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छायांकन के महारथी: माइनस 60 डिग्री तापमान में  कैमरे के साथ डटे रहने वाले   “मागेश के” की कहानी 

अंटार्कटिका के माईनस 60 डिग्री तापमान वाले  मुश्किल हालात हो, या फिर लालकिले के प्राचीर से प्रधानमंत्री का संबोधन।खेल के मैदान में गेंद की उछलकूद हो या फिर हॉकी स्टिक  का जोर , हर   बारिक दृश्यों को  चौकन्ने हो वो दूरदर्शन के कैमरे  में बखुबी उतार देते हैं। दृश्य भी एक से बढकर एक। टॉस के लिए हवा में उछाल सिक्का का क्लोजअप या फिर जीत के जोश में उछलते खिलाड़ी की खुशी ,या फिर नेट पर अचानक आ टपका बॉल ।  हर पहर खुद की चौकन्नी नजर को कैमरे की नजर बना दुनिया भर से , दुनिया भर के लिए ,सजीव तस्वीरें भेजते रहते हैं। इस मलाल के बिना कि दूसरों को नायक बनाने वाली यह नजर हमेशा कैमरे के पीछे ही रहती है। आज कहानी कैमरे को जीवन बना दुनिया भर के महत्वपूर्ण देशों में आयोजित कार्यक्रमों और खेलों को कैमरे में संजीदगी से कैद कर उसे जीवंत कर देने वाले दूरदर्शन के वरिष्ठ कैमरा पर्सन  ‘मागेश के’  की

अंटार्कटिका में कवरेज के दौरान
वो मेरे लिए चुनौती और रोमांचक से भरा पर था जब दूरदर्शन की और से मुझे अंटार्कटिका जाने के लिए कहा गया। उस समय कपिल  सिब्बल जी वहां दौरे पर जा रहे थे। मुझसे  पहले कई लोगों ने यहां जाने के लिए कुछ बहाने बना, इसे टाल दिया था। कारण वहां जाना काफी चुनौतीपूर्ण था। आपको माईनस 60 डिग्री सेल्सियस तापमान में रहना है ।वह भी कैमरे के साथ। हर और बस बर्फ ही बर्फ होगी। मैंने इस चुनौती को स्वीकार किया,  और वहां जाकर तमाम चुनौतियां के बीच तस्वीरें बनाई। इस यात्रा ने मुझे मन से मजबूत कर दिया। मुझमें प्रखरता भर दी। आज भी मैं 12 घंटे लगातार कैमरा कर सकता हूं। कहते हैं मागेश ।
   मागेश के  कृष्णाजी राव आज डीडी स्पोर्ट्स के सीनियर कैमरा पर्सन है। अब तक अपने कैमरे से देश -विदेश में आयोजित कई ओलंपिक खेलों को अपनी टीम के साथ कवर कर चुके हैं। खेल की दुनिया में छायांकन की हर बारिकियों में उन्हें महारत हासिल है। इसके साथ ही  स्वतंत्रता दिवस समारोह, जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा समेत कई अन्य महत्वपूर्ण इवेंट का भी छायांकन मागेश ने किया है।
 कैमरे के लिए डिजाइन किया अनोखा कवर
  मागेश के बताते हैं कि अंटार्कटिका में छायांकन के लिए कैमरे की बैटरी को सुरक्षित रखना बड़ी चुनौती थी। इतने कम तापमान पर बैटरी काम करती रहे इसके लिए मैंने काफी रिसर्च कर खुद से एक कवर डिजाइन किया। इसके लिए दिल्ली के स्थानीय बाजार से जाकर सामग्री खरीदी और उसे सिलवा कर तैयार किया। ईश्वर का शुक्रिया कि मेरा आइडिया एक दम काम कर गया। माइनस 60 डिग्री तापमान में मेरे कैमरे की बैटरी सुरक्षित थी।
लंदन हो या बीजिंग हर जगह मौजूदगी 
मागेश  एक खेल छायाकार के तौर पर दुनिया के कई देशों में अपने छायांकन का जादू बिखेर चुके हैं। वे बताते हैं कि मैंने एशियन गेम के लिए कतर में इवेंट कवर किया। चीन में ओलंपिक के दौरान बीजिंग में ओलंपिक गेम को कवर करने की मुझे जिम्मेदारी मिली और मैंने इसे कुशलतापूर्वक निभाया। इसके बाद चीन में फिर एशियन गेम को कवर किया। वह आगे बताते हैं कि मैंने लंदन में ओलंपिक को कवर किया। जहां- जहां दूरदर्शन की ओर से खेलों का कवरेज होता है वहां मेरी मौजूदगी होती है चाहे वह  रांची हो या फिर  लंदन। इसी प्रोफेशनल के कारण मैंने  खेल के साथ दुनिया को देखा, जाना और समझा है। इसका बड़ा श्रेय दूरदर्शन को जाता है।
अन्तर्राष्ट्रीय कार रैली  किया कवर
  मागेश  ने अनोखे कार रैली को भी कवर किया । यह कार रैली पांच देशों से होकर गुजरी थी। इसकी शुरुआत अरूणांचल प्रदेश से हुई थी। हम सड़क मार्ग से मणिपुर से म्यांमार होते हुए पांच देशों की यात्रा कर थाईलैंड पहुंची थी। इस कर रैली का कवरेज भी काफी यादगार रहा।
'पुरानी यादें '
ऐसा रहा बचपन का सफर 
    मागेश के बताते हैं कि मेरा जन्म कर्नाटक में   16.जुलाई.1969 को हुआ। बचपन कर्नाटक में ही बीता। वहीं बैंगलोर से मेरी पढ़ाई लिखाई भी हुई। मैंने     श्री जाया चमराजेंद्र (Govt ) पॉलिटेक्निक, बैंगलोर    से सिनेमेटोग्राफी  का कोर्स किया। यहां मैंने कैमरे और छायांकन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की।
कभी हीरों बनने की थी ख्वाहिश 
  मागेश यह भी बताते हैं कि मुझे युवा अवस्था में हीरो बनने की चाहत थी। मैं कैमरा के पीछे नहीं आगे काम करना चाहता था। इंस्टीट्यूट में नामांकन के बाद मुझसे कहा गया कि तुम्हें कैमरा सीखना है। दरअसल उस वक्त मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। हम सात भाई बहन हैं। बड़े होने के कारण मेरे उपर पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ भी था। पिताजी का बिजनेस था पर वह आमदनी परिवार के खर्च के लिए प्रयाप्त नहीं होता था। बहनों की शादी भी करनी थी। मुझे बताया गया कि कैमरा सीखने के बाद तुरंत नौकरी मिल जाएगी‌। फिर मैंने अपने नायक वाले सपने को वहीं छोड़, कैमरे के पीछे रहने का फैसला किया। आज मुझे अपने चुनाव पर गर्व है। इस काम ने मुझे प्रतिष्ठा और आत्मविश्वास दोनों दिया है। मेरी पहली पोस्टिंग दूरदर्शन मेघालय में हुई थी। फिर गोवा और पिछले 7 साल से मैं डीडी स्पोर्ट्स में दिल्ली में कार्यरत हूं।
खेल छायांकन के दौरान
खेल छायांकन के दौरान मागेश
चुनौतिपूर्ण है खेल फोटोग्राफी 
    मागेश कहते हैं कि  खेल का  छायांकन काफी चुनौतीपूर्ण होता है। आप जो टीवी पर मैच देखते हैं इसके एक एक फ्रेम के लिए काफी मेहनत की जरूरत होती है। हमें हर पल चौकन्ना रहना होता है। की बार लंबे वक्त तक कंधे पर कैमरा रखना पड़ता है। उस दौरान पानी तक पीने का समय नहीं होता हमारे पास। ज्यादातर  घंटे आपको कैमरे पर खड़े रहना होता है। इन सब को मैं तनाव की तरह नहीं रोमांच की तरह लेता हूं।
अपने सहयोगी के साथ मागेश
अपने सहयोगी के साथ मागेश
 टीम को देते हैं हौसला 
हमें किसी भी मैच के दौरान कैमरे को सही पोजीशन पर व्यवस्थित करना होता है। उसके बाद शॉट के लिए सही लेंस का प्रयोग काफी अहम होता है। आपको गेंद की हर बारिकियों को स्पष्ट दिखाना होता है। अपने सहयोगियों को सही निर्देश देना भी जरूरी है। मैं अपने सहयोगियों के मनोबल को हमेशा बनाए रखता हूं। अभी बिहार में हम वॉलीबॉल कवर कर रहे हैं। यहां हमारी टीम में स्थानीय दूरदर्शन के छायाकार भी है जो काफी अच्छा प्रदर्शन खेल के कवरेज में कर रहे। इनके लिए यह नया अनुभव है। मैं अपने सहयोगियों के लिए हमेशा उनका दोस्त होता हूं। मैं  मानता हूं कि एक अच्छी टीम एक बेहतरीन कवरेज दे सकती है।
मिल चुके हैं कई सम्मान 
मागेश को बेहतर खेल छायांकन के लिए कई सम्मान मिल और प्रशस्ति-पत्र मिल चुके हैं। बैंगलोर में बने एक टेलिफिल्म के लिए भी मागेश को सम्मानित किया गया था।
परिवार के सदस्यों के साथ कुछ पल
परिवार के लिए नहीं मिल पाता समय

