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‘गोली श्यामला गारू’,की यह कहानी आपको पढनी चाहिए

कई बार हम उम्र को खुद के विकास में अवरोध मानने लगते हैं, पर यह सच नहीं होता। आज हम आपको ऐसी ही एक महिला की कहानी बताने जा रहे हैं जिन्होंने बढ़ती उम्र  की परवाह छोड़  एक नया  कीर्तिमान रचा।  यह  नाम है गोली श्यामला गारू, जिन्होंने 52 साल की उम्र में समुद्र की कठिन परिस्थितियों को चुनौती देते हुए 150 किलोमीटर की दूरी तैरकर पूरी की। यह असाधारण उपलब्धि उन्होंने विशाखापत्तनम से काकीनाडा तक के सफर में हासिल की, जिसे पूरा करने में उन्हें छह दिन लगे।

ऐसी रही असंभव को संभव बनाने की यात्रा

गोली श्यामला ने 28 दिसंबर 2024 को विशाखापत्तनम से अपनी यात्रा शुरू की और 3 जनवरी 2025 को काकीनाडा के सूर्यरावपेट एनटीआर बीच पर पहुंचकर इसे सफलतापूर्वक पूरा किया। हर दिन औसतन 30 किलोमीटर तैरते हुए, उन्होंने समुद्र की तेज लहरों, मौसम की चुनौतियों और थकान को परास्त किया। यह उपलब्धि न केवल भारत बल्कि दुनिया भर के लोगों के लिए प्रेरणादायक है।

पहले भी रचा है इतिहास

यह पहली बार नहीं है जब गोली श्यामला ने अपनी साहसिक तैराकी से लोगों को चौंकाया हो। इससे पहले भी उन्होंने राम सेतु, श्रीलंका और लक्षद्वीप के समुद्र में तैराकी करके अपनी असाधारण क्षमता का परिचय दिया था। उनकी यह उपलब्धि उम्र और शारीरिक सीमाओं को तोड़ते हुए, दृढ़ संकल्प की एक बेहतरीन मिसाल पेश करती है।

समुद्र की लहरों से संघर्ष और जीत

150 किलोमीटर की समुद्री यात्रा केवल शारीरिक शक्ति की परीक्षा नहीं थी, बल्कि यह मानसिक दृढ़ता का भी प्रमाण थी। खुले समुद्र में, जहां तेज लहरें, जलचक्र, और समुद्री जीवों का खतरा बना रहता है, वहां तैराकी करना किसी साधारण व्यक्ति के लिए नामुमकिन सा लगता है। लेकिन गोली श्यामला ने इस चुनौती को न केवल स्वीकार किया, बल्कि उसे जीतकर दिखाया।

मुख्यमंत्री और देशवासियों की सराहना

गोली श्यामला की इस उपलब्धि पर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। उन्होंने इसे “असाधारण साहस की कहानी” बताया और कहा कि “गोली श्यामला की यह उपलब्धि महिलाओं और युवाओं के लिए प्रेरणादायक है, जो यह सिद्ध करती है कि सच्चे संकल्प के आगे कुछ भी असंभव नहीं है।”

इच्छाशक्ति से मिलती है सबलता 

गोली श्यामला की कहानी हमें यह सिखाती है कि  उम्र मुकाम गढ़ने में मायने नहीं रखती । अगर हमारे भीतर कुछ कर गुजरने की चाहत हो, तो कोई भी लक्ष्य बड़ा नहीं होता। उन्होंने यह साबित कर दिया कि सच्ची इच्छाशक्ति और समर्पण से किसी भी बाधा को पार किया जा सकता है।

उनकी यह अद्भुत उपलब्धि हमें यह प्रेरणा देती है कि अपने सपनों को पूरा करने के लिए कभी भी देर नहीं होती। यदि हमारे पास धैर्य, मेहनत और आत्मविश्वास है, तो हम किसी भी चुनौती को पार कर सकते हैं।

सलाम इस साहसी महिला को!

गोली श्यामला की यह सफलता आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मिसाल तो है ही यह बताती है  कि किसी  भी उम्र में मेहनत, साहस और समर्पण से लक्ष्य पर विजय पाया  जा सकता है। यह कहानी यह भी बताती है कि

 जीत उन्हीं की होती है जो अपने डर से आगे बढ़ने का हौसला रखते हैं।”

फोटो: साभार सोशल मीडिया

 

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रोते-रोते हंसना सीखो…

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कभी-कभी जीवन में ऐसे पल आते हैं जब मन बेवजह उदास हो जाता है। आंखें अनायास बरस पड़ती हैं। ऐसा लगता है कि कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा, सब कुछ ठहर सा गया है। लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि उदासी भी जीवन का हिस्सा है, और इसे दूर करने के तरीके हमारे ही हाथ में होते हैं। जब भी मन भारी लगे, इन आसान लेकिन प्रभावशाली तरीकों को अपनाएं –

खुद से बातें करें, अपनी भावनाओं को समझें

मन उदास होने का एक बड़ा कारण यह है कि हम अपनी भावनाओं को अनदेखा करते हैं। जब भी ऐसा महसूस हो, एक शांत जगह पर बैठें और खुद से पूछें – “मुझे क्या परेशान कर रहा है?” अपनी भावनाओं को स्वीकार करें और उन्हें समझने का प्रयास करे।

