भूख मिटाने के लिए लिए कभी सूखी रोटी पानी में डूबो कर खाते। । खास जरूरत के लिए सहकर्मी से 100 रूपए उधार मांगा, जब पैसे होते हुए भी सहकर्मी ने रूपए उधार नहीं दिए। तब भीगी आंखों ने एक सपना गढा और हृदय ने मजबूत हो इस सपने को जमीं पर उतारने का संकल्प लिया। आज छोटे भाई नितिन के साथ कैफे चेन , BATIDO के मालिक हैं। ब्यूटी और कास्मेटिक प्रोडक्ट का भी बिजनेस बुलंदी पर है। महज 8 हजार की पगार पर नौकरी करने वाले निखिल बाबू ने भाई नितिन के साथ मिलकर कैसे खड़ा किया भारत की मशहूर कैफे BATIDO.का साम्राज्य, इस लेख में पढ़िए उनकी दिलचस्प कहानी…
वो बहुत संघर्ष के दिन थे तब पटना में एक छोटे से कमरे में हम पांच लोग रहते थे। फर्श पर ही सोना होता था। सैलून में काम करता था। थोड़े से जो पैसे मिलते उसे घर भेज देता। मैंने भूख मिटाने के लिए पानी में सूखी रोटी डूबा कर कई-कई दिनों तक खाएं हैं।
बस मन में यह भाव रहता था कि मुझे और भी बेहतर करना है। खुब मेहनत करनी है।
अपने पुराने दिनों को याद करते हुए निखिल बाबू की आंखें डबडबा जाती है।
और केरल के निखिल को पटना से प्यार हो गया
निखिल अपने जीवन संघर्ष की दास्तान आगे बताते हुए कहते हैं कि हम केरल के मूल निवासी हैं। बिहार आना एक इत्तेफाक जैसा था। शायद फिर किस्मत ने मेरी सफलता के लिए बिहार को ही चुना था। केरल में बिहार का नाम आते ही लोग अजीब सा चेहरा बना लेते थे। कुछ लोग बिहार के नाम पर डरावनी कहानियां सुनाते तो कुछ इसे पिछड़ा प्रदेश बनाते। मुझे भी जब पहली बार इंटर्नशिप के लिए बिहार भेजा गया तो मन में कई तरह के सवाल थे , डर भी था। जब यहां आया तो देखा ऐसा कुछ भी नहीं। यहां के लोग काफी मिलनसार और मददगार हैं। हां इक्के-दुक्के नकारात्मक लोग तो आपको हर प्रदेश में मिल जाएंगे जो यहां भी हैं। आप सोचिए मुझे बिजनेस में यहां के लोगों का समर्थन नहीं मिलता तो मैं केरल का आदमी यहां कैसे अपना बिजनेस खड़ा कर पाता। , रहन सहन केरल और बिहार का बहुत अलग है , शुरू शुरू में भाषा की समस्या भी आती थी पर जब दिल की भाषा मिलती हो तो सब खुबसूरत हो जाता है। अब मुझे यह लगता ही नहीं कि यह मेरा बर्थ प्लेस या अपना स्टेट नहीं है। यहां के लोगों मेरे मुझे दुख -सुख में साथ दिया है। सच कहूं तो अब पटना और बिहार मेरे दिल की धड़कन बन चुके हैं। पटना से इतना प्यार हो गया है वो गीत है न कि’ जीना यहां मरना यहां। लव यू पटना।
आठ हजार की पगार से करोड़ों का सफर
निखिल बताते हैं कि मेरा जन्म केरल में जन्म हुआ और शिक्षा – दीक्षा भी केरल से ही हुई।माता जी स्कूल में अध्यापिका थीं और पिताजी दुबई की एक कंपनी में काम करते थे। बाद में पिताजी ने केरल में ही अपना खुद का छोटा सा बिजनेस कर लिया। सब कुछ ठीक चल रहा था पर इंटर की पढ़ाई करने के दौरान ही मेरे जीवन की एक दुखद घटना घटी। पिताजी का निधन हो गया। इस घटना ने मुझे अंदर से तोड़ दिया। मेरा एक छोटा भाई भी है। मुझे इसके बाद हर वक्त घर की चिंता सताती रहती। मुझे लगता की मेरे कंधे पर घर की जिम्मेदारी है। मैंने अपने सभी सपनों का त्याग कर दिया और तकनीकी शिक्षा की और कदम बढ़ाया। अब मैं जल्द से जल्द पैसा कमाना चाहता था ताकि घर की जिम्मेदारी उठा सकूं।
इसके लिए मैंने फायर सेफ्टी का कोर्स किया। फिर कई शॉर्ट टर्म कोर्सेज किए । मकसद यह रहा कि मुझे जल्द काम मिल जाए । इसी क्रम में केरल के कोच्चि से 6 माह का कोर्स सैलून इंडस्ट्री मैनेजमेंट का किया। फिर स्पा मैनेजमेंट का क्रैश कोर्स किया। 6 माह के सैलून इंडस्ट्री के कोर्स के दौरान ही जर्मनी की एक कंपनी ने हमारे संस्थान से कुल 40 छात्रों में से दो छात्रों का चुनाव कैंपस सलेक्शन के तौर पर किया। उपर वाले का आशीर्वाद था कि उन दो छात्रों में एक छात्र मैं भी था।
थमा नहीं संघर्ष का सफर
निखिल बाबू आगे कहते हैं कि कैंपस सलेक्शन में चुने जाने के बाद मुझे लगा कि अब सुख वाले दिन आ गए पर किस्मत के दरवाजे पर अभी भी संघर्ष ने हीं दस्तक दी थी । हमें बताया गया कि इंटर्नशिप के लिए हमें बिहार भेजा जाएगा। उन दिनों बिहार का नाम आते ही लोगों ने मुझे डरना शुरू कर दिया। मैं खुद भी सहमा हुआ था पर परिवार का हितों के लिए मेरा कमाना जरूरी था सो मैंने इंटर्नशिप के लिए हां कर दिया और बिहार की राजधानी पटना आ गया।
मैंने यहां एक सैलून में इंटर्नशिप की और इसके बाद वही काम भी मिल गया। मुझे तब 8 हजार रुपए पगार मिलती थी। मैं ज्यादा से ज्यादा पैसा अपने घर भेज देता था। यहां का संघर्ष काफी कठिन था। जैसा की मैंने पहले बताया कि हम पांच लोग एक छोटे से कमरे में रहते थे और पैसे खत्म हो जाते सब्जी , दाल कुछ भी नहीं होती। सुखी रोटी हलक से उतरती नहीं तो मैं रोटी को पानी के साथ डूबों कर खाता था। यह क्रम लंबा चला । कभी कमरे में मित्र अपनी सब्जी में से शेयर कर देते। मैं सैलून में खुब मन लगाकर काम करता था। बाद में मेरे काम से प्रभावित हो कर सैलून वाले ने मेरी तनख्वाह में कुछ इजाफा भी किया पर यह अब भी प्रयाप्त नहीं था।
घर दूर और छुट्टी मिलती नहीं
निखिल बताते हैं कि सैलून के काम में छुट्टी बहुत कम मिलती थी । साल में एक बार 10 दिनों की छुट्टी मिलती 6 दिन तो पटना से केरल और केरल से पटना आने जाने में ही निकल जाते।
इस घटना ने बदल दी जिंदगी
तमाम संघर्ष के बीच समय और जिंदगी दोनों बीत रही थी। इस बीच एक ऐसी घटना घटी जिसने मेरी जिंदगी बदल दी। मैं जिस सैलून में काम करता था वहां मेरे एक सीनियर थे। उनकी तनख्वाह भी काफी ज्यादा थी और टीप भी उन्हें खुब मिला करते। एक बार मुझे 100 रुपए की जरूरत थी और मेरे पास पैसे नहीं थे।