मेरा जीवन पूरी तरह से खेल छायांकन को ही समर्पित है। परिवार से मिलने का काफी कम वक्त मिल पाता है। हमें यह पता भी नहीं होता कि एक मैच खत्म होने के बाद फिर हमें दूसरे की शहर में जाना है। शुरू शुरू में बड़ा मुश्किल लगता था। पर अब सब ठीक है। परिवार के बीच बस कुछ मिनट फोन ही संवाद का माध्यम बनता है।परिवार में  पत्नी पूर्णिमा मागेश , बेटी भविष्यका , और बेटे देवेश का हमारे सहयोग और समर्थन मिलता रहता है। मैं इनसे दूर रहकर भी इनकी भावनाओं से करीब से जुडा होता हूं।

किताबें पढ़ने का शौक 
नागेश बताते हैं कि उन्हें किताबें पढ़ने का खुब शौक है। खास तौर से उपन्यास पढ़ना काफी अच्छा लगता है। पहले काफी किताबें पढा करते थे। अब वक्त काफी कम मिलता है पढ़ने के लिए। जब भी समय मिलता है मैं अपने इस शौक को पूरा कर लेता हूं।
भारत की जीत से मिलती है ऊर्जा
मैच के कवरेज के दौरान भारत या भारत के बाहर जब भी भारतीय मैच विजय होती है तो मन बड़ा आनंदित होता है। भारतीय टीम की जीत मन में उर्जा भर देती है।
प्रधानमंत्री के कार्यक्रम को कवर करते मागेश
प्रधानमंत्री ने दिया माहौल
मंगेश कहते हैं की भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने खेल को काफी बढ़ावा दिया है। इनकी कोशिशों से अब छोटे शहरों में भी खेलों का आयोजन हो रहा है। खेल के कवरेज का रेंज भी बढ़ा है। सरकार ने कई नई योजनाएं खेल के काम कर रही है। इससे एक अच्छा माहौल बना है खेलों का।
तमन्ना जीवन भर खेल के लिए रहूं समर्पित 
मागेश कहते हैं कि खेल पत्रकारिता और छायांकन में युवाओं के लिए प्राप्त अवसर है। आज भी क्षेत्र में लोगों की कमी है। हां जरूरी यह है कि इस क्षेत्र में आने वाले लोगों के पास धैर्य और एकाग्रता होनी चाहिए।
मैंने अपने जीवन का प्रमुख समय खेल छायांकन को दिया है। मैं रिटायर होने के बाद भी इससे जुड़ा रहना चाहता हूं। मैं अपने अनुभव और कौशल का प्रयोग नए छायाकारों को निखारने में करना चाहुंगा।
बहरहाल खेल की दुनिया आपको अनुशासन, आत्मविश्वास और जोश देती है।

“मुझे एक खेल छायाकार होने पर गर्व है, गर्व यह भी कि देश के राष्ट्रीय चैनल के साथ देश के लिए काम कर पा रहा हूं।”

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कहानी उस शिखंडी बैंड की.. जिसने पूरे महाराष्ट्र में तहलका मचा रखा है

वे अब न सिर्फ आपके साथ जहाज उड़ाएंगे. वे अब न सिर्फ कंधे से कंधा मिलाकर पुलिस सेवा में शामिल होंगे. न सिर्फ डॉक्टर, इंजीनियर बनकर ऊंचाइयां हासिल करने की ललक होगी उनकी. वे हर कदम आपके साथ होंगे. आपके सुख में, दुख में. हर चीज में. वे हैं महाराष्ट्र की प्रताड़ित ट्रांसजेंडर जिन्हें समाज ने दुत्कारा लेकिन आज पूरे राज्य में उनका तहलका है. उनके बीट्स पर पूरा महाराष्ट्र झूमता है. यह कहानी है राज्य की पहली ट्रांसजेंडर बैंड पार्टी ‘शिखंडी’ की.