अपनी पसंदीदा चीजें करें

जो काम आपको खुशी देता है, उसे करें। चाहे वह किताब पढ़ना हो, संगीत सुनना हो, पेंटिंग करना हो या कोई पुराना शौक फिर से अपनाना हो। यह आपको तुरंत राहत देगा और मन को सकारात्मक ऊर्जा से भर देगा।

खुद को प्रकृति के करीब लाएं

खुली हवा में टहलना, सूरज की हल्की किरणों को महसूस करना या किसी बगीचे में बैठकर हरियाली को निहारना – यह सब मन को सुकून देता है। प्रकृति में अपार शांति और ऊर्जा होती है, जो हमारी नकारात्मक भावनाओं को दूर कर सकती है।

किसी अपने से  करें बात 

जब भी मन उदास हो, अपने किसी करीबी दोस्त, परिवार के सदस्य या उस व्यक्ति से बात करें, जो आपको समझता हो। दिल की बातें साझा करने से मन हल्का होता है और नई ऊर्जा मिलती है।

ध्यान और प्राणायाम करें

मेडिटेशन और गहरी सांस लेने की तकनीकें न केवल तनाव को कम करती हैं, बल्कि मानसिक शांति भी प्रदान करती हैं। सिर्फ 5-10 मिनट ध्यान करने से आपका मूड काफी बेहतर हो सकता है।

अपने आभार को महसूस करें

जो कुछ भी आपके पास है, उसके लिए आभार प्रकट करें। हर दिन सुबह या रात को 5 चीजें लिखें, जिनके लिए आप आभारी हैं। यह आदत आपके मन को सकारात्मक दृष्टिकोण देने में मदद करेगी।

अपनी उपलब्धियों को याद करें 

अपनी उपलब्धियों को याद करें, अपनी ताकत को पहचानें और खुद को स्वीकार करें। याद रखें, आप अनमोल हैं, और यह उदासी केवल अस्थायी है। खुद को समय दें और धैर्य रखें।

प्रेरणादायक बातें पढ़ें और सुनें

महान व्यक्तियों की कहानियाँ, मोटिवेशनल स्पीच या कोई सकारात्मक किताब – यह सब आपके विचारों को ऊर्जावान बना सकता है। जीवन में हर मुश्किल का हल होता है, बस नजरिया बदलने की जरूरत होती है।

दूसरों की मदद करें

किसी जरूरतमंद की सहायता करना, गरीब बच्चों को पढ़ाना, किसी की छोटी-सी मदद करना – यह सब आपको अंदर से संतोष देगा और जीवन को एक नई दिशा देगा। जब आप किसी और के चेहरे पर मुस्कान लाते हैं, तो आपकी उदासी खुद-ब-खुद दूर हो जाती है।

खुद को नई उम्मीदों से भरें

यह याद रखें कि यह कठिन समय स्थायी नहीं है। हर रात के बाद सवेरा आता है, और आपकी जिंदगी में भी उजाले की किरणें लौटेंगी। खुद को याद दिलाएं –
“यह वक्त भी गुजर जाएगा, और मैं इससे और भी मजबूत बनकर निकलूंगा!”

अंत में:
उदासी को खुद पर हावी न होने दें। यह भी जीवन का एक हिस्सा है, लेकिन यह आपको रोक नहीं सकती। आप खुद अपने जीवन के रचनाकार हैं, अपनी खुशियों को खुद चुनें और जीवन की खूबसूरती को फिर से महसूस करें!

खुद पर विश्वास रखें, मुस्कुराते रहें, और आगे बढ़ते रहें!”

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ऐसे खिलखिला उठेगा मन में बसंत

वसंत ऋतु की  दस्तक हो चुकी है। फिजा में बसंती मिठास तैर  रही है, पेड़-पौधों पर नई कोंपलें खिलखिलाते  रही है। फूलों की भीनी महक वातावरण को सुगंधित कर रही है। पर क्या हमारा मन भी वासंती उत्साह और उमंग से भर गया है? या फिर जीवन की आपाधापी, चिंताओं और उदासियों ने उसे बेरंग, पतझड़ सा बना रखा है?

सच तो यह है कि वसंत केवल बाहर नहीं आता, उसे मन के भीतर भी लाना पड़ता है। अगर दिल भारी हो, आँखों में नमी हो और चेहरे पर मुस्कान न हो, तो बाहर का यह खिलता मौसम भी मन के वीराने को नहीं भर सकता। असली वसंत वह है, जो हमारे भीतर खिलता है, हमारे विचारों में बसता है, और हमारी आत्मा को रंगों से भर देता है।

कैसे लाएं मन में वसंत?