मैंने उनसे 100 रुपए उधार मांगे। मुझे मालूम था कि उनके पास पैसे हैं पर उन्होंने मुझे 100 रूपए नहीं दिए। मुझे काफी दुख हुआ। उसी वक्त मन में विचार आया कि मुझे ज्यादा पैसा कमाना है। कुछ कर दिखाना है। मैंने मन में संकल्प लिया। पूंजी थी नहीं। न कोई बैकअप, न कोई गॉडफादर पर एक विश्वास था कि सफलता मिलेगी जरूर। मैं सैलून का काम अच्छे से करता और खाली समय में दिमाग में बिजनेस आइडिया ढूंढता। मैंने बचपन में पिताजी को बिजनेस करते देखा था । मुझे भरोसा था कि बिजनेस तो मैं कर ही लूंगा।
फिर जोड़ा एक एक पैसा
100रूपये उधार न देने की इस घटना ने निखिल को अंदर से तोड़ दिया था। अब वे भारी मन से खुद का हौसला और एक एक पैसा जोड़ने लगे। उन दिनों सैलून इंडस्ट्री काफी तेजी से उभर रही थी। उसमें इंटिरियर से लेकर स्टोर फर्नीचर आदि की जरूरत पड़ती थी। मैंने समय निकाल कई स्थानीय नए सैलून का भ्रमण किया। फिर सैलून निर्माण की सामग्री उपलब्ध करवाने वाली कंपनी के बारे में जानकारी हासिल की। एक कंपनी मिली CASA ये काफी कम दर पर स्टाइलिस्ट सैलून सॉल्यूशन उपलब्ध कराती थी। संयोग यह कि उनका बिहार में कोई बंदा नहीं था। मैंने नंबर खंगाल वहां फोन मिलाया और सेल्स के लिए बात की। बात जम गई। उन्होंने मुझे कुछ कैटलॉग PDF भेजा।
CASA का पहला ऑर्डर
निखिल कहते हैं कि अब चुनौतियां बड़ी थी। सैलून की नौकरी भी तत्काल नहीं छोड़ सकता था। क्योंकि दो वक्त की रोटी उससे ही चल रही थी। इधर नया काम बढ़ाने के लिए समय चाहिए था। अब मैंने और मेहनत शुरू कर दी। मैं छुट्टी के दिन चार बजे सुबह उठकर बस से बिहार के दूसरे शहरों में जाता । नए सैलून विजिट करता। उन्हें CASA का प्रोडक्ट दिखाता। यह क्रम चलता रहा। चार माह के बाद मुझे पहला आर्डर मिला। यह बड़ा ऑर्डर था। मुझे 75% एडवांस पैसे मिले। मैंने यह पैसा कासा को भेजा और कहा मेरा कमिशन वह अपने पास ही रखे। फिर दूसरा तीसरा ऑर्डर दिया। पैसा उन्हीं के पास छोड़ दिया।
अब मेरे पास थी ब्यूटी ग्लैक्सी
मैं निरंतर अपने काम में जुटा रहा। बोरिंग रोड गली में एक छोटी सी जगह ली। CASA वालों के पास कमिशन के जमा पैसे के बदले ब्यूटी प्रोडक्ट्स मंगवाया और अपनी पहली दूकान ब्यूटी ग्लैक्सी खोली। मेरे सपनों की पहली मंजिल थी यह। ब्यूटी ग्लैक्सी में सेल काफी अच्छा हो रहा था। इधर CASA के पास मैं लगातार ऑर्डर भेज रहा था मुझे पता भी नहीं चला कि कब मैं बिहार और झारखंड का सबसे अधिक सेल करने वाला बन गया। CASA ने मुझे सम्मानित किया। अब हम बिहार और झारखंड में CASA के डिस्ट्रीब्यूटर हैं। काम बढ़ता गया तो पहले की जगह कम पड़ने लगी फिर उसे गोदाम बनाया और एक बड़ी सी जगह ली ब्यूटी ग्लैक्सी के लिए। CASA ने यहां भी मदद की और दस लाख का सामान भेजा। ब्यूटी ग्लैक्सी की ब्यूटी अब और निखर गई।
निखिल -नितिन की जोड़ी वाला BATIDO
निखिल बताते हैं कि मेरा बिजनेस बढ़ रहा था। उधर छोटे भाई नितिन की बीटेक की पढ़ाई भी हो चुकी थी। वह वहां नौकरी भी कर रहा था। मैंने भाई को भी केरल से बिहार बुला लिया। अब मेरा काफी काम भाई संभालने लगा। हमने बिजनेस को टेक्नोलॉजी से जोड़ा। इसी समय भाई नितिन ने यहां के मार्केट का रिसर्च किया तो पाया कि यहां के युवाओं में शेक के प्रति दिलचस्पी काफी है पर यहां बेहतर तरीके के शेक उपलब्ध नहीं हैं एक दो बड़े महंगें ब्रांड को छोड़कर। फिर भाई के साथ बातचीत हुई। भाई ने सेक के फ्लेवर पर काफी काम किया। अब हम एक नये वैंचर के लिए तैयार थे।
स्पेनिश नाम स्वाद लाजवाब
निखिल बाबू के भाई नितिन बताते हैं कि हमें पटना के बोरिंग रोड़ में गोल्ड जिम के पास यह जगह मिली। ब्रांड के लिए हमने नाम रखा BATIDO यह एक स्पेनिश भाषा का शब्द है जिसका मतलब मिल्क शेक। होता है। दरअसल हम यहां युवाओं को कुछ नया देना चाहते थे वो भी उनके ही बजट में।
नितिन आगे कहते हैं कि हम बिहार में पहली बार शेक में डिफरेंट फ्लेवर लेकर आए। हमने लीची, आम जैसे वेरिएशन की शुरुआत शेक में की। दूसरे ब्रांड जहां 600 एम एल के लिए 180 रूपये लेते हैं वहीं हम 60 रूपए में 600 एम एल गुणवत्ता पूर्ण शेक उपलब्ध करवाते हैं। नितिन आगे बताते हैं कि हमने पहले दिन से ही गुणवत्ता का ख्याल रखा । ग्लास पर अपना लोगो लगाया। धीरे-धीरे दो तीन माह में माउथ पब्लिसिटी से ही हमारे यहां ग्राहक बढ़ते गए। आज हमारे यहां सबसे अधिक वैसे ग्राहक हैं जो रेगुलर यहां आते हैं।
आप एक बार हमारे प्रोडक्ट का स्वाद चख कर देखिए। आप खुद अगली बार जरूर आएंगे। हम लगातार यहां के जायके में नए प्रयोग करते रहते हैं। व्यवहार, बजट ओर स्वाद तीनों मिलकर हमें उन्नत बनाते हैं। जब लोगों का विश्वास बढ़ता गया तो हमने इसके चेन बनाने के उपर ध्यान दिया आज भारत के 6 राज्यों के प्रमुख शहर में 250 आइटम के साथ हमारी मौजूदगी है। हम इसे दुनिया भर में फैलाना चाहते हैं।
बिहारी जीवनसाथी ‘स्नेहा ‘का सहयोग
निखिल यह भी बताते हैं कि इस यात्रा में उनकी जीवन संगिनी स्नेहा श्री भारती का भी काफी सहयोग मिला। वे कहते हैं कि स्नेहा से हमारी शादी लव मैरिज है। वह बिहार के दरभंगा की रहने वाली हैं। हमारी शादी दो राज्यों, दो संस्कृतियों और दो धर्मों का मिलन है। स्नेहा से शादी के पहले 4 साल तक हम रिलेशनशिप में रहे। मुझे अब भी मलाल है कि मैं उसे उन दिनों बिजनेस के कारण काफी कम वक्त देता था।
उसने बस स्टैंड पर मेरे लिए घंटों इंतजार किया है। आज मैं जो भी हूं उसमें स्नेहा की भूमिका अहम है। उसका सहयोग अहम है। आज हमारा दो साल का बेटा है इयान।
संयुक्त परिवार खुशियों की चाभी
निखिल बाबू कहते हैं कि अब मां भी हम लोगों के साथ ही रहतीं हैं। हमारा परिवार संयुक्त रूप से साथ रहता है। पैसा जीवन के लिए जितना अहम है उससे अधिक आपका परिवार। संयुक्त परिवार खुशियों की चाभी की तरह हैं। यहां हर कोई एक दूसरे का ख्याल रखता है।