‘ट्रांसजेंडरों में हुनर की कमी नहीं’

मनस्वी गोयलकर नाम की ट्रांसजेंडर ने इस बैंड पार्टी को बनाया है. गोयलकर कहती हैं, ‘ट्रांसजेंडर समाज में भी बहुत सारे हुनर और कला है. उचित अवसर नहीं मिलने की वजह से यह समाज आज भी काफी पिछड़ा हुआ है. अस्तित्व की लड़ाई के रूप में हमने शिखंडी ढोल ताशा टीम की शुरुआत की.’

और ऐसे हुआ ‘शिखंडी’ का जन्म

शुरू में गोयलकर को इस सफर में काफी कठिनाइयां झेलनी पड़ी लेकिन आज यह बैंड लोगों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं. इस बैंड की स्थापना से पूर्व गोयलकर दूसरे मंडलियों से संपर्क किया था, लेकिन ट्रांसजेंडर होने की वजह से उन्हें निराशा ही मिली.  हालांकि, निराशाएं उन्हें मजबूत करती गईं. फिर उनके जीवन में गुरु कादंबरी शेख का सहयोग मिला और फिर ‘शिखंडी’ का जन्म.

आज ‘शिखंडी’ से जुड़े हैं 30 मेंबर

यह यात्रा आसान नहीं थी. इंस्ट्रूमेंट्स की सुरक्षा, अभ्यास के लिए स्थान और प्रशिक्षण प्राप्त करना महत्वपूर्ण चुनौतियाँ थीं. गोयलकर कहती हैं, “मेरे गुरु ने ट्रांसजेंडरों की एक स्वतंत्र टीम शुरू करने का फैसला किया. हमने काम करना शुरू किया,  लेकिन किसी को भी इंस्ट्रूमेंट्स बजाने का एक्सपीरियंस नहीं था. इसे मजबूत करने के लिए नादब्रह्म ढोल-ताशा टीम के अतुल बेहरे ने टीम में शामिल ट्रांसजेंडरों को ट्रेनिंग दी. आज शिखंडी से 30 मेंबर जुड़े हैं.

गणपति में प्रदर्शन से दीवाने हुए लोग

शिखंडी का संदेश साफ है कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति दूसरों के साथ सक्षमता से खड़े हो सकते हैं. इस साल गणपति पर्व में शिखंडी ने जोरदार प्रदर्शन किया. जिसे देख-सुनकर लोग दीवाने तो हुए. जागे भी. प्रेरणा भी मिली.

शिखंडी कहानी है आशा की किरण की

शिखंडी की कहानी आशा की किरण के रूप में काम करती है. यह दिखाती है कि दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति से प्रतिकूल परिस्थितियों पर विजय पाई जा सकती है. शिखंडी का मानना है कि जब वे मंच पर उतरेंगे तो वे न केवल मनोरंजन करेंगे, बल्कि सामाजिक मानदंड को भी चुनौती देंगे. जिससे समाज में उन्हें उसी तरह स्वीकार किया जाए, जैसे औरतों और मर्दों को किया जाता है.

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कौन हैं नैंसी त्यागी जिन्होंने कान फिल्म महोत्सव में महफिल लूट ली ?

‘सिनेमा का मक्का’ कान फिल्म फेस्टिवल. जहां हर टूट पूंजिया कलाकार भी जिंदगी में कम से कम एक बार जरूर जाना चाहता है. जरा सोचिए कि आर्थिक तंगी के कारण जिनकी मां कोयले की धूल से सनी रोज घर आती थी. जो मनचाही पढ़ाई नहीं कर सकी. वो नैंसी त्यागी ने ‘कान’ में जाकर अपना जलवा बिखेरकर प्रसिद्धि हासिल की.

‘मुझे घर के हालात बदलने हैं’

यह कहानी है उत्तर प्रदेश के बरनावा गांव की रहने वाली 23 वर्षीय नैंसी त्यागी की. घऱ की  हालत ठीक नहीं थी. मां कोयला खदान में काम करती थी. रोज कोयले की धूल से सनी घर आती. उसी कमाई से घर चलता. वह अपनी मां और परिवार को इस हाल से उबारना चाहती थी.

आर्थिक तंगी के कारण छूटी पढ़ाई

मां को समझाया तो कुछ पैसे जुटाकर उसे पढ़ने के लिए दिल्ली भेजा गया. साल था 2020 का. कोरोना वायरस का प्रकोप चरम पर था. घर में और भी जरूरतें थीं. सिविल सेवा की तैयारी का मकसद लेकिन वित्तीय तंगी के कारण कुछ दिनों में नैंसी के परिवार का हौसला टूट गया.

नैंसी कहती हैं, “हमारे पास कोचिंग की फीस के साथ-साथ घर के खर्चे के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे. लॉकडाउन के दौरान मेरी मां की नौकरी चली गई. हमने सोचा कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद कोचिंग शुरू होने तक हमारे पास पर्याप्त पैसे नहीं बचेंगे. इसलिए हमने एक कैमरा खरीदा और  हैंडमेड खूबसूरत कपड़े बनाने का वीडियो सूट करना शुरू कर दिया’’

कान फिल्म महोत्सव से मिला न्यौता

नैंसी के पिता अपने गांव में परिवहन का कारोबार करते हैं. उन्होंने भी अपनी बेटी की मदद की. चार साल बाद नैंसी की यह कड़ी मेहनत रंग लाई और वह कान पहुंच पाईं. उन्हें फिल्म महोत्सव में एक ‘फैशन इंफ्लुएंसर’ के रूप में आमंत्रित किया गया था और वह शुरूआत में थोड़ी डरी हुई थीं.

ऐसा रहा कान का अहसास

पीटीआई-भाषा को दिये एक इंटरव्यू में नैंसी कहती हैं, शुरू में मैं काफी डरी हुई थी, लेकिन मेरी टीम ने मुझे राजी कर लिया और मैं वहां गई. ऐसा लग रहा है कि यह मेरे जीवन का सबसे सही फैसला था. कार से नीचे उतरने तक मैं डरी हुई थी लेकिन जैसे ही उतरी मुझे बिल्कुल ही अलग ही अहसास हुआ.’’