पुराने दुखों की पतझड़ को विदा करें

जैसे पेड़ अपने सूखे पत्तों को गिराकर नए पत्तों के लिए जगह बनाते हैं, वैसे ही हमें भी अपने जीवन से पुराने दुख, गिले-शिकवे और निराशाओं को छोड़ना होगा। बीती बातों को पकड़े रहने से हम भविष्य के वसंत का स्वागत नहीं कर सकते।

छोटी खुशियों के फूल खिलाएं

खुश रहने के लिए किसी बड़े मौके की जरूरत नहीं होती। सूरज की पहली किरण को महसूस करना, बच्चों की हंसी सुनना, किसी जरूरतमंद की मदद करना—इन छोटी-छोटी चीजों में ही असली आनंद छिपा होता है। इन पलों को संजोने से जीवन में वसंत अपने आप उतर आता है।

 संगीत से सजाएं अपनी आत्मा को 

प्रकृति में हर चीज़ की अपनी लय है—पंछियों की चहचहाहट, हवा की सरसराहट, झरने की कलकल। इन ध्वनियों को महसूस करें और अपने मन को भी किसी मधुर गीत की तरह बहने दें। संगीत वह जादू है, जो मन की उदासी को पिघलाकर उसे उमंग से भर देता है।

खुद से करें प्यार 

अक्सर हम दूसरों के लिए जीते हैं, उनकी उम्मीदों को पूरा करने में अपने भीतर की खुशियों को नजरअंदाज कर देते हैं। लेकिन खुद से प्यार किए बिना कोई भी सच में खुश नहीं रह सकता। अपने लिए समय निकालें, अपनी रुचियों को दोबारा जिएं, और खुद को भी वही स्नेह दें, जो दूसरों को देते हैं।

वसंत केवल महसूस करने के लिए नहीं, जीने के लिए होता है। घर से बाहर निकलें, हरे-भरे पेड़ों को देखें, फूलों की खुशबू लें, और जीवन की गति को थोड़ा धीमा करें। प्रकृति के पास एक अनकहा जादू है, जो हमारे भीतर के सन्नाटे को मधुर संगीत में बदल सकता है।

असली वसंत भीतर खिलता है

अगर आपका मन प्रसन्न है, तो हर मौसम वसंत जैसा लगेगा। लेकिन अगर भीतर निराशा है, तो बसंत का यह सुहावना मौसम भी फीका लगेगा। इसलिए, इस बार केवल बाहरी वसंत का स्वागत न करें, बल्कि अपने मन में भी खुशियों के फूल खिलाएं।

आइए, इस वसंत ऋतु में हम खुद से यह  वादा करें कि हम जीवन को हल्केपन से जिएंगे, छोटी-छोटी खुशियों को समेटेंगे, और अपने मन के भीतर भी एक सुंदर वसंत बसाएंगे—एक ऐसा वसंत, जो कभी न बीते।

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हौले-हौले झरोखे, चलो खोलें खुशी के

हम अक्सर जीवन में बड़ी सफलताओं, ऊँचे पदों और भव्य उपलब्धियों की तलाश में रहते हैं, लेकिन सच्ची खुशी उन्हीं में सीमित नहीं होती। असल में, जीवन की सबसे मधुर मुस्कानें उन छोटी-छोटी खुशियों में छुपी होती हैं, जिन्हें हम अनदेखा कर देते हैं।

एक बच्चे की निश्छल हँसी, बारिश की पहली फुहार, माँ के हाथों का बना खाना, पुराने दोस्त का अचानक मिल जाना, या किसी जरूरतमंद की मदद करने से मिलने वाली आत्मिक संतुष्टि—ये सब हमारे जीवन को संवारते हैं और उसे अर्थपूर्ण बनाते हैं।

छोटी खुशियों का महत्व को हम ऐसे समझ सकते हैं


मानसिक शांति और संतोष

रोजमर्रा की भागदौड़ में जब हम छोटी-छोटी खुशियों को पहचानना सीखते हैं, तो जीवन में संतोष बढ़ता है। हमें एहसास होता है कि खुशी सिर्फ बड़ी उपलब्धियों में नहीं, बल्कि साधारण पलों में भी बसती है।

सकारात्मक दृष्टिकोण

जो लोग छोटी-छोटी खुशियों को महत्व देते हैं, वे अधिक सकारात्मक और खुशमिजाज होते हैं। यह आदत कठिन समय में भी हमें आशावादी बनाए रखती है और हमें मानसिक रूप से मजबूत बनाती है।

रिश्तों में मिठास

किसी अपने के साथ बैठकर हँसी-मजाक करना, परिवार के साथ भोजन करना, या दोस्तों के साथ पुरानी यादें ताजा करना—ये छोटे-छोटे पल रिश्तों को गहराई देते हैं और जीवन को रंगीन बनाते हैं।

तनाव में कमी

जब हम छोटे-छोटे सुखों को महसूस करते हैं, तो हमारा मस्तिष्क सकारात्मक हार्मोन (जैसे डोपामिन और सेरोटोनिन) का स्राव करता है, जिससे तनाव कम होता है और हम अधिक ऊर्जावान महसूस करते हैं।

ऐसे पहचाने छोटी-छोटी खुशियाँ

वर्तमान में जिएँ: भविष्य की चिंताओं और अतीत के पछतावे में फँसे रहने के बजाय, वर्तमान के छोटे सुखों को महसूस करें।
आभार प्रकट करें: जो कुछ भी हमारे पास है, उसके लिए कृतज्ञ रहें। इससे मन में संतोष बढ़ता है।
छोटी चीज़ों में आनंद ढूँढें: सुबह की ताज़ी हवा, चिड़ियों की चहचहाहट, या किसी प्रियजन का स्नेह—इन पलों को संजोएँ।
दूसरों को खुश करें: किसी को मदद करना या किसी का दिन बेहतर बनाना, खुद के लिए भी खुशी लाता है।

