दिया।

2013-2015 में सिम्वायोसिस यूनिवर्सिटी पुणे से हॉस्पिटल एंड हेल्थ केयर मैनेजमेंट की पढ़ाई की। यहीं से क्लीनिकल रिसर्च में पीजी किया। इसके बाद साल 2015 में बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग में आयुष मेडिकल आफिसर के पद पर नियुक्त हुए। यहां 2016 तक कार्यरत रहे। साल 2016 में नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और एमबीबीएस की पढ़ाई हेतू आर्मेनिया में नामांकन लिया। सन 2021में एम बीबीएस की पढ़ाई सफलतापूर्वक पूरी करने के बाद एमआरसीपी किया। इसी दौरान रेनबो हॉस्पिटल की नींव पड़ी ।


पिताजी ने हमेशा दिया हौसला

डॉ अशफाक बताते हैं कि उनके पिता ने हर कदम पर उन्हें हौसला दिया है। पिताजी मुस्ताक अहमद वेटनरी डिपार्मेंट में कार्यरत हैं। उन्होंने कभी भी मुझे निराश नहीं होने दिया आज मैं जो कुछ भी हूं उसमें मेरे पिताजी का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान है।


जीवन साथी का साथ महत्वपूर्ण

डॉ अशफाक बताते हैं कि मेरी शादी 2016 में हुई ‌ । पत्नी शाहेदा परवीन ने दरभंगा विश्वविद्यालय से MSC किया और इसके बाद पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय से LLB किया है। जीवन के हर दौर में शाहिदा का साथ मिला है। कोरोना काल में जब हमरा अस्पताल बंद हो गया था और कई और से मुश्किलें आ गई थी उस वक्त उन्होंने मुझे बड़ी हिम्मत दी। वह हर कदम पर मेरे साथ रहती हैं।


उत्साह भरती है बच्चे की नन्हीं हंसी

डॉ अशफाक कहते हैं हमारा बेटा आरिज़ तीन साल का है। बच्चे के साथ रहकर हमारे बचपन की यादें ताजा हो जाती है। कितनी भी थकान या तनाव हो उसकी नन्ही हंसी सब दूर कर देते हैं। छुट्टियों के दिन मैं परिवार में ज्यादातर वक्त देने की कोशिश करता हूं।

मिल चुके हैं कई सम्मान

डॉ अशफाक अहमद को देश भर के प्रतिष्ठित मंचों से चिकित्सा क्षेत्र में विशेष कार्य हेतु सम्मानित किया जा चुका है। इसके साथ साथ दूरदर्शन और अन्य टीवी चैनलों पर समय समय पर बीमारियों से बचाव और स्वस्थ जीवन के सूत्र डॉ अशफाक बताते रहते हैं।

100 से अधिक फ्री मेडिकल कैंप

डॉ अशफाक ने अब तक 100 से अधिक मेडिकल कैंप का आयोजन किया है। ज्यादा मेडिकल कैंप सुदूर गांवों में आयोजित किए जाते हैं ताकि हासिए पर रहने वाले लोगों के सेहत की जांच और उनका इलाज किया जा सके।

फिलवक्त डॉ अशफाक अपने नाम के अनुरूप दयालु हृदय के साथ स्वस्थ भारत का प्रण लें जन जन को सेहतमंद बनाने की मुहिम में जुड़े हैं।

Share Article:

कहानी,कार्टून से क्रांति का प्रवाह लाने वाले पवन की

1

“छुटपन में ही नन्हीं अंगुलियों ने पेंसिल की जुगलबंदी सीख ली। आड़ी – तिरछी रेखाएं खींच कभी चाचा चौधरी का कैरेक्टर कागज पर उतारते तो कभी साबू और नागराज का कार्टून बनाते।धीरे -धीरे यह पात्र रोजमर्रा के जीवन से चुने और बुने जाने लगे। बच्चों के लिए छपने वाले पराग में रचनाएं छपने लगी। फिर अन्य पत्र पत्रिकाओं में भी जगह मिलने लगी। स्कूल की उम्र में ही दिल में पनपे कार्टूनिस्ट ने पाठकों को प्रभावित करना शुरू कर दिया। शोहरत और जेब खर्चा लायक पैसे भी आने लगे । फिर रूख राजधानी का किया। एक वर्कशॉप में किसी प्रबुद्ध से व्यक्ति ने अपमान के भाव से कह दिया कार्टून हिन्दी की चीज नहीं हिन्दी में तो बस चुटकुले बनते हैं। बात मन में इतनी गड़ गई कि रात भर आंखें भींगती रही और मस्तिष्क चिंतन में रमा रहा। फिर मन में दृढ़ संकल्प की गठरी बांधे पटना की ट्रेन पकड़ ली। सालों फुटपाथ पर बिताया। रिक्से -ठेले वाले की भाषा और सोच का अध्य्यन करते , उनके साथ रहते और कार्टून बनाते। समसामयिक मुद्दों पर बिहारी बोली में बने इन कार्टूनों का क्रेज ऐसा हुआ कि कार्टून ने नीचे के सिंगल बाक्स से निकल फ्रंट पेज पर आठ कालम की जगह बनाई। आज इस काटूर्निस्ट पर कई रिसर्च हो चुके हैं। दुनिया की नामी टेक्सास युनिवर्सिटी में इनके कार्टून पर आधारित सिलेबस शामिल हैं। सरकार के कई सामाजिक अभियानों में ये ब्रांड एम्बेसडर हैं। आज की कहानी नन्ही सी उम्र से ही देशज बोली में हंसाते – गुदगुदाते और बतियाते कार्टून बना राज और समाज को नींद से जगाने वाले प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट पवन की…”

देखिए मेरे कार्टून बनाने का सफर मेरे बचपन के सफर के साथ ही शुरू हो गया। बचपन में दिमाग में जो चलता उसे कार्टून के रूप में कागज पर उतार देता। शुरुआत तो स्कूल के ब्लैक बोर्ड पर टीचर और सहपाठियों के किस्सों को उतारने से हुई। घर में अखबार कई आते थे। अमर चित्र कथा में रामकृष्ण परमहंस की कहानियां पढ़ता। चूहआ- बिल्ली गाय का का फ्रेम बनाता। चुटकुले लिख उनका स्केच बनाया। तीसरी कक्षा में था तो पहली रचना छपी। वह पत्रिका थी ‘सुलभ इंडिया ‘ सुलभ इंटरनेशनल इसे प्रकाशित करता था । इसके बाद सुलभ इंडिया में प्रत्येक सप्ताह मेरी रचना छपने लगी। जहां तक पोलिटिकल सटायर वाले कार्टून की बात है तो वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर जी के साप्ताहिक अखबार में सबसे पहले राजनीति पर आधारित मेरे कार्टून छापने लगे। फिर पराग जैसी पत्रिकाओं में ये छपने लगी। इसके बाद रूख अखबारों का हुआ।

मैं अपने स्कूल का एक मात्र ऐसा बच्चा था जो अखबार लेकर स्कूल जाता था। पराग में एक कार्टून के उस वक्त 60रूपये मिल जाते। अखबार में 30 रुपए प्रति कार्टून मिलते थे। मैं इस कला के विकास के पीछे उस वक्त की पत्र पत्रिकाओं को इसका श्रेय देना चाहता हूं। उस वक्त हर पत्र- पत्रिका में बच्चों के लिए एक स्पेस जरूर होता था। बाल पत्रिकाएं भी एक से एक होती थी। नंदन, चंपक, पराग, चंदामामा जैसे बच्चों की स्तरीय पत्रिकाएं छपतीं – बिकती थी। इसके साथ कंप्यूटर से तेज दिमाग वाले चाचा चौधरी का कामिक्स भी। मेरे घर में किताबों के लिए खुब जगह थी। ज्यादा पत्रिकाएं घर में आती तो इन सब से बचपन में ही एक माहौल मिला और इससे मेरे अंदर के भाव कागज पर उतरने उतरते छपने लगे। कहते हैं प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट पवन।


और चुपचाप दिल्ली की ट्रेन पकड़ ली

पवन आगे बताते हैं कि जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था तो एक रोज श्रमजीवी एक्सप्रेस का टिकट 120 रूपए में कटवाया और चुपचाप दिल्ली निकल गया।‌उस वक्त पिताजी दिल्ली में रहते थे। वहां मनोहर श्याम जोशी जी के सानिध्य में काफी वक्त बीता। मैंने लगभग दो माह मनोहर चाचा जी के यहां गुजारे। उस वक्त टीवी धारावाहिक ‘कक्का जी कहिन’ का काम चल रहा था। यह व्यंग्यात्मक धारावाहिक दूरदर्शन पर काफी लोकप्रिय हुआ। चाचाजी के यहां उस वक्त ओमपुरी, आशीष विद्यार्थी आदि आते रहते। मैं कक्का जी कहिन’के संवाद और मेकिंग चुपचाप देखता – सुनता -समझता रहता। चाचाजी ने ही दिल्ली में कई प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट से मेरी मुलाकात करवाई जिसमें सुधीर दर का नाम भी शामिल है। इस वक्त मुझे नवभारत टाइम्स में ब्रेक मिल गया था और मैं अखबार लेकर स्कूल जाता था।