नैंसी ने जताया आभार

हाल में संपन्न हुए कान फिल्म महोत्सव में भागीदारी करने वाली युवा डिजाइनर ने कहा, ‘‘मैंने तस्वीरें खिंचवाईं. वे वायरल हो गईं और लोगों को ये पसंद आईं. मैं उनकी बहुत आभारी हूं. मैं कान पहुंची इंफ्लुएंसर में एक थी. मैं खुश हूं कि हमारा देश प्रगति कर रहा है.’’

सोनम कपूर के लिए तैयार करना चाहती हैं परिधान

नैंसी अब फिल्म अभिनेत्री सोनम कपूर के लिए परिधान तैयार करना चाहती हैं. कपूर फैशन के प्रति अपनी विशेष रूचि के लिए जानी जाती हैं और उन्होंने कान में पहने गए त्यागी के परिधान की प्रशंसा की है तथा इंस्टाग्राम पर उसे साझा भी किया. अब नैंसी किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं.

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कहानी उस गांव की.. जहां 32 साल बाद कोई दलित दूल्हा घोड़ी चढ़ा

दूल्हों का घोड़ी पर चढ़कर बारात जाना आम रिवाज है. लेकिन अभी भी देश के कई गांवों में यह रिवाज समाज के अगड़े वर्गों तक सीमित है, क्योंकि वहां दलितों को अब भी घोड़ी पर चढ़ने की इजाजत नहीं है. वजह सिर्फ इतना ही वे दलित हैं.

दलित दूल्हों पर होते थे हमले

अनेकों घटनाएं हैं, जब दलित दूल्हे ने घोड़ी पर बैठकर बारात जाने की जहमत उठाई तो उनपर हमले हुए. हत्या तक कर दी गई. द बिग पोस्ट इसे समझाने के लिए आपको ले जा रहा है राजस्थान. जहां के हालात और आंकड़ों से इसे बखूबी समझा जा सकता है.

नाम मनोज बैरवा. उम्र 24 साल. शादी तय हो चुकी है. अब तक गांव में कोई भी घोड़ी से दूल्हा बनकर बारात नहीं गया है. मनोज ऐसा करने वाले पहले शख्स बनना चाहते हैं.

नीम का खेड़ा गांव में ऊंची जातियों का दबदबा रहा है. इन्होंने अतीत में दलित दूल्हों पर खतरनाक हमले किए हैं. पहले दूल्हे का परिवार काफी डरा हुआ था. उन्होंने कहा, कि अगर पुलिस कहती है तो हम नहीं करेंगे. लेकिन अगर पूरा गांव कहता है तभी हम ऐसा करने (घोड़ी से दूल्हा का बारात जाने) को तैयार हैं.जय यादव, एसपी, बुंदी जिला

ऐसे मामलों के सामने आने के बाद बूंदी जिले की पुलिस गांवों में बैठकें करवा रही हैं, जिससे कि समाज की पुरानी सोच बदली जा सके.

इसी डर से बिगड़ी थी बुआ की शादी

बैरवा के लिए यह मुद्दा काफी संवेदनशील है. क्योंकि करीब 30 साल पहले इनकी बुआ की शादी इसी वजह से बिगड़ गई थी. उनकी बुआ कन्या बाई कहती हैं कि जब उनकी शादी हो रही थी. और उनका होने वाला दूल्हा घोड़ी पर बैठकर आया था तो उनके साथ मारपीट की गई थी. और उनका सेहरा भी गिरा दिया था. वो शादी तो करके चले गए लेकिन मुझे नहीं ले गए.

मंदिर के सामने से गुजरने की मनाहट

गांव के अगड़ी जातियों का दबदबा इस कदर है कि वे गांव के मंदिर के सामने से भी दलितों के बारात गुजरने देने से मना करते हैं. करीब 32 साल बीत चुके हैं जब कोई दलित दूल्हा घोड़ी बैठा होगा. किसी की हिम्मत ही नहीं होती. लोग भूल चुके हैं, कि ऐसा वे भी कर सकते हैं.

महिलाओं और बुजुर्गों में हमेशा डर

मनोज बैरवा की घोड़ी चढ़ने की इच्छा हुई तो प्रशासन भी सामने आया. शादी का दिन भी आ गया. हलवाई मिठाइयां और पकवान बना रहे हैं. मनोज को उबटन लग रहा है. घर में चहल पहल है. वहीं महिलाओं और बुजुर्गों में एक डर है कि कहीं उन्हें फिर से पीड़ा न झेलना पड़े. प्रताड़ना का. नीच दिखाए जाने का. किसी तरह के तनाव हो जाने का.

डर भी दूर हो रहा.. अधिकार भी मिल रहा

मनोज घर की महिलाओं को समझाते हैं. डरना नहीं है. कोई दिक्कत नहीं है. वह कहते हैं, हमारा अधिकार है ये हम तो इसे लेंगे ही. आखिरकर बैरवा घोड़ी चढ़ते हैं और बिना किसी रुकावट के बारात निकलती है. घोड़ी पर चढ़कर वह न सिर्फ बारात गए, बल्कि गांव के उन इलाकों में भी घूमे जहां उन्होंने पहले कभी कदम भी नहीं रखा था. बारात जाते हुए बैरवा कहते हैं जो हमारी बुआ न कर सकी, उसे हमने कर दिखाया है.

अब गांव में माहौल ठीक है

गांव के लोग मानते हैं कि अब गांव में माहौल ठीक हो रहा है खासकर दलितों की शादियों को लेकर. अब चीजें बदल रही हैं. बहुत बदल गई हैं. अब इस तरह की कोई बाधा नहीं है. यह सब हो पाया है शासन द्वारा लागू किए गए सख्त कानून, पुलिस की मुस्तैदी और प्रशासन की जन जागरुकता के कारण. न जाने कितनी बैठकें हुईं. कितने समझौते हुए तब जाकर यह मुहिम अब रंग ला रहा है.

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ठेले पर समोसा बेचने वाले ने क्रैक की NEET यूजी परीक्षा, अच्छा डॉक्टर बनकर सेवा करना चाहता है सन्नी

कहते हैं कि जहां चाह वहां राह. वो समोसे का ठेला लगाता था. वो स्कूल भी जाता था. रेहड़ी पर घंटों तक काम करता. कुछ कमाई हो जाती तो घर लौटता. तब तक रात के 10-11 बज चुके होते थे. पर उसे कुछ बड़ा करने की चाहत थी. वो रात-रात भर पढ़ाई करता. और फिर वो हुआ, जिसका सबको उम्मीद थी. शानदार सफलता.