जल्द आएंगे नए प्रोजेक्ट
निखिल और नितिन बताते हैं कि हम जल्द नये प्रोजेक्ट को सामने लेकर आने वाले हैं। हमने B bowl की नई श्रृंखला भी प्रारंभ की है । हम B bowl को भी देश भर में लेकर जाना चाहते हैं।
वे आगे कहते हैं कि हम यह कभी नहीं छुपाते की हमने बिहार की धरती से अपनी शुरुआत की है। हम चाहते हैं कि भारत के लोगों को रोजगार देने में हमारी भी भूमिका हो। हम दुनिया के सबसे युवा देश के नागरिक हैं हमारे सपने भी जवां होने चाहिए और हौसला भी। युवा खुद को कोसने की जगह अपने को रोजगार की ओर बढ़ाएं। बिजनेस या नौकरी जो भी चुनें दिल से करें तभी आपको खुशी भी दिल की गहराइयों से महसूस होगी।
निखिल और नितिन वैसे युवाओं के लिए प्रेरणा श्रोत है जो अपना व्यवसाय तो करना चाहते हैं पर पूंजी और अन्य संसाधनों के आभाव का रोना रो उसे शुरू नहीं कर पाते। यह कहानी बताती है कि अगर मन में मजबूत इच्छाशक्ति हो तो सफलता मिलकर ही रहेगी।
किसी शेर की उम्र 18 साल होती है. माने उस शेर को आप जिंदा 18 सालों तक देख सकते हैं. लेकिन अगर हम कहें कि वही शेर मर जाने के बाद 100 सालों तक जीवित रहेगा तो आप थोड़ा हैरान होंगे. मगर विज्ञान को समझते होंगे तो आप हैरान नहीं होंगे. किसी भी जानवर या पक्षी को उसी के स्कीन में ‘टैक्सीडर्मी’ के माध्यम से 80 से 100 सालों तक संरक्षित रखा जा सकता है. इससे वे बिल्कुल जिंदा ही नजर आते हैं. विलुप्त हो रही प्रजातियों को इस प्रकार संरक्षित करने में जुड़े हैं इंडिया के प्रसिद्ध टैक्सीडर्मिस्ट डॉ. संतोष गायकवाड़.
मरे हुए में जान फूंकने की कला है टैक्सीडर्मी!
माइलस्टोन में आज आप कहानी पढ़ रहे हैं देश के इकलौते टैक्सीडर्मिस्ट डॉ. संतोष गायकवाड़ की जो मरे हुए जीवों की दुनिया में जिंदगी जी रहे हैं. दरअसल, डॉ . गायकवाड़ को हमेशा से ही जानवरों से प्यार रहा. यही वजह है कि उन्होंने अपने जीवन में बहुत कम उम्र में ही पशु चिकित्सक बनने का फैसला किया. जानवरों की मदद करने के उनके जुनून ने उन्हें पशु चिकित्सक और बॉम्बे वेटरनरी कॉलेज में एनाटॉमी के प्रोफेसर बनने के लिए प्रेरित किया.
ऐसे मिली प्रेरणा
वर्ष 2003 में डॉ. गायकवाड़ छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय गए, जिसे उस समय प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय के नाम से जाना जाता था. वहां प्राकृतिक इतिहास अनुभाग में वे स्तनधारी जीवों और पक्षियों के नमूनों की जीवंत गुणवत्ता से मोहित हो गए.
भरवां जानवर वाकई सजीव
डॉ. गायकवाड़ आश्चर्यचकित और बहुत उत्सुक थे, उन्होंने स्वयं संरक्षण की तकनीक सीखने का दृढ़ निश्चय किया. टैक्सीडर्मी के बारे में बात करते हुए डॉ. गायकवाड़ कहते हैं, “मुझे नहीं पता था कि भरवां जानवरों के लिए सही शब्द टैक्सीडर्मी है. वे इतने सजीव थे कि मैं वाकई हैरान रह गया.”
इतने असली कि देखकर डर जाएं लोग
डॉ. गायकवाड़ ने फिर एक मिशन शुरू किया- इस भूली हुई कला को सीखना और खुद इसका अभ्यास करना. एनाटॉमी के सहायक प्रोफेसर होने के नाते, टैक्सिडर्मिस्ट बनने की उनकी रुचि एक पशु चिकित्सक के रूप में उनके कौशल से जुड़ी हुई थी. संग्रहालय की अपनी यात्रा को याद करते हुए डॉ. गायकवाड़ कहते हैं, “वे इतने असली लगते थे कि अगर उन्हें बगीचे में रखा जाए, तो लोग उन्हें देखकर डर जाएँगे.”
कई तरह की परेशानियां उठानी पड़ी
डॉ. गायकवाड़ को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के कारण भी बाधाओं का सामना करना पड़ा, जो किसी टैक्सीडर्मिस्ट को लुप्तप्राय प्रजातियों पर काम करने की अनुमति नहीं देता है. तस्करी के डर से, मृत जंगली जानवरों के शवों को बस जला दिया जाता है. यदि लुप्तप्राय प्रजातियों की सूची में से किसी मृत जानवर को टैक्सीडर्मिस्ट द्वारा ले जाना है, तो मुख्य वन्यजीव वार्डन की अनुमति लेनी होगी.
मृत पक्षियों से की शुरुआत
डॉ. गायकवाड़ ने सबसे पहले पक्षियों से शुरुआत की. डॉ. गायकवाड़ कहते हैं, “मेरे बैग में मरे हुए पक्षी थे. मैं ऑपरेशन के लिए खाने की मेज़ का इस्तेमाल करता था, क्योंकि पक्षी ज़्यादा जगह नहीं लेते.” शुरुआत में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ा. जानवरों की खाल उतारने की उनकी तकनीक में सुधार की ज़रूरत थी। अभ्यास के ज़रिए शुरुआती निराशा पर काबू पाकर, डॉ. गायकवाड़ ने जल्द ही अपनी कुशलता में वृद्धि देखी.
यूं मिलती गई सफलता
कुछ समय बाद ही डॉ. गायकवाड़ ने वन्य जीवों को संरक्षित करने के विचार के साथ वन विभाग से संपर्क किया. 2006-2007 के आसपास वन विभाग ने टैक्सीडर्मिस्ट को केस-बाय-केस लाइसेंस दिया. 1 अक्टूबर 2009 को महाराष्ट्र वन विभाग ने मुंबई के संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान में वन्यजीव टैक्सीडर्मी केंद्र की शुरुआत की. यह भारत में अपनी तरह का एकमात्र ऐसा संस्थान है.
पालतू जानवरों को लेकर बढ़ा क्रेज
अब तक, डॉ. गायकवाड़ के लिए टैक्सीडर्मी केवल जंगली जानवरों तक ही सीमित थी. हालाँकि, इसकी लोकप्रियता उन पालतू जानवरों के मालिकों के बीच बढ़ गई है, जो अपने पालतू जानवरों को आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखना चाहते हैं. ये लोग डॉ. गायकवाड़ से संपर्क करते हैं, जो उनके प्यारे पालतू जानवरों से टैक्सीडर्मी मॉडल बनाकर उनकी मदद करते हैं.
टैक्सीडर्मी को समझा रहे हैं डॉ गायकवाड़
डॉ. गायकवाड़ टैक्सीडर्मी को पांच भागों में शरीर रचना विज्ञान, चित्रकारी, मूर्तिकला, बढ़ईगीरी, मोची में विभाजित किया है. इस विज्ञान के बारे में बात करें तो सबसे पहले मृत जानवर की खाल उतारी जाती है, जिसके बाद त्वचा को फाइबर और पेपर माचे से भर दिया जाता है. फिर जानवर को उसके मूल स्वरूप में वापस लाया जाता है. एकदम हूबहू प्रतिकृति.