इस वाकए ने बदल दी जिंदगी

पहले कार्टून में हिन्दी में संवाद कम होते थे। हिन्दी के पोलिटिकल कार्टून बनाते भी कम थे। मैं दिल्ली के एक कार्यक्रम मे शिरकत कर रहा था। इस दौरान एक व्यक्ति से मिलवाते हुए मिलवाने वाले ने मेरा परिचय देते हुए यह कहा कि ये पवन हैं और हिंदी में कार्टून बनाते हैं। उसपर उस व्यक्ति ने कहा कि कार्टून हिंदी में। हिंदी में तो बस चुटकुले होते हैं। कार्टून तो अंग्रेजी की चीज़ है। इस बात ने मेरे मन को अंदर तक झकझोर दिया। मैं वहां से लौटा तो मुझे रात भर नींद नहीं आई। मैंने संकल्प किया कि मैं हिन्दी में कार्टून को प्रसिद्धि दिलाकर ही रहूंगा और मैं इसी प्रण के साथ पटना लौट आया।

फुटपाथ पर बिताया पांच साल

पवन बताते हैं कि मैंने जो प्रण लिया था उसे पूरा करने के लिए पटना लौटा और घर में रहने की वजाए फुटपाथ पर रहने लगा। मैं फुटपाथ पर रिक्शा – ठेला वालों के साथ रहता। सुलभ -शौचालय में फ्रेश होता और शाम को कार्टून लेकर अखबार के दफ्तर। यह दिनचर्या पांच साल चला। इसके पीछे मकसद था कि हासिए पर रह रही आबादी किस तरह की भाषा बोलती है। उसकी सोच सियासत और राज-काज को लेकर कैसी है। उसके सपने क्या है। इन सब को देखने समझने का नजदीक से मौका मिला। मैंने इन्हें कार्टून में उतारना शुरू कर दिया। भाषा भी खरी हिन्दी की जगह बिहारी टोन को चुना जैसा की ये लोग बोलते हैं। पवन आगे कहते हैं कि पटना में बिहार के अलग-अलग हिस्सों से लोग मजदूरी करने रिक्शा चलाने आते हैं। ऐसे में अलग अलग जिलों भाषा शैली मुझे यहां से मिलती चली गई।

मिला आठ कालम का स्पेस,

मैंने अपने कार्टून में काफी नये प्रयोग किए। भाषा को लेकर और कैरेक्टर को लेकर भी। मेरी कोशिश यह रही कि एक आम बिहारी कैसे रोजमर्रा की चीजों को फील करता है उसे उसी ढंग से कार्टून के जरिए बता सकूं। दौर मंडल कमीशन था। मैंने बिहारी शैली में कार्टून सीरीज बनाए और एडिटर से बात की उन्होंने मेरे कार्टून को पहले पन्ने पर आठ कालम की जगह दी। यह प्रयोग पाठकों को खुब पसंद आया। इस कार्टून सीरीज से पाठकों की संख्या बढ़ने लगी। देखते -देखते यह डिमांडिंग हो गया। की लोग सिर्फ कार्टून पढ़ने के लिए अखबार पढ़ने लगे। यह अनूठा प्रयोग था। इससे पहले कहीं भी न तो कार्टून को आठ कालम की पट्टी का स्पेस मिला था न गवई अंदाज में कार्टून सीरीज बन रहे थे। यह सिलसिला लंबे वक्त तक चला और इसने मुझे और मेरे कार्टून को एक नई पहचान दी।

