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कौन हैं नैंसी त्यागी जिन्होंने कान फिल्म महोत्सव में महफिल लूट ली ?

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‘सिनेमा का मक्का’ कान फिल्म फेस्टिवल. जहां हर टूट पूंजिया कलाकार भी जिंदगी में कम से कम एक बार जरूर जाना चाहता है. जरा सोचिए कि आर्थिक तंगी के कारण जिनकी मां कोयले की धूल से सनी रोज घर आती थी. जो मनचाही पढ़ाई नहीं कर सकी. वो नैंसी त्यागी ने ‘कान’ में जाकर अपना जलवा बिखेरकर प्रसिद्धि हासिल की.

‘मुझे घर के हालात बदलने हैं’

यह कहानी है उत्तर प्रदेश के बरनावा गांव की रहने वाली 23 वर्षीय नैंसी त्यागी की. घऱ की  हालत ठीक नहीं थी. मां कोयला खदान में काम करती थी. रोज कोयले की धूल से सनी घर आती. उसी कमाई से घर चलता. वह अपनी मां और परिवार को इस हाल से उबारना चाहती थी.

आर्थिक तंगी के कारण छूटी पढ़ाई

मां को समझाया तो कुछ पैसे जुटाकर उसे पढ़ने के लिए दिल्ली भेजा गया. साल था 2020 का. कोरोना वायरस का प्रकोप चरम पर था. घर में और भी जरूरतें थीं. सिविल सेवा की तैयारी का मकसद लेकिन वित्तीय तंगी के कारण कुछ दिनों में नैंसी के परिवार का हौसला टूट गया.

नैंसी कहती हैं, “हमारे पास कोचिंग की फीस के साथ-साथ घर के खर्चे के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे. लॉकडाउन के दौरान मेरी मां की नौकरी चली गई. हमने सोचा कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद कोचिंग शुरू होने तक हमारे पास पर्याप्त पैसे नहीं बचेंगे. इसलिए हमने एक कैमरा खरीदा और  हैंडमेड खूबसूरत कपड़े बनाने का वीडियो सूट करना शुरू कर दिया’’

कान फिल्म महोत्सव से मिला न्यौता

नैंसी के पिता अपने गांव में परिवहन का कारोबार करते हैं. उन्होंने भी अपनी बेटी की मदद की. चार साल बाद नैंसी की यह कड़ी मेहनत रंग लाई और वह कान पहुंच पाईं. उन्हें फिल्म महोत्सव में एक ‘फैशन इंफ्लुएंसर’ के रूप में आमंत्रित किया गया था और वह शुरूआत में थोड़ी डरी हुई थीं.

ऐसा रहा कान का अहसास

पीटीआई-भाषा को दिये एक इंटरव्यू में नैंसी कहती हैं, शुरू में मैं काफी डरी हुई थी, लेकिन मेरी टीम ने मुझे राजी कर लिया और मैं वहां गई. ऐसा लग रहा है कि यह मेरे जीवन का सबसे सही फैसला था. कार से नीचे उतरने तक मैं डरी हुई थी लेकिन जैसे ही उतरी मुझे बिल्कुल ही अलग ही अहसास हुआ.’’

नैंसी ने जताया आभार

हाल में संपन्न हुए कान फिल्म महोत्सव में भागीदारी करने वाली युवा डिजाइनर ने कहा, ‘‘मैंने तस्वीरें खिंचवाईं. वे वायरल हो गईं और लोगों को ये पसंद आईं. मैं उनकी बहुत आभारी हूं. मैं कान पहुंची इंफ्लुएंसर में एक थी. मैं खुश हूं कि हमारा देश प्रगति कर रहा है.’’

सोनम कपूर के लिए तैयार करना चाहती हैं परिधान

नैंसी अब फिल्म अभिनेत्री सोनम कपूर के लिए परिधान तैयार करना चाहती हैं. कपूर फैशन के प्रति अपनी विशेष रूचि के लिए जानी जाती हैं और उन्होंने कान में पहने गए त्यागी के परिधान की प्रशंसा की है तथा इंस्टाग्राम पर उसे साझा भी किया. अब नैंसी किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं.

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कहानी उस गांव की.. जहां 32 साल बाद कोई दलित दूल्हा घोड़ी चढ़ा

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दूल्हों का घोड़ी पर चढ़कर बारात जाना आम रिवाज है. लेकिन अभी भी देश के कई गांवों में यह रिवाज समाज के अगड़े वर्गों तक सीमित है, क्योंकि वहां दलितों को अब भी घोड़ी पर चढ़ने की इजाजत नहीं है. वजह सिर्फ इतना ही वे दलित हैं.

दलित दूल्हों पर होते थे हमले

अनेकों घटनाएं हैं, जब दलित दूल्हे ने घोड़ी पर बैठकर बारात जाने की जहमत उठाई तो उनपर हमले हुए. हत्या तक कर दी गई. द बिग पोस्ट इसे समझाने के लिए आपको ले जा रहा है राजस्थान. जहां के हालात और आंकड़ों से इसे बखूबी समझा जा सकता है.

नाम मनोज बैरवा. उम्र 24 साल. शादी तय हो चुकी है. अब तक गांव में कोई भी घोड़ी से दूल्हा बनकर बारात नहीं गया है. मनोज ऐसा करने वाले पहले शख्स बनना चाहते हैं.