बड़े सपने देखना और सफलता पाना ज़रूरी है, लेकिन असली खुशी छोटे-छोटे पलों में छुपी होती है। अगर हम इन पलों को महसूस करना सीख लें, तो जीवन अपने आप ही खुशनुमा और संतोषजनक हो जाएगा।

इसलिए, खुशियों को तलाशने के बजाय, उन्हें महसूस करना शुरू करें—क्योंकि छोटी खुशियाँ ही मिलकर बड़े सुख की राह बनाती हैं।

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कहानी जन-मन में कानूनी जागरूकता भरने वाले पूर्व न्यायाधीश बटेश्वर नाथ पाण्डेय की

यह कहानी एक ऐसे शख्स की है जिनका बचपन मुफलिसी में बीता । किसान पिता के कथन और संघर्ष को मंत्र बना उन्होंने न सिर्फ खुद को स्थापित किया बल्कि न्याय का सूर्य बन अंधेरे समय और समाज में सत्यमेव जयते का रंग और राग भरा। सबसे कम समय में न्याय दिलवाने की बात हो या फिर सबसे तेजी से मुकदमे का निपटारा करने की। गांव- जवार जाकर आम लोगों को कानूनी बारिकियों से अवगत कराने से लेकर स्कूली बच्चों को आसान भाषा में कानूनी अधिकारों का फलसफा बताने तक , बिना रुके बिना थके जोश- जुनून और नई उम्मीद से लैस। मकसद यह की सच की कसौटी बुलंद होती रहे कानून की इबारत , बुलंद होता रहे हमारा लोकतंत्र और महफूज हो निर्भयता के साथ मस्तक ऊंचा कर मुस्कुराती रहें वसुंधरा। आज कहानी मुश्किल हालातों से दो दो हाथ कर कानून की अनवरत रक्षा का प्रण लेने वाले पूर्व न्यायाधीश बटेश्वर नाथ पाण्डेय की…

संघर्ष को बनाया सफलता का साथी

पूर्व न्यायाधीश बटेश्वर  नाथ पाण्डेय का शुरुआती जीवन संघर्षों के कांटेदार रास्ते से गुजरते हुए बीता। जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िला के छोटे से गांव गंगा पाण्डेय का टोला में 1 अप्रैल 1963 को हुआ।
पिता स्वर्गीय बलिराम पाण्डेय सामान्य खेती- किसानी से जुड़े थे। मां स्वर्गीय सहोदरी देवी एक गृहिणी थीं। मां की रुचि धर्म-कर्म में भी काफी ज्यादा थी। बचपन से ही मां ने इन्हें नैतिकता के रास्ते पर चलने की राह दिखाई। पिता की आमदनी अत्यंत सीमित थी पर मन का हौसला असीमित था। वह अपने बच्चों की हौसला-अफजाई करते और बड़े सपने देखने और उसे साकार करने की बात कहते।


गांव के स्कूल से पढ़ाई

पूर्व न्यायाधीश बटेश्वर नाथ पाण्डेय बताते हैं की परिवार में हम दो भाई और तीन बहन थें। मैं भाई में सबसे बड़ा हूं। तब हमारे परिवार की आय बहुत ही कम थी। पिताजी किसी तरह से माह का खर्च चला पाते। आर्थिक आमदनी का जरिया बस खेती ही थी ।

वहां भी मेहनत के बाद उपज की कोई गारंटी नहीं। कभी मौसम की मार से सारी उपज खत्म हो जाती तो कभी जानवर और टिड्डों की भेंट चढ़ जाती।

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विविधता में है सुंदरता और एकता में है शक्ति”

रंग बिरंगे ड्रेस में उत्साह से लबरेज बच्चे। ओठों पर वसुधैव कुटुंबकम का राग लिए, उत्साह के साथ पूरी दुनिया को यह संदेश देने में जुटे थे कि पूरा विश्व ही एक परिवार है। हम अलग अलग रंग रूप और जाति- धर्म के होकर भी एक हैं। एक परिवार है। सबको खुशियां बांटते हुए सबके ग़म में साथी बनते हुए हम एक साथ खड़े हैं।

 

सेंट माइकल्स हाई स्कूल में 6 दिसंबर 2024 को “वसुधैव कुटुंबकम – एक विश्व, एक परिवार” विषय पर भव्य समारोह का आयोजन किया गया। यह आयोजन मानवता की साझा भावना और विविधता में एकता के महत्व को रेखांकित करता है।

इनकी रही मौजूदगी

कार्यक्रम की शुरुआत मुख्य अतिथि श्री सुनील कुमार यादव (आईएएस), विशिष्ट अतिथि डॉ. मनीष मंडल और विशेष अतिथि डॉ. भानु प्रताप के स्वागत से हुई। मुख्य अतिथियों को विद्यालय बैंड ने गार्ड ऑफ ऑनर दिया और स्वागत गीत के साथ पुष्पगुच्छ व पौधों द्वारा उनका सम्मान किया गया। दीप प्रज्वलन के बाद प्रार्थना नृत्य और मधुर स्वागत गीत ने दर्शकों का मन मोह लिया।