किस्सा लालू जी के कार्टून का

पवन बताते हैं कि कार्टून बनाने के लिए वे उस वक्त के मुख्यमंत्री और राजनेताओं से मिलते और उनके हाव- भाव और दिनचर्या का अध्ययन करते। इसी कड़ी में सत्येन्द्र नारायण सिंह, जगन्नाथ मिश्र, लालू प्रसाद यादव, देवीलाल, बीपी सिंह आदि से मुलाकात हुई। लालू प्रसाद जब मुख्यमंत्री बने तो उन पर इससे पहले कोई कार्टून नहीं बना था। फिर मैंने उन्हें अनुरोध किया कि मुझे कार्य के दौरान वहां बैठने की इजाजत दी जाए। लालू जी ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर लिया। मैं रोज मुख्यमंत्री आवास जाता और लालूजी के अंदाज को देखता और कार्टून बनाया। यह वह दौर था जब कार्टून या आलोचना को सकारात्मक रूप में लिया जाता था। मैंने लालू प्रसाद के उपर कई जोरदार सटायर किए। सबसे अच्छी बात तो यह थी कि पटना पुस्तक मेला जिसे आप उस जमाने का फेसबुक भी कह सकते हैं में मेरी कार्टून सीरीज का लोकार्पण लालू प्रसाद यादव आकर करते रहे जबकि इन कार्टूनों में उनपर भी तीखे राजनीतिक व्यंग हुआ करते थे।


जब कार्टून के कारण सीबीआई आ पहुंची

पवन एक दिलचस्प वाकया सुनाते हैं कि कैसे कार्टून की वजह से उनके पास सीबीआई आ गई थी। दरअसल हुआ यह था कि बिहार में सोना मिलने की बात सामने आई थी और तत्कालीन वित्त मंत्री शंकर प्रसाद टेकरीवाल ने बिहार में सीटों की खुदाई करवाने की बात कही थी।
कई जगह खनन के लिए चिन्हित किए जाने थे। ऐसे में मैंने एक कार्टून बनाया कि बिहार में अपहरणकर्ता मैप के साथ आर्कियोलॉजिस्ट का ही अपहरण कर लेते हैं। हुआ यह कि इस कार्टून के तर्ज पर ही कोलकाता में एक आर्कियोलॉजिस्ट का अपहरण हो गया। इधर सीबीआई को यह कार्टून मिल गया। सीबीआई की टीम पटना पहुंची और मुझसे पुछताछ करने लगी कि यह कार्टून बनाया कैसे। आइडिया कैसे आया कब आया आदि।



आज संकट में है कार्टून

आज कार्टून की विधा संकट में है। हमने कार्टून का मान भूला दिया हैं। आज हम आलोचनाओं को खुद के उपर प्रहार की तरह देखने लगे हैं।


टेक्सास विश्वविद्यालय पहुंचा पवन का कार्टून

पवन के स्थानीय बिहारी बोली में बनाए गए कार्टून की चर्चा सात समंदर पार तक जा पहुंची और टेक्सास विश्वविद्यालय से आए शोधकर्ताओं ने इस पर शोधकार्य किया। आज टेक्सास विश्वविद्यालय के सिलेबस में यह शामिल है


माता – पिता के आशीष ने दी ऊर्जा

पवन मुस्कुराते हुए बताते हैं कि मैं रहने वाला तो वैशाली के महुआ का हूं पर भोजपुर ने मुझे गोद ले लिया है।
पवन आगे कहते हैं कि पिताजी भूपेंद्र अबोध जीवन की प्रेरणा स्रोत रहे वह अपने जमाने के प्रकट पत्रकारों में शामिल थे। उन्होंने साहित्यिक पत्रिका अधिकार के साथ शुरुआत की थी बाद में अपराधिक कहानियां और पॉलिटिकल रिपोर्टिंग में भी जुड़े रहे। इस तेरे मन नागार्जुन रेनू मनोहर श्याम जोशी जैसे लेखकों का घर आना-जाना होता इन सब ने मन में एक नई प्रेरणा दी।


पंकज त्रिपाठी संग ऐसे जमती थी चौकड़ी

पवन की रुचि कार्टून के साथ-साथ नाटक और रंगमंच में भी रही है और शुरुआती दिनों में वे रंगकर्म से से भी जुड़े रहे ।पवन बताते हैं कि अभिनेता पंकज त्रिपाठी, गणितज्ञ आनंद , विद्या भूषण त्रिवेदी और उनकी जोड़ी खुब जमा करती थी। पटना का कालिदास रंगालय हमारा अड्डा हुआ करता था। हम सभी साइकिल के पीछे ढोलक बंद कर लाते और प्रैक्टिस करते हैं। तब हमने उसे कोई यह नहीं जानता था कि हमारा भविष्य क्या होना है। मित्र विद्या भूषण त्रिवेदी अब इस दुनिया में नहीं है। बाकी सभी ने अपनी एक पहचान बनाई है और यह कर्म जारी है।