नीम का खेड़ा गांव में ऊंची जातियों का दबदबा रहा है. इन्होंने अतीत में दलित दूल्हों पर खतरनाक हमले किए हैं. पहले दूल्हे का परिवार काफी डरा हुआ था. उन्होंने कहा, कि अगर पुलिस कहती है तो हम नहीं करेंगे. लेकिन अगर पूरा गांव कहता है तभी हम ऐसा करने (घोड़ी से दूल्हा का बारात जाने) को तैयार हैं.जय यादव, एसपी, बुंदी जिला

ऐसे मामलों के सामने आने के बाद बूंदी जिले की पुलिस गांवों में बैठकें करवा रही हैं, जिससे कि समाज की पुरानी सोच बदली जा सके.

इसी डर से बिगड़ी थी बुआ की शादी

बैरवा के लिए यह मुद्दा काफी संवेदनशील है. क्योंकि करीब 30 साल पहले इनकी बुआ की शादी इसी वजह से बिगड़ गई थी. उनकी बुआ कन्या बाई कहती हैं कि जब उनकी शादी हो रही थी. और उनका होने वाला दूल्हा घोड़ी पर बैठकर आया था तो उनके साथ मारपीट की गई थी. और उनका सेहरा भी गिरा दिया था. वो शादी तो करके चले गए लेकिन मुझे नहीं ले गए.

मंदिर के सामने से गुजरने की मनाहट

गांव के अगड़ी जातियों का दबदबा इस कदर है कि वे गांव के मंदिर के सामने से भी दलितों के बारात गुजरने देने से मना करते हैं. करीब 32 साल बीत चुके हैं जब कोई दलित दूल्हा घोड़ी बैठा होगा. किसी की हिम्मत ही नहीं होती. लोग भूल चुके हैं, कि ऐसा वे भी कर सकते हैं.

महिलाओं और बुजुर्गों में हमेशा डर

मनोज बैरवा की घोड़ी चढ़ने की इच्छा हुई तो प्रशासन भी सामने आया. शादी का दिन भी आ गया. हलवाई मिठाइयां और पकवान बना रहे हैं. मनोज को उबटन लग रहा है. घर में चहल पहल है. वहीं महिलाओं और बुजुर्गों में एक डर है कि कहीं उन्हें फिर से पीड़ा न झेलना पड़े. प्रताड़ना का. नीच दिखाए जाने का. किसी तरह के तनाव हो जाने का.

डर भी दूर हो रहा.. अधिकार भी मिल रहा

मनोज घर की महिलाओं को समझाते हैं. डरना नहीं है. कोई दिक्कत नहीं है. वह कहते हैं, हमारा अधिकार है ये हम तो इसे लेंगे ही. आखिरकर बैरवा घोड़ी चढ़ते हैं और बिना किसी रुकावट के बारात निकलती है. घोड़ी पर चढ़कर वह न सिर्फ बारात गए, बल्कि गांव के उन इलाकों में भी घूमे जहां उन्होंने पहले कभी कदम भी नहीं रखा था. बारात जाते हुए बैरवा कहते हैं जो हमारी बुआ न कर सकी, उसे हमने कर दिखाया है.

अब गांव में माहौल ठीक है

गांव के लोग मानते हैं कि अब गांव में माहौल ठीक हो रहा है खासकर दलितों की शादियों को लेकर. अब चीजें बदल रही हैं. बहुत बदल गई हैं. अब इस तरह की कोई बाधा नहीं है. यह सब हो पाया है शासन द्वारा लागू किए गए सख्त कानून, पुलिस की मुस्तैदी और प्रशासन की जन जागरुकता के कारण. न जाने कितनी बैठकें हुईं. कितने समझौते हुए तब जाकर यह मुहिम अब रंग ला रहा है.

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ठेले पर समोसा बेचने वाले ने क्रैक की NEET यूजी परीक्षा, अच्छा डॉक्टर बनकर सेवा करना चाहता है सन्नी

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कहते हैं कि जहां चाह वहां राह. वो समोसे का ठेला लगाता था. वो स्कूल भी जाता था. रेहड़ी पर घंटों तक काम करता. कुछ कमाई हो जाती तो घर लौटता. तब तक रात के 10-11 बज चुके होते थे. पर उसे कुछ बड़ा करने की चाहत थी. वो रात-रात भर पढ़ाई करता. और फिर वो हुआ, जिसका सबको उम्मीद थी. शानदार सफलता.

720 में से हासिल किए 664 अंक

यह कहानी है उत्तर प्रदेश के नोएडा में समोसे की रेहड़ी चलाने वाले सन्नी कुमार की. 18 साल के सन्नी ने नीट यूजी परीक्षा दी थी जिसमें उसने 720 में से 664 अंक प्राप्त किए हैं. अब सन्नी की कहानी तेजी से सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है. वह उन तमाम छात्रों के लिए प्रेरणा बन गए हैं, जिन्हें सुविधाओं के अभाव में प्रतिभा का दम घोंटना पड़ता है.

“पापा हैं लेकिन उनका सपोर्ट नहीं है. लेकिन घर में मम्मी हैं, उनका पूरा सपोर्ट है. मैं मम्मी से कहता था, कि मम्मी मुझे कैसे भी करके पढ़ा दो. कंधे पर हाथ रख दो. मुझे पढ़ना है. मुझे कुछ बनना है.”- सन्नी कुमार, नीट क्वालिफाईड

कोर्स खरीदने तक के पैसे न थे

सन्नी की आर्थिक हालत ऐसी थी कि उसके पास न तो कोचिंग पढ़ने के पैसे थे और न ही ऑनलाइन सब्सक्रिप्शन खरीदने के. वह कहता है कि उसके एक दोस्त ने लैपटॉप और मोबाइल दोनों में लेक्चर चलने वाला सब्सक्रिप्शन खरीदा था. लैपटॉप से वह खुद पढ़ता था और मोबाइल से सन्नी. ऑनलाइन टीचिंग एप फिजिक्स वाल्लाह के लेक्चर और यूट्यूब पर उपलब्ध चंद वीडियो के दम पर सन्नी ने यह सफलता हासिल की.