2003 में पहली बार बनाए गए कुछ भरवां पक्षियों के निर्माण के बाद से, भारत के अंतिम टैक्सीडर्मिस्ट ने एक लंबा सफर तय किया है, और अब तक 500 से अधिक पक्षियों, सैकड़ों मछलियों, सरीसृपों और एक दर्जन से अधिक बड़ी बिल्लियों के साथ काम कर चुके हैं.
जिंदगी के फ्लैशबैक में 20 साल पीछे चलते हैं. आपके घर में बांस से बने कई वस्तुओं की खूब उपयोगिता थी. सूप, दौरा, खांची, चटाई, पर्दा, रस्सी, थैला, आदि-आदि. संभव है आपके क्षेत्र में इन्हें दूसरे नामों से पुकारा जाता होगा. आज ये लगभग समाप्त हो चुके हैं. कुछ पारंपरिक रिवाजों और चमचमाते दफ्तरों में पेन-स्टैंड जैसे शो पीस को छोड़ दें तो बांस के सामान लगभग गायब ही हो चुके हैं. उनकी जगह जो दिखता है वो है प्लास्टिक और फाइबर. ऐसे दौर में किसी गांव को बांस गांव के रूप में विकसित किया जाना आश्चर्यजनक और वाकई शानदार है.
त्रिपुरा में बसा है बांसग्राम
त्रिपुरा के कतलामरा में भारत-बांग्लादेश सीमा के पास भारत का पहला बांस ग्राम की स्थापना की गई है. राज्य में पर्यावरण-पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अपनी तरह का यह पहला मल्टीपर्पज बाशग्राम (बांस गांव) है. उम्मीद की जा रही है कि यह पहल योग प्रेमियों, पर्यटकों और प्रकृति-प्रेमियों को आकर्षित करेगी.
9 एकड़ की भूमि में फैला है यह गांव
इसके लिए बांस आर्किटेक्ट कम एक्सपर्ट, मन्ना रॉय के नेतृत्व में युवाओं ने लगभग 9 एकड़ भूमि विकसित की है. बताया जा रहा है कि यह जगह पहले से ही देश भर से पर्यावरणविदों और विदेशियों सहित बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करने में कामयाब रही है.
गांव में बांस से बना सबकुछ है
बांस गांव में एक योग केंद्र, खेल का मैदान, वनस्पतियों और जीवों के साथ कई तालाब, बांस के पुल और रास्ते, बांस के कॉटेज, विभिन्न पर्यावरण-अनुकूल सुविधाएं भी उपलब्ध हैं. बांस की 14 से अधिक प्रजातियों के साथ-साथ कई अन्य प्राकृतिक पौधे, जड़ी-बूटियां, वनस्पति, झाड़ियां और फूल बशग्राम को वास्तव में रहने के लिए एक प्राकृतिक जगह बनाते हैं.
प्रकृति संरक्षण का संदेश
बांस गांव में एक संग्रहालय भी होगा, जहां बांस से बनी सभी प्रकार की अप्रचलित, लुप्तप्राय, पुरानी और नई सामग्री प्रदर्शित की जाएगी. बांस गांव को विकसित करने के पीछे मुख्य विचार प्रकृति से छेड़छाड़ किए बिना स्थानीय और ग्रामीण संसाधनों का उचित और प्रभावी ढंग से उपयोग करना है.
गांव के विकास में 60 लाख का निवेश
गांव को विकसित करने के लिए 60 लाख रुपये से ज्यादा का निवेश किया है, और सरकार या किसी बैंक से कोई पैसा नहीं लिया गया है. स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करके बाशग्राम को विश्व स्तरीय चिकित्सा-सह-इको पर्यटन केंद्र में बदलने का लक्ष्य है.
गूगल जैसी बड़ी कंपनियों में करोड़ों का पैकेज पाना बड़ी बात नहीं होती. बड़ी बात होती है किस बैकग्राउंड से आप वहां तक का सफर कर रहे हैं. जिस दौर में एक अदद साधारण सी नौकरी के लिए करोड़ों युवाओं युवाओं की होड़ लगी है, उस वक्त बिहार के जमुई जिले के साधारण से लड़के अभिषेक को गूगल ने 2.07 करोड़ रुपए के पैकेज पर जॉब ऑफर किया है. अभिषेक यह सब उतनी भी आसानी से नहीं मिला, जितना सुनने में लग रहा है. आइये जानते हैं उनके संघर्ष की प्रेरणा देने वाली कहानी.
एनआईटी पटना से की है बीटेक
अभिषेक कुमार का बचपन भी साधारण लड़कों की तरह ही बीता. लेकिन अभिषेक के जिंदगी की 24 साल की कहानी संघर्ष और प्रेरणा से भरी है. अभिषेक ने अपनी मेहनत और लगन से यह मुकाम हासिल किया है. अभिषेक ने झाझा के एक स्कूल से पढ़ाई की और पटना से इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की. इसके बाद उन्होंने NIT पटना से कंप्यूटर साइंस में बीटेक किया.
साबित कर दिखाया, ‘अलग हैं हम’
यह बीटेक की डिग्री भी उस दौर में जब समाज का एक बड़ा तबका इंजीनियरिंग फीवर से ग्रसित हो चुका है. इंजीनियरिंग फीवर इसलिए क्योंकि ऐसी डिग्रियां हासिल करने वाले आपको गांव-शहर के हर दूसरे घर से मिल जाएंगे. लेकिन अभिषेक इन सबसे अलग हैं, और उन्होंने इसे साबित कर दिखाया.
2022 से अमेजन में कार्यरत
2022 में अभिषेक को अमेजन कंपनी से जर्मनी के बर्लिन शहर में नौकरी का ऑफर मिला. अमेजन में काम करने के बाद, उन्होंने बर्लिन में ही एक जर्मन कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में काम करना शुरू कर दिया. अभिषेक ने बताया कि उनका हमेशा से सपना था कि वह गूगल जैसी बड़ी कंपनी में काम करें. उन्होंने अपनी मेहनत जारी रखी और गूगल में नौकरी के लिए आवेदन किया.
5 इंटरव्यू में मिली सफलता
गूगल में नौकरी के लिए अभिषेक को पांच चरणों में इंटरव्यू देना पड़ा. सभी इंटरव्यू में सफल होने के बाद, उन्हें गूगल से 2 करोड़ 7 लाख रुपये के पैकेज पर नौकरी का ऑफर मिला. अभिषेक की इस सफलता से उनका परिवार और पूरा इलाका गर्व महसूस कर रहा है. उनके पिता इंद्रदेव यादव जमुई सिविल कोर्ट में वकील हैं, जबकि उनकी मां मंजू देवी गृहिणी हैं. अभिषेक का एक बड़ा भाई भी है जो दिल्ली में रहकर सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहा है.
मां को अब अपने बेटे पर गर्व है
अभिषेक की मां मंजू देवी को आज उन्हें अपने बेटे पर बहुत गर्व है. अभिषेक के पिता इंद्रदेव यादव ने कहा कि उन्होंने हमेशा अपने बेटे को मेहनत और लगन से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया है. उन्होंने कहा कि उन्हें गर्व है कि उनका बेटा अब गूगल जैसी बड़ी कंपनी में काम करेगा.
सफलता से काफी खुश हैं अभिषेक
वहीं, अभिषेक ने अपनी सफलता का श्रेय अपने माता-पिता को दिया है. उन्होंने कहा कि उनके माता-पिता ने हमेशा उनका साथ दिया है और उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया है. अभिषेक ने कहा कि वह अपनी इस सफलता से बहुत खुश हैं. वह इस क्षेत्र में और आगे बढ़ना चाहता है.