पत्नी ने सुधारी हिंदी

पवन बताते हैं कि उनके जीवन यात्रा में उनकी पत्नी सिंह रश्मि का खास योगदान रहा है। पत्नी हिंदी साहित्य के क्षेत्र से आती हैं। पवन कहते हैं कि मेरी हिंदी सुधारने से लेकर हिंदी उच्चारण तक को ठीक करने में पत्नी के महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वह हर कठिन वक्त में मुझे हौसला देती रही है।

मूल्यों वाली शिक्षा जरूरी

पवन मूल्य परक शिक्षा के खत्म होने पर चिंता जताते हुए कहते हैं कि मूल्यों वाली शिक्षा सबसे जरूरी है। हम बाबा भारती, आरुणि, बुद्ध और अंगुलिमाल की कहानियां पढ़ते हुए बड़े हुए आज कि स्कूली सिलेबस से यह कहानी गुम हो गई है। आज नैतिक शिक्षा का स्पेस घटता जा रहा है। समाचार पत्रों से भी बच्चों के पन्ने गायब हैं। बच्चों की पत्रिकाओं का कल्चर खत्म हो चुका है। मोबाइल और टीवी कार्टून और वीडियो गेम बच्चों को हिंसा की ओर बढ़ा रहे हैं ऐसे में हमें बोलने वाली शिक्षा की ओर लौटने की जरूरत है।

आज मुस्कान पर संकट

आज लोगों ने कार्टून का नैरेटिव हीं चेंज कर दिया है। अब लोग कार्टून को व्यक्तिगत विरोध मानते हैं। सेंस ऑफ ह्यूमर को बदल दिया गया है। ऐसे में कार्टून या कार्टूनिस्ट अपना काम कैसे करेगा। आप अपनी आलोचनाओं को ऐसे नकारात्मक रूप में लेंगे तो स्वस्थ समाज के निर्माण कैसे होगा। आज के दौर में मुस्कान पर ही संकट है। आप खुलकर मुस्कुराते नहीं । आज रेडिमेड स्माइली का प्रचलन है। हमने आभासी मुस्कान गढ़ लिया है। हमें अपने नजरिए को बड़ा करने की जरूरत है और दिमाग से नहीं दिल से आजाद होने की जरूरत है।

सरकारी अभियानों के ब्रांड एंबेसडर

पवन की लोकप्रियता के कारण उन्हें कई सरकारी अभियानों में ब्रांड एंबेसडर बनाया गया है। अपने इस काम को बखूबी अंजाम भी देते हैं दिलवाले स्कूली बच्चों को स्वच्छ रहने और स्वच्छता का महत्व समझाने की पहल कर रहे हैं। इसके साथ ही वे कार्टून के जरिए बच्चों के टेक्स्टबुक की सामग्री को भी रोचक बनाने की कोशिश भी कर रहे हैं।
कार्टून की कला से क्रांति लाने की पवन टून की यात्रा गतिमान है। इससे जहां समाज को एक दिशा मिल रही है वहीं कार्टून और अन्य कला माध्यमों से दुनिया बदलने की चाह रखने वालों को एक आशा भी।

(यह आलेख प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट पवन टून से thebigpost.com के फीचर एडिटर विवेक चंद्र से बातचीत पर आधारित है)

Share Article:

सत्य की रक्षा के लिए नौकरी छोड़ी, अब वकील बन बिना फीस लड़ते हैं मानवाधिकार की लड़ाई

0

यह कहानी एक ऐसे इंसान की है जिसने सत्यमेव जयते की सार्थकता सिद्ध करने के लिए अपने सुनहरे वर्तमान और भविष्य की कुर्बानी दे दी। न सिर्फ कोटा के प्रतिष्ठित इंस्टीट्यूट की जमी -जमाई नौकरी छोड़ी, बल्कि पेशा हीं बदल दिया ‌‌। रिश्वतखोर भ्रष्ट पुलिस अधिकारी का सच उजागर करने का प्रण लिए वकालत की पढ़ाई की । वकील बने और लंबी कानून लड़ाई लड़ उस भ्रष्टाचारी को सलाखों के पीछे भिजवाया। अब समाज के लिए देश के करप्ट सिस्टम और भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ मानवाधिकार की जंग लड रहे हैं। यह कहानी सत्य के राह पर चलने वाले मानवाधिकार के कर्मठ और निर्भीक सेनानी सुबोध कुमार झा की।

