होंठों पर मुस्कान.. आंखों में सतरंगी सपनों की बसावट और दिल में लव यूं जिंदगी की जिद लिए धड़कती जिंदादिली.. बात बस यही तक नहीं है इनके चेहरे पर फैला बालपन सा उत्साह यह देखकर आप समझ नहीं पाएंगे कि आखिर मौत का दूसरा नाम कहीं जाने वाले खतरनाक कैंसर के फोर्थ स्टेज से दो -दो हाथ कर ये जिंदगी का उत्सव सजा रहे हैं। कैंसर से लड़ रहे लोगों में हौसला बांटते वरिष्ठ पत्रकार रवि प्रकाश की यह कहानी आपको जरूर पढनी- और गुननी चाहिए .
मैं 46 साल का हूँ लेकिन अगले 46 दिनों की योजनाएँ नहीं बना सकता। क्योंकि, मुझे अंतिम स्टेज का लंग कैंसर है। मैं स्मोकर भी नहीं था। ज़ाहिर है कि मैंने अपने कैंसर के लिए वजहें नहीं बनायी। फिर भी मुझे फेफड़ों का कैंसर हुआ। कहते हैं रवि प्रकाश। रवि जाने माने पत्रकार हैं और फिलहाल बीबीसी से जुड़े हैं। रांची में रहते हैं। लास्ट स्टेज के कैंसर से लड़ते – जुझते हुए भी रवि मायूस नहीं । वे पूरी शिद्दत से खुद की जिंदगी जी रहे हैं और दूसरे कैंसर मरीजों में भी जिंदादिली से जीवन जीने का उत्साह भर रहे हैं। रवि कहते हैं कि कैंसर क्योरेबल है। ठीक हो जाता है। एडवांस स्टेज में अगर ठीक नहीं भी हो, तो प्रबंधन करते हुए इसके साथ रहा जा सकता है। मैं लंग कैंसर के अंतिम स्टेज का मरीज़ हूँ। लाइव हूँ, अलाइव हूँ, एक्टिव हूँ। ज़िंदगी और कैसे चलती है दोस्त? जागरूक रहिए। जागरूक कीजिए।’
और फिर कैंसर से दोस्ती हो गई
रविप्रकाश बताते हैं कि कैंसर के साथ पिछले पौने 2 साल की ज़िंदगी में कई चीजें बदलीं। कैंसर की आमद एक बड़ी ख़ुशी के चंद महीने बाद हुई थी। या यूँ समझें कि वो तब भी मेरे शरीर में आ गया होगा, जिसका हमें पता नहीं चला। हालाँकि, इसके आने के बाद हमने हिम्मत हारने की जगह नयी संभावनाओं की तलाश शुरू की। बाक़ी ज़िम्मेदारी अपने डॉक्टर्स और ईश्वर पर छोड़ दी। अब ऊपर वाले भगवान के आशीर्वाद के साथ धरती के भगवान मेरे डॉक्टर्स की मेहनत, ज्ञान और स्नेह की बदौलत हमारी ज़िंदगी ठीक चल रही है।
कैंसर मरीजों में भर रहे उत्साह
रविप्रकाश कैंसर के मरीजों के बीच जिंदगी का उत्साह भर रहे हैं। अंतिम स्टेज कैंसर से पीड़ित होने के बाद उन्होंने मायूस होने की जगह कैंसर पीड़ित मरीजों के मन में बैठे भय को निकालने का संकल्प लिया। वे कैंसर पीड़ित मरीजों को हौसला देने के लिए अब तक दर्जनों सेमिनार का हिस्सा बन चुके हैं। इसके साथ ही अपने मोटिवेशनल आलेख और वीडियो के जरिए ये कैंसर पीड़ित मरीजों को जीवन का हौसला दे रहे हैं।
इनसे मिली प्रेरणा
रवि बताते हैं कि मैंने कई ऐसे लोगों की कहानियाँ पढ़ी है, जिन्होंने कैंसर के अंतिम स्टेज में भी शानदार तरीक़े से अपनी ज़िंदगी जी। ऐसे कुछ लोग कैंसर से पूरी तरह मुक्त भी हुए और आज बिल्कुल सामान्य हैं। मनीषा कोईराला, युवराज सिंह, लांस आर्मस्ट्रांग, लीजा रे आदि इसके उदाहरण हैं। मैंने इन चारों की किताबें पढ़ी है। वे आगे कहते हैं कैंसर हो जाना क़तई ठीक बात नहीं। फिर भी अगर कैंसर हो जाए, तो क्या करें। क्या रोना, पछताना, खुद को कोसना…इसका उपाय है। जवाब है- नहीं। कैंसर हो जाने के बाद उसका प्रबंधन ही एकमात्र उपाय है, जिससे हम अपनी और अपने परिवार के सदस्यों की ज़िंदगी ठीक रख सकते हैं।
हर हाल में खुबसूरत है जिंदगी