शिक्षा का उद्देश्य शांति और सह-अस्तित्व भी: फादर ए. क्रिस्टू सावरिराजन एस.जे

प्राचार्य.  फादर ए. क्रिस्टू सावरिराजन एस.जे
ने अपने स्वागत भाषण में “वसुधैव कुटुंबकम” की प्रासंगिकता पर जोर देते हुए करुणा, सहयोग और वैश्विक एकता के महत्व को रेखांकित किया।

फादर ए. क्रिस्टू सावरिराजन एस.जे ने कहा  कि शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि शांति और सह-अस्तित्व के लिए युवाओं को तैयार करना है। फादर ने आगे कहा कि आज पूरी दुनिया हिंसा की और बढ़ रही है ऐसे में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना हमें शांति और विश्व बंधुत्व की और अग्रसर करती है। यह अहिंसा और प्रेम के मार्ग पर चलने का संदेश देती है।


छात्रों को मिला पुरस्कार

पुरस्कार वितरण समारोह में छात्रों की उपलब्धियों को सम्मानित किया गया, जिसमें शैक्षणिक उत्कृष्टता और विशेष पुरस्कार शामिल थे। मुख्य अतिथि ने छात्रों और शिक्षकों की प्रशंसा करते हुए विद्यालय के प्रबंधन की प्रतिबद्धता और प्राचार्य के नेतृत्व को सराहा, जिसने सेंट माइकल्स को उत्कृष्टता की नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है।


नृत्य नाटक की रोमांचक प्रस्तुति

कार्यक्रम की प्रमुख प्रस्तुति “वसुधैव कुटुंबकम” पर आधारित नृत्य नाटक रही, जिसने शरणार्थियों की स्थिति और करुणा के महत्व को प्रभावशाली तरीके से दर्शाया। यह प्रस्तुति दर्शकों को वैश्विक भाईचारे का संदेश देकर मंत्रमुग्ध कर गई।

उप-प्राचार्या द्वारा धन्यवाद ज्ञापन और राष्ट्रीय गान के साथ हुआ। इस आयोजन ने विविधता में एकता के संदेश को सशक्त तरीके से प्रस्तुत किया।

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इसे पागलपन कहें या जुनून.. ड्राइवर ने टैक्सी को बना दिया चलता-फिरता बगीचा.. अब सफर को बेताब लोग

कोलकाता की सड़कों पर फर्राटे भरती हुई पीली टैक्सी तो बहुत देखी होगी आपने. लेकिन ये टैक्सी कुछ अलग है. कार की छत पर धातु के कंटेनर हैं. जिनके नीचे मिट्टी, सफेद रेत और पत्थर के टुकड़े रखे गए हैं. मशीनों की मदद से असली हरी घास उगाई गई है, जिसका वजन लगभग 65 किलोग्राम हो जाता है. इसे बनाने में अलग से करीब 22 हजार रूपए खर्च हुए. और इस तरह से यह पीली कार ग्रीन टैक्सी बन गई. माने चलता फिरता बगीचा.

ऐसे मिली प्रेरणा

ग्रीन टैक्सी चलाने वाले ये हैं धनंजय चक्रवर्ती

इस ग्रीन टैक्सी को चलाते हैं धनंजय चक्रवर्ती. उम्र 40 साल. वे कोलकाता के टॉलीगंज करुणामयी स्थित टैक्सी स्टैंड से ऑटो चलाने का काम करते हैं. उनका यह प्रोजेक्ट कई स्टेज में पूरा हो सका. इसकी शुरुआत तीन साल पहले हुई थी जब उन्होंने एक खूबसूरत कांच की बोतल में मनी प्लांट लगाया था जिसे एक यात्री ने पीछे की सीट पर छोड़ दिया था. इसके बाद से चक्रवर्ती ने इसकी देखभाल की और टैक्सी में ही इसका पालन-पोषण किया.

शुरू में लोगों ने कहा.. पागल है

कार के पीछे गमलों में लगाए फूल और शो प्लांट

चक्रवर्ती के लिए यह सफर आसान नहीं था. जब उन्होंने अपनी कार को मोडिफाई करना शुरू किया तो साथी ड्राइवरों ने उनका मजाक उड़ाया.  ज़्यादातर लोगों ने इसे गहराई से देखने से पहले ही सोचा कि वह इस तरह की बात सोचने के लिए पागल है. लेकिन उन्होंने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और पूरी लगन से अपने कार्य के प्रति लगे रहे.

धनंजय कहते हैं, इसको लेकर बहुत लोगों ने बहुत कुछ बोला. कुछ लोगों ने कहा कि मैं पागल हो गया हूं. तो किसी ने कहा कि कीड़ा मकोड़ा होगा. तो हमने कहा कि अब लगा दिया तो ठीक है. मर जाएगा तो फेंक देंगे.”

कार के अंदर प्राकृतिक घास उगे हैं

सुबुज रथ’ या हरा रथ

अब उनकी कार के छत पर चलता फिरता बगीचा है. जिसमें रंग-बिरंगे फूल खिले हैं. कार की डिक्की में गमलों में लगे पौधों के साथ एक छोटी सी हरी गुफा है. यह वाकई एक अद्भुत और विस्मयकारी नजारा होता है. धनंजय इसे सुबुज रथ’ या हरा रथ कहते हैं. आज उनकी इस ग्रीन कार का खूब क्रेज है. हर कोई इस मूविंग पार्क के जरिए सफर जरूर करना चाहता है.