जिंदगी में कभी कभी ऐसे टर्निंग प्वाइंट आते हैं जहां सब कुछ बदल जाता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

कोटा के एक बड़े कोचिंग संस्थान में मैं गणित का शिक्षक था। अच्छी पगार मिल रही थी। मन भी रम गया था। इसी वक्त गांव आना पड़ा और गांव में मेरी मोटरसाइकिल चोरी हो गई। फिर थाने जा रपट लिखाई। इंश्योरेंस क्लेम किया । इन सब के बाद थानेदार ने मोटी रिश्वत मांगी। मैंने जब रिश्वत देने से मना किया तो मुझे उल्टे धमकाने लगा। बस यही टर्निंग पॉइंट था मेरे जीवन का। इस घटना ने मेरी आत्मा को झकझोर दिया। मुझे लगा कि न जाने मेरे जैसे कितने लोग ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों के चुंगल में फंसते होने। मुझे इस अधिकारी को एक्सपोज़ करना चाहिए। फिर मैंने संकल्प कर लिया कि मैं इस भ्रष्ट पुलिस अधिकारी का असली चेहरा कानून के सामने लाऊंगा कहते हैं मानवाधिकार के वरिष्ठ अधिवक्ता सुबोध कुमार झा ।

लोग कहते थे पागल

वो आगे कहते हैं कि संकल्प करना तो आसान था पर इस संकल्प पर चलना उतना ही कठिन। धमकियां मिलती। कोई भी आदमी भय से इस पुलिस वाले के खिलाफ कुछ भी बोलना नहीं चाहता था। मैंने कोटा की नौकरी छोड़ दी और खुद के न्याय के लिए शुरू कर दी मुहिम। लोग मुझे पागल कहते। कई लोग यह समझाते कि कहां इन सब चक्करों में फंसे हो। रिश्वत ही तो मांग रहा था, दे देते। कोई कहता पुलिस वाले से क्यों पंगा मोल लिया! मैं सबकी सुनता पर किसी को कुछ कहता नहीं। मैं अपने प्रण को पूरा करने में जुटा रहता है। मैंने धीरे-धीरे उस पुलिस वाले के खिलाफ सबूत और कागजात इकट्ठे किए। कोर्ट में केस फाइल किया और खुद ही उस केस की वकालत भी की। इसी बीच मानवाधिकार के लिए जन- जन के बीच जा कर जागरूकता कार्यक्रम भी चलाता रहता।
इन सब में बहुत वक्त निकल गया। मेरी माली हालत भी खराब हो गई। खाली जेब के साथ हौसलों के दम पर मैं इस मुहिम को बढ़ाता रहा।

ईश्वर के घर अंधेर नहीं

कभी मन में निराशा का भाव भी आता पर कुछ ही देर में वह आशा में बदल जाता। कहते हैं न कि भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं फिर वो दिन भी आया जब कोर्ट का फैसला मेरे हक़ में आया। वह रिश्वतखोर पुलिस अधिकारी सलाखों के पीछे जा चुका था। मैंने पहला प्रण तो पूरा कर लिया पर इसके साथ ही मुझे लोगों के लिए भी कुछ करना था। मैं मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर कार्य कर लोगों के लिए आवाज उठाने लगा। फिर शुभचिंतकों की सलाह पर मानवाधिकार के लिए एक वकील के रूप में वकालत भी शुरू कर दी।

नहीं लेते फीस

एस के झा बताते हैं कि मानवाधिकार के मामलों में राय देने की मैं कोई फीस नहीं लेता। जरूरत पड़ती है तो खुद के पैसे से मदद भी कर देता हूं। कई वैसे लोग भी होते हैं जिन्हें गलत मामलों में फंसा दिया जाता है और उनका बेलर भी कोई नहीं मिल पाता बेल के लिए भी पैसे नहीं होते ऐसे लोगों को मैं मुफ्त कानूनी मदद करता हूं और जरूरत पड़ने पर इन्हें जहां तक संभव हो सके आर्थिक मदद भी करने की कोशिश करता हूं।मानवाधिकार अधिवक्ता एस. के. झा के द्वारा अबतक 14 वर्षों में लगभग 7000 से अधिक मामलों को राष्ट्रीय एवं राज्य मानवाधिकार आयोग में भेजा जा चुका है, जिसमें कई मामलों में महत्वपूर्ण निर्णय भी हुए हैं।