जो मिला वो किस्मत नहीं, मेहनत है

सन्नी को जो मिला है वो किस्मत नहीं है. वो सन्नी की अथक मेहनत है. रातों को रात न समझने का परिणाम है. दीवारों पर चिपके नोट्स मेहनत का स्तर परिभाषित कर रहे हैं. ये महज नोट्स नहीं हैं, कह लीजिए सफलता का वो सूत्र है जिसे बड़े-बड़े कोचिंग संस्थान मोटी-मोटी तनख्वाह वसूलकर भी नहीं दे पाते हैं.

फिजिक्स वाल्लाह ने की मदद

सन्नी कहते हैं कि जब वो रात-रात भर जगकर पढ़ाई करते थे, तो आंखों में दर्द हो जाता है. दवाई लेने के बाद दर्द जब ठीक हो जाता था, तो फिर से पढ़ाई शुरू हो जाती. सन्नी की इस सफलता के बाद फिजिक्स वाल्लाह के अलख पांडे ने भी सन्नी से बात की. साथ ही उनकी तरफ से सन्नी को 6 लाख रुपए देने की बात कही गई है.

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‘स्कूटर स्कूल’ से झुग्गियों में ज्ञान की रोशनी लुटा रहे विजय अय्यर

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प्यासा कुआं के पास जाता है. अज्ञानी ज्ञानवान के पास. इसी तरह मरीजों का अस्पताल औऱ बच्चों का स्कूल जाना सामान्य बात है. लेकिन मध्य प्रदेश के भोपाल में स्कूल खुद ही चलकर बच्चों के पास जाता है. बच्चों को ललचाने, लुभाने, रोशनी लुटाने.

विजय चलाते हैं ‘स्कूटर स्कूल’

पेशे से मैकेनिक और समाज सेवा में लीन विजय अय्यर भोपाल के झुग्गियों में अपने ‘स्कूटर स्कूल’ के सहारे रोशनी लुटा रहे हैं. विजय का स्कूटर ही चलता फिरता स्कूल है. मोटरसाइकिल के पीछे लगेज स्पेस बना हुआ है, जिसमें बच्चों को लुभाने, फुसलाने, खिलाने और पढ़ाने के सामान होते हैं.

 

आम तौर पर जिन झुग्गियों को लोग नाक पर रूमाल बांधकर पार कर जाते हैं, वहां के बच्चों को स्कूल की राह दिखाना आसान नहीं है. लेकिन विजय इसे बखूबी निभा रहे हैं अपने स्कूटर स्कूल के सहारे.

विजय कहते हैं,

“स्लम बस्ती के बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं. इन क्षेत्रों में माइग्रेंट वर्कर भी रहते हैं, जहां जाकर बच्चों को प्रेरित करते हैं. उन बच्चों को लुभाने की चीजें और खाने-पीने का सामान देकर पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता है.”

“मेरे स्कूटर का कॉन्सेप्ट बस यही है कि आजकल बच्चों को कुछ नया और यूनिक चाहिए होता है. स्लम बस्ती के बच्चों की मानसिकता और दूसरे बच्चों से अलग होती है. स्लम एरिया में घनी आबादी होती है, जिसके चलते बड़ी गाड़ी नहीं जा पाती है. इसके लिए हमने स्कूटर डिजाइन किया है. बच्चों के लिए मूलभूत सुविधाएं, स्टेशनरी, कपड़े, जूते आदि सामानों की व्यवस्था करते हैं.” विजय अय्यर, समाजसेवी

मोटरसाइकिल जो चारों तरफ से पोस्टरों से ढका है. जिसमें ढेर सारे खिलौने, चॉकलेट, किताबें और अन्य सामान पड़े रहते हैं. छोटा वाला लाउडस्पीकर भी. अलख शिक्षा का जगाएं गाना बजे तो बच्चे खिलखिला उठें. माटसाब जैसे ही उनके ही बीच जाएं तो अभिवादन. वाह! विजय जी इस शानदार आगाज के लिए. आप जहां भी रहिए रोशनी लुटाते रहिए.

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विज्ञापन जिसने सोशल मीडिया पर माहौल लूट लिया, इमोशनल कर देती है कहानी

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चीखने-चिल्लाने, एनिमेटेड ग्राफिक्स, फूहड़ विज्ञापनों के इस दौर में आज भी कई ऐसे विज्ञापन बनते हैं जो दिल को छू जाते हैं. बिस्किट कंपनी पारले-जी ने एक ऐसा ही विज्ञापन बनाया है, जिसकी चर्चा हर तरफ है.

विज्ञापन में शिक्षक और उनके स्टूडेंट्स के बीच अटूट प्रेम के साथ पर्यावरण प्रेम को दिखाया गया है. वो प्रेम जिसे सालों पहले पौधा के रूप में संजोया गया था. सालों बाद जब वो दरखत बना तो उसके साये में खुद को पाकर इंसान खुद को कितना आनंदित होगा.

चंद किरदारों ने कहानी जीवंत कर दी

चित्रण यूं है कि, स्कूल का कैंपस. घंटी बजती है. कोरिडोर से महिला हेडमास्टर निकलती हैं. जैसे ही गेट पर आती हैं लड़कियों की एक टोली उनका अभिवादन करती हैं. हेडमास्टर भी अभिवादन करती हैं. वार्तालाप के बीच में शिवानी शिक्षिका को पारले-जी बिस्किट ऑफर करती है. शिक्षिका भी बेझिझक पैकेट में से एक बिस्किट उठा लेती हैं. शिवानी स्पोर्ट में काफी रूचि रखने वाली है. टेनिस खेलती है. मैडम शिवानी से प्रैक्टिस के बारे में पूछती हैं. फिर गार्डन में पेड़ों की तरफ निकल जाती हैं.

