अद्भुत कला ‘टैक्सीडर्मी’.. जो मरे हुए में जान फूंक देती है, पढ़ें ऐसा करने वाले डॉक्टर की रोचक कहानी

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किसी शेर की उम्र 18 साल होती है. माने उस शेर को आप जिंदा 18 सालों तक देख सकते हैं. लेकिन अगर हम कहें कि वही शेर मर जाने के बाद 100 सालों तक जीवित रहेगा तो आप थोड़ा हैरान होंगे. मगर विज्ञान को समझते होंगे तो आप हैरान नहीं होंगे. किसी भी जानवर या पक्षी को उसी के स्कीन में ‘टैक्सीडर्मी’ के माध्यम से 80 से 100 सालों तक संरक्षित रखा जा सकता है. इससे वे बिल्कुल जिंदा ही नजर आते हैं. विलुप्त हो रही प्रजातियों को इस प्रकार संरक्षित करने में जुड़े हैं इंडिया के प्रसिद्ध टैक्सीडर्मिस्ट डॉ. संतोष गायकवाड़.

मरे हुए में जान फूंकने की कला है टैक्सीडर्मी!
माइलस्टोन में आज आप कहानी पढ़ रहे हैं देश के इकलौते टैक्सीडर्मिस्ट डॉ. संतोष गायकवाड़ की जो मरे हुए जीवों की दुनिया में जिंदगी जी रहे हैं. दरअसल, डॉ . गायकवाड़ को हमेशा से ही जानवरों से प्यार रहा. यही वजह है कि उन्होंने अपने जीवन में बहुत कम उम्र में ही पशु चिकित्सक बनने का फैसला किया. जानवरों की मदद करने के उनके जुनून ने उन्हें पशु चिकित्सक और बॉम्बे वेटरनरी कॉलेज में एनाटॉमी के प्रोफेसर बनने के लिए प्रेरित किया.

ऐसे मिली प्रेरणा

वर्ष 2003 में डॉ. गायकवाड़ छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय गए, जिसे उस समय प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय के नाम से जाना जाता था. वहां प्राकृतिक इतिहास अनुभाग में वे स्तनधारी जीवों और पक्षियों के नमूनों की जीवंत गुणवत्ता से मोहित हो गए.

भरवां जानवर वाकई सजीव

डॉ. गायकवाड़ आश्चर्यचकित और बहुत उत्सुक थे, उन्होंने स्वयं संरक्षण की तकनीक सीखने का दृढ़ निश्चय किया. टैक्सीडर्मी के बारे में बात करते हुए डॉ. गायकवाड़ कहते हैं, “मुझे नहीं पता था कि भरवां जानवरों के लिए सही शब्द टैक्सीडर्मी है. वे इतने सजीव थे कि मैं वाकई हैरान रह गया.”

इतने असली कि देखकर डर जाएं लोग

डॉ. गायकवाड़ ने फिर एक मिशन शुरू किया- इस भूली हुई कला को सीखना और खुद इसका अभ्यास करना. एनाटॉमी के सहायक प्रोफेसर होने के नाते, टैक्सिडर्मिस्ट बनने की उनकी रुचि एक पशु चिकित्सक के रूप में उनके कौशल से जुड़ी हुई थी. संग्रहालय की अपनी यात्रा को याद करते हुए डॉ. गायकवाड़ कहते हैं, “वे इतने असली लगते थे कि अगर उन्हें बगीचे में रखा जाए, तो लोग उन्हें देखकर डर जाएँगे.”

कई तरह की परेशानियां उठानी पड़ी

डॉ. गायकवाड़ को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के कारण भी बाधाओं का सामना करना पड़ा, जो किसी टैक्सीडर्मिस्ट को लुप्तप्राय प्रजातियों पर काम करने की अनुमति नहीं देता है. तस्करी के डर से, मृत जंगली जानवरों के शवों को बस जला दिया जाता है. यदि लुप्तप्राय प्रजातियों की सूची में से किसी मृत जानवर को टैक्सीडर्मिस्ट द्वारा ले जाना है, तो मुख्य वन्यजीव वार्डन की अनुमति लेनी होगी.

मृत पक्षियों से की शुरुआत

डॉ. गायकवाड़ ने सबसे पहले पक्षियों से शुरुआत की. डॉ. गायकवाड़ कहते हैं, “मेरे बैग में मरे हुए पक्षी थे. मैं ऑपरेशन के लिए खाने की मेज़ का इस्तेमाल करता था, क्योंकि पक्षी ज़्यादा जगह नहीं लेते.” शुरुआत में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ा. जानवरों की खाल उतारने की उनकी तकनीक में सुधार की ज़रूरत थी। अभ्यास के ज़रिए शुरुआती निराशा पर काबू पाकर, डॉ. गायकवाड़ ने जल्द ही अपनी कुशलता में वृद्धि देखी.

यूं मिलती गई सफलता

कुछ समय बाद ही डॉ. गायकवाड़ ने वन्य जीवों को संरक्षित करने के विचार के साथ वन विभाग से संपर्क किया. 2006-2007 के आसपास वन विभाग ने टैक्सीडर्मिस्ट को केस-बाय-केस लाइसेंस दिया. 1 अक्टूबर 2009 को महाराष्ट्र वन विभाग ने मुंबई के संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान में वन्यजीव टैक्सीडर्मी केंद्र की शुरुआत की. यह भारत में अपनी तरह का एकमात्र ऐसा संस्थान है.

पालतू जानवरों को लेकर बढ़ा क्रेज

अब तक, डॉ. गायकवाड़ के लिए टैक्सीडर्मी केवल जंगली जानवरों तक ही सीमित थी. हालाँकि, इसकी लोकप्रियता उन पालतू जानवरों के मालिकों के बीच बढ़ गई है, जो अपने पालतू जानवरों को आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखना चाहते हैं. ये लोग डॉ. गायकवाड़ से संपर्क करते हैं, जो उनके प्यारे पालतू जानवरों से टैक्सीडर्मी मॉडल बनाकर उनकी मदद करते हैं.

टैक्सीडर्मी को समझा रहे हैं डॉ गायकवाड़

डॉ. गायकवाड़ टैक्सीडर्मी को पांच भागों में शरीर रचना विज्ञान, चित्रकारी, मूर्तिकला, बढ़ईगीरी, मोची में विभाजित किया है. इस विज्ञान के बारे में बात करें तो सबसे पहले मृत जानवर की खाल उतारी जाती है, जिसके बाद त्वचा को फाइबर और पेपर माचे से भर दिया जाता है. फिर जानवर को उसके मूल स्वरूप में वापस लाया जाता है. एकदम हूबहू प्रतिकृति.

2003 में पहली बार बनाए गए कुछ भरवां पक्षियों के निर्माण के बाद से, भारत के अंतिम टैक्सीडर्मिस्ट ने एक लंबा सफर तय किया है, और अब तक 500 से अधिक पक्षियों, सैकड़ों मछलियों, सरीसृपों और एक दर्जन से अधिक बड़ी बिल्लियों के साथ काम कर चुके हैं.

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