एस.के.झा बताते हैं कि मेरी कोशिश के बाद साल 2018 से जेल में सजा काट रहे अमेरिकी नागरिक क्विंग डेविड दुह्यन को जेल से रिहाई करवाकर अमेरिका भेजा गया। इस कार्य में 50 हजार रूपये से अधिक की राशि भी मुझे खुद से लगानी पड़ी। जब वह रिहा हुआ तो मुझे दुआ दी यही मेरी असली कमाई है। मैं चाहता हूं कि किसी बेगुनाह को गुनाहगार न बनाया जाए। अगर उसे फंसाया गया है तो उसे तुरंत न्याय मिले।


यहां भी हुई जीत

वे आगे बताते हैं कि बिहार के मुजफ्फरपुर में उन दिनों चमकी बुखार ने अपना कहर बरपाया हुआ था। रोज बच्चे गाल का ग्रास बन रहे थे । मुजफ्फरपुर सहित बिहार के कई जिलों में चमकी बुखार से मरने वाले बच्चों का मृत्यु प्रमाण-पत्र समय से नहीं बन पाता था, जिस कारण सरकार द्वारा मिलने वाली मुआवजे की राशि से उनके परिवार वालों को वंचित होना पड़ता था। इसके लिए मेरे द्वारा मानवाधिकार आयोग के समक्ष याचिका दाखिल की गयी। यह सुनवाई तीन वर्षों तक चली। उसके बाद बिहार मानवाधिकार आयोग के आदेशानुसार पूरे बिहार के मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल तथा सभी सदर अस्पतालों को आदेश दिया गया कि चमकी बुखार से मरने वाले मरीजों का तत्काल मृत्यु प्रमाण-पत्र बनाया जाये, साथ-ही-साथ चमकी बुखार को जड़ से ख़त्म करने की दिशा में हो रहे अनुसन्धान को और तीव्र किया जाये। यह एक बड़ा फैसला था। इसके बाद चमकी बुखार को खत्म करने की दिशा में काफी प्रयास हुए।


विदेशी बंदियों की वतन वापसी

सुबोध कुमार झा यह भी कहते हैं कि मेरी कोशिशों से अबतक देश के विभिन्न जेलों में बंद कुल 18 विदेशी नागरिकों की वतन वापसी कराई जा चुकी है, जिसमें अमेरिका, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, ब्रिटेन, नाइजीरिया, उज्बेकिस्तान एवं रूस जैसे देशों के नागरिक शामिल है।

एस के झा एक वाकया बताते हैं कि बांग्लादेशी महिला जो कि मानव तस्करी का शिकार हो गयी थी और विदेशी अधिनियम में बिहारशरीफ जेल में बंद थी। हमारी पहली से उसे जेल से बाहर निकला गया, जो वर्तमान में बिहार प्रशासनिक सुधारात्मक संस्थान, हाजीपुर में रह रही है। इसके वतन वापसी के लिए मैंने बांग्लादेश की सरकार एवं बांग्लादेश के राजदूत से लगातार संपर्क बनाया है। उम्मीद है कि बहुत ही जल्द बांग्लादेशी महिला रिया आफरीन रूपा की वतन वापसी हो जाएगी।

हथकड़ी लगाने हेतु अनुमति लेना आवश्यक

अधिवक्ता एस. के. झा ने पुलिस के द्वारा अभियुक्तों को हथकड़ी लगा दिए जाने के मामले को लेकर लम्बी लड़ाई लड़ी, जिसपर बिहार मानवाधिकार आयोग ने बिहार पुलिस को निर्देश दिया कि किसी भी अभियुक्त को बिना किसी युक्तियुक्त कारण को स्पष्ट किये हुए हथकड़ी नहीं लगाना है, तथा सम्बंधित न्यायालय से हथकड़ी लगाने हेतु अनुमति लेना आवश्यक है।