शिक्षक, संशय और सवाल

शिवानी के अंदर मैडम को लेकर एक सवाल है, जिसे शायद वो कभी पूछ नहीं पा रही थी. आज अच्छा मौका है. वह अनुमति के साथ वह पूछती है. “मैम.. स्कूल कैंपस के सारे पौधों को वैसे तो माली अंकल देखरेख करते हैं, लेकिन यहां के पेड़ों को आप खुद. ऐसा क्यों?

ये पेड़ नहीं हैं.. यादें हैं 85 बैच के

मैडम हंसती हैं. यह देख रही हो? मैडम शिवानी से पूछती हैं. शिवानी झट से दो पेड़ों का नाम चीकू और चंपा बताती है. शिवानी सही थी. लेकिन मैडम के लिए ये पेड़ चीकू और चंपा के नहीं थे. ये थे मंजू, आनंदकर्वा, क्वेश्चन मास्टर राहुल जोशी, स्पोर्ट्स जीनियस रीमा शाह और बैक बेंचर्स और रॉकेट लॉन्चर्स. मुस्कुराते हुए मैडम वहां से चली जाती हैं.

इतना जानने के बाद शिवानी सवालों से खाली नहीं, बल्कि और भर चुकी थी. तुरंत वहां से गुजर रहे स्कूल के स्टाफ से पूछी, काका इन पेड़ों का 1985 के बैच से क्या संबंध है?

फेयवेल खास बनाने का अच्छा आइडिया

उन्होंने कहा, कि जब 1985 का बैच स्कूल से विदा ले रहा था, तब सब ने अपने अपने नाम का पौधा मैम को गिफ्ट किया. क्लास तो आगे निकल गई लेकिन मैम अब भी 1985 बैच के साथ ही हैं. जाते-जाते काका ने कहा, कि अगले सप्ताह ही मैम रिटायर होने वाली हैं.

मैम पेड़ों को छूती हैं. पुरानी यादों में खो जाती हैं. इधर शिवानी एक और पारले-जी बिस्किट चट करती हुई मैम को देखती रहती है.

गाना चलता है,

“किताबों के पन्ने पलटे बहुत हैं.”
कहानी अभी भी जहां थी वहीं है”

मैम के फेयरवेल का दिन आता है. सभी गुलदस्ता मैम को भेंट करते हैं. बच्चों से मिलते हुए मैम काफी भावुक हैं. सबसे मिलने के बाद वह फिर से उसी 1985 बैच वाले बागान की तरफ जाती हैं, तभी एक शख्स आकर मैम का अभिवादन करता है. मैम उसे देखती हैं पर पहचान नहीं पाती हैं.

तभी पीछे से शिवानी कहती है, कैसे पहचानेंगी मैम आपके पौधे अब पेड़ जो बन गए हैं. इधर उस शख्स ने अपना परिचय जैसे ही आनंदकर्वा के रूप में दिया तो मैम ने झट से रौल नंबर 28 दोहराया. इसके बाद एक एक कर सभी पेड़ों के पीछे से निकलकर मैम के 1985 बैच के सभी स्टूडेंट्स ने अपना परिचय देना शुरू करते हैं तो मैम भाव-विभोर हो जाती हैं.

गाने की अगली पंक्ति बजती है,

“ढूंढे जिसे वो किरदार सारे
आ ही गए वो कहानी निभाने
हर एक पन्ना हर एक किस्सा जरूरी
मिल जाए सारे तो कहानी है पूरी.”

और इस तरह मैम को फेयरवेल गिफ्ट के तौर पर बैच ऑफ 85 मिलता है बैच ऑफ 25 की तरफ से.

जो औरों की खुशी में पाए अपनी खुशी. पारले-जी. के साथ विज्ञापन खत्म होता है.

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दिल्ली के इंडिया गेट पर दिखेंगे Charlie Chaplin, इनकी कहानी से मिलेगी जीने की राह

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टीवी पर (Charlie Chaplin) चार्ली चैपलिन को तो हम सबने देखा है. चार्ली का अनोखा ढंग, मजाकिया अंदाज को देखकर खूब लोटपोट हुए हैं. लेकिन कभी दिल्ली के इंडिया गेट पर आपको चार्ली चैपलिन नजर आ जाएं, तो चौंकिएगा मत. क्योंकि ये वाला Charlie टीवी वाला तो नहीं, लेकिन हां उन्हीं के गेटअप में जरूर रहता है. तो आइये इस Charlie Chaplin को जानते हैं.

उम्र 60 के पार हो चली है. कद काफी छोटा पर दिल और हौसला बड़ा है. चार्ली चैपलिन के गेटअप में लोगों को गुदगुदाते, उनके चेहरों पर मुस्कान लाते ये हैं मोनू. दिल्ली घूमने आने वाले लोगों को इंडिया गेट पर हैपीनेस का बूस्टर डोज लगाकर भेजने वाले मोनू का जीवन कठिनाइयों से भरा रहा है.

दिल्ली की सड़कों पर दो साल भटकते रहे

मोनू मूल रूप से नागपुर के रहने वाले हैं, लेकिन सालों पहले नौकरी की तलाश में दिल्ली आए थे. लेकिन छोटा कद होने के कारण इन्हें हर जगह प्रताड़ना और भेदभाव का सामना करना पड़ा. इस तरह से उन्होंने दो साल दिल्ली की सड़कों पर गुजार दिया. मांग कर अपनी जरूरतों को पूरा करते. उन्हें नहीं पता था कि जिंदगी किस दिशा ले जाएगी.