720 में से हासिल किए 664 अंक

यह कहानी है उत्तर प्रदेश के नोएडा में समोसे की रेहड़ी चलाने वाले सन्नी कुमार की. 18 साल के सन्नी ने नीट यूजी परीक्षा दी थी जिसमें उसने 720 में से 664 अंक प्राप्त किए हैं. अब सन्नी की कहानी तेजी से सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है. वह उन तमाम छात्रों के लिए प्रेरणा बन गए हैं, जिन्हें सुविधाओं के अभाव में प्रतिभा का दम घोंटना पड़ता है.

“पापा हैं लेकिन उनका सपोर्ट नहीं है. लेकिन घर में मम्मी हैं, उनका पूरा सपोर्ट है. मैं मम्मी से कहता था, कि मम्मी मुझे कैसे भी करके पढ़ा दो. कंधे पर हाथ रख दो. मुझे पढ़ना है. मुझे कुछ बनना है.”- सन्नी कुमार, नीट क्वालिफाईड

कोर्स खरीदने तक के पैसे न थे

सन्नी की आर्थिक हालत ऐसी थी कि उसके पास न तो कोचिंग पढ़ने के पैसे थे और न ही ऑनलाइन सब्सक्रिप्शन खरीदने के. वह कहता है कि उसके एक दोस्त ने लैपटॉप और मोबाइल दोनों में लेक्चर चलने वाला सब्सक्रिप्शन खरीदा था. लैपटॉप से वह खुद पढ़ता था और मोबाइल से सन्नी. ऑनलाइन टीचिंग एप फिजिक्स वाल्लाह के लेक्चर और यूट्यूब पर उपलब्ध चंद वीडियो के दम पर सन्नी ने यह सफलता हासिल की.

जो मिला वो किस्मत नहीं, मेहनत है

सन्नी को जो मिला है वो किस्मत नहीं है. वो सन्नी की अथक मेहनत है. रातों को रात न समझने का परिणाम है. दीवारों पर चिपके नोट्स मेहनत का स्तर परिभाषित कर रहे हैं. ये महज नोट्स नहीं हैं, कह लीजिए सफलता का वो सूत्र है जिसे बड़े-बड़े कोचिंग संस्थान मोटी-मोटी तनख्वाह वसूलकर भी नहीं दे पाते हैं.

फिजिक्स वाल्लाह ने की मदद

सन्नी कहते हैं कि जब वो रात-रात भर जगकर पढ़ाई करते थे, तो आंखों में दर्द हो जाता है. दवाई लेने के बाद दर्द जब ठीक हो जाता था, तो फिर से पढ़ाई शुरू हो जाती. सन्नी की इस सफलता के बाद फिजिक्स वाल्लाह के अलख पांडे ने भी सन्नी से बात की. साथ ही उनकी तरफ से सन्नी को 6 लाख रुपए देने की बात कही गई है.

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‘स्कूटर स्कूल’ से झुग्गियों में ज्ञान की रोशनी लुटा रहे विजय अय्यर

प्यासा कुआं के पास जाता है. अज्ञानी ज्ञानवान के पास. इसी तरह मरीजों का अस्पताल औऱ बच्चों का स्कूल जाना सामान्य बात है. लेकिन मध्य प्रदेश के भोपाल में स्कूल खुद ही चलकर बच्चों के पास जाता है. बच्चों को ललचाने, लुभाने, रोशनी लुटाने.

विजय चलाते हैं ‘स्कूटर स्कूल’

पेशे से मैकेनिक और समाज सेवा में लीन विजय अय्यर भोपाल के झुग्गियों में अपने ‘स्कूटर स्कूल’ के सहारे रोशनी लुटा रहे हैं. विजय का स्कूटर ही चलता फिरता स्कूल है. मोटरसाइकिल के पीछे लगेज स्पेस बना हुआ है, जिसमें बच्चों को लुभाने, फुसलाने, खिलाने और पढ़ाने के सामान होते हैं.

 

आम तौर पर जिन झुग्गियों को लोग नाक पर रूमाल बांधकर पार कर जाते हैं, वहां के बच्चों को स्कूल की राह दिखाना आसान नहीं है. लेकिन विजय इसे बखूबी निभा रहे हैं अपने स्कूटर स्कूल के सहारे.

विजय कहते हैं,

“स्लम बस्ती के बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं. इन क्षेत्रों में माइग्रेंट वर्कर भी रहते हैं, जहां जाकर बच्चों को प्रेरित करते हैं. उन बच्चों को लुभाने की चीजें और खाने-पीने का सामान देकर पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता है.”

“मेरे स्कूटर का कॉन्सेप्ट बस यही है कि आजकल बच्चों को कुछ नया और यूनिक चाहिए होता है. स्लम बस्ती के बच्चों की मानसिकता और दूसरे बच्चों से अलग होती है. स्लम एरिया में घनी आबादी होती है, जिसके चलते बड़ी गाड़ी नहीं जा पाती है. इसके लिए हमने स्कूटर डिजाइन किया है. बच्चों के लिए मूलभूत सुविधाएं, स्टेशनरी, कपड़े, जूते आदि सामानों की व्यवस्था करते हैं.” विजय अय्यर, समाजसेवी

मोटरसाइकिल जो चारों तरफ से पोस्टरों से ढका है. जिसमें ढेर सारे खिलौने, चॉकलेट, किताबें और अन्य सामान पड़े रहते हैं. छोटा वाला लाउडस्पीकर भी. अलख शिक्षा का जगाएं गाना बजे तो बच्चे खिलखिला उठें. माटसाब जैसे ही उनके ही बीच जाएं तो अभिवादन. वाह! विजय जी इस शानदार आगाज के लिए. आप जहां भी रहिए रोशनी लुटाते रहिए.

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विज्ञापन जिसने सोशल मीडिया पर माहौल लूट लिया, इमोशनल कर देती है कहानी

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    चीखने-चिल्लाने, एनिमेटेड ग्राफिक्स, फूहड़ विज्ञापनों के इस दौर में आज भी कई ऐसे विज्ञापन बनते हैं जो दिल को छू जाते हैं. बिस्किट कंपनी पारले-जी ने एक ऐसा ही विज्ञापन बनाया है, जिसकी चर्चा हर तरफ है.