ट्रांसजेंडरों के मानवाधिकार के लिए पहल

ट्रांसजेंडरों के मानवाधिकार के लिए भी इन्होंने पहल की , इसके बाद अधिवक्ता एस. के. झा के ही प्रयास से पुरे देश में ट्रांसजेंडरों की समस्याओं के निवारण के लिए जिला स्तर पर एक ए.डी.एम. रैंक के पदाधिकारी को नियुक्त किया गया है। एस के झा के प्रयासों का नतीजा है कि विदेशी बंदी सजा अवधि पूर्ण होने के पश्चात जो किसी कारणवश अपनी वतन वापसी नहीं कर पाते हैं, उनके लिए पूरे बिहार प्रदेश में संशीमन केंद्र की स्थापना की जा रही हैं। इसके लिए मानवाधिकार अधिवक्ता एस. के. झा ने बिहार मानवाधिकार आयोग में तीन वर्षों तक मुकदमा लडाई लड़ी है।

यह भी रही महत्वपूर्ण जीत

मानवाधिकार अधिवक्ता एस. के. झा के द्वारा सदर अस्पताल मुजफ्फरपुर में एंटीजेन किट कालाबाजारी का मामला, एस. के. एम. सी. एच. में नरमुंड का मामला, मुजफ्फरपुर आई हॉस्पिटल का मामला,, सुनीता किडनी कांड का मामला एवं नंदना गैस कांड का मामला को काफी प्रमुखता से मानवाधिकार आयोग में उठाया गया, जिसमें उन्हें सफलता भी मिली।
एस के झा उपभोक्ताओं के अधिकार के को लेकर भी अलख जगा रहे हैं। उपभोक्ता आयोग में अधिवक्ता एस. के. झा 500 से अधिक मामलों में निःशुल्क पैरवी कर रहे हैं, जिसमें 300 से अधिक मामलों का निपटारा भी हो चुका है।

परिवार ने दिया साथ

एस के झा कहते हैं कि सामाजिक व्यस्तता बाद भी मेरी कोशिश रहती है कि परिवार को ठीक से समय दे पाऊं ।जब भी मुझे समय मिलता है बच्चों के साथ वक्त बिताना पसंद करता हूं। मेरे माता-पिता ने भी संघर्ष के दौरान मुझे खुब हिम्मत दी है।

पत्नी का हर कदम पर बड़ा सहयोग

एस के झा बताते हैं कि जीवन के हर बुरे दौर में पत्नी ने मुझे हमेशा हिम्मत दिया है। आर्थिक परेशानी के दौर में भी वह मेरा हौसला कभी कम नहीं होने देती। उनकी कोशिशों से ही मेरा यह अभियान लगातार सुचारू रूप से चल पा रहा है।

चंपारण की माटी से मिलती है ऊर्जा

एस के झा का जन्म पूर्वी चंपारण के देवापुर नामक गांव में हुआ था। मैट्रिक तक की पढ़ाई गांव में ही हुई इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए मुजफ्फरपुर के आरडीएस कालेज में दाखिला लिया। एस के झा कहते हैं कि मैं यह मानता हूं कि मेरी इस जुझारू प्रवृत्ति के पीछे चंपारण की पावन माटी का योगदान है। यह वही माटी है जिसने मोहनदास गांधी को बापू बना दिया। मुझे चंपारण के इतिहास से उर्जा मिलती है।

कर दिया है शरीर दान

एस के झा ने अपना शरीर दान किया है। वो मानते हुए कि मृत्यु के बाद भी शरीर किसी कार्य में आ जाए यही सबसे बड़ा धर्म है। इस कारण उन्होंने शरीर दान करने की पहल की है।

सपना एक फोरम बनाने का

सुबोध कुमार झा कहते हैं कि आज भी हजारों वैसे लोग हैं जिन्हें मामूली या फिर झूठे आरोपों में फंसा दिया गया है और उनके पास आगे मुकदमा लड़ने के पैसे नहीं हैं अपनों ने भी किनारा कर लिया है। वो जेल की सलाखों के पीछे सालों से कैद हैं। मैं ऐसे लोगों के लिए देश व्यापी वकीलों का एक समूह बनाना चाहता हूं । इस समूह से जुड़े लोग इन की पैरवी निशुल्क करें । फिलहाल पावन संकल्प की इस यात्रा को सुबोध कुमार झा आगे बढ़ाने और झूठे मुकदमे में फंसाए गए लोगों की आवाज बन उन्हें न्याय दिलाने की अपनी यात्रा पर अनवरत गतिमान हैं।

Share Article: