तालियां तो हर कोई बजाता है. भजन में, तारीफ में, नाद में, विनोद में, हास्य पर, व्यंग्य पर आदि-आदि. लेकिन इस समाज में ताली बजाने की अलग ही परिभाषा चलती आ रही है. वो है थर्ड जेंडर के ताली बजाने की. इस ताली में जितना मनोरंजन शायद आपको सूझता है, उससे कहीं ज्यादा दुख, दर्द बजाने वाले की जिंदगी में छिपी होती है. इसी ताली की नई परिभाषा गढ़ दी हैं बिहार के बांका जिले की रहने वाली ट्रांसवुमेन मानवी मधु कश्यप ने. जिंदगी जिंदाबाद में आप पढ़ रहे हैं कहानी.. पीड़ा, प्रताड़ना के कारण गांव तक छोड़ देने वाली मानवी की, जिन्होंने देश की पहली ट्रांसवुमेन दारोगा बनकर माइलस्टोन बनाया. अब देश उन्हें बधाई देने के लिए तालियां पीट रहा है.
प्रताड़ना के कारण छोड़ना पड़ा गांव
मानवी मधु कश्यप कहती हैं, ‘अपने गांव में जब मैं चलती थी तो लोग पीछे से ताली बजाते थे, तरह-तरह के कमेंट पास करते थे. कहते थे, तुम ऐसे चलते हो, ऐसे करते हो, तुम्हारे अंदर ये परेशानी है, वो परेशानी है. हमारी कम्युनिटी को लोग इसी निगाह से देखते हैं कि ये दूसरों की खुशी में ताली बजाने वाले लोग हैं. और इन्हीं लोगों की वजह से 2014 में मुझे अपना गांव, अपना परिवार छोड़ना पड़ा…मगर मैंने तय कर लिया कि एक दिन मैं ऐसी सफलता हासिल करूंगी कि इन्हें मेरे लिए ताली बजानी होगी. आज वो दिन आ गया है.”
‘हां.. मैं ट्रांसवुमेन हूं.’
मानवी उन तीन ट्रांसजेंडर लोगों में से एक हैं, जिन्होंने हाल ही में बिहार में घोषित दारोगा परीक्षा में सफलता हासिल की है. बहरहाल, इन तीन लोगों में मानवी इसलिए खास हैं, क्योंकि उन्होंने मीडिया के सामने आकर पूरे आत्मविश्वास से स्वीकार किया कि वे एक ट्रांसवुमन हैं.
अपने मुश्किल के दिनों को याद करते हुए मानवी कहती हैं, “दारोगा की तैयारी करने के लिए मैं पटना में हॉस्टल खोज रही थी. जब मैं कमरे के लिए असली पहचान बताती तो लोग मुझे रूम देने से साफ मना कर देते. रहना तो दूर ज्यादातर कोचिंग वाले भी मुझे अपनी कोचिंग में पढ़ाने के लिए तैयार नहीं थे. फिर पहचान छिपाकर 46 लड़कियों वाले हॉस्टल में आसरा लिया और पढ़ाई शुरू की. हॉस्टल की लड़कियां भी इस बात से अनजान थीं कि मैं एक ट्रांसवुमेन हूं. आज जब रिजल्ट हुआ है तो उनमें ज्यादातर मुझे बधाई भेज रही हैं.”
‘ताकि अब ताली न पीटना पड़े..’
मानवी इस सफलता के लिए पटना के कोचिंग संचालक गुरु रहमान का विशेष आभार व्यक्त करती हैं, जिन्होंने सफलता का रास्ता दिखाया. वह कहती हैं, दरअसल जब से यह दुनिया बनी है, हम ट्रांसजेंडर अपनी असली पहचान के लिए ही संघर्ष और पलायन करते रहे हैं. हमारी कम्युनिटी के लोगों को अपमान ही मिलता है. ऐसे में सुरक्षा के चक्कर में ज्यादातर ट्रांसजेंडर पढ़ाई-लिखाई छोड़कर अपने परंपरागत पेशे को अपना लेते हैं. मगर अब लगता है कि माहौल बदलेगा. ट्रांसजेंडर लोग भी पढ़ाई पर फोकस करेंगे और अपने आप को समाज में स्थापित करेंगे.