    विज्ञापन में शिक्षक और उनके स्टूडेंट्स के बीच अटूट प्रेम के साथ पर्यावरण प्रेम को दिखाया गया है. वो प्रेम जिसे सालों पहले पौधा के रूप में संजोया गया था. सालों बाद जब वो दरखत बना तो उसके साये में खुद को पाकर इंसान खुद को कितना आनंदित होगा.

    चंद किरदारों ने कहानी जीवंत कर दी

    चित्रण यूं है कि, स्कूल का कैंपस. घंटी बजती है. कोरिडोर से महिला हेडमास्टर निकलती हैं. जैसे ही गेट पर आती हैं लड़कियों की एक टोली उनका अभिवादन करती हैं. हेडमास्टर भी अभिवादन करती हैं. वार्तालाप के बीच में शिवानी शिक्षिका को पारले-जी बिस्किट ऑफर करती है. शिक्षिका भी बेझिझक पैकेट में से एक बिस्किट उठा लेती हैं. शिवानी स्पोर्ट में काफी रूचि रखने वाली है. टेनिस खेलती है. मैडम शिवानी से प्रैक्टिस के बारे में पूछती हैं. फिर गार्डन में पेड़ों की तरफ निकल जाती हैं.

    शिक्षक, संशय और सवाल

    शिवानी के अंदर मैडम को लेकर एक सवाल है, जिसे शायद वो कभी पूछ नहीं पा रही थी. आज अच्छा मौका है. वह अनुमति के साथ वह पूछती है. “मैम.. स्कूल कैंपस के सारे पौधों को वैसे तो माली अंकल देखरेख करते हैं, लेकिन यहां के पेड़ों को आप खुद. ऐसा क्यों?

    ये पेड़ नहीं हैं.. यादें हैं 85 बैच के

    मैडम हंसती हैं. यह देख रही हो? मैडम शिवानी से पूछती हैं. शिवानी झट से दो पेड़ों का नाम चीकू और चंपा बताती है. शिवानी सही थी. लेकिन मैडम के लिए ये पेड़ चीकू और चंपा के नहीं थे. ये थे मंजू, आनंदकर्वा, क्वेश्चन मास्टर राहुल जोशी, स्पोर्ट्स जीनियस रीमा शाह और बैक बेंचर्स और रॉकेट लॉन्चर्स. मुस्कुराते हुए मैडम वहां से चली जाती हैं.

    इतना जानने के बाद शिवानी सवालों से खाली नहीं, बल्कि और भर चुकी थी. तुरंत वहां से गुजर रहे स्कूल के स्टाफ से पूछी, काका इन पेड़ों का 1985 के बैच से क्या संबंध है?

    फेयवेल खास बनाने का अच्छा आइडिया

    उन्होंने कहा, कि जब 1985 का बैच स्कूल से विदा ले रहा था, तब सब ने अपने अपने नाम का पौधा मैम को गिफ्ट किया. क्लास तो आगे निकल गई लेकिन मैम अब भी 1985 बैच के साथ ही हैं. जाते-जाते काका ने कहा, कि अगले सप्ताह ही मैम रिटायर होने वाली हैं.

    मैम पेड़ों को छूती हैं. पुरानी यादों में खो जाती हैं. इधर शिवानी एक और पारले-जी बिस्किट चट करती हुई मैम को देखती रहती है.

    गाना चलता है,

    “किताबों के पन्ने पलटे बहुत हैं.”
    कहानी अभी भी जहां थी वहीं है”

    मैम के फेयरवेल का दिन आता है. सभी गुलदस्ता मैम को भेंट करते हैं. बच्चों से मिलते हुए मैम काफी भावुक हैं. सबसे मिलने के बाद वह फिर से उसी 1985 बैच वाले बागान की तरफ जाती हैं, तभी एक शख्स आकर मैम का अभिवादन करता है. मैम उसे देखती हैं पर पहचान नहीं पाती हैं.

    तभी पीछे से शिवानी कहती है, कैसे पहचानेंगी मैम आपके पौधे अब पेड़ जो बन गए हैं. इधर उस शख्स ने अपना परिचय जैसे ही आनंदकर्वा के रूप में दिया तो मैम ने झट से रौल नंबर 28 दोहराया. इसके बाद एक एक कर सभी पेड़ों के पीछे से निकलकर मैम के 1985 बैच के सभी स्टूडेंट्स ने अपना परिचय देना शुरू करते हैं तो मैम भाव-विभोर हो जाती हैं.

    गाने की अगली पंक्ति बजती है,

    “ढूंढे जिसे वो किरदार सारे
    आ ही गए वो कहानी निभाने
    हर एक पन्ना हर एक किस्सा जरूरी
    मिल जाए सारे तो कहानी है पूरी.”

    और इस तरह मैम को फेयरवेल गिफ्ट के तौर पर बैच ऑफ 85 मिलता है बैच ऑफ 25 की तरफ से.

    जो औरों की खुशी में पाए अपनी खुशी. पारले-जी. के साथ विज्ञापन खत्म होता है.

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    दिल्ली के इंडिया गेट पर दिखेंगे Charlie Chaplin, इनकी कहानी से मिलेगी जीने की राह

    टीवी पर (Charlie Chaplin) चार्ली चैपलिन को तो हम सबने देखा है. चार्ली का अनोखा ढंग, मजाकिया अंदाज को देखकर खूब लोटपोट हुए हैं. लेकिन कभी दिल्ली के इंडिया गेट पर आपको चार्ली चैपलिन नजर आ जाएं, तो चौंकिएगा मत. क्योंकि ये वाला Charlie टीवी वाला तो नहीं, लेकिन हां उन्हीं के गेटअप में जरूर रहता है. तो आइये इस Charlie Chaplin को जानते हैं.

    उम्र 60 के पार हो चली है. कद काफी छोटा पर दिल और हौसला बड़ा है. चार्ली चैपलिन के गेटअप में लोगों को गुदगुदाते, उनके चेहरों पर मुस्कान लाते ये हैं मोनू. दिल्ली घूमने आने वाले लोगों को इंडिया गेट पर हैपीनेस का बूस्टर डोज लगाकर भेजने वाले मोनू का जीवन कठिनाइयों से भरा रहा है.