800 सीसी की मारूती ओमनी वैन. वैन में जरूरत के वो सारे सामान, जिससे जिंदा रहा जा सके और जरूरतें पूरी हो सके. एक कपल जो इस वैन से सफर कर रहा है. सपना इसी वैन से दुनिया घूम लेने का. कम से कम संसाधनों के साथ अपने देश और विश्व को कैसे देखा जा सकता है? भारत के अखिल और शम्शिया, अपने अनुभवों से यही बता रहे हैं.
अखिल औऱ शम्शिया का दावा है कि वे भारत के पहले वैन कपल हैं. यानी वैन में घूमने-रहने वाला जोड़ा. वे इस मारूती वैन से लंदन जाना चाहते हैं. इस जोड़े का इरादा अपनी ओमनी वैन से दुनिया घूमने का है. भारत के वे लगभग सारे राज्य घूम-देख चुके हैं.
हमारा घर केरल के त्रिशूल में है. घूमने की बात की जाए तो हम अपने देश भारत ही नहीं बल्कि नेपाल, चीन, भूटान और म्यांमार बॉर्डर तक जा चुके हैं. यह अनूठा अनुभव है. जब मैं बहुत युवा थी, तब से मैं हमेशा घूमना चाहती थी. लेकिन मेरे माता-पिता जरा सख्त हैं. वे पुराने विचारों वाले हैं. इसलिए मैं वो पैशन भी फॉलो नहीं कर सकी. मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि मैं एक लड़की होकर इतना घूम सकूंगी. अखिल के आने के बाद यह सब बदल गया. अखिल ने मुझे अहसास कराया कि मैं यह कर सकती हूं. इसीलिए हम वैन कपल के रूप में भारत में घूम रहे हैं.– शम्सिया, वैन कपल
यह वैन हमारा घर और हमारे जीने का तरीका है. यह थोड़ा अलग और चुनौती भरा है लेकिन हमे यह पसंद है. जितना मजेदार और एडवंचरस यह बाहर से देखने में लगता है, वास्तव में यह जिंदगी उतनी आसान नहीं है.
मैं एक ऑटो मोबाइल इंजीनियर हूं. पढ़ाई के बाद मैं कतर चला गया था, लेकिन नौकरी से मैं खुश नहीं था. इसलिए मैंने इस्तीफा दिया और यहां लौट आया. हमारी इस यात्रा में यह संदेश छिपा है कि हम कैसे कम से कम संसाधनों वाली जीवन शैली अपना सकते हैं. ऐसी जिंदगी सभी के लिए नहीं है. यह हम तभी कर सकते हैं जब हमें किसी खास चीज के प्रति दीवानगी हो.-अखिल, वैन कपल
कैसी है कार में कपल की जिंदगी
कार घर कैसे हो सकता है. इसमें जिंदगी बसर कैसे हो सकती है? यह जानने के लिए आइये आपको कार की बनावट के बारे में बताते हैं. बाहर से तो यह ओमनी कार वैसे ही दिखती है, जैसे सामान्य कारें. लेकिन अंदर से यह अलग है. कार का दरवाजा खुलते ही आपको चमचमाता बेड नजर आता है.
जरूरत का हर सेटअप साथ
माने ड्राइविंग और साथ वाली आगे की सीट के बाद यह बेड का सेटअप है, जो पूरी तरह से तकनीक से लैस है. जब सोना होता है तो स्लाइडर की मदद से बेड चौड़ा हो जाता है और जब स्पेस चाहिए होता है तो बेड को अंदर की ओर स्लाइड कर देते हैं. कार की रूफ पर सोलर प्लेट लगा हुआ है, जिससे बिजली की जरूरत पूरी होती है.
यह जिंदगी उतनी भी आसान नहीं
इसे एक जोड़े वाले वैन के रूप में देखना काफी मजेदार है, लेकिन हमारे सामने कई तरह के मसले आते हैं. मेरी सुरक्षा बेहद जरूरी है और साफ-सफाई काफी अहम. इस तरह की यात्रा में हमें सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल करना पड़ता है और अपना खाना भी खुद पकाना पड़ता है. इन चीजों के लिए हमें जगह खोजनी पड़ती है. ऐसी ही कई तरह की बाधाएं आती हैं, लेकिन हमने साबित किया है कि जब किसी चीज के प्रति जुनून होता है, तब उसे पाया जा सकता है.
घूमने के शौकीनों की करते हैं मदद
हमने कोविड के समय यह यात्रा शुरू की थी. उस समय अखिल का कारोबार भी बुरा चल रहा था. इस ट्रिप की शुरुआत में निवेश बहुत ज्यादा था. यह सब मेरे गहने बेचने के बाद हो सका. और अब मेरा सपना इस गाड़ी से लंदन तक जाने का है. हमारा ख्वाब पूरी दुनिया घूमना है, लेकिन फिलहाल हमारा प्लान लंदन ट्रिप है. इसके लिए हम कई स्पॉन्सर खोज रहे हैं. इसके लिए हमने एक वेबसाइट भी लॉन्च की है, जो घूमने के शौकीन लोगों को मदद करती है.
तो यह है घूमने का मकसद
शम्सिया ऑनलाइन मेंटल हेल्थ प्रोफेसनल है. पेशे से होने वाली कमाई से यात्रा का खर्च निकल आता है. हम घूमने का लुत्फ जरूर उठाते हैं, लेकिन लंबे समय तक घूमने का हमारे पास एक मकसद होना चाहिए. इसी मकसद के लिए हमने ‘सेव’ (SAVE) नाम की संस्था बनाई है. सेव माने Save a voice for everyone. जो घूमने की इच्छा रखते हैं, उन्हें हम हर संभव मदद करते हैं.
मेरी मां ने मुझे कहा था, तू उस लड़के के साथ जाएगी तो जाने कितने लड़कों के साथ जाएगी. मां ऐसे वचन बोलेगी, इसकी कल्पना भी नहीं की थी मैं. प्यार तो बचपन में न मिल सका, दुत्कार खूब मिला. मैं टूट चुकी थी. जब कोई विकल्प नहीं सूझ रहा था, तब मैंने फैसला किया कि अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीऊंगी. मैं अपने और ससुराल दोनों परिवार से अलग पति के साथ अकेले रहने को मजबूर हो गई.
जिसे अपनी ही मां से दुत्कार मिले, भला दुनिया में उसे किससे प्यार की उम्मीद होगी? उल्हाने, प्रताड़ना, पीड़ा और किसी महिला के दुर्भाग्य से उबरकर मिसाल बनने की यह कहानी 29 साल की यशोदा लोधी की है. अब यशोदा किसी पर बोझ नहीं, बल्कि प्रेरणा है. आइये उनकी कहानी जानते हैं.
और ऐसे बन गईं ‘देहाती मैडम’
उत्तर प्रदेश के कौशांबी के सिराथू ठेठ ग्रामीण इलाके में रहती हैं, 29 साल की यशोदा लोधी. अब सोशल मीडिया पर लोग उन्हें ‘देहाती मैडम’ के नाम से जानते हैं. यशोदा लोधी यूट्यूब पर अंग्रेजी बोलना सिखाती हैं. इंग्लिश विद देहाती मैडम के नाम से वह यूट्यूब चैनल चलाती हैं. यूट्यूब पर उनके 2.9 लाख सब्सक्राइबर हैं और वीडियोज के करोड़ों व्यूज.
आर्थिक तंगी से निकलना आसान नहीं था
आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवार को पालने के लिए यशोदा ने यह रास्ता अपनाया है, जो उनके लिए कभी आसान नहीं था. परिवार ने उनकी पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा दिलचस्पी नहीं ली और उनकी शादी भी कम उम्र में एक मजदूर से कर दी गई, लेकिन अपनी जिजीविषा और जुनून की बदौलत उन्होंने जो मुकाम हासिल कर लिया है. वह उनकी इस साधारण सी कहानी को असाधारण बना देता है.
