जहां पैदल जाना भी मुश्किल, वहां चायवाले ने खोली लाइब्रेरी.. ऐसी है ‘शिक्षा क्रांति’ की कहानी

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केरल का इदुक्की जिले के जंगलों में बसा है एक कस्बा जिसका नाम है एडमलक्कुडी. साल 2010 इस कस्बे के लिए काफी ऐतिहासिक है. इस साल यहां दो ऐतिहासिक चीजें हुईं. पहला, एडमलक्कुडी केरल का पहला ऐसा कस्बा बना जहां आदिवासी ग्राम पंचायत का गठन हुआ और दूसरा, इस कस्बे के इरिप्पुकल्लु क्षेत्र के एक छोटी-सी चाय की दुकान पर एक पुस्तकालय की स्थापना की गई.

इस साल पहली बार जीप पहुंची

माइलस्टोन में आज कहानी चाय दुकान में लाइब्रेरी की स्थापना की. शायद यह दुनिया का एकमात्र पुस्तकालय है जो एक ऐसे वन क्षेत्र के बीचोंबीच है जहां सिर्फ पैदल ही पहुँचा जा सकता था. हालांकि, इस साल मार्च में पहली बार जीप से एडमलक्कुडी तक पहुँचना संभव हुआ है.

160 किताबों के साथ लाइब्रेरी की शुरुआत

कस्बे में लाइब्रेरी का खुलना ही किसी सपना जैसा है. 160 किताबों के साथ इसकी शुरुआत हुई. इसकी कहानी दो व्यक्तियों के समर्पण और योगदान के इर्द-गिर्द घूमती है. एक हैं चाय की दुकान के मालिक पीवी छिन्नाथमबी और दूसरे हैं शिक्षक पीके मुरलीधरन. मुरलीधरन मुथुवन जाति के लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं हैं. दो दशक पूर्व इन्होंने एडमलक्कुडी को अपना घर इसलिए बना लिया था, ताकि यहाँ बसे आदिवासियों को शिक्षित कर सकें.

ऐसे मिली पुस्तकालय खोलने की प्रेरणा

मलयालम में माश शिक्षक को कहते हैं. इसलिए यहां के लोग मुरली को मुरली माश बुलाते हैं. वे कहते हैं, “मेरे एक मित्र उन्नी प्रसन्त तिरुअनंतपुरम में आकाशवाणी और रेडियो एफएम में काम करते हैं. 2009-2010 के बीच हमसे मिलने वह एडमलक्कुडी आए. वह छिन्नथंबी की झोपड़ी में रुके थे और तभी हमने यहाँ शिक्षा कि स्थिति और पढ़ने की आदतों पर चर्चा की. उसी समय पहली बार पुस्तकालय बनाने का विचार आया.”

चाय दुकान में लाइब्रेरी खोलने की पेशकश

कुछ महीने बीते थे कि उन्नी अपने मित्र और केरल कौमुदी के उप संपादक बी आर सुमेश के साथ 160 किताबें लेकर यहां पहुंचे थे. हमने पुस्तालय खोलने के बारे में तो सोचा था लेकिन यहां कोई बिल्डिंग और जगह नहीं थी. तभी छिन्नथंबी ने आगे बढ़ कर अपनी चाय की दुकान में पुस्तकालय खोलने की पेशकश की.”

चाय पीने लोग आते.. किताबें भी पढ़ते

छिन्नथंबी की सोच सरल थी. मुरली माश बताते हैं, “लोग इनकी दुकान पर चाय और नाश्ते के लिए आते और या तो यहाँ किताब पढ़ते या कुछ समय के लिए पैसे दे कर किताबें ले जाते. जल्द ही हमारा पुस्तकालय लोकप्रिय हो गया और अधिक से अधिक लोग इस दुकान में न सिर्फ चाय पीने, बल्कि किताबें पढ़ने के लिए आने लगे.”

इस पुस्तकालय का नाम ‘अक्षर’ रखा गया. यहाँ एक रजिस्टर में पढ़ने के लिए दी गई पुस्तकों का रिकॉर्ड रखा जाने लगा. पुस्तकालय की सदस्यता एक बार 25 रुपए दे कर या मासिक 2 रुपए दे कर ली जा सकती थी.

सामान्य पत्रिकाओं को जगह नहीं

दिलचस्प बात यह थी कि यहाँ सामान्य पत्रिकाओं या लोकप्रिय उपन्यासों को जगह नहीं दी गई थी, बल्कि यहाँ सिलप्पठीकरम जैसी उत्कृष्ट राजनीतिक कृतियों के अनुवाद और मलयालम के प्रसिद्ध रचनाकारों जैसे वाईकोम मुहम्मद बशीर, एमटी वासुदेवन नायर, कमला दास, एम मुकुंदन, लालिथम्बिका अंठरजनम की कृतियाँ रखी गई थीं.

गुमनाम-सी जगह पर स्थित इस पुस्तकालय के बारे में दुनिया को तब पता चला, जब पी. साईनाथ के नेतृत्व में पत्रकारों के एक समूह ने एडमलक्कुडी का दौरा किया.

लोग जुड़ते गए.. कारवां बनता गया

ये बताते हैं, “उनके लिए ‘कातिल ओरु’ पुस्तकालय या ‘एक जंगल में बसा पुस्तकालय’ एक ऐसी चीज़ थी, जिसके बारे में इन्होंने कभी सुना नहीं था और ये इस पुस्तकालय के विस्तार के लिए छिन्नथंबी की मदद करना चाहते थे. फिर सोशल मीडिया पर अभियान चलाया गया. जिसके बाद कई संपादक और साहित्यकार आगे आए और सबने इस दिशा में छिन्नथंबी की खूब मदद की. धीरे-धीरे पुस्तकों को रखने के लिए अलमारी की व्यवस्था हुई और पुस्तकों की संख्या भी बढ़ती गई.

इसके पहले छिन्नथंबी इन किताबों को जूट के बोरे में रखते थे, जिसका इस्तेमाल सामान्यत: चावल या नारियल रखने के लिए किया जाता है. हालांकि, सारी पुस्तकों को अलमारी में भी रखना संभव नहीं था. इसलिए इन्हें अलग-अलग बक्से में रखा जाने लगा.

2017 में लाइब्रेरी स्थानांतरित हुई

छिन्नथंबी की सेहत अब खराब रहने लगी है. लाइब्रेरी को संरक्षित करने का वादा भी पंचायत नहीं निभा पा रहा है, जिससे वे काफी दुखी हैं. मुरलीमाश बताते हैं कि किताबों की देखबाल करना छिन्नथंबी के लिए मुश्किल हो रहा था, जिसके चलते 2017 में लाइब्रेरी को स्कूल में स्थानांतरित किया गया, लेकिन नाम अक्षर ही बरकरार रखा गया. मुरली माश आगे बताते हैं कि पुस्तकालय को बनाए रखने और इतने सालों तक चलाते रहने में स्थानीय समुदाय के लोगों का बहुत बड़ा योगदान है.

छिन्नथंबी को अब भी मदद की दरकार

एडमलक्कुडी जैसे दूरस्थ कस्बे में रहने वालों के लिए यह बाकी दुनिया से जुड़ने का साधन तो बन ही रहा है और इसका श्रेय छिन्नथंबी और मुरली माश जैसे लोगों को जाता है. छिन्नथंबी को अब भी शिक्षा सुधार और लाइब्रेरी चलाने में मदद की दरकार है. संपर्क सूत्र 8547411084 पर बात कर इनकी मदद की जा सकती है.

जानकारी स्रोतः द बेटर इंडिया

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