    दिल्ली की सड़कों पर दो साल भटकते रहे

    मोनू मूल रूप से नागपुर के रहने वाले हैं, लेकिन सालों पहले नौकरी की तलाश में दिल्ली आए थे. लेकिन छोटा कद होने के कारण इन्हें हर जगह प्रताड़ना और भेदभाव का सामना करना पड़ा. इस तरह से उन्होंने दो साल दिल्ली की सड़कों पर गुजार दिया. मांग कर अपनी जरूरतों को पूरा करते. उन्हें नहीं पता था कि जिंदगी किस दिशा ले जाएगी.

    ये है Charlie Chaplin बनने की कहानी

    तभी सड़कों पर जिंदगी काटते मोनू पर एक परिवार की नजर पड़ी. लिपि नाम की महिला ने अपने परिवार में मोनू को शामिल कर लिया. अब वे मोनू को मामू बुलाने लगे. दो साल तक जो मोनू इधर उधर भटक रहे थे, अब उनके पास एक परिवार था. यहां से शुरू होती है मोनू के Charlie Chaplin बनने की कहानी.

    लिपि कहती हैं, “हमने टीवी में देखा था चार्ली चैपलिन को. हमने सोचा का मामू (मोनू) को भी ऐसा बनाएं और कुछ पैसा कमाएं. हमने मामा को जब ऐसा बनाया 2016-17 में, तो पब्लिक उसे खूब पसंद करने लगी.”

    मोनू पिछले कई सालों से इंडिया गेट के पास रोज करीब 8 घंटे चार्ली चैपलिन का रोल परफॉर्म करते हैं. तस्वीर खिंचवाने के लिए छोटी फीस लेते हैं, जिससे उनके परिवार का भरण पोषण हो सके.

    मोनू, (Charlie Chaplin के किरदार में)

    मैं जो दिन में काम करता हूं. तस्वीर जो लेता है उससे पैसे लेता हूं. खाली समय में पानी भी बेचता हूं. यही मेरा काम है.

    मोनू को नई जिंदगी देने वाली लिपि उनके बारे में कहती हैं, ‘मेरी एक बेटी की अभी शादी हुई है. उसको भी इन्होंने मदद किया है पैसों से, ऐसी बात नहीं है. और अब मेरे बच्चों की पढ़ाई लिखाई सब यही करते हैं.’

    जिसने नई जिंदगी दी और जीने का मकसद दिया, वह परिवार अब मोनू का अपना परिवार है. लोगों को गुदगुदाकर, उनके चेहरे पर मुस्कान लाकर वे काफी खुश हैं. मोनू जीवन भर चार्ली के रोल में ही रहना चाहते हैं.

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    दिहाड़ी मजदूरी की..ठेले पर फल बेचा..फिर क्या हुआ जो एक शख्स इंसान से बन गया लंगूर

    इंसान से लंगूर बने ये हैं गुजरात के भावनगर के रहने वाले जैकी वाधवानी. लंगूर जैसी वेशभूषा. बंदर जैसी चिचियाने की आवाज. ठीक वैसी ही हरकत जैसे बंदरों की होती है. क्षणभर में कहीं भी उछलकर बैठ जाना. अचानक नजर पड़ जाए तो हड़कंप मच जाए. द बिग पोस्ट में आज कहानी उस मजबूरी की, जिसके बाद न सिर्फ जैकी के परिवार का चूल्हा सीधा हुआ, बल्कि आज उन्हें पूरा देश जानता है.

    हमने कई मंकीमैन देखे हैं. मैन माने सनीमा भी. और मंकीमैन पर सनीमा भी बना है. लेकिन ये वाला मंकी मैन अलग है. ये वेशभूषा मजबूरी में अपनाई गई. कहानी कुछ ऐसी है कि जैकी वाधवानी 14 साल पहले जीवन यापन के लिए दिहाड़ी मजदूरी किया करते थे.

    अतरंगी मिजाज के पहले भी दीवाने थे लोग

    इतनी भी कमाई नहीं हो पाती थी कि घर परिवार चल सके. फिर उन्होंने ठेला लगाकर फल बेचना शुरू किया. कमाई से बामुश्किल दैनिक जरूरतें पूरी हो पाती थीं. कमाई माने रोज के ढाई सौ भी ठीक से नहीं. जैकी की कमाई ठीक भले ही नहीं हो पा रही थी, लेकिन उनके अतरंगी मिजाज के कारण लोग उनसे काफी खुश रहते थे.

    दोस्त ने सलाह दी, ‘मंकी’ बन जाओ

    जैकी की हालत देखकर एक दिन उनके एक दोस्त ने ऐसी सलाह दी, जिससे उनकी जिंदगी ही बदल गई. उनके दोस्त ने कहा, तुम मंकीमैन क्यों नहीं बन जाते. तुम्हारा हुलिया और अंदाज लोगों को काफी पसंद आता है. इसे ट्राई करो. इसे शुरू करने में जिन सामानों की जरूरत पड़ती है, जैकी के दोस्त ने देने का वादा किया. जैकी ने इसे घर वालों से साझा किया तो कोई भी सदस्य राजी न हुआ.

    रथयात्रा में पहली बार किया परफॉर्म

    लेकिन जैकी ने नजरअंदाज करके इसे शुरू किया. पांच दिन बाद ही भावनगर में रथयात्रा थी. मंकीमैन के गेटअप में भावनगर के लोगों ने पहली बार किसी इंसान को सामने से देखा था. जैकी को यहीं से शुरुआती पहचान मिली. फिर वही हुआ, जिसकी उम्मीद थी. जैकी लोगों को मंकीमैन के रूप में खूब पसंद आए. अब शादी-ब्याह, पार्टी, जन्मदिन जैसे कार्यक्रमों के लिए मंकीमैन का खूब क्रेज है.

    मैं अपने माता-पिता औऱ बहन के साथ रहता हूं. मेरे पिता मजदूरी करते हैं.  पिछले 10 साल से मैं इस पेशे में हूं और घर की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है. मैं मंकी मैन का किरदार निभाता हूं, जो पार्टी, जन्मदिन और विवाह समारोह जैसे आयोजनों में हर उम्र के लोगों को एंटरटेन करता है.– जैकी वाधवानी, मंकीमैन

    बच्चों को डराने के लिए लोग बुलाते हैं

    जैकी आठवीं कक्षा तक पढ़े हैं. उनके पिता मजदूरी करते हैं. वह कहते हैं कि लोग उनके इस पेशे को खूब सम्मान देते हैं. पहले तो बच्चों के परिजन बच्चों को डराने के लिए भी उन्हें बुलाते थे. बच्चे शुरुआत में डरते थे, लेकिन अब वे आसानी से दोस्त बन जाते हैं.