ग्रामीण महिला के दुर्भाग्य की कहानी
लोधी का जीवन एक ग्रामीण महिला के दुर्भाग्य की अनोखी कहानी है. जब वह छोटी थीं तो उनके माता-पिता ने उन्हें एक रि श्तेदार को सौंप दिया था. 12वीं तक की उनकी स्कूली शिक्षा भी काफी अनियमित रही. इसके बाद एक दिहाड़ी मजदूर से उनकी शादी करा दी गई. उनके पति बाद में एक हादसे का शिकार हो गए. इससे उनकी काम करने की क्षमता पर असर पड़ा और घर की आय सीमित हो गई.
विपरित परिस्थितयों में नहीं हारी हिम्मत
पति के इलाज के दौरान परिवार पर बैंक के कर्ज का भी बोझ आ पड़ा. इन विपरीत हालात में भी इस युवा महिला ने हिम्मत नहीं हारी. और देहाती अंदाज में यू-ट्यूब पर कई तरह के वीडियोज बनाए.
कैसे बोली जाए अंग्रेजी?
अपने एक वीडियो ‘हाउ टू थिंक इन इंग्लिश’ में लोधी बताती हैं कि कई लोगों के लिए समस्या ये है कि वे अंग्रेजी बोलने से पहले अंग्रेजी में सोचते नहीं हैं. अनुवाद के चक्कर में इंग्लिश की फ्लुएंसी खो जाती है. फिर .वह बताती हैं कि कैसे उन्होंने ‘अंग्रेजी में सोचने’ की कला में महारत हासिल की. लोधी अपने ‘छात्रों’ से कहती हैं, ‘आपको किताबें पढ़ने की आदत विकसित करनी चाहिए. यह अंग्रेजी में ‘फ्लुएंसी’ के लिए महत्वपूर्ण है. इस वीडियो के बाद मुझे 100% यकीन है कि पढ़ने के प्रति आपका रुझान काफी हद तक बढ़ जाएगा.’
कैसे हिट हुआ देहाती मैडम बनने का आइडिया?
अक्सर, देहाती मैडम के सबक अपने आसपास के जीवन का एक हिस्सा होते हैं. यूट्यूब से मिलने वाली आय से लोधी को बैंक ऋण का भुगतान करने में मदद मिली है. उनके पति राधे की दुर्घटना और उसके साथ आए वित्तीय झटके ने लोधी को यूट्यूब वेंचर के लिए प्रेरित किया था. सबसे पहले तो उन्होंने देसी खाना पकाने, कढ़ाई और सजावट को लेकर चैनलों शुरू किया था. वह बताती हैं कि इनमें से कोई चैनल नहीं चला. लेकिन वह हार मानने वालों में से नहीं थीं. उन्होंने कंटेंस क्रिएशन, वीडियो एडिटिंग और ऑनलाइन ट्रैक्शन हासिल करने के तरीकों के बारे में सीखने के लिए इंटरनेट पर घंटों बिताए.
देहाती पहचान से मिली आगे बढ़ने में मदद
लोधी ने बताया कि साल 2022 की शुरुआत में मुझे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले कई मोटिवेशनल स्पीकर मिले, जिससे मुझे एक ऐसा मोटिवेशनल ‘देहाती’ स्पीकर बनने का विचार आया जो अंग्रेजी में संवाद कर सके. इसलिए, मैंने खुद अंग्रेजी सीखी और व्यूअर्स हासिल करने के लिए अपनी देहाती पहचान का इस्तेमाल किया. वह बताती हैं कि उनके अपने गांव धुमाई लोधन का पुरवा में कुछ ही लोग अंग्रेजी सीखने में रुचि रखते हैं.
लोकल लेवल पर कुछ ही लोग उन्हें फॉलो करते हैं. लोधी ने बताया, ‘मेरे गांव में महिलाएं मुझे अंग्रेजी बोलते देखकर हंसती हैं. उन्हें न तो यह भाषा सीखने में कोई दिलचस्पी है और न ही अपनी बेटियों को इसे सीखने देने में. हालांकि, मेरी भाभियां अंग्रेजी सीखने में रुचि रखती हैं.
नीली आंखें, बेतरतीब बाल और होठों पर गाना गुनगुनाते ये हैं एआई सिंगर ‘बेन गाया’. बेनगाया और उनकी जुबां से बजने वाली धुनों को पूरी तरह से एआई की मदद से बनाया गया है. इतना ही नहीं बेन गाया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इंस्टाग्राम पर स्टार बन चुके हैं.
अब एआई रॉक एवं पॉपस्टार भी
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) अब हर क्षेत्र में इंसानों की नकल करता नजर आ रहा है. कंटेंट क्रिएशन से लेकर अलेक्सा कॉलिंग, ऑटो ड्राइविंग, एआई एंकरिंग आदि आदि. अब एआई रॉक एवं पॉपस्टार भी है.
बनाने में सिर्फ एआई टूल्स का इस्तेमाल
बेन गाया को बनाने वाले फ्लोरियान शामबेर्गर कहते हैं, कि यह एआई टूल्स से संभव है. बेनगाया को जर्मन शहर ब्रेमन की एक एजेंसी ने बनाया है. इसे पूरी तरह से एआई की मदद से बनाया गया है.
भविष्य में संगीतकारों को कितना खतरा?
भविष्य में एआई और ज्यादा हमारी जिंदगी का हिस्सा बनेगा. अब वर्चुअल मॉडल्स और वर्चुअल इंफ्लुएंसर के लोग आदि हो रहे हैं. ऐसे में सबसे गंभीर सवाल यह उठता है कि क्या भविष्य में एआई के जरिए ही म्यूजिक प्रोड्यूस किए जाएंगे. क्या यह संगीतकारों पर हावी होगा?
क्या कर सकता है एआई सिंगर?
इसके जवाब में म्यूजिक टेक जर्मनी के प्रेसिडेंट माथियाज स्ट्रोबेल कहते हैं, इंसान को अनोखा बनाती है उसकी महसूस करने की क्षमता, जो एआई में नहीं है. अपनी अनुभव से संगीत रचने का हुनर. आपको समझना होगा कि एआई ऐसा नहीं कर सकता है. एआई उसी पर काम कर सकता है, जो उसे दिया जाए. वो आजाद होकर चीजें विकसित नहीं कर सकता है. और मौलिक विचारों के साथ नहीं आ सकता है. ऐसा सिर्फ इंसान कर सकते हैं और इसलिए वे हमेशा एआई पर भारी पड़ेंगे.
2024 में पहली बार स्टेज पर उतरे ‘बेन गाया’
जुलाई 2024 में बेन गाया पहली बार वर्चुअल स्टेज पर उतरे. उनका पहला गाना सन साइन सोल इंस्टाग्राम पर अपलोड किया गया, जिसे एक मीलियन से ज्यादा व्यूज मिले.
Text input से डिजाइनिंग संभव
बेनगाया के डिजाइनर कहते हैं कि ये सब टेक्स्ट इनपुट से किया गया है. चाहे एआई पॉपस्टार की वेशभूषा हो या फिर बैकग्राउंड, हम जैसा चाहेंगे वैसे बदल सकते हैं. जानकार कहते हैं कि एआई टूल्स वही कर पा रहा है, जो हम चाह रहे हैं. बिना इंसानों के वे कुछ भी नहीं कर सकते हैं. इसलिए ऐसी तकनीकों पर हमेशा इंसानी समझ ही हावी रहेगा.
आपकी जानकारी के लिए
आपकी जानकारी के लिए यहां यह बताना जरूरी है कि एआई अल्गोरिदम का उपयोग करके संगीत बनाना संभव हो पाया है, जिसे एआई म्यूजिक कहते हैं. वहीं एआई सिंगर्स को ऐसे समझा जा सकता है कि एआई तकनीक का उपयोग करके सिंगर्स की आवाज़ को नकल करना और नए गानों का निर्माण करना.
‘डब्बावालों’ की कहानी सुनकर थोड़ा अजीब लगता है न?अब चाहे अजीब लगे या बोझिल, यह कहानी बोरिंग तो नहीं है. इसीलिए केरल के स्कूलों में नौवीं कक्षा के सिलेबस में इसे शामिल किया गया है. अब इसे ‘द सागा ऑफ़ द टिफ़िन कैरियर्स’ नाम से जाना जाएगा. आखिर क्या है मुंबई के डब्बावालों की कहानी, इस रिपोर्ट में हम जानेंगे.
