माता -पिता ने हमें यह अनमोल जीवन दिया। चलना जीना सिखाया। अपनी खुशियों को न्योछावर कर हमारे होंठों पर मुस्कान भरी। एक सुपर मैन की तरह हमारे आस -पास कवच बन खड़े रहे। हमारी हर खुशी में खुश हुए, गम से निकलने की हिम्मत दी। क्यों न माता-पिता की , बातों, और यादों को एक पिरोकर एक किस्से का रूप दिया जाए? और इस खुबसूरत से किस्से से दुनिया को रूबरू कराया जाए। यकीं मानिए अगर आपके पिताजी/ माताजी जीवित है तो उन्हें यह पढ़कर अच्छा लगेगा और अगर दिवंगत है तो यह उन्हें एक श्रद्धांजलि होगी। thebig post.com प्रारंभ कर रहा है “बागवान’ सीरीज जिसमें हमारी जिंदगी की बगिया को गुलजार करने वाले ‘बागवान ‘(पिता/माता) की खुबसूरत कहानियां होंगी। तो आप भी शेयर करें अपनी जिंदगी के ‘बागवान ‘ से जुडा दिल का किस्सा हमारे साथ। व्हाट्सएप नंबर 7488413830 पर ।
बागवान ‘ की पहली कड़ी में प्रस्तुत कर रहे हैं प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु और ज्योतिष डॉ श्रीपति त्रिपाठी जी अपने पिताजी को लिखी अनमोल यादों की पाती पढ़िए और महसूस कीजिए मन के भाव ।
बस आप नहीं आते बाबूजी
बहुत कुछ बताना है… बहुत कुछ सुनाना है… बहुत कुछ दिखाना भी है बाबूजी… आपको…सोचता हूं कि आपको खत लिखूं पर पता भी तो नहीं मालूम..। मुझे लगता है कि हर पहर , हर क्षण में आप मुझसे बतिया रहे हैं। मुझे सलाह दे रहे हैं, मुझे डांट रहे हैं… मुझे दुलार रहे हैं, मुझे महफूज कर रहे हैं..आपके होने का एहसास मेरी रगों में हर पहर बसा रहता है , कभी ये एहसास बादल बन आंखों में उमड़ते घुमड़ते है और बूंदें बरसती आंखों के भींगे कोर से, मैं आपकी शीतलता महसूस कर लेता हूं। आपकी हर यादें बिखरी हुई है इस घर में बाबूजी, बस आप दूर चले गए हैं। देखिए न दीवार की खूंटी पर अब भी रूद्राक्ष की वह माला वैसी ही पड़ी है जैसी आप छोड़ गए थे। आपकी किताबें, गीता, सुन्दर कांड, दुर्गा सप्तशती सब वैसे के वैसे ही रखें है पूजा घर में। वो सिरहाने लोटा भी है, बाबूजी..जिसे आप खुब पसंद करते थे। आपके सेवक भी आते हैं , दालान पर आपकी चर्चा भी होती है.. आपके किस्से.. बस आप नहीं आते है बाबूजी। वो मंदिर का घंटा जिसे आपने लगवाया था आज भी बजा करता है टन-टन टन। देखिए न आपका बेटा आज बड़ा हो गया है। आपके बताएं रस्ते पर चलने की कोशिश में जुटा है। लगता है बाबूजी थोड़ी गड़बड़ चाल हुई की आप डांट पडोगे मुझे। माताजी भी आपको बहुत याद करती हैं। बहुरानी भी। लगता है सुबह से शाम तक आप सदेह न होकर भी हमारे साथ होते हैं । तब भी जब बहु आपके पसंद की सब्जी बनाती है और तब भी जब मैं आपकी लाई हुई थाल में पूजा का प्रसाद चढ़ाता हूं। जब मैं देर रात लौटता हूं तो लगता है आप अभी दरबाजे पर सदेह आकर बोल पड़ेंगे एतना रातें लौटला ठीक नई खे’ और मैं कोई बहना बना कर जल्द आने की बात दुहराऊंगा।
अभी तो थाम ही रखी थी अंगूली आपकी।
बाबूजी मृत्यु एक शाश्वत सत्य है पर पता है मैंने कभी सोचा नहीं था कि आप चले जाएंगे मुझे अकेला छोड़ कर! अभी तो थाम ही रखी थी अंगूली आपकी और आप मेरी अंगुली छुड़ाकर अनंत यात्रा पर निकल गए। क्यों नहीं कि मेरी फिकर.. क्या आपको क्षण भर भी मेरा ख्याल न आया… इतनी जल्दी क्या थी। क्या हम सभी आपका ख्याल नहीं रख पा रहे थे.. कहां कमी रह गई थी बाबूजी… कहां कमी रह गई थी…! आपने जो जो रास्ते बताएं, जो जो मार्ग दिखाया उसी पर चलने की कोशिश में जुटा हूं। पता है मोतिहारी से लेकर पटना तक कितने लोग आज भी उसी आदर के साथ आपकी चर्चा करते हैं। वहीं सम्मान देते हैं। इतने ही साल में लगता है कि कितना वक्त बीत गया बाबूजी। जमाना भी बदल रहा है और लोग भी। गांव भी, शहर भी। आपका वह संस्कृत महाविद्यालय भी काफी बदल गया है जिसमें आप प्रधानाचार्य हुआ करते थे। गांव की सड़कें भी बदल गई है। यहां पटना भी बदल रहा है।
इंसान बना रहूं, बस यही आशीष चाहिए बाबूजी
गंगा किनारे मरीन ड्राइव बन गया बाबूजी। शहर में कई फ्लाइ ओवर बन रहे। डबल डेकर रोड बन रहे, मैट्रो बन रहा। इस बदलाव के बीच आदमी भी बदल रहा है.. बाबूजी। पर आप मुझे आशीर्वाद दें कि मैं बदलाव के इस दौड़ में इंसान बन इंसानियत की लौ जलाता रहूं.. कुछ बनूं न बनूं एक इंसान बना रहूं। बस यही आशीष चाहिए बाबूजी। बस यही आशीष….।