ये है Charlie Chaplin बनने की कहानी

तभी सड़कों पर जिंदगी काटते मोनू पर एक परिवार की नजर पड़ी. लिपि नाम की महिला ने अपने परिवार में मोनू को शामिल कर लिया. अब वे मोनू को मामू बुलाने लगे. दो साल तक जो मोनू इधर उधर भटक रहे थे, अब उनके पास एक परिवार था. यहां से शुरू होती है मोनू के Charlie Chaplin बनने की कहानी.

लिपि कहती हैं, “हमने टीवी में देखा था चार्ली चैपलिन को. हमने सोचा का मामू (मोनू) को भी ऐसा बनाएं और कुछ पैसा कमाएं. हमने मामा को जब ऐसा बनाया 2016-17 में, तो पब्लिक उसे खूब पसंद करने लगी.”

मोनू पिछले कई सालों से इंडिया गेट के पास रोज करीब 8 घंटे चार्ली चैपलिन का रोल परफॉर्म करते हैं. तस्वीर खिंचवाने के लिए छोटी फीस लेते हैं, जिससे उनके परिवार का भरण पोषण हो सके.

मोनू, (Charlie Chaplin के किरदार में)

मैं जो दिन में काम करता हूं. तस्वीर जो लेता है उससे पैसे लेता हूं. खाली समय में पानी भी बेचता हूं. यही मेरा काम है.

मोनू को नई जिंदगी देने वाली लिपि उनके बारे में कहती हैं, ‘मेरी एक बेटी की अभी शादी हुई है. उसको भी इन्होंने मदद किया है पैसों से, ऐसी बात नहीं है. और अब मेरे बच्चों की पढ़ाई लिखाई सब यही करते हैं.’

जिसने नई जिंदगी दी और जीने का मकसद दिया, वह परिवार अब मोनू का अपना परिवार है. लोगों को गुदगुदाकर, उनके चेहरे पर मुस्कान लाकर वे काफी खुश हैं. मोनू जीवन भर चार्ली के रोल में ही रहना चाहते हैं.

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दिहाड़ी मजदूरी की..ठेले पर फल बेचा..फिर क्या हुआ जो एक शख्स इंसान से बन गया लंगूर

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इंसान से लंगूर बने ये हैं गुजरात के भावनगर के रहने वाले जैकी वाधवानी. लंगूर जैसी वेशभूषा. बंदर जैसी चिचियाने की आवाज. ठीक वैसी ही हरकत जैसे बंदरों की होती है. क्षणभर में कहीं भी उछलकर बैठ जाना. अचानक नजर पड़ जाए तो हड़कंप मच जाए. द बिग पोस्ट में आज कहानी उस मजबूरी की, जिसके बाद न सिर्फ जैकी के परिवार का चूल्हा सीधा हुआ, बल्कि आज उन्हें पूरा देश जानता है.

हमने कई मंकीमैन देखे हैं. मैन माने सनीमा भी. और मंकीमैन पर सनीमा भी बना है. लेकिन ये वाला मंकी मैन अलग है. ये वेशभूषा मजबूरी में अपनाई गई. कहानी कुछ ऐसी है कि जैकी वाधवानी 14 साल पहले जीवन यापन के लिए दिहाड़ी मजदूरी किया करते थे.

अतरंगी मिजाज के पहले भी दीवाने थे लोग

इतनी भी कमाई नहीं हो पाती थी कि घर परिवार चल सके. फिर उन्होंने ठेला लगाकर फल बेचना शुरू किया. कमाई से बामुश्किल दैनिक जरूरतें पूरी हो पाती थीं. कमाई माने रोज के ढाई सौ भी ठीक से नहीं. जैकी की कमाई ठीक भले ही नहीं हो पा रही थी, लेकिन उनके अतरंगी मिजाज के कारण लोग उनसे काफी खुश रहते थे.

दोस्त ने सलाह दी, ‘मंकी’ बन जाओ

जैकी की हालत देखकर एक दिन उनके एक दोस्त ने ऐसी सलाह दी, जिससे उनकी जिंदगी ही बदल गई. उनके दोस्त ने कहा, तुम मंकीमैन क्यों नहीं बन जाते. तुम्हारा हुलिया और अंदाज लोगों को काफी पसंद आता है. इसे ट्राई करो. इसे शुरू करने में जिन सामानों की जरूरत पड़ती है, जैकी के दोस्त ने देने का वादा किया. जैकी ने इसे घर वालों से साझा किया तो कोई भी सदस्य राजी न हुआ.

रथयात्रा में पहली बार किया परफॉर्म

लेकिन जैकी ने नजरअंदाज करके इसे शुरू किया. पांच दिन बाद ही भावनगर में रथयात्रा थी. मंकीमैन के गेटअप में भावनगर के लोगों ने पहली बार किसी इंसान को सामने से देखा था. जैकी को यहीं से शुरुआती पहचान मिली. फिर वही हुआ, जिसकी उम्मीद थी. जैकी लोगों को मंकीमैन के रूप में खूब पसंद आए. अब शादी-ब्याह, पार्टी, जन्मदिन जैसे कार्यक्रमों के लिए मंकीमैन का खूब क्रेज है.