हां, केरल के स्कूलों में नौवीं कक्षा के छात्रों को अंग्रेज़ी की किताब में मुंबई के डब्बावालों की कहानी पढ़ाई जाएगी. स्टेट काउंसिल ऑफ़ एजुकेशनल रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग ने 2024 के अपडेटेड सिलेबस में शामिल किया है. अब कहानी को ‘द सागा ऑफ़ द टिफ़िन कैरियर्स’ नाम से जाना जाएगा. इसके लेखक ह्यूग और कोलीन गैंटज़र हैं. कहानी के जरिए बच्चों को डब्बावालों की संघर्ष बताने की कोशिश की गई है.
130 साल से भी ज्यादा पुराना बिजनेस
मुंबई में डब्बा का बिजनेस करीब 130 साल से भी ज्यादा पुराना है. डब्बा वाले मुंबई में घरों से दफ्तर मुंबईकर्स को गर्म खाना पहुंचाते हैं. इनके डिलीवरी सिस्टम की देश ही नहीं विदेशों में भी जमकर तारीफ होती है. मुंबई में साइकिल पर एक साथ ढेरों डिब्बे टंगे हुए आसानी से दिख जाएंगे. साफ शब्दों में कहें डब्बेवाले ऐसे लोगों का एक संगठन है जो मुंबई शहर में काम करने वाले सरकारी और गैर-सरकारी कर्मचारियों को खाने का डब्बा यानी टिफिन पहुंचाने का काम करते हैं.
अब ‘डब्बावाले’ दुनियाभर में फेमस
मुंबई में डब्बा वाले संघ से करीब 5,000 से ज्यादा लोग जुड़े हुए हैं और हर दिन ये लगभग दो लाख से ज्यादा डब्बा पहुंचाने का काम करते हैं. कहा जाता है कि साल 1890 में महादु हावजी बचे (Mahadu Havji Bache) ने इसकी शुरुआत की थी. शुरुआत में यह काम सिर्फ 100 ग्राहकों तक ही सीमित था. लेकिन जैसे-जैसे शहर बढ़ता गया, डब्बा डिलीवरी की मांग भी बढ़ती गई. अब ये इतना बड़ा हो चुका है कि पूरी दुनिया में इसकी चर्चा होती है.
खास यूनिफॉर्म पहनते हैं ‘डब्बावाले’
मुंबई में डब्बा वाले बाकायदा एक खास यूनिफॉर्म पहनकर अपना काम करते हैं. इन्हें आमतौर पर सफेद रंग का कुर्ता-पायजामा, सिर पर गांधी टोपी, गले में रुद्राक्ष की माला और पैरों में कोल्हापुरी चप्पल पहने देखा जा सकता है.
मुंबई के डब्बावाले अब दुनिया भर में अपने काम और मेहनत के लिए मशहूर हो गए हैं. बिजनेस स्कूलों और शोधकर्ताओं ने इनके बिजनेस पर गौर किया है. इसके अलावा उनका जिक्र फिल्म, डॉक्यूमेंट्रीज़ और किताबों में भी है. 2019 में मुंबई के कलाकार अभिजीत किनी ने उनके काम पर एक कॉमिक बुक भी बनाई थी. डब्बावाले अब भारत और विदेशों में आईआईटी और आईआईएम जैसे बड़े संस्थानों में लेक्चर देने भी जाते हैं.
कोविड महामारी में काम हुआ प्रभावित
कोविड-19 महामारी ने उनके काम को काफी प्रभावित हुआ था जिस कारण उनकी संख्या घटकर लगभग दो हजार रह गई थी. अब केवल वही लोग इस काम को कर रहे हैं जिन्हें नौकरी की जरूरत है, क्योंकि उनकी सेवा धीरे-धीरे ठीक हो रही है. जब डब्बावालों को केरल के स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल किया गया, तो उन्होंने राज्य के शिक्षा विभाग को धन्यवाद दिया और अपनी सेवा को मिली मान्यता की सराहना की.
केरल का इदुक्की जिले के जंगलों में बसा है एक कस्बा जिसका नाम है एडमलक्कुडी. साल 2010 इस कस्बे के लिए काफी ऐतिहासिक है. इस साल यहां दो ऐतिहासिक चीजें हुईं. पहला, एडमलक्कुडी केरल का पहला ऐसा कस्बा बना जहां आदिवासी ग्राम पंचायत का गठन हुआ और दूसरा, इस कस्बे के इरिप्पुकल्लु क्षेत्र के एक छोटी-सी चाय की दुकान पर एक पुस्तकालय की स्थापना की गई.
इस साल पहली बार जीप पहुंची
माइलस्टोन में आज कहानी चाय दुकान में लाइब्रेरी की स्थापना की. शायद यह दुनिया का एकमात्र पुस्तकालय है जो एक ऐसे वन क्षेत्र के बीचोंबीच है जहां सिर्फ पैदल ही पहुँचा जा सकता था. हालांकि, इस साल मार्च में पहली बार जीप से एडमलक्कुडी तक पहुँचना संभव हुआ है.
160 किताबों के साथ लाइब्रेरी की शुरुआत
कस्बे में लाइब्रेरी का खुलना ही किसी सपना जैसा है. 160 किताबों के साथ इसकी शुरुआत हुई. इसकी कहानी दो व्यक्तियों के समर्पण और योगदान के इर्द-गिर्द घूमती है. एक हैं चाय की दुकान के मालिक पीवी छिन्नाथमबी और दूसरे हैं शिक्षक पीके मुरलीधरन. मुरलीधरन मुथुवन जाति के लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं हैं. दो दशक पूर्व इन्होंने एडमलक्कुडी को अपना घर इसलिए बना लिया था, ताकि यहाँ बसे आदिवासियों को शिक्षित कर सकें.
ऐसे मिली पुस्तकालय खोलने की प्रेरणा
मलयालम में माश शिक्षक को कहते हैं. इसलिए यहां के लोग मुरली को मुरली माश बुलाते हैं. वे कहते हैं, “मेरे एक मित्र उन्नी प्रसन्त तिरुअनंतपुरम में आकाशवाणी और रेडियो एफएम में काम करते हैं. 2009-2010 के बीच हमसे मिलने वह एडमलक्कुडी आए. वह छिन्नथंबी की झोपड़ी में रुके थे और तभी हमने यहाँ शिक्षा कि स्थिति और पढ़ने की आदतों पर चर्चा की. उसी समय पहली बार पुस्तकालय बनाने का विचार आया.”
चाय दुकान में लाइब्रेरी खोलने की पेशकश
कुछ महीने बीते थे कि उन्नी अपने मित्र और केरल कौमुदी के उप संपादक बी आर सुमेश के साथ 160 किताबें लेकर यहां पहुंचे थे. हमने पुस्तालय खोलने के बारे में तो सोचा था लेकिन यहां कोई बिल्डिंग और जगह नहीं थी. तभी छिन्नथंबी ने आगे बढ़ कर अपनी चाय की दुकान में पुस्तकालय खोलने की पेशकश की.”
चाय पीने लोग आते.. किताबें भी पढ़ते
छिन्नथंबी की सोच सरल थी. मुरली माश बताते हैं, “लोग इनकी दुकान पर चाय और नाश्ते के लिए आते और या तो यहाँ किताब पढ़ते या कुछ समय के लिए पैसे दे कर किताबें ले जाते. जल्द ही हमारा पुस्तकालय लोकप्रिय हो गया और अधिक से अधिक लोग इस दुकान में न सिर्फ चाय पीने, बल्कि किताबें पढ़ने के लिए आने लगे.”