चक्रवर्ती का खास संदेश

इतना ही नहीं, चक्रवर्ती एक और संदेश देते हैं. वे कहते हैं कि पेड़ लगाना ही काफी नहीं है. उनकी देखभाल करना और पालन-पोषण करना भी महत्वपूर्ण है. क्योंकि पेड़ लगाने की पहल तो हर समारोह में हो जाती है लेकिन वही लोग बाद में पेड़ की देखभाल ठीक तरीके से नहीं कर पाते हैं.

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ट्राम अतीत नहीं भविष्य है.. कोलकाता की 150 साल पुरानी विरासत यूं खत्म हो जाएगी?

भारत का इकलौता शहर कोलकाता जहां आज भी ट्राम चलती है. बीते डेढ़ सौ साल से ये यहां के लोगों की हमसफर रही है. लेकिन अब इसके पहिये शायद थमने वाले हैं.

पश्चिम बंगाल सरकार ट्राम को बंद करना चाहती है. अगर सार्वजनिक परिवहन से ट्राम को हटाया जाता है तो ट्राम प्रेमियों के लिए यह शहर की पहचान को मिटाने जैसा है. कोलकाता का दुर्गा पूजा, रसगुल्ला, विक्टोरिया मेमोरियल, हावड़ा ब्रिज जैसे इस शहर की पहचान है, वैसे ही ट्राम भी यहां की विरासत है जो डेढ़ सौ साल पुराना है.

ट्राम का सफर.. एक नजर

शुरुआत में ट्राम को घोड़ों से खींचा जाता था

दुनिया के कई शहरों की तरह जब पहली बार कोलकाता में पहली बार ट्राम चली तो उसे इंजन नहीं, बल्कि घोड़े खींचते थे. साल था 1873 जब सियालदह से लेकर अरमेनियन घाट तक करीब चार किलोमीटर तक चलने वाली यह ट्राम सेवा कुछ ही महीनों में बंद कर दी गई. लेकिन इसके 7 साल बाद कोलकाता में फिर से ट्राम की शुरुआत हुई. साल 1882 में ट्राम को चलाने के लिए भाप वाले इंजन का इस्तेमाल हुआ जो काफी सफल रहा. इस तरह कुछ साल चलने के बाद बिजली से चलने वाले ट्राम की शुरुआत साल 1902 से हुई. फिर शहर का ट्राम नेटवर्क बढ़ता चला गया.

यूं थमते गए ट्राम के पहिए

कलकत्ता ट्राम यूजर्स एसोशिएशन (CTUA) बताते हैं कि जब ट्राम नेटवर्क पूरी तरह से काम कर रहा था तब कोलकाता और हावड़ा में इसके 40 से ज्यादा नेटवर्क थे. हावड़ा का अलग ट्राम वे था. अभी सिर्फ तीन रूट ही चल रहे हैं. 2015 तक कोलकाता में 25 रूटों पर ट्राम चल रही थी. बीते कुछ सालों में कोलकाता की सड़कों से ट्राम गायब होते चले गए. कुछ लोग इसे गुजरे जमाने की चीज मानने लगे तो कुछ इसकी धीमी गति को सड़कों पर जाम की वजह बताते हैं.

ट्राम को बंद करना चाहती है बंगाल सरकार

पिछले दिनों कोलकाता हाईकोर्ट में ट्राम से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान पश्चिम बंगाल के परिवहन मंत्री स्नेहाषीश चक्रवर्ती ने ट्राम को बंद करने की योजना के बारे में बताया. हालांकि, इसकी अभी कोई तारीख तय नहीं की गई है. परिवहन मंत्री ने बताया कि ट्राम की धीमी गति पीक आवर्स में सड़कों पर ट्रैफिक जाम का कारण बनती है और मौजूदा वक्त में उसे इसी गति पर चलाए रखना कठिन है, क्योंकि यात्रियों को तेज चलने वाले पब्लिक ट्रांसपोर्ट की जरूरत है. पर्यटकों के लिए मैदान से लेकर एस्प्लानाडे तक जाने वाली ट्राम रूट खुला रहेगा. बाकी रूटों से ट्राम को हटाया जाएगा.

कोई टाइम टेबल नहीं है. बहुत कम ट्राम चल रही है. आपको पता नहीं होता है कि अगली ट्राम कब आएगी. एक घंटा या दो घंटा बाद. दूसरी बात.. कि पहले ट्राम के लिए रिजर्व ट्रैक होते थे. अब कार मालिकों की सुविधा के लिए उन ट्रैक्स को डिरिजर्व कर दिया गया है. योजना यह है कि लोग ट्राम में नहीं चढ़ें. निश्चित तौर पर आप पूछ सकते हैं कि इससे किसको फायदा है? प्राइवेट टैक्सी, ट्रांसपोर्ट को”.देबाशीष भट्टाचार्य, अध्यक्ष, CTUA

देबाशीष भट्टाचार्य, अध्यक्ष, CTUA

रफ्तार में बाधा है ट्राम?