मैं अपने माता-पिता औऱ बहन के साथ रहता हूं. मेरे पिता मजदूरी करते हैं.  पिछले 10 साल से मैं इस पेशे में हूं और घर की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है. मैं मंकी मैन का किरदार निभाता हूं, जो पार्टी, जन्मदिन और विवाह समारोह जैसे आयोजनों में हर उम्र के लोगों को एंटरटेन करता है.– जैकी वाधवानी, मंकीमैन

बच्चों को डराने के लिए लोग बुलाते हैं

जैकी आठवीं कक्षा तक पढ़े हैं. उनके पिता मजदूरी करते हैं. वह कहते हैं कि लोग उनके इस पेशे को खूब सम्मान देते हैं. पहले तो बच्चों के परिजन बच्चों को डराने के लिए भी उन्हें बुलाते थे. बच्चे शुरुआत में डरते थे, लेकिन अब वे आसानी से दोस्त बन जाते हैं.

जैकी का सेलिब्रेटी बनने का सपना

कमाई के बारे में जैकी बताते हैं कि गुजरात में परफॉर्म करने के लिए वे 5 से 6 हजार रुपए चार्ज करते हैं, जबकि गुजरात से बाहर परफॉर्म करने की फीस लगभग दोगुनी हो जाती है. मेरा एक्ट लोगों के चेहरे पर मुस्कान ला रहा है, यह जानकर मैं काफी खुश हूं. जैकी का सपना सेलिब्रेटी बनने का है और उन्हें उम्मीद है यह सपना जरूर साकार होगा.

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यूं खत्म होता गया चिट्ठी-संदेश का चलन.. अब कहां आते हैं बैरन.. अंतर्देशी लिफाफा

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अब कहां आती हैं चिट्ठियां कुशल मंगल का पैगाम लेकर. अब कहां रहता है इंतजार चिट्ठियों के जवाब का. अब घरों की दहलीज पर कहां खुलते हैं लिफाफे, एक पन्ने में न जाने कितनी यादों को झकझोरती हुई. अब कहां ढूंढती है बुढ़िया दादी किसी पढ़े लिखे नौजवान को, चिट्ठियां पढ़कर सुनाने के लिए. वो पोस्टकार्ड, वो अंतरदेसी, वो मनीआडर, वो लिफाफा, वो बैरन. अब आती है तो बस याद उस गुजरे जमाने का, जिसे हमने अपनी आंखों के सामने से गुजरते देखा है.

1 सितंबर को विश्व पत्र लेखन दिवस मनाया जाता है. इस मौके पर द बिग पोस्ट आपको उस गुजरे जमाने को फिर से याद दिलाने की कोशिश कर रहा है. पहले संदेश भेजने का सबसे पहला साधन पत्र ही हुआ करता था. घर से दूर रहने वाले लोग अपने परिजनों को पत्र के माध्यम से अपनी कुशलता की जानकारी देते थे. उन्हें इंतजार रहता था कि उनके पत्र का जवाब उनके घर से कब आएगा. जैसे-जैसे आधुनिकता बढ़ती गई डिजिटल क्रांति मजबूत होती गई वैसे ही चिट्ठी का दौर खत्म होता गया. अब चिट्ठी सिर्फ सरकारी कार्यालयों तक सिमट कर रह गई है.

हजारों साल पुराना है पत्र लिखने का चलन

पत्र लिखने की परंपरा हजारों साल पहले शुरू हुई. हजारों सालों से इतिहास में पत्रों की अहम भूमिका रही है. प्राचीन इतिहासकार हेलेनिकस के अनुसार, माना जाता है कि पहला हस्तलिखित पत्र फारसी रानी अटोसा ने लगभग 500 ईसा पूर्व लिखा था.

भारत में पत्राचार

भारत में जब डाक विभाग द्वारा पत्राचार का दौर शुरू हुआ. लोगों के बीच संदेश का सबसे बड़ा माध्यम डाक ही था. पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र, लिफाफा, बैरन पत्र, का स्वरूप बढ़ाते बढ़ाते स्पीड पोस्ट तक पहुंच गया. पहले पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र या साधारण डाक द्वारा पत्र भेजने पर एक हफ्ता से 10 दिन तक लग जाता था लेकिन बाद में डाक विभाग में स्पीड पोस्ट सेवा की शुरुआत की ताकि लोगों को जल्द पत्र मिल सके.

90 के दशक के बाद संचार क्रांति

90 के दशक के बाद देश में संचार क्रांति में व्यापक परिवर्तन होने लगा. दूरसंचार के क्षेत्र में टेलीफोन का पदार्पण हुआ. गांव-गांव तक टेलीफोन की सुविधा बढ़ने लगी. जैसे-जैसे टेलीफोन का प्रभाव बढ़ने लगा वैसे-वैसे पत्र लिखने की परंपरा कम होने लगी. टेलीफोन के बाद 21वीं शताब्दी में मोबाइल आवश्यक आवश्यकता बन गई है. देश के हर दूसरे हाथ में मोबाइल है.

चिट्ठी लिखने की कुछ यादें

पटना विश्वविद्यालय के अवकाश प्राप्त प्राध्यापक प्रोफेसर नवल किशोर चौधरी पत्र लिखने के शौकीन थे. प्रोफेसर साहब किस्सा सुनाते हुए कहते हैं, 1964 में मैं पटना विश्वविद्यालय का छात्र था और जंक्शन हॉस्टल में रहता था. इस समय के हॉस्टल के पते से मुझे जापान और जर्मनी से हर रोज मेरे पास पत्र आते थे. हमारे साथी कहा करते थे कि आपको हर रोज कहां से पत्र आता है, क्यों आता है. इसका बड़ा कारण था कि मैं पत्र लिखता था.