    जैकी का सेलिब्रेटी बनने का सपना

    कमाई के बारे में जैकी बताते हैं कि गुजरात में परफॉर्म करने के लिए वे 5 से 6 हजार रुपए चार्ज करते हैं, जबकि गुजरात से बाहर परफॉर्म करने की फीस लगभग दोगुनी हो जाती है. मेरा एक्ट लोगों के चेहरे पर मुस्कान ला रहा है, यह जानकर मैं काफी खुश हूं. जैकी का सपना सेलिब्रेटी बनने का है और उन्हें उम्मीद है यह सपना जरूर साकार होगा.

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    यूं खत्म होता गया चिट्ठी-संदेश का चलन.. अब कहां आते हैं बैरन.. अंतर्देशी लिफाफा

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      अब कहां आती हैं चिट्ठियां कुशल मंगल का पैगाम लेकर. अब कहां रहता है इंतजार चिट्ठियों के जवाब का. अब घरों की दहलीज पर कहां खुलते हैं लिफाफे, एक पन्ने में न जाने कितनी यादों को झकझोरती हुई. अब कहां ढूंढती है बुढ़िया दादी किसी पढ़े लिखे नौजवान को, चिट्ठियां पढ़कर सुनाने के लिए. वो पोस्टकार्ड, वो अंतरदेसी, वो मनीआडर, वो लिफाफा, वो बैरन. अब आती है तो बस याद उस गुजरे जमाने का, जिसे हमने अपनी आंखों के सामने से गुजरते देखा है.

      1 सितंबर को विश्व पत्र लेखन दिवस मनाया जाता है. इस मौके पर द बिग पोस्ट आपको उस गुजरे जमाने को फिर से याद दिलाने की कोशिश कर रहा है. पहले संदेश भेजने का सबसे पहला साधन पत्र ही हुआ करता था. घर से दूर रहने वाले लोग अपने परिजनों को पत्र के माध्यम से अपनी कुशलता की जानकारी देते थे. उन्हें इंतजार रहता था कि उनके पत्र का जवाब उनके घर से कब आएगा. जैसे-जैसे आधुनिकता बढ़ती गई डिजिटल क्रांति मजबूत होती गई वैसे ही चिट्ठी का दौर खत्म होता गया. अब चिट्ठी सिर्फ सरकारी कार्यालयों तक सिमट कर रह गई है.

      हजारों साल पुराना है पत्र लिखने का चलन

      पत्र लिखने की परंपरा हजारों साल पहले शुरू हुई. हजारों सालों से इतिहास में पत्रों की अहम भूमिका रही है. प्राचीन इतिहासकार हेलेनिकस के अनुसार, माना जाता है कि पहला हस्तलिखित पत्र फारसी रानी अटोसा ने लगभग 500 ईसा पूर्व लिखा था.

      भारत में पत्राचार

      भारत में जब डाक विभाग द्वारा पत्राचार का दौर शुरू हुआ. लोगों के बीच संदेश का सबसे बड़ा माध्यम डाक ही था. पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र, लिफाफा, बैरन पत्र, का स्वरूप बढ़ाते बढ़ाते स्पीड पोस्ट तक पहुंच गया. पहले पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र या साधारण डाक द्वारा पत्र भेजने पर एक हफ्ता से 10 दिन तक लग जाता था लेकिन बाद में डाक विभाग में स्पीड पोस्ट सेवा की शुरुआत की ताकि लोगों को जल्द पत्र मिल सके.

      90 के दशक के बाद संचार क्रांति

      90 के दशक के बाद देश में संचार क्रांति में व्यापक परिवर्तन होने लगा. दूरसंचार के क्षेत्र में टेलीफोन का पदार्पण हुआ. गांव-गांव तक टेलीफोन की सुविधा बढ़ने लगी. जैसे-जैसे टेलीफोन का प्रभाव बढ़ने लगा वैसे-वैसे पत्र लिखने की परंपरा कम होने लगी. टेलीफोन के बाद 21वीं शताब्दी में मोबाइल आवश्यक आवश्यकता बन गई है. देश के हर दूसरे हाथ में मोबाइल है.

      चिट्ठी लिखने की कुछ यादें

      पटना विश्वविद्यालय के अवकाश प्राप्त प्राध्यापक प्रोफेसर नवल किशोर चौधरी पत्र लिखने के शौकीन थे. प्रोफेसर साहब किस्सा सुनाते हुए कहते हैं, 1964 में मैं पटना विश्वविद्यालय का छात्र था और जंक्शन हॉस्टल में रहता था. इस समय के हॉस्टल के पते से मुझे जापान और जर्मनी से हर रोज मेरे पास पत्र आते थे. हमारे साथी कहा करते थे कि आपको हर रोज कहां से पत्र आता है, क्यों आता है. इसका बड़ा कारण था कि मैं पत्र लिखता था.

      मैं अपने परिजनों को पत्र लिखता था, यह केवल परिवार तक ही सीमित नहीं था. हमारे अनेक मित्र भी थे जो देश के बाहर विदेशों तक फैले थे. एक ऐसे व्यक्ति थे जो उम्र में मुझसे 40 साल बड़े थे और वेस्ट जर्मनी के स्पेशल एडवाइजर थे. कई पत्र अभी भी उनके पास संकलित हैं, जिनमें उन्होंने लिखा है कि वह अभी इंडिया के ऊपर से उड़ रहे हैं और आपको पत्र लिख रहे हैं. पत्र लिखना एक पर्सनल एलिमेंट होता था यह लोगों से जुड़ी हुई भावनात्मक अभिव्यक्ति होती थी.“- नवल किशोर चौधरी, प्रोफेसर

      जब लिफाफा खुलते ही उमड़ती थी भावनाएं

      हल्दी में लिपटा लिफाफा. खुलते ही भावनाएं उमड़ पड़ती, आदरणीय माता जी. सादर प्रणाम. मैं यहां कुशल हूं. आप सभी की कुशलता की कामना शंकर भगवान से करता हूं. फलां-फलां.. आदि-आदि… आगे दुख दर्द, जरूरत, मशवरा, प्यार, आशीर्वाद, और फिर वापस खत पाने की उम्मीदें. यह ट्रेंड अब खत्म हो चुका है. बदलते दौर और विकसित होती तकनीक ने हमें संचार में इतना तेज तो किया कि जब चाहें हम दुनिया के किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति से बात कर सकें. लेकिन इसके साथ ही वे स्वर्णिम दौर को भी हमने खो दिया है.

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