रवि विभिन्न मंचों से खुद के बारे में लोगों को बताते हुए यह कहते हैं कि मैं लंग कैंसर के अंतिम स्टेज का मरीज़ हूँ और कैंसर के साथ रहना ही अब मेरी पहचान है। तो, अब जब कैंसर के साथ ही रहना है, तो मेरे पास क्या विकल्प हैं। या तो मैं रोकर अपनी और अपने शुभेच्छुओं-परिजनों की ज़िंदगी ख़राब करूँ, या फिर कैंसर का इलाज कराते हुए अपनी बाक़ी बची ज़िंदगी को और खूबसूरत बनाऊँ। इतनी ख़ूबसूरत, कि कल इसकी कहानियाँ सुनायी जा सकें। मैंने अपने लिए दूसरा विकल्प चुना है। क्योंकि, रोना इसका समाधान नहीं है। ईश्वर न करें कि कोई कैंसर से पीड़ित हो लेकिन अगर कैंसर हो जाए, तो इससे घबराकर ज़िंदगी से भागने की ज़रूरत नहीं। महीनों से कैंसर के साथ रहते हुए मैंने यही सीखा है।
चौथा स्टेज को इसलिए कहते हैं एडवांस
रविप्रकाश बताते हैं कि ्जनवरी 2021 में जब मुझे कैंसर का पता चला, तो कुछ ही दिनों पहले मैंने अपना 45 वाँ जन्मदिन मनाया था. हल्की खाँसी और बुख़ार था।डॉक्टर के पास गए तो शुरुआती कुछ जाँचों के बाद पता चला कि मुझे फेफड़ों का कैंसर (लंग कैंसर) है. सीटी स्कैन की काली फ़िल्मों पर सिल्वर की चमक लिए आकृतियाँ थीं।
चौथा स्टेज अंतिम या एडवांस इसलिए कहा जाता है कि क्योंकि तब डॉक्टर मरीज़ का पैलियेटिव केयर ट्रीटमेंट करते हैं।
मतलब, ऐसा इलाज जिसमें बीमारी ठीक नहीं होगी लेकिन मरीज़ को उस कारण होने वाले कष्ट कम से कम हों और उसकी ज़िंदगी ज़्यादा से ज़्यादा दिनों, महीनों या साल तक बढ़ायी जा सके।
परिवार का मिला समर्थन
कैंसर के बीच इस जिंदादिली का श्रेय रवि प्रकाश अपने परिवार को देते हैं। वे कहते हैं कि अपनी पत्नी संगीता, बेटे प्रतीक और तमाम दोस्तों का भी शुक्रगुज़ार हूँ. वे या तो मेरे इस रास्ते के हमसफ़र हैं या फिर मैं इस रास्ते पर चलता रहूँ, इसका सपोर्ट सिस्टम बने हुए हैं.।
थैरेपी के बीच गोवा की मस्ती
रवि बताते हैं कि मुंबई में इलाज के दौरान सीटी स्कैन और मेरी ओपीडी के बीच चार रातों और पाँच तारीख़ों का इंटरवल था. मैंने ये तारीख़ें कैंसर की चिंताओं से दूर गोवा में बिताने की सोची। हमने अपनी चार रातें गोवा में मस्ती करते हुए गुज़ारीं. सिर्फ़ इतना याद रखा कि दवाइयाँ समय पर खानी है। इसके अलावा मेरा कैंसर कहीं नहीं था।हमने खंडहरों में समय बिताया ।चर्च और मंदिरों भी गए।इतना ही नहीं
गोवा के तमाम बीचों की सैर की। समंदर में नहाया और डिस्को भी गए। वे कहते हैं कि मेरे बदन पर उभरे घाव में दर्द था पर मैं लेकिन मैं इस दर्द को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहता था।
दवाओं की कीमत कम करें सरकार
रविप्रकाश कहते हैं कि कैंसर का इलाज इतना महँगा है कि बेहतर विकल्प होने के बावजूद मुझ जैसे मरीज़ सेकेंड या थर्ड ऑप्शन चुनने पर विवश हैं। सरकार को इसपर सोचना चाहिए। पारासिटामोल और मार्फिन की क़ीमत कम कर आप दवाइयों की क़ीमतों पर नियंत्रण के झूठे दावे कैसे कर सकते हैं। टारगेटेड थेरेपी और इम्यूनोथेरेपी की दवाओं की क़ीमत नियंत्रित कीजिए। तब शायद बात बने। जब किसी मरीज़ को यह कहा जाता है कि उसके कैंसर की दवा तो है लेकिन उसकी मासिक क़ीमत 5 लाख रुपये है। क्या भारत जैसी अर्थव्यवस्था में हम हर महीने 5 लाख की दवा अफोर्ड कर सकते हैं?
रविप्रकाश रविप्रकाश कैंसर के साथ मुस्कुरा कर जीते हुए दुसरे लोगों के बीच भी इसे लेकर नया नजरिया दे रहे हैं ताकि कैंसर पीड़ित होने के बाद की जिंदगी गमजदा होकर नहीं ठहाके लगाते हुए मस्ती के साथ गुजारी जाए।