जानकार कहते हैं कि जिस रफ्तार से कोलकाता को चलना चाहिए, उस स्पीड के आधा के आधा से भी कम रफ्तार ट्राम की है. ऐसे में शहर को ट्राम के जरिये संभालना मुश्किल है. यानी कोलकाता समय के साथ आगे तो बढ़ा लेकिन इलेक्ट्रिफाई होने के बाद भी ट्राम आगे न बढ़ सकी.

दुनिया के दूसरे शहरों ने संभालकर रखा है ट्राम

दूसरा पहलू यह भी है कि ट्राम को दुनिया के कई देशों ने शान से संभालकर रखा है. उन देशों में ट्राम कोलकाता की तरह नजरअंदाज नहीं.. बल्कि वहां यह आधुनिक परिवहन व्यवस्था का हिस्सा है. आस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर में दुनिया का सबसे पुराना ट्राम नेटवर्क है. 1885 से चल रही मेलबर्न ट्राम आज 20 से ज्यादा रूटों पर चलती है. 500 से ज्यादा ट्राम का नेटवर्क करीब 250 किलोमीटर दूरी को आसान करती है.

आस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर में ट्राम पब्लिक ट्रांसपोर्ट का हिस्सा है

विदेशी ट्राम के नेटवर्क से सीखने की जरूरत

वहीं, रूस के शहर सैंट पीटर्सबर्ग में 40 रूटों पर ट्राम चल रही है. इनके जरिए 205 किलोमीटर तक का सफर तय किया जाता है. दुनिया के सबसे बड़े ट्राम नेटवर्क के मामले में तीसरा स्थान जर्मनी के बर्लिन शहर का है, जहां ट्राम के 22 रूट हैं और वे 193 किलोमीटर नेटवर्क का हिस्सा हैं.

जर्मनी के बर्लिन शहर में भी ट्राम का बड़ा नेटवर्क है

ट्राम अतीत नहीं.. भविष्य है

मॉर्डन होती दुनिया में जब विश्व के दूसरे देशों में ट्राम चल सकती है तो सवाल ये है कि भारत के शहर में कोलकाता में क्यों नहीं? जानकार और जिम्मेदार भी चाहते हैं कि कोलकाता में ट्राम चलती रहे लेकिन इसके स्वरूप को थोड़ा बदलना पड़ेगा. इसके चाहने वाले कहते हैं कि ट्राम को शहर का अतीत नहीं बल्कि भविष्य समझना चाहिए.

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एक शहर जो विश्वास की बदौलत चलता है.. पढ़िए आपसी भरोसे की मिसाल कायम करने वाली कहानी

बिना कैश काउंटर के बेकरी, जहां आप अपनी मर्जी से चीजें खरीद सकते हैं और उचित मूल्य लगाकर भुगतान भी. बिना किसी शुल्क के घंटों तक कायकिंग, अजनबी से मुलाकात और घंटों तक बातचीत. जरा कल्पना कीजिए कि ऐसी जगह कौन सी हो सकती है?

मुफ्त में एडवंचर कहां मिलता है?

देशप्रेम के नाते संभव है आप अपने देश या अपने शहर का नाम बोल सकते हैं. इसे हम कुछ हद तक सही भी मान सकते हैं कि लेकिन तब जब आप खुद से खरीदारी करके खुद उचित दाम लगाकर भुगतान करें. या कोई मुफ्त में आपका मनोरंजन करे. या फिर ट्रेन या बस में सफर करते वक्त आप बेफिक्र होकर अपने सामान या बच्चों को दूसरों के भरोसे छोड़ सकें. संभव है कुछ हद तक आपका जवाब इत्तेफाक से डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन से मिल जाएं.

सिस्टम जो विश्वास के दम पर चलता है

माइलस्टोन में आज कहानी उस शहर की जो विश्वास के दम पर चलता है. जिसका सिस्टम आपसी भरोसे की मिसाल कायम करता है. वो शहर है डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन. बिना किराए की कायकिंग, अजनबी से बढ़िया बातचीत और बिना निर्धारित मूल्य के ब्रेड आपको कोपेनहेगन में मिल सकेगा.

डेढ़ घंटे तक कायकिंग मुफ्त

दो लोगों के लिए 90 मिनट तक कायकिंग मुफ्त है. लेकिन इसके लिए एक शर्त होती है. वह शर्त है नदियों या तालाबों से ज्यादा से ज्यादा कचरा इकट्ठा करना. लोगों को मुफ्त में मनोरंजन चाहिए, इसके लिए वे नीक नीयत के खातिर कचरा बीन लेते हैं. इस दौरान उन्हें प्लास्टिक मिलता है. कभी कभी तो उन्हें मल-मूत्र से भरा थैली भी. लेकिन बावजूद वे इसे करते हैं. मकसद मनोरंजन से ज्यादा स्वच्छता का होता है.

टोबियास वेबर एंडरसन जिन्होंने मुफ्त कायकिंग का आइडिया लाया

पूरी तरह से भरोसे पर आधारित कॉन्सेप्ट

कचरे बीनने की शर्त पर मुफ्त कायकिंग का आइडिया टोबियास वेबर एंडरसन का है. वह कहते हैं, मैं नदियों में इतना ज्यादा कचरा देखकर दंग रह जाता था. मैं इस दिशा में कुछ करना चाहता था. मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों को इसमें सक्रिय बनाना चाहता था. यह कॉन्सेप्ट पूरी तरह से भरोसे पर आधारित है. जो काफी सफल है.