मैं अपने परिजनों को पत्र लिखता था, यह केवल परिवार तक ही सीमित नहीं था. हमारे अनेक मित्र भी थे जो देश के बाहर विदेशों तक फैले थे. एक ऐसे व्यक्ति थे जो उम्र में मुझसे 40 साल बड़े थे और वेस्ट जर्मनी के स्पेशल एडवाइजर थे. कई पत्र अभी भी उनके पास संकलित हैं, जिनमें उन्होंने लिखा है कि वह अभी इंडिया के ऊपर से उड़ रहे हैं और आपको पत्र लिख रहे हैं. पत्र लिखना एक पर्सनल एलिमेंट होता था यह लोगों से जुड़ी हुई भावनात्मक अभिव्यक्ति होती थी.“- नवल किशोर चौधरी, प्रोफेसर

जब लिफाफा खुलते ही उमड़ती थी भावनाएं

हल्दी में लिपटा लिफाफा. खुलते ही भावनाएं उमड़ पड़ती, आदरणीय माता जी. सादर प्रणाम. मैं यहां कुशल हूं. आप सभी की कुशलता की कामना शंकर भगवान से करता हूं. फलां-फलां.. आदि-आदि… आगे दुख दर्द, जरूरत, मशवरा, प्यार, आशीर्वाद, और फिर वापस खत पाने की उम्मीदें. यह ट्रेंड अब खत्म हो चुका है. बदलते दौर और विकसित होती तकनीक ने हमें संचार में इतना तेज तो किया कि जब चाहें हम दुनिया के किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति से बात कर सकें. लेकिन इसके साथ ही वे स्वर्णिम दौर को भी हमने खो दिया है.

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ऐसा विद्यालय जहां फेल होना जरूरी है… देश की तरह बनती है सरकार, बच्चे ही चलाते हैं स्कूल

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यह स्कूल कुछ खास है. दुनिया से अलग जंगल में मंगल सा है. यहां एडमिशन लेने के लिए बच्चों को फेल होना अनिवार्य है. अगर कोई पास कर जाता है तो संभव है कि उसे वेटिंग लिस्ट में डाल दिया जाए. एक देश की तर्ज पर बच्चे ही स्कूल को रन करते हैं. सिस्टम ऐसा ही रोजमर्रा की जिंदगी में ही विज्ञान, गणित, भूगोल, अर्थशास्त्र और दर्शन सीख जाते हैं.

हिमालय में बसा है स्कूल

तापमान माइनस 20-25 डिग्री तक. जहां दूर-दूर तक बर्फ से ढका पहाड़ ही पहाड़ है. बिजली का कनेक्शन नहीं. हम बात कर रहे हैं हिमालय में बसा शिक्षण संस्थान SECMOL यानी स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ लद्दाख की.

इनोवेटर सोनम वांगचुक का दूरदर्शी विजन

लद्दाख का सुरम्य क्षेत्र अपनी शांत सुंदरता और ऊबड़-खाबड़ इलाके के लिए जाना जाता है, य़ह एक इंजीनियर, कार्यकर्ता और इनोवेटर सोनम वांगचुक के नेतृत्व वाली शैक्षिक क्रांति का भी घर है. शैक्षिक प्रणाली की खामियों को पहचानते हुए उन्होंने एक ऐसा मॉडल बनाने का निश्चय किया, जो क्षेत्र की विशिष्ट जरूरतों को पूरा करे. औऱ इस विजन का परिणाम ही यह संस्थान है.

यहां बिजली का कोई कनेक्शन नहीं है. स्कूल कैंपस में जितनी भी ऊर्जा की जरूरतें हैं, सौर ऊर्जा से पूरी होती है. भवन पूरी तरह मिट्टी से बना है. छात्रों के द्वारा विकसित की हुई तकनीक से हिमालय में भी स्कूल के भवन काफी गर्म रहते हैं.

एडमिशन के लिए फेल होना जरूरी

जहां दुनियाभर के स्कूलों में डिस्टिंक्शन और परसेंटेज के आधार पर एडमिशन होते हैं, लेकिन इस स्कूल का क्राइटेरिया कुछ अलग है. अगर इस स्कूल में आपको अपने बच्चों को एडमिशन दिलाना है तो उन्हें एंट्रेंस टेस्ट में फेल होना पड़ेगा. एंट्रेस में पास होने पर संभव है कि बच्चे को वेटिंग लिस्ट में भी डाल दिया जाए. एकेडमिक फेलियर्स कोई गुनाह और पिछड़ापन का प्रतीक नहीं है, इस सोच के चलते यह योग्यता रखी गई है.

इनोवेटर सोनम वांगचुक कहते हैं, “हमारी सोच है कि बच्चे अगर हमारे तरीके से नहीं सीखते तो उन्हें उस तरीके से सिखाया जाए जैसे वे सीखना चाहते हैं.”

इस स्कूल को बच्चे एक छोटे से देश के तौर पर चलाते हैं. मिसाल के तौर पर यहां हर दो महीने पर एक सरकार बनाई जाती है. एक नेता चुना जाता है. अलग अलग विभाग बनाकर बच्चों के बीच बांट दिया जाता है. अगले दो महीनों के लिए क्रियाकलापों का लक्ष्य रखते हैं और उसपर कार्यान्वन करते हैं. फिर उसकी रिपोर्टिंग करते हैं. इस तरह से बच्चे लाइफ स्कील को जीकर सीखते हैं. जिसे किताबों से नहीं सीखा जा सकता है.

चलते फिरते सीख लेते हैं जिंदगी

विज्ञान की बातें हो तो उसे जीवन में प्रयोग करके सीखा जाता है. जैसे लंबे समय तक खाद्य सामग्री को सुरक्षित रखने की तरकीबें. इसे सीखकर वे विज्ञान सीखते हैं. फिर जब उसे बाजार में बेचते हैं तो इस तरह से वे अर्थशास्त्र सीखते हैं. और उसके लाभ से जब बच्चे भारत के दर्शन के लिए बच्चे बाहर निकलते हैं तो वे ज्योग्राफी सीखते हैं.