इस पुस्तकालय का नाम ‘अक्षर’ रखा गया. यहाँ एक रजिस्टर में पढ़ने के लिए दी गई पुस्तकों का रिकॉर्ड रखा जाने लगा. पुस्तकालय की सदस्यता एक बार 25 रुपए दे कर या मासिक 2 रुपए दे कर ली जा सकती थी.
सामान्य पत्रिकाओं को जगह नहीं
दिलचस्प बात यह थी कि यहाँ सामान्य पत्रिकाओं या लोकप्रिय उपन्यासों को जगह नहीं दी गई थी, बल्कि यहाँ सिलप्पठीकरम जैसी उत्कृष्ट राजनीतिक कृतियों के अनुवाद और मलयालम के प्रसिद्ध रचनाकारों जैसे वाईकोम मुहम्मद बशीर, एमटी वासुदेवन नायर, कमला दास, एम मुकुंदन, लालिथम्बिका अंठरजनम की कृतियाँ रखी गई थीं.
गुमनाम-सी जगह पर स्थित इस पुस्तकालय के बारे में दुनिया को तब पता चला, जब पी. साईनाथ के नेतृत्व में पत्रकारों के एक समूह ने एडमलक्कुडी का दौरा किया.
लोग जुड़ते गए.. कारवां बनता गया
ये बताते हैं, “उनके लिए ‘कातिल ओरु’ पुस्तकालय या ‘एक जंगल में बसा पुस्तकालय’ एक ऐसी चीज़ थी, जिसके बारे में इन्होंने कभी सुना नहीं था और ये इस पुस्तकालय के विस्तार के लिए छिन्नथंबी की मदद करना चाहते थे. फिर सोशल मीडिया पर अभियान चलाया गया. जिसके बाद कई संपादक और साहित्यकार आगे आए और सबने इस दिशा में छिन्नथंबी की खूब मदद की. धीरे-धीरे पुस्तकों को रखने के लिए अलमारी की व्यवस्था हुई और पुस्तकों की संख्या भी बढ़ती गई.
इसके पहले छिन्नथंबी इन किताबों को जूट के बोरे में रखते थे, जिसका इस्तेमाल सामान्यत: चावल या नारियल रखने के लिए किया जाता है. हालांकि, सारी पुस्तकों को अलमारी में भी रखना संभव नहीं था. इसलिए इन्हें अलग-अलग बक्से में रखा जाने लगा.
2017 में लाइब्रेरी स्थानांतरित हुई
छिन्नथंबी की सेहत अब खराब रहने लगी है. लाइब्रेरी को संरक्षित करने का वादा भी पंचायत नहीं निभा पा रहा है, जिससे वे काफी दुखी हैं. मुरलीमाश बताते हैं कि किताबों की देखबाल करना छिन्नथंबी के लिए मुश्किल हो रहा था, जिसके चलते 2017 में लाइब्रेरी को स्कूल में स्थानांतरित किया गया, लेकिन नाम अक्षर ही बरकरार रखा गया. मुरली माश आगे बताते हैं कि पुस्तकालय को बनाए रखने और इतने सालों तक चलाते रहने में स्थानीय समुदाय के लोगों का बहुत बड़ा योगदान है.
छिन्नथंबी को अब भी मदद की दरकार
एडमलक्कुडी जैसे दूरस्थ कस्बे में रहने वालों के लिए यह बाकी दुनिया से जुड़ने का साधन तो बन ही रहा है और इसका श्रेय छिन्नथंबी और मुरली माश जैसे लोगों को जाता है. छिन्नथंबी को अब भी शिक्षा सुधार और लाइब्रेरी चलाने में मदद की दरकार है. संपर्क सूत्र 8547411084 पर बात कर इनकी मदद की जा सकती है.
“मैं 8वीं कक्षा में था जब मेरे माता पिता मेरी बहन के लिए साइकिल लाए थे. बहन को साइकिल चलाने में काफी डर लगता था. लेकिन मुझे साइकिल से गिरने का कोई भय नहीं था. मेरे पेरेंट्स बोलते थे कि तू साइकिल नहीं चला पाएगा. लेकिन फिर भी मैं हाफ पैंडल मारकर साइकिल चलाने की कोशिश की. जब लगा कि मैं साइकिल चला सकता हूं, तो उसी हाफ पैंडल ने मेरी लाइफ बदल दी.”
यह कहानी है पंजाब के पटियाला जिले में पड़ने वाले पताड़ां निवासी साइकिलिस्ट जगविंदर सिंह की. जगविंदर सिंह से याद आया. मिल्खा सिंह. हां-हां, वही फ्लाइंग सिख. दोनों हाथों से दिव्यांग ये वाला जगविंदर फ्लाइंग सिख ही बन जाता है, जब साइकिल पर सवार होकर निकलता है. जिंदगी जिंदाबाद में आप जानेंगे कैसे शारीरिक और आर्थिक चुनौतियों से होते हुए जगविंदर ने नेशनल और स्टेट लेवल पर अब तक 15 मेडल जीत चुके हैं.
पैरा ओलंपिक खेलने का सपना
बचपन से ही दोनों हाथों से दिव्यांग होने की वजह से जगविंदर सिंह का जीवन चुनौतियों से भरा रहा. हालांकि, अपनी दिव्यांगता को उन्होंने कभी अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया. जगविंदर सिंह हर रोज सुबह अपने कमरे में लगे 15 मेडल वाले पोस्टर को देखकर उठते हैं और रोजाना घंटों साइकिलिंग करते हैं. उनका सपना एक दिन पैरा ओलंपिक में हिस्सा लेकर देश के लिए मेडल जीतना है.
साइकिलिस्ट ही नहीं… बेहतर आर्टिस्ट भी हैं
ये तो बात हुई जगविंदर की साइकिलिंग की. लेकिन उनकी कहानी का एक और चैप्टर भी है, जिसे जानकर आप दांतों तले ऊंगलियां दबाएंगे. जगविंदर एक बेहतरीन साइकिलिस्ट के अलावा बेहतर पेंटिंग आर्टिस्ट भी हैं. हाथ नहीं हैं तो मलाल नहीं. पैरों से ही चित्रों को जीवंत कर देते हैं. कहते हैं कि जब उनकी उम्र महज 6 साल की ही थी तब उन्होंने पिता को देखकर ड्राइंग सीखी थी. आज पेंटिंग में भी उन्हें नेशनल अवार्ड मिल चुका है.
नॉर्मल साइकिलिस्ट भी ऐसा नहीं कर पाते
साइकिलिंग उन्होंने हमेशा से एक इंटरनेशनल खिलाड़ी बनने के लिए की. 212 किलोमीटर की रेस उन्होंने मात्र 9 घंटे में पूरी की थी जबकि 48 सामान्य साइकिलिस्ट ने इसे 20 घंटे में पूरा किया था. इसके अलावा वे 300 किलोमीटर, 212 किलोमीटर और 208 किलोमीटर रेस में भी हिस्सा ले चुके हैं.
इतने अवार्ड… जगविंदर के नाम
स्टेट पैरा साइकिल चैंपियनशिप, पंजाब में गोल्ड मेडल, उड़ीसा में इंटरनेशनल साइक्लोथॉन प्रतियोगिता में 35 किलोमीटर की रेस में दूसरा स्थान, पंजाब की ब्रेवेट राइट 212 किलोमीटर रेस के विजेता, 305 किलोमीटर ब्रेवेट राइट टूर्नामेंट विजेता, उड़ीसा से दिल्ली तक 1800 किलोमीटर दूरी तय करने पर साइक्लोथॉन अवार्ड 2017, आल इंडिया टॉप 30 अवार्ड, अचीवर शान-ए-सिख विरासत अवार्ड, आल इंडिया टॉप 10 अवार्ड, 100 मीटर रेस में गोल्ड मेडल, पटियाला जिले में पेंटिंग कंपीटीशन में तीन बार गोल्ड मेडल प्राप्त, 2017 में स्टेट एथलीट अवार्ड, ये सारे अवार्ड और पुरस्कार जगविंदर के नाम है. जगविंदर तुस्सी ग्रेट हो.