शहर में यूनिक ह्मयूमन लाइब्रेरी

ड्रीम कायकिंग के जरिए उन्होंने खेल और एडवंचर को पर्यावरण के संरक्षण से जोड़ दिया है. यहां एक दूसरे जिले में एक अनोखी लाइब्रेरी है, जिसे ह्यूमन लाइब्रेरी कहते हैं. जहां आप किताबें तो पढ़ ही सकते हैं, अपने दिल का हाल भी बता सकते हैं.

रोनी आबेरगल, ह्मयूमन लाइब्रेकी के फाउंडर

इस लाइब्रेरी को स्थापित करने वाले रोनी आबेरगल कहते हैं कि उनकी लाइब्रेरी सबके लिए है. यहां आकर आप इंसानियत को खंगाल सकते हैं. उम्मीद है कि आपसी बातचीत से लोग समझेंगे. स्वीकार करेंगे. हम सबको इसकी जरूरत भी है. हम अकेले रहकर ये नहीं कर सकते, इसलिए हमें कंधे से कंधा मिलाकर चलना होगा.

समानता का अधिकार जीवन का सिद्धांत

जिन्होंने डेनमार्क को जीया है, वे कहते हैं कि यहां समानता का अधिकार ही जीवन का सिद्धांत है. यहां विश्वास की नींव पर सबकुछ टिका है. बेकरी जहां कोई कैशियर नहीं होता. यहां ग्राहक आते हैं. अपने जरूरत के फूट आइटम पैक करते हैं और फिर खुद से भुगतान करके चले जाते हैं. इस बेकरी के मालिक मार्टिन फोगेलियस कहते हैं कि ऐसी जगह में अकेले बेकरी चलाने का एकमात्र यही उपाय है. हमें लोगों पर भरोसा करना होगा.

बेकरी के मालिक मार्टिन फोगेलियस

द बिग पोस्ट आपसे यह सवाल पूछता है कि क्या आपके शहर में ऐसी व्यवस्था सफल हो सकती है, जो आपसी भरोसे पर चल सके?

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दिल्ली के इस इलाके में हर साल तैयार होता हजारों ‘रावण’… इनके जलने से हजारों घर चलते हैं

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जब देशभर में शक्ति की देवी की आराधना होती है. भजन, कीर्तन, आरती, यज्ञ, हवन आदि-आदि. उसी समय दिल्ली के तीतरपुर इलाके में हजारों की संख्या में ‘रावण’ तैयार हो रहे होते हैं. रावण तैयार होना माने रावण के पुतले जो बनते ही वध के लिए तैयार होते हैं.

विरासत में मिला रावण बनाने का काम

रावण का पुतला बनाने का काम ऐसा है कि आज की पीढ़ी को भी यह विरासत में मिला. उम्मीद है आने वाली पीढ़ियों को भी मिले, जिससे अधर्म पर धर्म का विजय पताका हमेशा लहराता रहे.

ताकि आने वाली पीढ़ियां भी न भूले

ये हैं मदन लाल लोहिया.  ये दिल्ली के टैगोर गार्डन के पास तीतरपुर गांव में रहते हैं. रावण के पारंपरिक पुतले बनाते हुए इन्हें 40 साल से भी ज्यादा समय बीत चुका है. आगे की पीढ़ी को भी मदन लाल अपनी यह कला विरासत में दे रहे हैं. उनका बेटा छोटी उम्र से ही पिता से रावण बनाना सीख रहा है.

रावण के पुतलों का भारी डिमांड

अपनी कलाकारी और काम पर इन्हें गर्व है. मदनलाल बताते हैं कि इनकी दुकान न्यू इंडिया रावण वाले से इनके बनाए पुतले आस्ट्रेलिया तक भेजे जा चुके हैं. देश में तो रावण के पुतले के लिए महीनों पहले से ऑर्डर भी मिलते हैं.

5000 से ज्यादा कारीगर बनाते हैं पुतले

राजधानी दिल्ली के पश्चिमी हिस्से में स्थित तीतरपुर में हर साल दशहरे के समय सैकड़ों कारीगर रावण के पुतले बनाते हैं. यह एशिया का सबसे बड़ा पुतला मार्केट है. त्योहार के सीजन में 5 हजार से ज्यादा कारीगर दिन रात एक कर बांस और देसी तरीके से हर साल हजारों की संख्या में पुतले बनाते हैं.

जलता है रावण तो चलता है घर

नवरात्रि के समय से ही तीतरपुर के बाजार में आपको रावण के पुतले दिखने शुरू हो जाएंगे. दुकानदार सड़क किनारे रावण को सजाए रखते हैं. इनके बनाए पुतले जब जलते हैं तो इनके घरों में रोशनी आती है. रोटी का खर्च निकलता है.

त्योहार के सीजन में वैसे तो ये रावण गढ़ते हैं, लेकिन साल के बाकी समय में ये कारीगर कार्पेंटर, इलेक्ट्रिशियन, पेंटर और अन्य तरीके के कामगार होते हैं.

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