स्कूल कैंपस में खुद का अखबार, रेडियो

स्कूल में अपनी न्यूजपेपर है. कैंपस रेडियो है. जिसपर जरूरी सूचनाओं का प्रसारण भी बच्चे ही करते हैं. अखबार का संपादन भी बच्चे खुद करते हैं. नए नए आविष्कार जीवन का हिस्सा है, जिसमें बच्चे भाग लेते हैं. पृथ्वी, सूर्य, हिम मिट्टी विषय के इर्द गिर्द अनुसंधान होते हैं.

सर्दी में भी गर्म रहता है स्कूल भवन

जैसे मिट्टी का घर जिसे विज्ञान का प्रयोग करके सूर्य की ताप से गरमाया जाता है. और फिर लद्दाख के माइनस 15-20 डिग्री सेल्सियस तापमान में भी इस भवन का तापमान 15 से 20 डिग्री तापमान रहता है. कह लीजिए विद्यालय में मौजूद हर एक चीज प्रयोगशाला का एक हिस्सा है.

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इसे सैलून नहीं लाइब्रेरी कहिए, जबतक किताबें नहीं पढ़ेंगे नहीं होगी कटिंग-शेविंग, प्रेरणादायक है अनूठे सैलून की कहानी

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महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के माढा तहसील में स्थित है एक छोटा सा गांव मोडनिंब. 12X15 के कमरे में कैलाश काटकर सैलून चलाते हैं. हां, बाल कटिंग, शेविंग की दुकान. भूमिका में अब तक कोई खास बात नहीं. खासियत इसके आगे है जो हम आपको बताने जा रहे हैं. इस सैलून में कटिंग-शेविंग की शर्त यह है कि जब तक आप यहां किताबें नहीं पढ़ लेते, तब तक यह सेवा आपको नहीं दी जाएगी चाहे आप कितने भी पैसे क्यों नहीं दे देते.

सैलून शुरू करने और उससे पैसे कमाने की बात तो समझ आती है, लेकिन धंधा से पहले किताबें पढ़ने की शर्त जैसी बात कुछ समझ से परे है. इस अनूठे सैलून में ऐसा क्यों है यह जानने के लिए हमें कैलाश की जिंदगी के भी पन्ने पलटने होंगे.

भाइयों की पढ़ाई के लिए छोड़ी इंजीनियरिंग

कैलाश ने महाराष्ट्र के पंढरपुर से आईटीआई सिविल ड्राफ्टमैन का कोर्स किया था. सपना इंजीनियर बनने का था, सो उन्होंने इंजीनियरिंग में दाखिला भी लिया. कैलाश के दो छोटे भाई भी थे. उनकी पढ़ाई और घर का दारोमदार भी पिता के बाद कैलाश के कंधे पर आ गया था. इसलिए उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़कर पिता का सैलून संभाल लिया.

रीडिंग इंस्पीरेशन डे पर की पहल

कैलाश की पढ़ाई तो छूट गई लेकिन उन्होंने कसम खाई कि जितना भी हो सकेगा, पढ़ाई के रास्ते में हर किसी का वह सहयोग करेंगे. इसके बाद देश के पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब की जयंती यानी 15 अक्तूबर, जिसे हम रीडिंग इंस्पीरेशन डे के तौर पर मनाते हैं, से सैलून में किताबें रखनी शुरू कर दी. साथ ही कटिंग-सेविंग से पहले किताबें पढ़ने की शर्त भी.

दृष्टिबाधित ग्राहक से मिली प्रेरणा

कैलाश को सैलून में किताबें रखने की प्रेरणा दृष्टिबाधित ग्राहक विभीषण से मिली. 40 साल से बैरागवाडी के विभीषण जब भी सैलून आते ब्रेल लिपी की किताब लेकर आते. वे किताब पढ़ते और सैलून में मौजूद ग्राहक उन्हें सुनते. आज सैलून में अंदजन मंडल की ओर से ब्रेल लिपि की किताबें आती हैं.

सैलून अब बन गया है लाइब्रेरी

कैलाश के इस सैलून में भले ही ग्राहकों के लिए जगह कम पड़ जाएं, लेकिन किताबें रखने के लिए अलमारियों की कमी नहीं है. यहां करीब 300 से ज्यादा किताबों का संग्रह हो गया है. जिनमें ड़ॉ एपीजे अब्दुल कलाम, विनायक सखाराम खांडेकर, रणजीत देसाई, विश्वास पाटिल, सुधा मूर्ति सहित अन्य साहित्यकारों की किताबें हैं.

शेविंग से पहले पढ़नी होगी किताबें

यहां बच्चे, जवान और वृद्ध सभी उम्र वर्ग के लोग आते हैं, जिनके लिए च्वाइस के हिसाब से किताबें जमा हैं. अगर इस सैलून रूपी लाइब्रेरी में उन्हें बाल कटवाना या शेविंग कराना है तो उससे पहले उन्हें किताबें पढ़नी होती है. अगर किताब पसंद आए और पूरी पढ़ने की इच्छा हो तो ग्राहक उसे घर भी ले जा सकते हैं.

कैलाश की इस पहल के पीछे सोच है कि सैलून में ज्यादातर लोग अपना समय टीवी, मोबाइल देखने में बीता देते हैं. ऐसे में अगर वे किसी भी किताब के चंद पन्ने पढ़ लेते हैं तो उससे उन्हें कुछ अनुभव ही होगा.

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